सुरेश वाडकर

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Sunday, April 5, 2015

बिहार सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण : कहीं खुशी कहीं गम

बिहार सरकार का आर्थिक सर्वेक्षण : कहीं खुशी कहीं गम


आर्थिक गतिविधियों के इन प्राइमरी-सेकेंडरी सेक्टरों के बाद तीसरी श्रेणी सेवा क्षेत्र की है, जो राज्य में खूब फल-फूल रहा है. होटल-रेस्तरां, मोबाइल, सूचना तकनीक और वाहनों का व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है. पिछले आठ-नौ वर्षों से राज्य के जीडीपी में इस क्षेत्र का सबसे अधिक योगदान रहा है. 2013-14 में भी यही हुआ. आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि राज्य में बिजली की उपलब्धता बढ़ रही है. अब मांग और उपलब्धता के बीच अंतर बहुत बड़ा नहीं रहा, लेकिन यह खुशी उधार की है.
kisaaanयह कहना तो सही नहीं है कि बिहार में विकास की गाड़ी बेपटरी हो गई है, पर उसकी गति ज़रूर धीमी हो गई है. राज्य में पिछले सवा नौ वर्षों से उनका (नीतीश) राज-पाट है. अपने शासनकाल में उन्होंने राज्य से जुड़े कुछ राजनीतिक मिथ तोड़े, जिनमें पिछड़ापन भी एक रहा. बीते कुछ दशकों की आर्थिक जड़ता के कारण यह मान लिया गया था कि इस पिछड़े राज्य में विकास की गाड़ी नहीं चलाई जा सकती. निराशा की अंधेरी सुरंग में फंसे इस राज्य के हालात उन्होंने सुधारे, क़ानून का राज कायम किया और यहां आम तौर पर सत्ता के इकबाल का एहसास हुआ. लोगों में जान-माल सुरक्षित होने की उम्मीद जगी और उन्हें सुशासन बाबू कहा जाने लगा. इसके साथ ही विकास के मोर्चे पर फीलगुड का माहौल बना, विकास की गाड़ी पटरी पर आई और राज्य में पूंजी निवेश के नए-नए प्रस्ताव आने लगे. बिहारी समाज में आर्थिक समृद्धि के मोर्चे पर नए क्षितिज छूने की उम्मीद जगी. इस नई उम्मीद ने नीतीश कुमार को विकास पुरुष का खिताब दिया. अब दसवें वर्ष में यह खिताब ख़तरे में फंसा दिखता है. हालांकि, जद (यू) के नीतीश भक्त राजनेता और नौकरशाह इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं.
नीतीश सरकार ने अपने नौवें आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट बीते दिनों विधान मंडल के दोनों सदनों में पेश की. वित्तीय वर्ष 2014-15 की इस रिपोर्ट में मूलत: वित्तीय वर्ष 2013-14 का ब्यौरा ही पेश किया गया. इस रिपोर्ट में नीतीश राज से जुड़े अनेक मिथ तार-तार हुए हैं. यह रिपोर्ट न स़िर्फ बहुत सारी बातें साफ़ करती है, बल्कि स्पष्ट संकेत देती है कि विकास के मोर्चे पर राज्य सरकार अब पिछड़ने लगी है. राज्य की विकास दर तो नीचे चली ही गई, कृषि जैसी आर्थिक गतिविधि के मोर्चे पर भी स्थिति नकारात्मक रही. नीतीश कुमार ने सत्ता संभालते ही विकास दर को नई ऊंचाई दी और उनके कार्यकाल में सदैव यह दहाई में रही. वित्तीय वर्ष 2006- 07 में विकास दर 16.18 प्रतिशत तक पहुंच गई थी. इन नौ वर्षों में एक ऐसा भी दौर रहा, जब बिहार की विकास दर अनेक उन्नत राज्यों से बहुत अधिक रही और यह पिछड़ा राज्य सबसे उन्नतशील माना गया. किसी उल्लेखनीय पूंजी निवेश के बगैर केवल कठोर राजनीतिक इच्छाशक्ति की बदौलत विकास की नई ऊंचाइयां छूने के मोर्चे पर बिहार देश में उदाहरण माना जाने लगा, लेकिन यह तमगा ठिकाऊ नहीं रहा. राज्य की विकास दर अस्थिर बनी रही और इसमें घट-बढ़ होती रही. बावजूद इसके किसी भी साल यह दहाई से नीचे नहीं आई. वित्तीय वर्ष 2011-12 में विकास दर 10.24 प्रतिशत पर आ गई. सबसे ताज़ा आंकड़ा 2013-14 का है, जिसमें राज्य की विकास दर दहाई से नीचे यानी 9.92 प्रतिशत रह गई है. राज्य सरकार विकास दर में इस गिरावट के लिए सूखा और बाढ़ को ज़िम्मेदार बता रही है. हालांकि, पिछले कई वर्षों से राज्य में प्रकृति-चक्र ऐसा नहीं रहा कि विकास दर नीचे लुढ़का दे. लेकिन, राज्य सरकार प्रकृति के सिर ठीकरा फोड़कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है.
सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होने की लाख कोशिश करे, विकास दर में गिरावट के कारण सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण में बिखरे पड़े हैं. नीतीश सरकार ने राज्य को दूसरी हरित क्रांति का केंद्र बनाने का दावा पूरे ताम-झाम के साथ किया था. इसके लिए सारी व्यवस्थाएं की गईं. कृषि विकास के लिए दस वर्षीय कृषि रोडमैप तैयार किया गया, जिसे पांच-पांच साल के दो चरणों में पूरा होना था. इसके लिए कुछ
विशेषज्ञों की तैनाती भी हुई और कृषि कैबिनेट का गठन किया गया. लेकिन हुआ क्या? राज्य के ताज़ा आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, यहां कृषि का विकास नकारात्मक रहा है. राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका योगदान घट गया है. पहले जीडीपी में कृषि का योगदान 27 प्रतिशत था, जो अब 22 प्रतिशत रह गया है. कृषि के उत्पादन में भी लगभग 12 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है, जबकि वित्तीय वर्ष 2012-13 में 9.23 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई थी. पशुपालन एवं मत्स्य पालन जैसे प्राथमिक क्षेत्रों में भी गिरावट रही. हालांकि, राज्य के जीडीपी में औद्योगिक क्षेत्र का योगदान बढ़ा है, नाममात्र का ही सही. जीडीपी में औद्योगिक क्षेत्र का योगदान 18.1 प्रतिशत से बढ़कर 18.4 प्रतिशत हो गया है. राज्य सरकार इसे लेकर अपनी पीठ खुद थपथपा सकती है, लेकिन आर्थिक विकास में रुचि रखने वाले और इसकी प्रकृति के जानकार औद्योगिक क्षेत्र की इस गति से संतुष्ट तो कतई नहीं हो सकते. राज्य में स्वीकृत औद्योगिक इकाइयों के प्रस्तावों के ज़मीन पर उतरने की गति कोई उम्मीद नहीं जगाती.
सर्वेक्षण के अनुसार, 1,891 स्वीकृत निवेश प्रस्तावों में से केवल 272 ज़मीन पर हैं. इनमें भी अधिकांश खाद्य प्रसंस्करण कार्य से जुड़े हैं और लघु एवं घरेलू उद्योग के दायरे में आते हैं. रिपोर्ट से यह भी साफ़ होता है कि राज्य के विकास में विनिर्माण क्षेत्र की भूमिका कतई
महत्वपूर्ण नहीं रही और यह कल्पनाशील प्रोत्साहन एवं तैयारी की अपेक्षा रखता है. यह जानना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि राज्य सरकार ने ढाई लाख करोड़ रुपये से अधिक के निवेश प्रस्ताव अव्यवहारिक मानकर निरस्त कर दिए हैं. यह एवं ऐसे अन्य कार्य राज्य के औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया और गति को स्पष्ट करते हैं. बिहार में पर्यटन को उद्योग का दर्जा हासिल है, पर पर्यटन के नाम पर केवल यात्रियों के बिहार आने तक के आंकड़ों पर ही सरकार ज़्यादा भरोसा करती है. बिहार आने वाले लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है. लेकिन वे कौन लोग हैं? वस्तुत: बिहार आने वाले अधिकांश पर्यटक बौद्ध और जैन तीर्थयात्री होते हैं, क्योंकि उनके बड़े तीर्थस्थल इस राज्य में है. वनों एवं वन्यजीवों से जुड़े पर्यटन को विकसित करने की किसी कोशिश की जानकारी यह सर्वेक्षण रिपोर्ट नहीं देती है. पर्यटकों को आवास एवं परिवहन आदि सुविधाएं देने के लिए क्या किया गया है अथवा किया जा रहा है, यह इस सर्वेक्षण से पता नहीं चलता.
आर्थिक गतिविधियों के इन प्राइमरी-सेकेंडरी सेक्टरों के बाद तीसरी श्रेणी सेवा क्षेत्र की है, जो राज्य में खूब फल-फूल रहा है. होटल-रेस्तरां, मोबाइल, सूचना तकनीक और वाहनों का व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है. पिछले आठ-नौ वर्षों से राज्य के जीडीपी में इस क्षेत्र का सबसे अधिक योगदान रहा है. 2013-14 में भी यही हुआ. आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि राज्य में बिजली की उपलब्धता बढ़ रही है. अब मांग और उपलब्धता के बीच अंतर बहुत बड़ा नहीं रहा, लेकिन यह खुशी उधार की है. बिहार का अपना उत्पादन अब भी उल्लेख के लायक नहीं है और लगभग पूरी बिजली केंद्र से मिल रही है. राज्य में बिजली का औसत उत्पादन 68 मेगावाट प्रतिदिन है, जबकि बाहर से रोजाना 2,761 मेगावाट बिजली खरीदी जाती है. इस बात के लिए खुश हुआ जा सकता है कि बिहार में बैंकों का साख-जमा अनुपात (क्रेडिट-डिपॉजिट रेशियो) बढ़कर 46 प्रतिशत तक चला गया है, लेकिन अभी भी बिहार में ऋण बहुत कम जारी हो रहे हैं, क्योंकि यहां औद्योगिक गतिविधियां वैसी हैं नहीं. बिहार के लोग इस बात से भी खुश हो सकते हैं कि सरकार सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में खर्च को निरंतर बढ़ावा दे रही है और मानव विकास सूचकांक ऊपर चढ़ रहा है. वित्तीय वर्ष 2013-14 में सामाजिक सेवाओं पर प्रति व्यक्ति व्यय 2,423 रुपये हो गया. शिक्षा एवं स्वास्थ्य के साथ-साथ सड़क, पेयजल आदि बुनियादी सुविधाओं के विकास पर बिहार में खासा खर्च हो रहा है.
इन सारी उपलब्धियों के बावजूद एक दुर्भाग्य बिहार का पीछा नहीं छोड़ रहा है, वह यह कि राज्य में विकास के द्वीप बनते जा रहे हैं. यदि बिहार का सच्चे अर्थों में विकास करना है, तो इसके अंधेरे इलाकों में भी विकास की रोशनी पहुंचानी होगी. शिवहर, सीतामढ़ी, सुपौल, अररिया, मधेपुरा, बांका, मधुबनी, अरवल, नवादा, शेखपुरा एवं किशनगंज आदि ज़िलों की हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा है. पटना, मुंगेर, बेगूसराय, मुजफ्फरपुर एवं भागलपुर आदि बिहार के विकसित ज़िले हैं, पहले भी थे. पिछले कई वर्षों से (जबसे आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया जा रहा है) शिवहर बिहार का सबसे ग़रीब ज़िला रहा है. वित्तीय वर्ष 2013-14 में बिहार में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 15,650 रुपये रही. पटना में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 63,063 रुपये रही, लेकिन वहीं शिवहर में यह मात्र 7,092 रुपये रही. पटना बिहार में एकमात्र आलोकित द्वीप की तरह है. राज्य के दस ज़िलों की हालत शिवहर जैसी है, तो कुछ की कुछ अंकों से सुधरी हुई मान ली गई है. इन ज़िलों की प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय पांच अंकों तक अभी नहीं पहुंची है, जबकि पटना छठवां अंक छूने को बेताब है. राज्य के आधा दर्जन ज़िले भी ऐसे नहीं हैं, जहां प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय पटना के एक तिहाई भी हो. यह विषमता आने वाले वर्षों में बिहार के आर्थिक-राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर नहीं मानी जानी चाहिए. बिहार की नब्बे प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है और अंधेरे इलाके वे ही हैं, जहां बाढ़ एवं सूखे की मार बहुत तीखी पड़ती रही है. ऐसे अंधेरे इलाकों में सत्ता के इकबाल को चुनौती देने या विकास की गाड़ी पटरी से उतारने के नित नए रास्ते की तलाश की जाती रही है, लेकिन सत्ता-राजनीति तो सदैव एक आभा मंडल तैयार कर अपनी उसी दुनिया में संतुष्ट रहती है. और, यह आभा मंडल निश्‍चित रूप से पटना जैसे नगर (या ज़िले) में ही तो तैयार होते हैं.

आर्थिक सर्वेक्षण के मुख्य बिन्दु
  • कृषि का विकास नकारात्मक रहा है.
  • राज्य के जीडीपी में इसका योगदान घटा
  • कृषि का योगदान 27 से घट कर 22 प्रतिशत हुआ.
  • कृषि उत्पादन में 12 प्रतिशत की गिरावट
  • पशुपालन एवं मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों में भी गिरावट
  • जीडीपी में औद्योगिक क्षेत्र का योगदान बढ़ा है
  • 1,891 स्वीकृत निवेश प्रस्तावों में से केवल 272 ज़मीन पर हैं.
  • 2013-14 में बिहार में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 15,650 रुपये
  • पटना में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आय 63,063 रुपये
  • शिवहर में यह मात्र 7,092 रुपये रही.

देश का सबसे बड़ा ऊर्जा घोटाला : जज ने लांघी क़ानून की हद

देश का सबसे बड़ा ऊर्जा घोटाला : जज ने लांघी क़ानून की हद


        ऊर्जा घोटाले में पुलिस की फाइनल रिपोर्ट को क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर संज्ञान लेने और तीन सालों तक रिपोर्ट दबाए रखने वाले जज के ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट के विजिलेंस ब्यूरो ने कार्रवाई शुरू कर दी है. जज के ख़िलाफ़ शिकायत यह भी है कि उन्होंने न्याय विभाग में प्रमुख सचिव रहते हुए संवेदनशील तथ्य छिपाकर एक विवादास्पद सरकारी वकील के जज बनने में मदद की थी. यह प्रकरण सामने आते ही उत्तर प्रदेश के ऊर्जा सेक्टर में हुए अरबों के घोटाले की लीपापोती में लगे जजों, नौकरशाहों और विभागीय अफसरों के साथ-साथ सीबीआई के भी क़ानून के शिकंजे में आने की संभावना बढ़ गई है. उत्तर प्रदेश का ऊर्जा घोटाला देश का सबसे बड़ा घोटाला साबित होने वाला है, जिसमें केवल नेता और नौकरशाह, बल्कि जज और सीबीआई के अधिकारी भी लिप्त हैं. यह रोचक और रोमांचक ही है कि अरबों के ऊर्जा घोटाले की सीबीआई जांच का औपचारिक आदेश हो जाने के बाद भी उसे अदालत में दबाए रखा गया और आख़िरकार सीबीआई ने ही जांच करने से मना कर दिया. ऊर्जा घोटाले में सीबीआई भी अभियुक्त है.
इलाहाबाद हाईकोर्ट प्रशासन ने लखनऊ के तत्कालीन ज़िला जज केके शर्मा के ख़िलाफ़ गंभीर शिकायतों को संज्ञान में लेते हुए शिकायतकर्ता नंदलाल जायसवाल को हलफनामा दाखिल करने और संबंधित दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का आदेश दिया है. केके शर्मा अभी एटा में ज़िला जज के पद पर तैनात हैं. उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम लिमिटेड में हुए सैकड़ों करोड़ के घोटाले में सीजेएम अदालत के निर्देश पर 23 जनवरी, 2008 को ही हजरतगंज थाने में प्रदेश के तत्कालीन ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय, आठ आईएएस अफसरों आरबी भास्कर, वीरेश कुमार, अशोक खुराना, राजकमल गुप्ता, जीबी पटनायक, कुंअर फतेह बहादुर सिंह, महेश गुप्ता, आलोक टंडन और उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम लिमिटेड के 19 अधिकारियों के ख़िलाफ़ एफआईआर (संख्या- 72/2008) दर्ज की गई थी. इनके ख़िलाफ़ भारतीय दंड विधान की धारा 193, 409, 420, 465, 471, 471-, 120-बी और प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया था, लेकिन पुलिस ने इसमें कोई कार्रवाई नहीं की. राजनीतिक दबाव और पुलिस की शिथिलता पर 20 जनवरी, 2009 को हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की गई. इस पर अदालत ने पुलिस को निर्देश दिया कि वह त्वरित कार्रवाई करे, लेकिन पुलिस ने तब भी कोई कार्रवाई नहीं की. विडंबना यह है कि इस बीच 19 विवेचना अधिकारी (आईओ) बदल भी दिए गए.
इसके पहले से ही पानी सिर के ऊपर से बह रहा था. सरकार ने विधानसभा में यह मान लिया था कि जल विद्युत निगम में महाप्रबंधक से लेकर अभियंताओं एवं सहायक अभियंताओं तक की फर्जी तरक्कियां और अन्य अनियमितताएं की गईं. इस पर गृह विभाग के तत्कालीन प्रमुख सचिव ने लखनऊ पुलिस को एफआईआर भी दर्ज करने को कहा, लेकिन पुलिस ने यह कह दिया कि भ्रष्टाचार और अनियमितता नहीं पाई गई. इस पर सरकार ने तत्कालीन ऊर्जा सचिव हरिराज किशोर को जांच का आदेश दिया. ऊर्जा सचिव ने 28 नवंबर, 2006 को प्रमुख सचिव ऊर्जा को पेश की गई अपनी जांच रिपोर्ट में भ्रष्टाचार के सभी मामले सही पाए और निदेशक (वित्त) को आवश्यक कार्रवाई के लिए लिखा. वह रिपोर्ट 29 नवंबर, 2006 को आवश्यक कार्रवाई के लिए नियुक्ति विभाग भी भेजी गई. 28 दिसंबर, 2006 को लोकसभा में पूछे गए सवाल पर उत्तर प्रदेश सरकार ने जवाब भी दिया कि जांच के आधार पर कार्रवाई की जा रही है. लेकिन हुआ कुछ भी नहीं. फिर सत्ता बदली और सपा की जगह बसपा की सरकार गई. बसपा सरकार के ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय ने सारी फाइलें अपने पास मंगवा लीं और उन्हें 2012 (बसपा सरकार के कार्यकाल) तक अपने पास दबाए रखा. इससे सपा और बसपा दोनों के कार्यकाल के घोटाले दबे रह गए. बसपा सरकार के समय तीस हज़ार करोड़ रुपये का बिजली घोटाला हुआ था. बसपा सरकार ने उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन और निजी कंपनियों के साथ बिजली खरीद करार करके इस घोटाले को अंजाम दिया था. इस घोटाले के कई सबूत और दस्तावेज़ी प्रमाण भी लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा को सौंपे गए थे. लोकायुक्त ने शिकायत को संज्ञान में ले लिया था, लेकिन कार्यवाही आगे नहीं बढ़ पाई. उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन ने पांच निजी पावर ट्रेडिंग कंपनियों के साथ द्विपक्षीय समझौता किया था. इसमें पावर कॉरपोरेशन ने इन कंपनियों से महंगी दर से पांच हज़ार करोड़ यूनिट बिजली खरीदने का समझौता किया था. समझौते की शर्त यह थी कि पावर कॉरपोरेशन को उस दौरान सस्ती बिजली मिलने पर भी उसे अन्य कहीं से खरीद का अधिकार नहीं होगा, चाहे वह केंद्रीय ग्रिड की एनटीपीसी और दूसरी कंपनियों से मिलने वाली सस्ती बिजली ही क्यों हो. राज्य सरकार ने जिस तरह से बिजली खरीदी, उससे सरकारी खज़ाने को भीषण नुक़सान पहुंचा. बसपा सरकार से पहले सपा के शासनकाल में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना में 1600 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ था. उस मामले में भी केवल जांच ही चलती रही, नतीजा शून्य रहा.
मायावती के कार्यकाल के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने कई सार्वजनिक बयानों में कहा कि ऊर्जा क्षेत्र में मायावती सरकार 25 हज़ार करोड़ रुपये का घाटा छोड़कर गई है, लेकिन इस घाटे की वजह जानने की अखिलेश सरकार ने कभी कोशिश नहीं की. अकेले जेपी समूह को फ़ायदा पहुंचाने के लिए ही प्रदेश सरकार को 30 हज़ार करोड़ रुपये की चपत लगाई जा चुकी है. इसके लिए राज्य विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष राजेश अवस्थी को निष्कासित भी होना पड़ा, लेकिन घोटाले को लेकर कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की गई. उत्तर प्रदेश जल विद्युत निगम में भी 750 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ, लेकिन इस घोटाले में लिप्त तत्कालीन सीएमडी आईएएस आलोक टंडन समेत अन्य अधिकारियों एवं अभियंताओं का कुछ नहीं बिगड़ा. सपा के मौजूदा शासनकाल में बिजली बिलों में फर्जीवाड़ा कर हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला किए जाने का मामला सामने आया. यूपी पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा अधिकृत बिलिंग कंपनी की मिलीभगत के ज़रिये इस घोटाले को अंजाम दिया गया है.
मायावती के कार्यकाल के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने कई सार्वजनिक बयानों में कहा कि ऊर्जा क्षेत्र में मायावती सरकार 25 हज़ार करोड़ रुपये का घाटा छोड़कर गई है, लेकिन इस घाटे की वजह जानने की अखिलेश सरकार ने कभी कोशिश नहीं की. अकेले जेपी समूह को फ़ायदा पहुंचाने के लिए ही प्रदेश सरकार को 30 हज़ार करोड़ रुपये की चपत लगाई जा चुकी है.
बहरहाल, इन घोटालों की लीपापोती में अभी तक नेताओं-नौकरशाहों का खेल चल रहा था, इसके बाद अदालतों का खेल भी सामने आया. 16 अप्रैल, 2013 को नंदलाल जायसवाल की तरफ़ से दाखिल जनहित याचिका की सुनवाई के दरम्यान 18 अप्रैल को अपर महाधिवक्ता बुलबुल गोदियाल ने प्रमुख सचिव गृह का हवाला देते हुए बताया कि इस मामले में चार अक्टूबर, 2012 को ही फाइनल रिपोर्ट (संख्या 5/12) सीजेएम अदालत में दाखिल हो चुकी है. लिहाजा शिकायतकर्ता अपनी आपत्ति वहीं दाखिल करे. हालांकि, याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया भी कि यह तथ्य ग़लत है, लेकिन कोर्ट ने नहीं माना और सीजेएम कोर्ट में ही आपत्ति दाखिल करने को कहा. 29 अप्रैल, 2013 को सीजीएम कोर्ट ने बताया कि फाइनल रिपोर्ट उस अदालत में है ही नहीं. इस पर हाईकोर्ट ने चार दिसंबर, 2013 को सीजेएम लखनऊ को पुलिस की फाइनल रिपोर्ट के साथ अदालत में हाजिर होने को कहा. वह रिपोर्ट तो सीजेएम कोर्ट में थी और प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत विशेष न्यायाधीश की कोर्ट में थी. सीजेएम लखनऊ ने बताया कि फाइनल रिपोर्ट लखनऊ के सत्र न्यायाधीश की अदालत में है. तब 19 दिसंबर, 2013 को हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता को सत्र न्यायाधीश (सेशन जज) की अदालत में आपत्ति दाखिल करने का आदेश दिया. अदालती औपचारिकताएं और पेचीदगियां चल ही रही थीं कि 29 जनवरी, 2014 को आधिकारिक तौर पर यह सामने आया कि फाइनल रिपोर्ट लखनऊ के ज़िला (सेशन) जज केके शर्मा की अदालत में ही पड़ी थी. इसके बाद भी ज़िला जज ने याचिकाकर्ता को फाइनल रिपोर्ट की कॉपी नहीं दी. उसे कोर्ट में ही पढ़ लेने की ताकीद की. हज़ार पन्नों की फाइनल रिपोर्ट कोर्ट में कुछ समय में पढ़ लेना नामुमकिन था. बहरहाल, कोर्ट ने यह भी कहा कि यह फाइनल रिपोर्ट 10 अप्रैल, 2013 को अदालत में आई है. जबकि तथ्य यह है कि चार अक्टूबर, 2012 को ही फाइनल रिपोर्ट ज़िला जज के यहां चुकी थी. लेकिन इस बारे में याचिकाकर्ता को कोई औपचारिक सूचना नहीं दी गई. कोर्ट के क्षेत्राधिकार का सवाल भी उठा और कोर्ट को बताया गया कि भ्रष्टाचार का उक्त मामला प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत विशेष न्यायाधीश के क्षेत्राधिकार में आता है. ज़िला जज केके शर्मा इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर उन्होंने पुलिस की फाइनल रिपोर्ट को संज्ञान में कैसे और क्यों लिया और लंबे अर्से तक उसे दबाए क्यों रखा?
कोर्ट का संदेहास्पद रवैया देखते हुए लखनऊ के तत्कालीन ज़िला जज केके शर्मा के ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट के प्रशासनिक जज के यहां 19 मार्च, 2014 को शिकायत दाखिल की गई. इसके बाद ही छह मई, 2014 को केके शर्मा का एटा तबादला कर दिया गया. उनकी जगह पर लखनऊ के ज़िला जज बनकर आए वीके श्रीवास्तव ने पदभार ग्रहण करते ही संदर्भित मामले को प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत का मामला माना और उसे फौरन विशेष जज के सुपुर्द कर दिया. इस तरह यह साफ़ हो गया कि तत्कालीन ज़िला जज केके शर्मा ने क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर फाइनल रिपोर्ट को अपनी अदालत में दबाए रखा था. दक्षिण कोरिया की कंपनी मेसर्स हुंडई इंजीनियरिंग कंस्ट्रक्शंस द्वारा 220 करोड़ रुपये का फर्जी भुगतान ले लिए जाने के मामले में भी केके शर्मा हुंडई कंपनी के पक्ष में फैसला देकर विवादों में चुके हैं. उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड के भ्रष्ट अधिकारियों ने हुंडई के साथ मिलीभगत करके उसे फर्जी भुगतान दे दिया था.
याचिकाकर्ता नंदलाल जायसवाल ने हाईकोर्ट प्रशासन से यह भी शिकायत की है कि केके शर्मा जब न्याय विभाग के प्रमुख सचिव थे, तब उन्होंने सरकार के मुख्य स्थायी अधिवक्ता (चीफ स्टैंडिंग काउंसिल) देवेंद्र कुमार उपाध्याय पर दर्ज आपराधिक मुकदमे का तथ्य छिपा लिया था. उपाध्याय के जज बनाए जाने की फाइल क़ानूनी सलाह के लिए प्रमुख सचिव रहे केके शर्मा के पास भेजी गई थी. उपाध्याय नवंबर 2011 में जज बने, जबकि आपराधिक मुकदमा चलने के बारे में केंद्रीय क़ानून मंत्रालय ने 29 जून, 2011 को ही प्रदेश सरकार से जवाब मांगा था, लेकिन प्रदेश सरकार ने केंद्र को कोई जवाब नहीं भेजा. आपराधिक मुकदमे वाली पृष्ठभूमि के व्यक्ति को जज बनाए जाने के ख़िलाफ़ इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से भी शिकायत की गई थी, लेकिन वहां से कहा गया कि इस बारे में बार काउंसिल से शिकायत करें. बार काउंसिल ने शिकायत दबाए रखी और तीन अगस्त, 2012 को लिखा कि जज बनने के कारण बार काउंसिल देवेंद्र कुमार उपाध्याय के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर सकती. उल्लेखनीय है कि लखनऊ के वजीरगंज थाने में देवेंद्र कुमार उपाध्याय समेत छह लोगों पर भारतीय दंड विधान की धारा 147 (बलवा करना), 323 (मारपीट कर जख्मी करना), 504 (लोक शांति भंग करना) और 506 (आपराधिक अभित्रास) का मुकदमा (संख्या 186/08) दर्ज हुआ था. इस मामले में पुलिस ने फाइनल रिपोर्ट लगा दी थी, जिसके ख़िलाफ़ एसीजेएम सीबीआई (एपी) की अदालत में प्रोटेस्ट दाखिल किया गया था. यह मामला उपाध्याय के जज बनने के साल भर बाद तक चलता रहा. खूबी यह है कि अदालत में बाकायदा इसकी तारीखें पड़ती रहीं, प्रक्रिया चलती रही, लेकिन इसे सूचना को डिस्प्ले नहीं किया जाता रहा. सरकार के मुख्य स्थायी अधिवक्ता देवेंद्र कुमार उपाध्याय और प्रदेश के अपर महाधिवक्ता जेएन माथुर पर ऊर्जा विभाग से लाखों रुपये के फर्जी भुगतान प्राप्त करने के भी गंभीर आरोप पहले से लग रहे थे.
लीपापोती में लगे रहे दर्जन भर जज
केके शर्मा अकेले जज नहीं हैं, जिन्होंने ऊर्जा घोटाले की लीपापोती में संदेहास्पद भूमिका अदा की. विदेशी कंपनी के साथ मिलीभगत कर उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड द्वारा पांच हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला किए जाने के मामले में सीबीआई से जांच कराने की सरकारी अधिसूचना जारी हो जाने के बाद भी जांच नहीं करने दी गई. इस षड्यंत्र में सीबीआई के अधिकारी भी शरीक रहे. विचित्र, किंतु सत्य यह है कि पावर कॉरपोरेशन की विजिलेंस शाखा ने घोटाले की सीबीआई जांच की सिफारिश की और स्टेट विजिलेंस ने भी कहा कि पूरा प्रकरण गंभीर जांच की अपेक्षा करता है, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के तत्कालीन जज स्वनामधन्य जगदीश भल्ला और कमल किशोर ने विजिलेंस की सिफारिश को तकनीकी पड़ताल के लिए उन्हीं लोगों के सुपुर्द कर दिया, जो अरबों रुपये के घोटाले में लिप्त थे. हाईकोर्ट के तत्कालीन जज एसएचए रजा और आरडी शुक्ला की बेंच ने सीबीआई जांच के अपने ही पूर्व के फैसले का ऑपरेटिव पोर्शन बदल डाला. जज डीके त्रिवेदी और नसीमुद्दीन की बेंच ने क़ानूनी पेचोखम में उलझा कर मामले को आगे बढ़ने नहीं दिया. जज वीरेंद्र शरण और आरडी शुक्ला की बेंच ने एसएचए रजा वाली बेंच का विरोधाभासी फैसला ही पकड़े रखा तथा जज रितुराज अवस्थी और अनिल कुमार शिकायतकर्ता का पक्ष सुने बगैर तारीख पर तारीख देते रहे. इन सारे जजों की संदेहास्पद भूमिका के बारे में राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी जाती रही, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के जज रहे इम्तियाज मुर्तजा और विनय कुमार माथुर ने तो हद ही कर दी. उन्होंने याचिकाकर्ता नंदलाल जायसवाल को अंधेरे में रखकर उनकी जनहित याचिका खारिज कर दी. जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश शिवकीर्ति सिंह और जज श्रीनारायण शुक्ला की बेंच ने याचिकाकर्ता को शपथपत्र दाखिल करने का आदेश दे रखा था. शपथ पत्र दाखिल करने के बाद नंदलाल जायसवाल सुनवाई की तारीख का इंतज़ार ही करते रह गए और उधर उनकी याचिका खारिज कर दी गई. जज इम्तियाज मुर्तजा और विनय माथुर के बेजा ़फैसले की शिकायत पर वह जनहित याचिका फिर से री-स्टोर हुई. हाईकोर्ट प्रशासन द्वारा उस जनहित याचिका को वापस क़ानूनी प्रक्रिया में लाने का निर्णय उन जजों और मौजूदा न्यायिक व्यवस्था पर करारे तमाचे की तरह साबित हुआ.

सुप्रीम कोर्ट के जज कम दागदार नहीं
तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 30 जनवरी, 2003 को मामले की सीबीआई जांच कराने का बाकायदा शासनादेश जारी किया था. इस पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वाईके सबरवाल एवं बीएन अग्रवाल की बेंच ने 13 जुलाई, 2003 को केंद्र, सीबीआई और यूपी पावर कॉरपोरेशन को अंतिम मा़ैका देते हुए प्रति-शपथपत्र दाखिल करने का आदेश दिया, लेकिन ऐसा नहीं किया गया. केंद्र सरकार, सीबीआई और यूपी पावर
कॉरपोरेशन की इस खुली नाफरमानी पर सख्त संज्ञान लेने के बजाय सुप्रीम कोर्ट की इसी बेंच ने मामले को ही खारिज कर दिया. वही सबरवाल बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने.
व्हिसिल ब्लोअर ने बड़ी क़ीमतें चुकाईं
उत्तर प्रदेश के ऊर्जा घोटालों को उजागर करने वाले नंदलाल जायसवाल ने भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ बिगुल फूंकने की बड़ी क़ीमतें चुकाईं.जायसवाल विद्युत विभाग के ही कर्मचारी थे. उन्होंने ऊर्जा सेक्टर में फैले भ्रष्टाचार को अपने शीर्ष अधिकारियों के समक्ष उजागर करना शुरू किया, लेकिन शीर्ष अधिकारियों ने उनका ही उत्पीड़न शुरू कर दिया. धीरे-धीरे शीर्ष अधिकारियों के भ्रष्टाचार की परतें खुलती गईं और नंदलाल जायसवाल के ख़िलाफ़ साजिशें बढ़ती गईं. उनके ख़िलाफ़ आपराधिक षड्यंत्र तक हुए. फर्जी मुकदमे दर्ज कराए गए, कातिलाना हमला हुआ, फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार कर जेल भेजा गया और नौकरी से निकाल बाहर किया गया. अदालत ने भी पाया कि जायसवाल पर फर्जी मुकदमे लादे गए. अदालत के हस्तक्षेप पर वर्षों बाद उन्हें पेंशन मिलनी शुरू हुई. इस बीच उनके घर के सारे जेवर बिक गए और जायसवाल काला कोट पहन कर वकील के रूप में ऊर्जा सेक्टर के भ्रष्टाचारियों के ख़िलाफ़ क़ानूनी लड़ाई में उतर गए. ऊर्जा सेक्टर में अरबों रुपये के घोटाले उजागर करने वाले व्हिसिल ब्लोअर को संरक्षण और सुरक्षा देने के बजाय नेता, नौकरशाह एवं कुछ जज तक उनका मुंह बंद करने की साजिशों में लगे रहे और देश के सबसे बड़े घोटाले को निर्णायक मोड़ तक नहीं पहुंचने दिया गया. फिर भी लड़ाई जारी है
अधिसूचना को सीबीआई ने दिखाया ठेंगा
पांच हज़ार करोड़ रुपये के ऊर्जा घोटाले की सीबीआई जांच कराने की अधिसूचना जारी होने के बावजूद सीबीआई ने जांच करने से मना कर दिया. यह हैरतअंगेज हुकुमउदूली सीबीआई ने की और केंद्र एवं राज्य सरकार चुप बैठी रह गई. घोटाले की रकम इतनी बड़ी थी कि उसने राज्य एवं केंद्र सरकार में बैठे सियासतदानों, नौकरशाहों और सीबीआई के अधिकारियों तक को अपने प्रभाव में ले लिया. तभी सीबीआई ने सरकार की अधिसूचना तक को ताख पर रखकर यह कह दिया कि यह मामला जांच के उपयुक्त नहीं है. सीबीआई के अधिकारियों की इस अराजकता के ख़िलाफ़ कोई सुगबुगाहट भी नहीं हुई. सीबीआई के अधिकारियों ने जांच से मना करते हुए इसे पुराना मामला बताया, फिर कहा कि घोटाले से संबंधित जानकारियां नहीं दी जा रही हैं. फिर कहा कि उसके पास जांच की तकनीकी क्षमता नहीं है, फिर यह भी कहा कि इस घोटाले का कोई अंतरराष्ट्रीय प्रसार नहीं है. जबकि सीबीआई के सारे तर्क आधारहीन पाए गए. पांच हज़ार करोड़ रुपये का यह ऊर्जा घोटाला दरअसल विदेशी कंपनी के साथ यूपी पावर कॉरपोरेशन के अधिकारियों की मिलीभगत से ही अंजाम दिया गया था.