सुरेश वाडकर

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Sunday, September 27, 2015

पूना पैक्ट के ज्वाईंट इलेक्टोरेट ने सच्चा प्रतिनिधिक लोकतंत्र समाप्त किया-एक बहस - वामन मेश्राम

पूना पैक्ट के ज्वाईंट इलेक्टोरेट ने सच्चा प्रतिनिधिक लोकतंत्र समाप्त किया-एक बहस - वामन मेश्राम

        यह जो संयुक्त निर्वाचन है, यह गांधी जी के द्वारा अनुसूचित जाति के लोगों के उपर थोपा गया षड्यंत्र है।इस समझने के लिए हमें तुलनात्मक तरीके से समझना होगा। ये जो भी ब्राह्मणों के संगठन है, इसे देश के आधुनिक काल में ब्राह्मणों ने संगठन बनाए। कांग्रेस का संगठन ब्राह्मणों ने बनाया। कम्युनिष्टों का संगठन भी ब्राह्मणों ने बनाया। उस समय के समाजवादी सोशलिस्ट पार्टी का संगठन फैजाबाद के आचार्य नरेन्द्रदेव ने बनाया जो ब्राह्मण थे और अच्यूत पटवर्धन पूना के ब्राह्मण थे। अशोक मेहता गुजरात के ब्राह्मण थे। बहुत सारे लोगों को इतिहास की जानकारी नहीं है। ये जो समाजवादी सोशलिस्ट पार्टी बनाई गई थी। महाराष्ट्र में प्रजा समाजवादी पार्टी सन्त जोशी नामक ब्राह्मण ने बनाई थी। कांग्रेस का संगठन ब्राह्मणों ने बनाया, कम्युनिष्टो का संगठन ब्राह्मणों ने बनाया, सोशलिस्ट का संगठन ब्राह्मणों ने बनाया, हिन्दू महासभा का संगठन ब्राह्मणों ने बनाया, राष्ट्र सेवादल का संगठन ब्राह्मण ने बनाया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन ब्राह्मणों ने बनाया और हर जगह पहल ब्राह्मणों की है। ब्राह्मण लोगों ने योजना बनाकर पहल की और बाकी के जो द्विज जाति के लोग जिसे उ.प्र. में राजपूत कहे जा सकते है, वे ब्राह्मणों के संगठन में शामिल हुए और उनके पिछलग्गू हुए। 3.5 प्रतिशत ब्राह्मणों के 4 राष्ट्रीय स्तर की रिकागनाईज पार्टियाँ है। 6 प्रतिशत क्षत्रिय है। देशभर में उनकी एक भी राष्ट्रीय पार्टी नहीं है। वैश्यों की भी यहीं स्थिति है। 
         अभी केजरीवाल जो हरियाण का वैश्य जो हिसार जिले का है। पहली बार ऐसा हुआ के बीजेपी और कांग्रेस से जो लोग दुखी है, उनके लिए तो ब्राह्मणों ने एक और सप्लीमेन्ट्री (पूरक) योजना बनाया कि लोग अगर कांग्रेस से दुखी है, बीजेपी से भी दुखी है तो तीसरी पार्टी भी द्विजों की होनी चाहिए। उन्होंने ऐसा योजना बनाकर किया। यहां तक कि केजरीवाल ने अन्ना हजारे का इस्तेमाल किया। यह भी बात अब प्रमाणित हो गई। क्योंकि अन्ना-हजारे द्विज नहीं है। वह कुर्मी जाति का है और बाबा रामदेव अहिर (यादव) है। तो उन लोगों का इस्तेमाल इन लोगों ने किया। ये सारे ब्राह्मणों के संगठन है। यह उदाहरण मैंने यह संयुक्त निर्वाचन प्रणाली समझाने के लिए दिया। जब यह ब्राह्मणों के नीचे लगने वालों के संगठन होते है। तो ये क्या करते है? ये एससी के आदमी को यदि बाबा साहब अम्बेडकर ने पष्थक निर्वाचन हासिल किया था जो उसमें एससी के लोगों को ही वोट देना और एससी के लोगों का ही चुनाव क्षेत्र होता, तो केवल एससी के लोगों को वोट देने का अधिकार होता और चुनाव भी लड़ने का अधिकार होता। तब एससी में जो सबसे लड़ाकू होता, वहीं चुनकर जाता है। लेकिन हुआ क्या? गांधी जी ने पूना-पैक्ट किया और एससी के लोगों के उपर संयुक्त निर्वाचन प्रणाली थोप दिया। परिणाम क्या हुआ? ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, का नेतष्त्व क्या करते है? वे एससी में किसी एक आदमी को नामित करते है। ये जो ब्राह्मणों की पार्टियाँ है, जिसका सपोर्ट क्षत्रिय और वैश्य कर रहे है। उन्हें नामित करने के बाद ये सारे मिलकर मनी, मीडिया और माफिया की मदद से जो एससी का आदमी ब्राह्मणों द्वारा नामित है उसे चुनावकर लाते है। यदि एससी का आदमी ब्राह्मणों द्वारा नामित किया हुआ आदमी चुनवाकर लाया जाता है तो विधानसभा में ब्राह्मणों की तरफ देखकर बोलेगा अभी तो देखकर बोलने का भी मामला नहीं है कि विधानसभा में कौन बोलना चाहिए और कौन नहीं विधानसभा में बोलना चाहिए। ये पार्टी के सांसदीय दल का जो नेता होता है, वह निर्धारित करते है। उन्हें समय ही बोलने के लिए नहीं दिया जाता है। ये जो लोग है, ये नामित लोग है। संयुक्त निर्वाचन प्रणाली में वास्तविक प्रतिनिधित्व समाप्त कर दिया गया और नोमिनेटेड प्रतिनिधित्व लागू कर दिया गया। जिसको नामित किया गया है, वह प्रतिनिधि नहीं है जिस समाज और जाति में वह पैदा हुआ। बल्कि जिसने उसको नामित किया वह उसका और उसके पार्टी का प्रतिनिधि है। उसे यह कहा जाता है कि यदि किसी एससी के एम.पी या एम.एल. पार्टी हाईकमान के पास कोई सामाजिक मुद्दा लेकर गये तो उसको बोलते है कि आपका कोई व्यक्तिगत मामला है, आपको पेट्रोल पम्प चाहिए। पेट्रोल पम्प है तो गैस एजेन्सी या सी.एन.जी पम्प वाला पम्प ले लो, मगर समाज की बात मत करो। यदि किसी एम.एल.ए, एमपी. ने ज्यादा दबाव बनाया तो कहते है कि क्या आपको अगले चुनाव में टिकट नहीं चाहिए तो वो अपनी औकात पर आ जाते है। वह दुबारा जाता ही नहीं है। यदि इसके बाद भी वह आ गया तो आने से पहले ही उसकी फाइल तैयार करते है। पहले उसे वह फाइल पढ़ने के लिए देते है कि तुमने ये अवैध काम किया, ये भ्रष्टाचार किया, ये ऐसे किये, वह वैसे किये तो उसे बोलने से पहले ही डरा देते है। वह फाइल देते है। जिससे वह बोलना ही भूल जाता है। और नमस्कार बोल करके वह वापस चला जाता है। ये संयुक्त निर्वाचन से ऐसा हुआ है। 
        संयुक्त निर्वाचन में इसे नामित कर देते है। ये एससी का आदमी है इसे नामित करके, चुनवाकर लाते है। ऐसा हो रहा है और इससे वास्तविक प्रतिनिधित्व समाप्त हो गया। इसके बाद एसटी आ गया। एसटी को तो पता हीं नहीं है, एससी को तो कम से कम पता है। ये पूना पैक्ट आदिवासियों को लागू कर दिया गया जबकि आदिवासियों ने मांग भी नहीं किया फिर भी लागू कर दिया। पांचवी और छवीं अनुसूची की वजह से आदिवासी अपने क्षेत्र में स्वायत शासन गठित करने का जो अधिकार उन्हें मिला था कि संसद और विधानसभा में जो भी कानून पास किया जायेगा, आदिवासी इलाके में लागू करने से पहले आदिवासियों से सहमति लेनी होगी। सहमति लिए बगैर उस इलाके में संसद, विधानसभा द्वारा पास किया गया कानून भी लागू नहीं होगा। इतना बड़ा अधिकार आदिवासियों को पांचवी और छठी अनुसूची में दिया गया है। यदि आदिवासियों के इलाके में मान लो कि कोयले की खदान है। यह खदान किसे देना है? इसकी सहमति जब तक आदिवासी की नहीं होगी, उसका आवंटन नहीं होगा। वह प्रोविजन इस पांचवी और छंवी अनुसूची में है। इसे समाप्त करने के लिए आदिवासियों की मांग न होते हुए भी उन पर संयुक्त निर्वाचन लागू कर दिया गया। जिस तरह से एससी में चममे, दलाल और भड़वे पैदा किये, उसी तरह से आदिवासियों में भी पैदा कर दिये गये और आदिवासियों में वास्तविक प्रतिनिधित्व समाप्त कर दिया गया। उसके बाद ओबीसी की ले लो। ओबीसी में संयुक्त निर्वाचन कानूनन लागू नहीं है। इन लोगों ने दूसरा रास्ता निकाला कि ओबीसी पार्टी लेबल (स्तर) पर लागू कर दिया। जो पंचायत राज कानून है, जिसे राजीव गांधी ने बनाया, यह निचले स्तर पर जैसे ग्राम पंचायत है, तालुका पंचायत है, नगर पंचायत है, जिला पंचायत है, नगर पालिका है, महानगर पालिका है और उसमें पंचायत राज कानून लागू किया। एससी और एसटी को जो संयुक्त निर्वाचन लागू है, वह ओबीसी को पंचायत राज में लागू कर दिया। पंचायत राज में ओबीसी का नेतष्त्व समाप्त कर दिया। ओबीसी में निम्न स्तर पर दलाल और भड़वे पैदा करवा दिया। वे जो दलाल और भड़वे पैदा कर दिये गये, वे ब्राह्मणों की पार्टी को वोट देने के लिए, उसके बदले में उनको कमीशन मिलता है। फिर इस तरह से एक जुगाड़ बिठाया गया है कि आपको टिकट दिया जायेगा, तो इसके लिए जुगाड़ आप को एम.एल.ए और एम.पी के लिए करना होगा। आपको पंचायत, तालुका पंचायत के लिए दिया जाएगा। निम्न स्तर पर आपको क्या लूटना है? हम नहीं पूछेगें। विधानसभा में लोकसभा में उनको आपको चुनकर लाना है। ये कोई काल्पनिक बात नहीं है। ऐसा हो रहा है। पूना पैक्ट ओबीसी में भी लागू कर दिया गया है। 
       2010 में साढ़े आठ 52 प्रतिशत ओबीसी के लोगों की जाति आधारित गिनती होनी चाहिए, जब यह मामला हमने उठाया तो उस समय साढ़े आठ मुख्यमंत्री ओबीसी के थे। किसी मुख्यमंत्री ने जिस मंत्रिमण्डल का वह प्रमुख था। कागज में रेगुलेशन तक पारित नहीं किया कि ओबीसी की जातिआधारित गिनती होनी चाहिए। सबसे धाकड़ आदमी ओबीसी का नरेन्द्र मोदी माना जाता है। उसने भी यह काम नहीं किया। और न ही वह कर सकता है। उसे किसी ओबीसी के व्यक्ति ने पूछा कि नरेन्द्र जी आप ऐसा क्यों नहीं कर रहे हो? तो नरेन्द्र मोदी ने कहा आप मुझे अकेले में मिलो। जब वह आदमी अकेले में मिला तो नरेन्द्र मोदी ने कहा कि क्या तुम मुझे मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहते हो? तो आदमी ने कहा कि मैं ग्राम पंचायत का सदस्य भी नहीं हूँ, नरेन्द्र भाई मैं कैसे आपको हटा सकता हूँ? तो मोदी ने कहा कि मैं जानता हूँ कि तुम नहीं हटा सकते। लेकिन जब जाति आधारित गिनती के लिए मैं बोलूंगा तो आरएसएस के लोग क्या मुझे छोड़ेगें? क्या मुझे मुख्यमंत्री पदपर रखेगें? ये बात जिस ओबीसी के कार्यकर्ता ने बताया वह महेन्द्र भाई हमारा कार्यकर्ता है। उसने हमसे बताया कि नरेन्द्र मोदी ने ऐसा कहा। नरेन्द्र मोदी ओबीसी का होकर भी गुजरात के अन्दर ओबीसी के लिए कुछ नहीें कर रहा है। प्रधानमंत्री बनने के बाद वह देश में कुछ करने वाला है क्या? हाँ अपने प्रधानमंत्री के कार्यालय के समाने एक चाय की दुकान खुलवा सकता है। इसके अलावा और कुछ नहीं करवा सकता है। उसके लिए प्रधानमंत्री के अनुमति की क्या जरूरत है। हाँ, उसके लिए तो एक चार बाई चार का का ठेला ले लो, चीनी और चायपत्ती खरीद लो और किसी भी चौराहे पर बिना किसी किराये का खड़ी कर दो। दुकान चल जाती है। उसके लिए किसी की परमीशन की कोई जरूरत नहीं है। उस समय साढ़े आठ मुख्यमंत्री थे। उनमें से किसी ने योजना आयोग को चिट्ठी नहीं लिखी, जनगणना कमीशन को कोई चिट्ठी नहीं लिखी, प्रधानमंत्री को कोई चिट्ठी नहीं लिखी और अखबार में किसी मुख्यमंत्री ने बयान तक नहीं दिया। नितीश कुमार ने एक अखबार में बयान दिया था। वह भी दबी जबान से, वह भी दुबारा हमेशा के लिए भूल गया। उनकी बीजेपी के समर्थन के बिना सरकार चल रही है। तो अभी जनगणना कर सकता है। लेकिन वह उसकी औकात नहीं है, नहीं कर सकता। ये सारे उदाहरण इस बात को सिद्ध करते हेै कि ये सब मुख्यमंत्री ओबीसी के हैं, लेकिन ये ओबीसी के वास्तविक प्रतिनिधि नहीं है। 52 प्रतिशत ओबीसी में भी संयुक्त निर्वाचन प्रणाली लागू कर दिया गया है। अब माइनॉरिटी की बात ले लो। माईनॉरिटी में सबसे बड़ी माइनॉरिटी मुसलमानों की है। इसी तरह से सभी माइनारिटी की दशा है। मुसलमानों का आजकल जो कांगे्रस की तरफ से प्रतिनिधित्व करते है। जैसे गुलाम नवी आजाद। मैनें कभी मुसलमानों की समस्याओं पर उन्हें बोलते हुए नहीं सुना। शायद ही मुसलमानों को मालूम हो, लेकिन मैंने अभी तक नहीं सुना। बीजेपी ने सैयद शाहनवाज हुसैन नाम का एक आदमी रखा है। जब कांग्रेस के लोग आरएसएस पर टीका-टिप्पणी करते है तो उसका जवाब देने के लिए सैयद शाहनवाज हुसैन को भेज देते हैं। मुसलमानों के लिए जब कोई मामला आता है तो उसके लिए प्रवीण तोगड़िया को भेज देते है कि ये मामला तेरा है, इसे तू देख ले। इस तरह से ओबीसी और माइनॉरिटी में भी संयुक्त निर्वाचन लागू कर दिया गया है। इस प्रकार एससी/एसटी/ओबीसी और माइनोरिटी के 85 प्रतिशत लोगों को वास्तविक प्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित कर दिया गया है। नोमिनेटेड प्रतिनिधित्व, वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं होता है। इसका दूसरी तरफ परिणाम हुआ कि पार्टियां ब्राह्मणों की है। एससी, एसटी और ओबीसी के लोग उन पार्टियों से टिकट मांगते है। इस प्रकार उन लोगों ने हमारे लोगों को मागने वाला बना रखा है। बीजेपी, कांग्रेस और कम्युनिस्ट आदि पार्टियों के सामने हमारी औकात मांगने वाला है। हाँ थोड़ा सा एम.पी स्तर का मांगने वाला, एम.एल.ए स्तर का मांगने वाला तथा सफारी और टाई लगाकर मांगने वाला है। मांगने वाले की क्वालिटी थोड़ा ऊँची है। जैसे पहले कोई धोती पहनकर ब्राह्मणों को चाय-पानी पीलाता था, अब कोई सफारी और टाई पहन कर ब्राह्मण को पानी पिला दे तो क्या ब्राह्मण को कोई दुख होगा? उसे खुशी होगी कि सफारी और टाई पहनकर चपरासी सेवा कर रहा है। इस प्रकार एससी, एसटी और ओबीसी को उन ब्राह्मणों के पार्टियों से टिकट मांगनी पड़ती है। पार्टी ब्राह्मणों की है, इसलिए वैश्य लोगों को भी ब्राह्मणों से टिकट मांगना पड़ता है। क्षत्रियों को भी ब्राह्मणों से टिकट मांगना पड़ता है। ब्राह्मणों की पार्टियाँ है। अत: केवल ब्राह्मणों को इस देश में टिकट नहीं मांगना पड़ता है। यह इस देश की कड़वी सच्चाई है। दूसरी तरफ सारे प्रतिनिधित्व पर ब्राह्मणों ने कैंजा कर लिया है। जैसे विधायिका पर, कार्यपालिका पर, न्यायपालिका पर, मीडिया पर, गवर्नर पर, मीलिट्री पर, सेक्रेटरी पर, सचिवालय पर, वायसचान्सलर पर तथा सारी लोकत्रांतिक संस्थाओं पर ब्राह्मणों ने कैंजा कर लिया। इन सारी संस्थाओं पर ब्राह्मणों के कैंजा होने से हम कह सकते है कि इस देश में लोकतंत्र नहीं ब्राह्मणतंत्र आ गया हैं। ब्राह्मणतंत्र क्या है? प्रतिनिधित्व विहीन लोकतंत्र ही ब्राह्मणतंत्र है। ये सारा का सारा कारण संयुक्त निर्वाचन प्रणाली ने पैदा किया है। यह संयुक्त निर्वाचन प्रणाली का जन्मदाता मोहन दास करमचन्द गांधी है। इसका अर्थ है कि मोहन दास करमचन्द गांधी द्वारा कांग्रेस (जो ब्राह्मणों की पार्टी है) के माध्यम से इस देश में लोकतंत्र का सत्यानाश किया गया है। इसके लिए किसी और आदमी को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है। इसके लिए पूरा का पूरा मोहनदास करमचन्द गांधी जिम्मेदार है। इसीलिए कहते रहते है कि गांधी हमारे सर पर बिठाया गया है। हम उसे उतारने की कोशिश कर रहे है। इसके पहले कि हम गांधी को सिर से उतार दें, अन्ना हजारे नाम का दूसरा गांधी हमारे सिर पर बिठाया जा रहा है। अभी पहला ही पूरी तरह से नहीं उतार पाया है और दूसरा बैठा रहे हैं। वह गांधी तो कम से कम बैरिस्टर था लेकिन दूसरा गांधी तो सातवीं फेल है। इस प्रकार संयुक्त निर्वाचन प्रणाली ने इस देश की वास्तविक लोकतंत्र को समाप्त किया है। इसका सबसे भंयकर परिणाम यह है कि सच्चा लोकतंत्र को संयुक्त निर्वाचन प्रणाली ने समाप्त कर दिया है। यदि सच्चा लोकतंत्र होता तो हमारा सच्चा प्रतिनिधि पार्लियामेन्ट और विधानसभा में हमारी गरीबी, दरिद्रता, मानसिक दरिद्रता, शिक्षा की दरिद्रता और सभी किस्म की समस्याओं के विरोध में लड़ता। यदि वह लड़ता तो हमारी सभी समस्याओं का समाधान होता। अगर हमारी दरिद्रता है, हमारी भुखमरी है, और भुखमरी से हम मर रहे है, असहाय हो गये है हम लाचार हो गये है। हम निराश हो गये है, हम कुछ करने के लायक नहीं है हम प्रतिकार विहीन है तो ये सारा का सारा प्रतिनिधित्व विहीन लोकतंत्र का परिणाम है। 
        मैं तो कहता हूँ कि जो एससी, एसटी और ओबीसी का आदमी उच्च न्यायलय में वकील है, उनको यह समझ में नहीं आता है, वकीलों का हमने संगठन बनाया है। सुप्रीम कोर्ट के वकील उधर आये थे। मैं उन लोगों को कहा कि आप लोगों को क्या ये पता है? आप लोगों को हमें बताना चाहिए, मैं तो वकील भी नहीं हूँ। चलो बताने की छोड़ो, उन्हें पता भी है कि नहीं देश की गवर्नेन्स का जो तरीका है, वह कैसे बनाया जाता है? हमारे लोगों को पता हीं नहीं है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के वकील जो संवैधानिक मामले देखते है, उनको ये पता होना चाहिए था, मगर उनको भी पता नहीं है। बाकी लोगों का क्या पता होगा? इस देश में जो अशिक्षा, बेरोजगारी और भुखमरी ये सारी समस्यायें हैं। इन समस्याओं का जड़ सच्चा प्रतिनिधित्व का नहीं होना है। संसद में कोई बोलता ही नहीं है। 
        बाबा साहब अम्बेडकर का तजुर्बा था। उन्होंने कहा कि उनके सामने लोग जाते थे और संसद में नहीं बोलते थे। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी में एक जगह कहा कि वे केवल जम्हाई लेने के लिए ही संसद में मुँह खोलते है, अन्यथा खोलते ही नहीं है। ये बाबा साहब का तजुर्बा है। मैं अपना तजुर्बा बताता हूँ कि अगर जम्हाई लेना प्राकष्तिक कार्य नहीं होता तो इसके लिए भी नहीं खोलते। मजबूरी में खोलना पड़ता है, नहीं तो वे इसके लिए भी वे मुँह नहीं खोलते। उन्हें मुँह इस प्रकार प्रतिनिधित्व विहीन लोकतंत्र ने ब्राह्मणतंत्र निर्माण किया गया। इस ब्राह्मणतंत्र को निर्माण करने का श्रेय गांधी जी को जाता है। यह सारी सत्यानाशी के लिए गांधीजी जिम्मेवार है। जिस गांधीजी को हमारे देश के बहुत सारे लोग सिर पर ढो रहे है, वहीं गांधी आपके दुर्दशा और सारी समस्याओं का कारण है। इस देश में यदि लोकतंत्र अर्थहीन हो गया है तो उसके लिए गांधीजी जिम्मेवार हैं, पूना पैक्ट जिम्मेवार है, संयुक्त निर्वाचन प्रणाली जिम्मेवार है। यदि इस देश में एससी की कोई स्वतंत्रत आन्दोलन नहीं चल रहा है और उस स्वतंत्र आन्दोलन को दबा दिया गया है, या खत्म कर दिया गया है तो उसके लिए संयुक्त निर्वाचन प्रणाली जिम्मेदार है। इसने दलाल और भड़वों को पैदा किया है। जिनको हमारे अनपढ़ लोगों ने अपना सच्चा नेता माना लिया है। जो लड़ाई लड़ने वाले लोग थे, उनका समर्थन करने के बजाए अनपढ़ लोगों ने दलालों का समर्थन किया। परिणामत: एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी का स्वतंत्रत आन्दोलन समाप्त हो गया। अशिक्षित लोग दलालों को अपना नेता मानने लगे। एम.एल.ए और एम.पी जो दलाल हैं, उन्हें अपना नेता मानकर, लड़ने वालों लोगों का समर्थन करना बन्द कर दिया। यही आज भी हो रहा है। मैं उनका हल जानता हूँ। इस समस्या का समाधान हमने ढूढ़ निकाला है। आने वाले समय में हम इसे लागू करेंगे। मगर ये आज की परिस्थिति है। 
       वर्तमान व्यवस्था में हमारे समस्या का समाधान नहीं है। इसलिए हम लोगों को इसे समाप्त करना होगा। क्योंकि इसने हमारे स्वतंत्र आन्दोलन को समाप्त कर दिया। दूसरा इसने हमारे अन्दर नेतष्त्वहीनता पैदा की। क्योंकि दलालों को हमने नेता माना। दलाल नेता नहीं बन सकता, लेकिन नेता हमनें मान लिया। इसलिए समाज में नेतष्त्वहीनता निर्माण हो गई। जो समाज नेतष्त्वहीन हो जाता है, तो वह भीड़ में रूपान्तरित हो जाता है, फिर भीड़ को चलाने के लिए यानि भेड़-बकरियों को चराने के लिए किसी योग्यता या पढ़ा-लिखा होने की जरूरत नहीं है। जैसे भीड़ को आप जिधर ले जाना चाहते हो आप उधर ले जा सकते हो। ये हो रहा है। इस देश की जनता को ही नहीं, इस देश को भी दरिद्र बनाया गया। अगर मान लोग ब्राह्मण हमारे लोगों को भुखमरी के कगार पर नहीं पहुँचाएंगा तो हमारे लोग वोट बेचने के लिए कैसे तैयार होंगे? अगर हमारे लोग वोट बेचने को तैयार नहीं होंगे तो अल्पसंख्यक ब्राह्मणों को बहुसंख्यक बहुजनों के उपर राज करने का अवसर कैसे प्राप्त होगा? इसलिए ब्राह्मण हमारे लोगों को दरिद्र बनाते है और भुखमरी के कगार पर पहुँचा देते है। फिर भी कोई एससी, एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी एमपी और एमएलए उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा सकता है। क्योंकि वो वास्तविक प्रतिनिधि नहीं है। इसने एक और भंयकर परिणाम किया कि गुलाम भारत में जोतिरवा फुले के आन्दोलन में ब्राह्मणवाद को विरोध करने की भावना थी। जोतिराव फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार और बाबा साहब के समय लोगों के अन्दर विद्रोह की भावना थी अर्थात् गुलाम भारत में विद्रोह की भावना थी मगर आजाद भारत में विद्रोह की भावना समाप्त हो गई। ये भयंकर परिणाम है। मैं जानता हूँ, क्योंकि देश में लोगों के अन्दर विद्रोह की भावना पैदा किये बगैर कोई आन्दोलन निर्माण होने वाला नहीं है। विद्रोह की भावना से समझौता करने के लिए मजबूर कर दिया गया है। देश में एससी, एसटी और ओबीसी के लोगों पर अत्याचार होता है, तो उनके एम.एल.ए और एम.पी. उनके उपर अत्याचार करने वालों के समर्थन में पुलिस चौकी थानों में फोन करते है। इसलिए उनके विरोध में कुछ भी कार्यवाही नहीं होता है। इसलिए अत्याचार बढ़ रहा है। ये सारे के सारे मामले संयुक्त निर्वाचन प्रणाली के माध्यम से प्रतिनिधित्व विहीन लोकतंत्र की वजह से निर्माण हुए। भारत में वास्तविक लोकतंत्र को समाप्त कर दिया गया है। इसका कारण संयुक्त निर्वाचन प्रणली है हमारे कितने पढ़े-लिखे लोगों को ये पता है? इसलिए जानकारी के लिए यह विषय रखा गया था। क्योंकि जानने के बाद मन में प्रतिक्रिया और विद्रोह पैदा हो सकते है। इसलिए हमारे तरफ से कोशिश हो रही हैं कि पहले जाने, क्योंकि जाने बगैर ही कई किस्म का हम एक्शन प्लान बनाते है। इससे कोई सफलता मिलने वाली नहीं है। इसलिए हम लोगों को ज्यादा समय लग रहा है।     
       अभी भी हमारे लोग दलाल-भड़वों का समर्थन करने का काम करते है। एससी, एसटी और ओबीसी के कर्मचारी और पढ़े-लिखे लोग तथा यूनियन चलाने वाले लोग ऐसा करते रहते है। ये एम.एल.ए और एम.पी. चमचा है और ये कर्मचारी एम. एल.ए और एम.पी. का चमचा है अर्थात कर्मचारी चमचों का चमचा है। क्योंकि हमारा एससी/एसटी/ओबीसी का कर्मचारी चमचे एम.एल.ए, एम.पी. के पीछे-पीछे, पीछे-पीछे घूमता रहता है। इस प्रकार जो चमचा हमारी समस्या का समाधान नहीं कर सकता है। जब तक आप उसके पीछे-पीछे घूमते रहेंगे तब तक आपकी किसी भी समस्या का समाधान होने वाला नहीं होगा। समाधान कहीं और है। चमचों के पीछे घूमने में समाधान नहीं है। ये चमचा बनाने का काम भी भयंकर परिणाम में आता है। ये बहुत सारी बातें है। इसलिए हमारे पुरखों द्वारा चलाए गये स्वाभिमानी, स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर स्वतंत्र आन्दोलन को निर्माण करने से पहले सत्यानाश करने के कारण जानना होगा। क्योंकि इसे जाने बगैर आन्दोलन पुर्ननिर्माण करना संभव नहीं है।  -वामन मेश्राम, राष्ट्रिय अध्यक्ष, बामसेफ

Saturday, September 26, 2015

किसानों की आत्महत्या : राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं

किसानों की आत्महत्या : राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं

kisan-hatya
जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान. लोकतंत्र में जय उसी की होती है, जिसकी ज़रूरत सबसे ज़्यादा होती है. लाल बहादुर शास्त्री जी ने 1965 के युद्ध में जय जवान का नारा लगाया और हरित क्रांति के दौर में जय किसान का. और, सफल परमाणु परीक्षण के बाद अटल जी ने जय विज्ञान का नारा गढ़ा. लेकिन, सवाल है कि जय जवान, जय किसान और जय विज्ञान के बीच आज किसान कहां पर खड़ा है? क्या किसान आज सचमुच जय की हालत में है? एक जवान की मौत पर सारा देश एक साथ सवाल खड़े करता है, लेकिन पिछले 20 वर्षों में लाखों किसानों की आत्महत्या पर हर तऱफ खामोशी छाई है. ऐसा क्यों? जय किसान का नारा लगाने वाले इस देश में आ़िखर किसानों की आत्महत्या राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बन पाई? उदारवादी अर्थव्यवस्था अपनाए हुए 25 वर्ष हो गए हैं. 1991 में जब इसकी शुरुआत हो रही थी, तब कहा गया था कि इससे देश में खुशहाली आएगी. आज 25 वर्ष बाद की एक स्याह तस्वीर या कहें कि आंकड़े देखिए. 1995 से 2014 के बीच देश में आधिकारिक तौर पर तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं. आइए, किसान आत्महत्या के आंकड़ों एवं कारणों पर बात करने से पहले हम देश के कुछ ऐसे किसान परिवारों से मिलते हैं, जो आज़ादी की 69वीं वर्षगांठ के मौक़े पर दिल्ली तो आए, लेकिन जश्न मनाने नहीं. वे दिल्ली आए थे, प्रधानमंत्री, मंत्री और मीडिया को अपनी दु:खभरी कहानी सुनाने. यह अलग बात है कि मानसून सत्र से जूझ रहे प्रधानमंत्री या किसी मंत्री को उनकी कहानी सुनने की फुर्सत नहीं मिली या कहें भारत की यह स्याह तस्वीर देखने में किसी की दिलचस्पी ही नहीं थी. अखिल भारतीय किसान सभा के नेतृत्व में क़रीब ढाई सौ ऐसे किसान परिवार दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंचे, जिनके किसी न किसी सदस्य ने फसल क्षति या कर्ज के दबाव में आत्महत्या कर ली. जब चौथी दुनिया ने इन परिवारों से बातचीत की, तो बिना कोई खास शोध-पड़ताल के यह तथ्य सामने आया कि आ़िखर देश के किसान आत्महत्या क्यों करते हैं?
जैसे ही आप चालीस वर्षीय रेखा वाडगुडे को देखते हैं, तो उनसे कोई सवाल पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती. वर्धा ज़िले के पवनार निवासिनी रेखा के पति मनोहर महादेव वाडगुडे ने बीते नौ जुलाई को आत्महत्या कर ली. रेखा का चेहरा देखकर ही उनके परिवार की बदहाली का अंदाज़ा लग जाता है. बाकी बातचीत उनके 17 वर्षीय बेटे विक्की से होती है, जो अपनी मां के साथ दिल्ली आया था. विक्की बताता है कि बैंक, साहूकार और स्वयं सहायता समूह का कुल कर्ज क़रीब दो लाख रुपये था. 3.5 एकड़ ज़मीन में कपास और सोयाबीन लगाया था, लेकिन भारी बारिश की वजह से फसल बर्बाद हो गई. इस साल फिर बुवाई के लिए पैसे की ज़रूरत थी, उधर साहूकार और बैंक वाले उधारी चुकाने के लिए दबाव डाल रहे थे, जिसे उसके पिता झेल नहीं पाए और उन्होंने आत्महत्या कर ली. विक्की बताता है कि पुलिस ने आत्महत्या की रिपोर्ट भी लिखी, लेकिन ज़िला प्रशासन से अभी तक कोई राहत नहीं मिली है. वर्धा ज़िले के ही अष्टा गांव निवासी समीर तावड़े के पिता गजानंद तावड़े ने भी 2010 में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी. समीर के मुताबिक, 2010 में फसल बर्बाद होने और कर्ज न चुका पाने की वजह से उसके पिता ने आत्महत्या की, लेकिन आज तक उसे एक पैसे का न तो मुआवजा मिला और न किसी तरह की सरकारी मदद. समीर बताता है कि उसके गांव में पिछले चार वर्षों में चार किसान आत्महत्या कर चुके हैं. महाराष्ट्र के मराठवाड़ा के आठ ज़िलों में बीते वर्ष यानी 2014 में 574 किसानों ने आत्महत्या की, वहीं 2015 के अप्रैल माह तक दो सौ से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
पिछले 25 सालों में कांग्रेस की सरकार रही, भाजपा की रही और अन्य दलों की भी रही. किसानों की आत्महत्या दर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि केंद्र या राज्य में किसकी सरकार है. और, किसी सरकार को भी यह सोचने की फुर्सत नहीं मिली कि आ़िखर इस विकराल समस्या का स्थायी समाधान क्या हो सकता है? यूपीए ने 65,000 करोड़ रुपये के किसान कर्ज मा़फ करने की घोषणा की, जिसका फायदा शायद ही उन किसानों को मिला हो, जो सही मायनों में हक़दार थे. बाद में स्वामीनाथन आयोग बना (देखें बाक्स). आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी, सुझाव दिए और उन सुझावों को चुनावी जुमलों के तौर पर खूब इस्तेमाल भी किया गया. लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री पद के भाजपा उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने ज़ोर-शोर से कहा कि लागत का 50 फीसद किसानों को अलग से एमएसपी के तौर पर दिया जाएगा. उनकी सरकार भी बन गई, लेकिन अभी तक उनकी घोषणा और स्वामीनाथन आयोग के सुझावों पर कोई अमल नहीं हो सका है.
दिसंबर, 2014 में खबर आई कि आईबी ने केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट दी है, जिसमें बताया गया है कि कैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक एवं पंजाब में किसान आत्महत्या का ट्रेंड बढ़ता जा रहा है. कहा गया कि यह रिपोर्ट राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्रा और कृषि मंत्रालय भेजी गई थी. रिपोर्ट में बताया गया कि आत्महत्या की वजह कमज़ोर मानसून, बढ़ता कर्ज, कम उपज, कमज़ोर सरकारी खरीद और फसल क्षति है. यह रिपोर्ट मानव जनित कारणों में प्राइसिंग पॉलिसी और  अपर्याप्त मार्केटिंग सुविधा को किसानों की समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार बताती है. रिपोर्ट सा़फ तौर पर बताती है कि सरकारी राहत पैकेज से भी किसानों का भला नहीं होने वाला, क्योंकि ज़्यादातर किसान साहूकारों से कर्ज लेते हैं, जो 24 से लेकर 50 फीसद तक ब्याज वसूलते हैं, जिसका कोई समाधान ऐसे आर्थिक राहत पैकेज नहीं दे सकते.
अब सवाल यह है कि ऐसी रिपोर्ट मिलने के बाद क्या मौजूदा केंद्र सरकार कोई ठोस कृषि या किसान कल्याण नीति बनाएगी, जिससे इस समस्या का स्थायी समाधान निकल सके या फिर कृषि मंत्रालय का नाम किसान कल्याण मंत्रालय कर देने मात्र से समाधान हो जाएगा? मौजूदा सरकार आने के बाद भी किसानों की आत्महत्या का सिलसिला रुक नहीं रहा है. संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक, वर्ष 2014 के अप्रैल माह तक महाराष्ट्र में 204, तेलंगाना में 69, गुजरात, केरल एवं आंध्र प्रदेश में तीन-तीन किसानों ने आत्महत्या की. हालांकि, कई सामाजिक संगठनों ने इसे आंकड़ों की बाजीगरी बताया. वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ ने कहा है कि किसानों की आत्महत्या के आंकड़े कम करके बताए जा रहे हैं, ऐसा एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो) द्वारा आंकड़े एकत्र करने के तरीके में बदलाव की वजह से है (देखें बाक्स).
बहरहाल, किसान आत्महत्या जैसी गंभीर समस्या की वजहों और इसे लेकर देश भर के किसान संगठनों की प्रतिक्रियाओं को जानना ज़रूरी है. यह भी जानना ज़रूरी है कि किसान आंदोलन चलाने वाले किसान नेता आ़िखर ऐसा क्या काम कर रहे हैं या नहीं कर पा रहे हैं, जिससे यह समस्या एक राष्ट्रीय मुद्दा बन सके. इस बारे में जब चौथी दुनिया ने अखिल भारतीय किसान सभा के नेता हन्नान मोल्ला से बातचीत की, तो उन्होंने बताया कि उनका संगठन पिछले कुछ समय में देश के ऐसे 500 किसान परिवारों से मिल चुका है, जिनके किसी न किसी सदस्य ने फसल बर्बादी या कर्ज की वजह से आत्महत्या कर ली. हन्नान साहब बताते हैं कि हमने उन परिवारों से मिलकर जानकारियां जुटाईं और उसे राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का फैसला किया. इसी कड़ी में किसान सभा 10 एवं 11 फरवरी को ऐसे क़रीब सौ परिवारों को लेकर जंतर-मंतर पहुंची. संगठन ने अरुण जेटली को पत्र लिखकर मिलने की अपील भी की, लेकिन समय नहीं मिल सका. संगठन की मांग है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक लागत का 50 फीसद उन्हें बतौर एमएसपी मिले और साथ ही ऐसे परिवारों को दस लाख रुपये का मुआवज़ा भी दिया जाए. संगठन की योजना है कि इस मुद्दे पर देश के विभिन्न हिस्सों और प्रत्येक राज्य की राजधानी में आंदोलन चलाया जाए, ताकि लोगों को इस समस्या के बारे में पता चल सके. चौथी दुनिया ने भारतीय किसान यूनियन (राकेश टिकैत) के नेता राकेश टिकैत से भी बातचीत की. उनका कहना था कि जब तक फसलों के उचित दाम नहीं मिलेंगे, तब तक आत्महत्या होती रहेगी. हम सरकार से लगातार यह मांग कर रहे हैं कि वह किसानों को फसल का उचित मूल्य देने की व्यवस्था करे. हम इसके लिए लगातार लड़ाई लड़ते रहेंगे.
ज़ाहिर है, वक्त आ गया है कि भारतीय संसद किसानों और कृषि क्षेत्र से संबंधित पिछले 25 वर्षों में अपनाई गई नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों की समीक्षा करे, क्योंकि यही नीतियां बढ़ते कृषि संकट के लिए ज़िम्मेदार हैं, इन्हीं की वजह से देश में लाखों किसानों ने आत्महत्या की और अभी भी आत्महत्या का दौर जारी है. क्यों नहीं केंद्रीय स्तर पर आत्महत्या पीड़ित परिवारों का बकाया कर्ज मा़फ करने के लिए केरल की तरह कर्ज सहायता कमीशन गठित किया जाना चाहिए? क्यों नहीं यह नियम बने कि मेहनतकश किसानों, बटाईदारों एवं खेतिहर मज़दूरों को खेती के लिए ब्याज मुक्त कर्ज दिया जाए और अन्य किसानों से चार प्रतिशत से ज़्यादा ब्याज न वसूला जाए? क्या यह ज़रूरी नहीं है कि भूमिहीन मज़दूरों के लिए मनरेगा के तहत कम से कम 200 दिनों का रोज़गार मिले, न्यूनतम 300 रुपये दैनिक मज़दूरी मिले और मनरेगा को पूरे देश में लागू किया जाए?
लेकिन, सबसे बड़ा सवाल सरकार की नीति और नीयत का है. कृषि क्षेत्र को लेकर सरकार की नीति और नीयत को अगर समझना है, तो एक और आंकड़ा देखिए. आज़ादी के बाद शुरुआती सालों में जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 53.1 फीसद थी. 60 वर्षों बाद यह घटकर 13 फीसद रह गई. वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में योजना आयोग ने विजन-2020 बनाया था, जिसके मुताबिक, 2020 तक जीडीपी में कृषि (किसानी) योगदान कम करके छह फीसद करने का लक्ष्य तय किया गया था. यानी सरकार चाहे जिसकी हो, अगर इसी लक्ष्य पर काम होता रहा, तो आने वाले समय में इस देश में जय किसान की जगह एक था किसान का नारा गढ़ा जाना तय है.

एनसीआरबी के आंकड़ों की सच्चाई कुछ और है..
वर्ष 2014 के आंकड़े बताते हैं कि किसानों की आत्महत्या के मामले कम हुए हैं. 2014 में यह संख्या 5,660 थी, जबकि 2013 में 11,772. आ़िखर यह संख्या कम कैसे हुई? दरअसल, आंकड़े तैयार करने वाली एजेंसी एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के अधिकतर मामले नए वर्ग में डाल दिए हैं. इससे हुआ यह कि किसानों की आत्महत्या के मामलों की संख्या कम हो गई, लेकिन अन्य वर्ग-श्रेणी में यह संख्या बढ़ गई. एनसीआरबी ने 2014 में ऐसे किसानों, जो भूमिहीन हैं, को खेतिहर मज़दूर बताया है. हालांकि, एनसीआरबी का मानना है कि नए आंकड़ों की विश्वसनीयता की जांच नहीं की जा सकी है. फिर सवाल यह भी है कि जहां आत्महत्या की घटनाएं होती हैं, वहां के स्थानीय अधिकारी, खासकर पुलिस विभाग के लोग क्या किसान आत्महत्या के मामले उचित तरीके से दर्ज करते हैं? एनसीआरबी के 2014 के आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल, राजस्थान और बिहार में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की. ग़ौरतलब है कि एनसीआरबी के पास आत्महत्या से जुड़ी दो कैटेगरी हैं, एक स्व-रा़ेजगार (खेती) और दूसरी स्व-रा़ेजगार (अन्य). उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या (खेती) का आंकड़ा कम हो रहा है, जबकि अन्य कैटेगरी में बढ़ रहा है. यही मध्य प्रदेश में हुआ, जहां किसान आत्महत्या के 82 मामले घटे, वहीं अन्य कैटेगरी में 236 मामलों की वृद्धि हुई है.

स्वामीनाथन आयोग के सुझावों पर अमल क्यों नहीं…
भूमि सुधार
-सीलिंग सरप्लस और बंजर भूमि का वितरण.
-मुख्य कृषि भूमि और जंगल कॉरपोरेट क्षेत्र को ग़ैर कृषि प्रयोजनों के लिए देने पर रोक.
-आदिवासियों और चरवाहों को जंगल में चराई का अधिकार.
-एक राष्ट्रीय भूमि उपयोग सलाहकार सेवा की स्थापना.
-कृषि भूमि की बिक्री विनियमित करने के लिए एक तंत्र की स्थापना.
आत्महत्या कैसे रुकेगी
-सस्ता स्वास्थ्य बीमा प्रदान करें, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को पुनर्जीवित करें.
-माइक्रोफाइनांस नीतियों का पुनर्गठन, जो आजीविका वित्त के तौर पर काम करें.
सस्ती क़ीमत, सही समय-स्थान पर गुणवत्ता युक्त बीजों और अन्य सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित करें.
-कम जोखिम और कम लागत वाली प्रौद्योगिकी, जो किसानों को अधिकतम आय प्रदान करने में मदद कर सके.
-जीवन रक्षक फसलों के मामले में बाज़ार हस्तक्षेप योजना की आवश्यकता.
-अंतरराष्ट्रीय मूल्य से किसानों की रक्षा के लिए आयात शुल्क पर तेजी से कार्रवाई की आवश्यकता.
किसानों की प्रतिस्पर्धा
-न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के कार्यान्वयन में सुधार. धान और गेहूं के अलावा अन्य फसलों के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था की जानी चाहिए.
-न्यूनतम समर्थन मूल्य उत्पादन की औसत लागत की तुलना में कम से कम 50 ़फीसद अधिक होना चाहिए.
-ऐसे बदलाव की ज़रूरत है, जो घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए स्थानीय उत्पाद की ग्रेडिंग, ब्रांडिंग, पैकेजिंग और विकास को बढ़ावा दे.

किसानों की दुर्दशा पर नेताओं ने जो कहा…
किसानों को खुद अपना बचाव करने दें. अगर फसल बर्बाद होती है, तो वे खुद सोचेंगे कि क्या करना है. मर रहे हैं, तो मरने दें. जो खेती कर सकेगा, करेगा और जो नहीं कर सकेगा, नहीं करेगा.
-संजय धोत्रे, भाजपा सांसद, अकोला, महाराष्ट्र.
फसल बर्बाद होने से कोई भी आत्महत्या नहीं कर रहा है. मध्य प्रदेश में किसान व्यक्तिगत समस्याओं की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं.
-कैलाश विजयवर्गीय, भाजपा महासचिव.
आत्महत्या करने वाले लोग डरपोक और अपराधी होते हैं, भारतीय क़ानून में आत्महत्या अपराध है.
-ओम प्रकाश धनकड़, कृषि मंत्री, हरियाणा.
दिल्ली में अपने घर के पौधों को मैं अपने मूत्र से सींचता हूं. यह मुफ्त की खाद है. यह तरीका किसानों को बेहतर पौधा उपजाने में मदद करेगा.
-नितिन गडकरी, केंद्रीय मंत्री.
सरकार के पास किसानों की आत्महत्या रोकने का कोई विकल्प नहीं है.
-एकनाथ खड़से, कृषि मंत्री, महाराष्ट्र.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों की आत्महत्या के कारणों में ऋण ग्रस्त होना, फसल न होना या खराब हो जाना, सूखा आदि तो हैं ही, साथ ही पारिवारिक समस्याएं, बीमारी, नशे की लत, बेरा़ेजगारी, संपत्ति विवाद, व्यवसायिक या रा़ेजगार संबंधी समस्या, प्रेम प्रसंग के मामले, बांझपन एवं नपुंसकता, विवाह न होना या विवाह विच्छेद, दहेज समस्या, सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी आदि कारण भी जुड़े हैं.
-राधा मोहन सिंह, केंद्रीय कृषि मंत्री.

हम किसान आत्महत्या का मुद्दा पूरे देश में ले जाएंगे और प्रत्येक राज्य की राजधानी में आंदोलन करेंगे. हमारी मांग है कि किसानों को सस्ती खाद, सस्ती बिजली और सस्ता कर्ज मिले और प्रत्येक मृतक के परिवार को दस लाख रुपये का मुआवज़ा मिले.
-हन्नान मोल्ला, अखिल भारतीय किसान सभा.
किसानों की दुर्दशा का मुख्य कारण फसल का उचित मूल्य न मिलना है. सरकार से हमारी लड़ाई इसी बात को लेकर है. जब तक उचित मूल्य नहीं मिलेगा, तब तक आत्महत्या को नहीं रोका जा सकता है.
-राकेश टिकैत, भारतीय किसान यूनियन.
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Friday, September 25, 2015

मानवीय मूल्यों का त्याग ठीक नहीं

मानवीय मूल्यों का त्याग ठीक नहीं


देश के हर हिस्से का विकास होना चाहिए. प्रधानमंत्री खुद पूर्वोत्तर के विकास की बात कर रहे हैं. कश्मीर की तरह पूर्वोत्तर भी वंचित क्षेत्र रहा है. पूर्वोत्तर में क्या होता है, इससे दिल्ली या मुंबई के लोगों का कोई सरोकार नहीं होता. ऐसा मुझे लगता है. पूर्वोत्तर से कोई खबर तभी आती है, जब वहां किसी लाचार लड़की से दुर्व्यवहार हो जाता है. उसके बाद पूर्वोत्तर पर कुछ बड़े लेख छप जाते हैं. लेकिन, वास्तव में पूर्वोत्तर में क्या हो रहा है, क्या वहां के लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का मौक़ा मिल रहा है? ये सारी बातें सार्वजनिक बहस से अलग हो गई हैं. ऐसा क्यों है? 
blog-morarkaअभी देश में जो एक चिंताजनक प्रवृत्ति दिखाई दे रही है, वह है विकास के लिए, बुनियादी सुविधाओं के लिए, बुलेट ट्रेन के लिए, एअरपोर्ट और सड़क निर्माण के लिए अंधी दौड़ या कहें अंध प्रचार. दरअसल, ये सभी आवश्यक हैं, लेकिन हम अपने इस अंध प्रचार में एक राष्ट्र के रूप में अपनी संवेदनशीलता कहीं न कहीं खो रहे हैं. इसे स्पष्ट करने के लिए दो उदाहरण पर्याप्त हैं. पहला, 80 के दशक में हुए हाशिमपुरा नरसंहार पर आए अदलती फैसले में सभी आरोपी पुलिसकर्मियों को संदेह का लाभ देते हुए रिहा कर दिया गया. ठीक है! अदालत एक तकनीकी दृष्टिकोण अपना सकती है, यह एक क़ानूनी प्रक्रिया है, लेकिन हक़ीक़त फिर भी यह है कि लोगों की निर्मम हत्या की गई थी. उत्तर प्रदेश की पीएसी (प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी) इसके लिए ज़िम्मेदार थी. बाकी पुलिस बल को इसकी जानकारी थी. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने इस मामले को मीडिया के साथ मिलकर उजागर किया था. लेकिन यह कितने शर्म का विषय है कि इतने लंबे विलंब के बाद भी ज़िंदा बच गए पीड़ितों को राहत नहीं मिली. कुछ तो अपनी प्राकृतिक मौत मर चुके हैं. लेकिन, जो ज़िंदा हैं, उन्हें यह घटना अंजाम देने वालों को सिर उठाकर शान से जाते हुए देखना पड़ रहा है.
दूसरी बात यह है कि पूरे देश में इस घटना को लेकर कोई हो-हल्ला नहीं हुआ, कोई पोस्टर नहीं दिखा, कोई आपत्ति नहीं दर्ज कराई गई और कोई हाशिमपुरा नहीं गया. 20-30 साल पहले राजनेताओं में (दबाववश) और आम जनता में जो संवेदनशीलता दिखाई देती थी, वह अब नहीं दिखती. यह सब कहीं खो गया लगता है. मुंबई में बैठकर हमें अ़खबारों से पता चलता है कि कहां फ्लाईओवर बनाया रहा है, पुल बन रहा है, विकास के किस काम में बदलाव हुआ है, लेकिन हमारे पास यह महसूस करने के लिए समय नहीं है कि हमारे साथी नागरिकों का क्या हाल है या उनके साथ क्या कुछ घटित हो रहा है. पहले पुलिस ने हाशिमपुरा के लोगों के साथ बुरा किया और क़ानूनी प्रक्रिया के बाद भी उनके हाथ कुछ नहीं लगा.
अब कश्मीर पर एक नज़र. पिछले साल कश्मीर में भयानक बाढ़ आई थी. श्रीनगर ने इस तरह की त्रासदी पहले कभी नहीं देखी थी. उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे. उन्होंने अपने स्तर पर ठीक काम किया. लोगों की जान बचाने की दिशा में सेना ने बेहतरीन काम किया. एक बार फिर कश्मीर में बाढ़ आई. समाचार-पत्रों की रिपोट्‌र्स के मुताबिक, इस बार त्रासदी टल गई. अब यह कोई मुद्दा नहीं है. बाढ़, सूखा या अन्य प्राकृतिक आपदा देश में कहीं भी आ सकती है और उससे निपटने के लिए देश में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण है. यह सब ठीक है, लेकिन राष्ट्र की संवेदनशीलता का क्या? पहले जब बिहार में भूकंप आता था या बाढ़ आती थी, तो उसके साथ सारा देश खड़ा हो जाता था. सारे देश से पैसा इकट्ठा किया जाता था. ऐसा नहीं है कि पैसा महत्वपूर्ण था, पैसे से ज़्यादा लोगों की भावनाएं महत्वपूर्ण थीं, जो दिखाती हैं कि हम आपके साथ हैं. मुंबई से इंडियन एक्सप्रेस या टाइम्स ऑफ इंडिया अपने पाठकों से पैसा इकट्ठा करना शुरू कर देते थे और मदद के लिए भेजते थे. लेकिन, कश्मीर के मामले में ऐसा नहीं दिखा. क्या कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है? क्या हम कश्मीर पर पाकिस्तान के उस मत को और मजबूत नहीं बना देते कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है? भारतीयों ने वहां के लोगों के प्रति अपनी संवेदनशीलता खो दी है और वे यह मानकर चल रहे हैं कि उन पर पैसा खर्च करना व्यर्थ है. एक राष्ट्र के तौर पर हम क्या हो गए हैं? हमारी आत्मा संवेदनहीन हो गई है. एक देश के लिए इससे अधिक दु:खद और क्या हो सकता है?
इस सबके साथ कोई देश कितना आगे बढ़ सकता है? हम चीन नहीं बन सकते, क्योंकि चीन में लोकतंत्र नहीं है. चीन में नेता प्रोजेक्ट बनाते हैं, वही यह ़फैसला करते हैं कि किस नदी को जोड़ना है, कहां बांध बनाना है, कहां पुल बनाना है. ये ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते. यह उनके विकास का तरीका है, हमारा तरीका अलग है. देश के हर हिस्से का विकास होना चाहिए. प्रधानमंत्री खुद पूर्वोत्तर के विकास की बात कर रहे हैं. कश्मीर की तरह पूर्वोत्तर भी वंचित क्षेत्र रहा है. पूर्वोत्तर में क्या होता है, इससे दिल्ली या मुंबई के लोगों का कोई सरोकार नहीं होता. ऐसा मुझे लगता है. पूर्वोत्तर से कोई ़खबर तभी आती है, जब वहां किसी लाचार लड़की से दुर्व्यवहार हो जाता है. उसके बाद पूर्वोत्तर पर कुछ बड़े लेख छप जाते हैं. लेकिन, वास्तव में पूर्वोत्तर में क्या हो रहा है, क्या वहां के लोगों को मुख्य धारा में शामिल होने का मौक़ा मिल रहा है? ये सारी बातें सार्वजनिक बहस से अलग हो गई हैं. ऐसा क्यों है?
मुझे लगता है कि सत्ता हो या मीडिया, उनमें संवेदनशीलता खत्म हो चुकी है. उनकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं. वे अंधी दौड़ में शामिल होकर चमकते मल्टीप्लेसेज, फ्लाईओवर और सड़कें दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. वे उस चमक में मानो खो गए हैं. हर कोई यहां दिखाने में लगा हुआ है कि देखो, हमने कितनी जल्दी यह पुल बना लिया, कितनी दूरी कम कर दी है. नितिन गडकरी ने देश में ऐसे टोल नाके की खोज की, जहां बहुत ही कम ट्रैफिक है, वहां एक टोल गेट है. लेकिन, जहां पर बहुत ज़्यादा ट्रैफिक है, वहां पर टोल गेट ट्रैफिक को रोके रखता है. प्रगति की बात सही है, लेकिन कहीं पर हमें एक संतुलन बनाने की ज़रूरत है. भौतिक विकास के लिए मानवीय मूल्यों का त्याग नहीं किया जा सकता. अन्यथा, विकास के नाम पर हम ग़रीबों के साथ नाइंसाफी करते रहेंगे. ग़रीबों को इन सारे विकास का लाभ बमुश्किल मिल पाता है. उन्हें पहले रोटी-कपड़ा-मकान चाहिए. लेकिन, हम इसकी जगह कुछ और ही बातें कर रहे हैं. हमारी असंवेदनशीलता ग़रीबों के लिए घातक है. जितनी जल्दी हम यह सब समझ सकें, उतना ही बेहतर होगा.
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पूंजीपतियों का साथ लेना क्रोनी कैपिटलिज्म नहीं है

पूंजीपतियों का साथ लेना क्रोनी कैपिटलिज्म नहीं है


Meghnad-Desaiबीता महीना वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए काफी हलचल का था. पिछले 25 वर्षों के दौरान दुनिया चीन के दोहरे अंक के आर्थिक विकास को आश्चर्य से देखती रही. भारतीयों के लिए भी यह ईर्ष्या का विषय बना हुआ था. लोग यह सवाल पूछा करते थे कि अगर भारत में तानाशाही होती, तो क्या भारत भी अच्छा कर सकता था? पिछले महीने शंघाई स्टॉक एक्सचेंज धराशायी हो गया. दरअसल, यह एक ऐसा गुब्बारा था, जिसके फटने का इंतज़ार काफी समय से किया जा रहा था. बहरहाल, चीनी अधिकारियों ने बाज़ार संभालने के लिए 200-300 अरब डॉलर बाज़ार में जारी किए और शेयरों की बिकवाली पर रोक लगाई. इससे साबित होता है कि उन्हें आधुनिक बाज़ार की कोई समझ नहीं है. इन उपायों के बावजूद बाज़ार संभल नहीं सका और एक बार फिर लुढ़क गया. कम्युनिस्ट पार्टियां एक खास उद्देश्य और काम की तकनीकी निश्चितता द्वारा संचालित होती हैं. उन्हें विकल्प दे दीजिए और उनका काम थोड़ा जटिल बना दीजिए, तो वे उलझ कर रह जाएंगी. सोवियत संघ के विघटन का यही कारण था.
फिलहाल यह सा़फ हो गया है कि चीन केवल निर्यात के आधार पर ही लगातार विकास नहीं कर सकता. चीन के 20 वर्षों का विकास सस्ते मज़दूरों (ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोग, जिनके पास न तो स्वास्थ्य बीमा था और न नौकरी की सुरक्षा) पर निर्भर था. अब मज़दूरी बढ़ रही है और विकसित देशों का बाज़ार सिकुड़ रहा है. चीन को अपनी अर्थव्यवस्था अपनी घरेलू मांग पर आधारित करनी होगी और अपने मध्यम आय वर्ग को दूसरे देशों के मध्यम आय वर्ग के बराबर करना होगा. इसका अर्थ यह है कि उसे विकल्प देना होगा, ऋण देना होगा और उद्यमशीलता का विकास करना होगा, जिससे नई मांग की पूर्ति हो सके. इसका यह भी अर्थ है कि नियंत्रण समाप्त किया जाए और नागरिकों को आज़ादी दी जाए. कम्युनिस्ट पार्टियां यह करने में असमर्थ हैं, ऐसा कहना दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रेरित लग सकता है, लेकिन चीन इसी सच्चाई को साबित करता है.
अब चीन भी किसी अन्य अर्थव्यवस्था की तरह हो जाएगा. जब तक बदलाव का दौर समाप्त नहीं हो जाता, उसे सीखने की कोशिश और अगले 20 वर्षों तक चार से पांच प्रतिशत की विकास दर स्वीकार करनी होगी. चीन का अंत सोवियत संघ जैसा नहीं होगा, लेकिन यह भी सच है कि उसकी अर्थव्यवस्था अब चमत्कारी नहीं रहेगी. यह कहा जा सकता है कि ड्रैगन (चीन) ने फुंफकारना बंद कर दिया है. भारत एक लंबे समय से व्यापारिक (ट्रेडिंग) अर्थव्यवस्था रहा है. इसके शुरुआती दिनों से ही विश्वस्तरीय कपड़ा उद्योग मौजूद था. लेकिन, भारत ने सोवियत मॉडल का चुनाव किया, जो राज्यवादी (स्टेटिस्ट) और पूंजी प्रधान था और जो भारत की सबसे बड़ी ताक़त यानी इसकी श्रमशक्ति इस्तेमाल नहीं कर सका था. नतीजा यह हुआ कि भारत का विकास स्थिरता का शिकार हो गया. 1991 में भारत ने अपना रास्ता बदल दिया और बाज़ारोन्मुख नीति अपनाई, जिससे विकास फिर पटरी पर आ गया. इसके बावजूद भारत आराम नहीं कर सकता. वर्ष 1998 से लेकर 2007 तक की अवधि में भारत की ऊंची विकास दर विश्व की ऊंची विकास दर के कारण थी. फिलहाल विकसित देश निम्न विकास दर और निम्न मुद्रास्फीति के दौर से गुज़र रहे हैं. ऐसे में भारत को विदेशी बाज़ार के उछाल पर निर्भर नहीं रहना चाहिए.
भारत एक इकोनॉमिक पॉवर हाउस बन सकता है. इसके लिए भारत के नेताओं को आधुनिक अर्थशास्त्र की जटिलताएं समझनी होंगी, उन्हें राज्यवादी समाजवाद का मोह छोड़ना होगा. भारतीय राजनेता व्यवसाय विरोध में गर्व महसूस करते हैं, खास तौर पर यदि वह व्यवसाय विदेश से संबंधित हो तो. उन्हें इस तरह के विरोध का त्याग कर देना चाहिए. याद रहे कि कृषि हमारा सबसे बड़ा निजी क्षेत्र है और किसान एक व्यापारी. अब समय आ गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुले तौर पर व्यापार के अनुकूल विकास मॉडल तैयार करें. उन्हें सूट-बूट का कटाक्ष भूल जाना चाहिए. भारत को ऊंचाई पर ले जाने के लिए पूंजीपतियों का साथ लेना क्रोनी कैपिटलिज्म नहीं है. दरअसल, यही एकमात्र जनहितैषी नीति है.

आरक्षण पर नई बहस की कोशिश में संघ और भाजपा

आरक्षण पर नई बहस की कोशिश में संघ और भाजपा


reservationअहमदाबाद और सूरत में लोगों द्वारा अचानक प्रदर्शन करने की घटना ने देश को आश्चर्य में डाल दिया है. एक 22 वर्षीय शख्स अचानक नेता के रूप में इस तरह विशाल भीड़ जुटा सकता है, यह आम आदमी की कल्पना के बाहर था. यह सहज नहीं हो सकता. निश्चित तौर पर ऐसा कोई संगठन था, जो चुपचाप काम कर रहा था और इसका प्रबंधन कर रहा था. वह संगठन कौन है, हम नहीं जानते, लेकिन हम इस समस्या की जड़ समझने की कोशिश करते हैं. समस्या नौकरी में कमी की है, शिक्षा के क्षेत्र में सीटों की कमी की है, समस्या सुविधा में कमी की है, पिछड़ेपन के आधार पर दावेदारी की है. और, ये बातें 1980 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट में आईं और 1990 में श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा इसे लागू किया गया था. इसे लेकर देश में व्यापक आंदोलन हुआ, लेकिन अंत में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि एक साथ सभी आरक्षण मिलाकर यह 50 फीसद से अधिक नहीं हो सकता है.
समस्या जितनी दिखती है, उससे कहीं बड़ी है. पहली बात तो यह कि आरक्षण जाति आधारित होना चाहिए या ग़रीबी आधारित? तर्क यह था कि दलित एवं पिछड़ी जातियां दशकों अथवा कहें कि सदियों से पिछड़ेपन की शिकार और आम तौर पर ग़रीब रही हैं. इसलिए जाति और ग़रीबी एक-दूसरे के प्रतिरूप हैं. मंडल कमीशन ने यह सिफारिश की कि अगर कुछ निश्चित जातियों को आरक्षण दिया जाता है, तो इसमें ग़रीब भी आ जाएंगे. यह आंशिक रूप से सही है, लेकिन यह भी सही है कि ब्राह्मणों एवं राजपूतों की तरह ऊंची जाति के लोग भी ग़रीब हैं. उन्हें इसलिए कोई आरक्षण नहीं मिलता कि वे उच्च जाति में पैदा हुए हैं. एक अन्य समस्या जाति को परिभाषित करने को लेकर है. एक राज्य में कोई एक जाति अगड़ी हो सकती है, तो दूसरे राज्य में पिछड़ी. उदाहरण के लिए, बिहार में वैश्य समुदाय पिछड़ा माना जाता है, जबकि उत्तर भारत और पश्चिम भारत में यह बहुत समृद्ध है. बिहार में सुशील कुमार मोदी जैसे नेता पिछड़े माने जाते हैं. इन जटिलताओं को आसानी से हल नहीं किया जा सकता. राजस्थान में जाट प्रमुख जाति हैं. वे पिछड़ी जाति में शामिल होना चाहते हैं और इसके लिए मांग करते हैं. उत्तर प्रदेश और हरियाणा में पूरी तरह से जाटों का वर्चस्व है और मानते हैं कि यदि वे पिछड़ा वर्ग में शामिल होते हैं, तो उन्हें और अधिक लाभ मिलेगा.
एक आम बौद्धिक क्षमता वाला आदमी यह समझ सकता है कि गुजरात में जो हुआ, वह पटेलों द्वारा खुद के आरक्षण से आगे की बात है. उन्हें आरक्षण नहीं मिल सकता और इस बात को वे भी समझते हैं. वे शायद आरक्षण पर इस बहस को जन्म देना चाहते हैं कि अन्य सभी जातियों के लिए भी आरक्षण समाप्त कर देना चाहिए. उद्देश्य तो यही प्रतीत होता है. उन्होंने आज आंदोलन शुरू किया है और अगले चुनाव तक शायद यह राष्ट्रीय मुद्दा बन जाए कि आरक्षण नहीं होना चाहिए. यह इस आंदोलन का प्रारंभिक खतरा है. यह क़ानून व्यवस्था की समस्या नहीं है. पुलिस ने हार्दिक पटेल को गिरफ्तार करके बेवकूफी की. आंदोलन से निपटने का यह कोई तरीका नहीं है.
इसी तरह दिल्ली पुलिस मूर्खतापूर्ण तरीके से सेना के पूर्व लोगों के साथ पेश आई. यह तरीका सही नहीं था. क्या पुलिस देश को संभाल सकती है? पाकिस्तान बहुत सही कर रहा है, जहां लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं है, प्रधानमंत्री की आवाज़ का कोई मतलब नहीं है, वहां स़िर्फ सेना है, जो असल शासन कर रही है. हम यहां वैसा नहीं कर सकते. हमारे यहां बातचीत और संवाद ही असल चीज है. बेशक, अभी यह कहना कठिन है कि पटेल चाहते क्या हैं, लेकिन हमें बड़े मुद्दे को संबोधित करना शुरू कर देना चाहिए. हम कैसे आरक्षण की इस समस्या से निपटने जा रहे हैं? हमें ग़रीबी से निपटना है. व्यक्ति किसी भी जाति का हो, अगर वह ग़रीब है, उसके पास भोजन नहीं है, तो उसे पैसा देना ही होगा. इस सरकार ने जिस मनरेगा की आलोचना की, वह बहुत अच्छा काम कर रही है. इसकी वजह से ग़रीबों के हाथ में थोड़ा-बहुत पैसा आया है. निश्चित तौर पर इसमें भ्रष्टाचार है, दुरुपयोग है, लेकिन यह भी सही है कि कल तक जिन ग़रीबों के पास कोई काम नहीं था, आज उन्हें काम मिल रहा है और इसके ज़रिये उनके हाथ में पैसा आ रहा है.
केंद्रीय मुद्दा जाति नहीं, ग़रीबी है. ग़रीबी हटाने के लिए पिछड़ी जातियों को आरक्षण दिया जाना चाहिए. अनुसूचित जातियों को दस साल के लिए संविधान में दस ़फीसद आरक्षण दिया गया, लेकिन उसके बाद इसे हटाने का साहस किसी भी राजनीतिक दल ने नहीं दिखाया. मैं समझ सकता हूं कि अनुसूचित जातियों को सैकड़ों सालों तक मैला ढोने और इसी तरह के अन्य कामों की वजह से काफी ऩुकसान उठाना पड़ा. लेकिन, अन्य पिछड़ी जातियों के साथ क्या हुआ? क्या उन्हें ज़मीन मिली?
मैं समझता हूं कि इस गुजरात आंदोलन को एक संकेत के तौर पर लेना चाहिए और जाति पर गंभीरता से काम शुरू होना चाहिए. यह काम केंद्र सरकार या नीति आयोग को दिया जाना चाहिए या इसके लिए एक विशेष समिति बनानी चाहिए. एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि इस तरह की सम्स्या सभी जगह नहीं है. उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु को लें. वहां मंडल आयोग के बहुत पहले से 60 फीसद आरक्षण था. वहां के आईटी प्रोफेशनल्स अमेरिका जा रहे हैं और वे ब्राह्मण या सवर्ण नहीं, बल्कि पिछड़ी जातियों से आते हैं. अगर हम स्टीरियो टाइप ढंग से यह सोचें कि ब्राह्मण का काम स़िर्फ पूजा और कर्मकांड है, तो यह ग़लत होगा. कभी यह बात सही थी, लेकिन आज तो आपको उन्हें अवसर देने ही होंगे. आज का युवा यह मानने को तैयार नहीं है कि उसके दादा एक ब्राह्मण थे, इसलिए कोई भी उसे काम नहीं देगा.
मेरे अनुसार यह बहुत ही खतरनाक बात है कि पटेल समुदाय, जो वास्तव में गुजरात की राजनीति में एक महत्वपूर्ण कारक है, जिसके पास ज़मीन है, वह आज आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहा है. वे सड़कों पर कैसे आ सकते हैं? लोग उनके खिला़फ सड़कों पर आ जाएंगे. लेकिन, उनका सड़कों पर आना यह संकेत करता है कि भाजपा या संघ में कुछ चल रहा है. भाजपा या संघ आरक्षण वाली बहस को शुरू करना चाहते हैं और इसलिए वे इस तंत्र का इस्तेमाल कर रहे हैं.
हम नहीं जानते, लेकिन समय बताएगा कि सच क्या है. अफवाह है कि संघ परिवार दिसंबर में, जब अमित शाह का कार्यकाल खत्म होगा, तब नितिन गडकरी को भाजपा अध्यक्ष बनाएगा और अमित शाह गुजरात के मुख्यमंत्री बनाए जाएंगे. ऐसा सब सुनने में आ रहा है. यह भी सुनने में आ रहा है कि अमित शाह आनंदी बेन पटेल से खुश नहीं हैं और इसलिए गुप्त रूप से इस आंदोलन को प्रोत्साहित कर रहे हैं. यह सब राजनीति में चलता रहता है और सच इतनी आसानी से बाहर नहीं आता. लेकिन, जहां तक देश का सवाल है, तो यदि सवर्ण भी आरक्षण के लिए आंदोलन शुरू करते हैं, तब हमारे लिए एक बहुत ही मुश्किल स्थिति होगी. यह समस्या नियंत्रण से बाहर चली जाए, उससे पहले इसका समाधान निकालना होगा.
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माओवादियों-आईएसआई के निशाने पर राजघराने की अकूत दौलत : नेपाल के पूर्व नरेश की जान खतरे में

माओवादियों-आईएसआई के निशाने पर राजघराने की अकूत दौलत : नेपाल के पूर्व नरेश की जान खतरे में


भारत का पड़ोसी देश नेपाल अपने शासन-तंत्र की अराजकता के कारण दो भागों में बंटता हुआ सा़फ-सा़फ दिख रहा है. इसे आप पहाड़ बनाम तराई का नाम दें, गोरखा बनाम मधेशिया नाम दें या माओवादी बनाम अन्य का नाम दें. इन दो स्पष्ट विभाजनों में नेपाल की पूर्व राजशाही उत्प्रेरक तत्व (कैटेलिटिक एजेंट) के बतौर काम कर रही है. हथियार से क्रांति के सिद्धांत पर अब भी भरोसा कर रहे नेपाली माओवादी अर्थ और शस्त्र के मामले में फिर से ताकतवर होने की कोशिश कर रहे हैं. 
nepal-nareshमाओवादी नेपाल राजवंश के अकेले वारिस पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह की यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी पड़ी अथाह संपत्ति बटोरने की फिराक में हैं. पहाड़ बनाम तराई का संघर्ष अराजकता फैलाकर हित साधने वाले तत्वों की भड़काऊ साजिश का परिणाम है. इसमें माओवादी भी खुश हैं और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई भी यही चाहती है. भूकंप में भारतीय दरियादिली और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तमाम भावनात्मक दावे सतह पर खोखले साबित हो रहे हैं. मोदी की नेपाल के प्रति सदाशयता का प्रतिफल यह है कि नेपाल ने भारत से लगने वाली अपनी सारी सीमाएं सील कर रखी हैं. किसी भी सीमा से भारत का एक भी वाहन, चाहे वह स्कूटर और साइकिल ही क्यों न हो, नेपाल सीमा में प्रवेश नहीं कर पा रहा है. पैदल जाने वालों को यह कहकर सीमा में प्रवेश करने दिया जा रहा है कि वे अपने जोखिम (रिस्क) पर नेपाल में प्रवेश कर रहे हैं. भारत के पड़ोस में इस खतरनाक परिदृश्य से भारतीय खुफिया तंत्र अनभिज्ञ नहीं है. जो सूचनाएं हैं, वे काफी चिंताजनक और संवेदनशील हैं. भारतीय खुफिया एजेंसियों की अभी चिंता है, नेपाल में जन-संघर्षीय स्वरूप में फैल रही अराजकता रोकना, पूर्व नरेश की अकूत संपत्ति की आशंकित लूट के प्रयास में लगे माओवादी गुट एवं उनका साथ दे रहे पाकिस्तान पोषित अपराधी गिरोहों को रोकना और सबसे अधिक यह कि पूर्व नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र की हत्या की साजिशें नाकाम करना.
आपको याद होगा कि जब नेपाल नरेश वीरेंद्र वीर विक्रम शाह की हत्या हुई थी, तब पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और कुछ अन्य भारत विरोधी तत्वों ने नेपाल नरेश की हत्या में भारतीय खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) का नाम जोड़ा था. फिर जब नेपाल में माओवादियों का विद्रोह और ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह का तख्ता पलट हुआ, तब भी कहा गया कि इसमें रॉ का हाथ है. लेकिन, इन बेबुनियाद आरोपों के बरअक्स तथ्यात्मक सच्चाई यह है कि भूतपूर्व नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह और उनका परिवार रॉ की सुरक्षा-निगरानी में हैं. नेपाल की खुफिया एजेंसी नेशनल इंवेस्टिगेशन डिपार्टमेंट (एनआईडी) को रॉ की तऱफ से सारी अभिसूचनाएं मुहैया कराई जा रही हैं. ये खुफिया सूचनाएं बताती हैं कि पूर्व नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह की जान खतरे में है. उन्हें अगवा भी किया जा सकता है. भूकंप प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करते समय पूर्व नेपाल नरेश का अपहरण किए जाने की आशंका थी, लेकिन सुरक्षा एजेंसियों की अत्यधिक सतर्कता से ऐसा संभव नहीं हो सका. अब पूर्व नरेश के मूवमेंट्स पर काफी नियंत्रण रखा जा रहा है. नेपाल-डेस्क पर तैनात रॉ के एक आला अधिकारी ने कहा कि नेपाल में राजशाही को फिर वापस लाने की मांग और पूर्व नरेश की अथाह संपत्ति उनकी जान के लिए आफत साबित हो रही है. आईएसआई और चीन, दोनों ही नहीं चाहते कि नेपाल में किसी भी क़ीमत पर राजशाही की वापसी हो, लिहाजा उनका रास्ते से हटना इस संभावना के पटाक्षेप के लिए ज़रूरी माना जा रहा है. भूकंप की भारी तबाही में राहत व्यवस्था की घनघोर अराजकता के बीच नेपाली जनता की यह आवाज़ गूंज रही थी कि आज राजा होते, तो राहत व्यवस्था का ऐसा हाल नहीं होता. नेपाल में क़रीब 80 साल बाद इतना भयानक भूकंप आया था. नेपालियों का कहना है कि 601 सांसदों ने 2008 में राजतंत्र खत्म करने का फैसला किया था, लेकिन वे सभी मिलकर भी भूकंप में नेपाली प्रजा की मदद करने में नाकाम रहे. राजनीतिक दलों ने कुछ नहीं किया. अब तो सही यही होगा कि राजा की फिर से वापसी हो जाए.
यह मांग अब सार्वजनिक हो रही है. हिंसक संघर्ष से सत्ता तक पहुंचे माओवादी नेपाल के तंत्र पर हावी चीनी ताकतों की शह पर नेपाल के पूर्व शाह की अकूत संपत्ति पर नज़र गड़ाए हुए हैं. पूर्व नरेश की जिन अचल संपत्तियों का सरकार क़ानूनन अधिग्रहण नहीं कर सकती, माओवादी गुट उन पर अपना कब्जा चाहते हैं. पूर्व नरेश की चल-संपत्तियों का पता लगाने और उन्हें हथियाने के लिए माओवादी नेपाल ट्रस्ट ऑफिस (एनटीओ) के सूत्रों का इस्तेमाल कर रहे हैं. नेपाल के अतिवादी-माओवादी फिर से ताकतवर होने की कवायद में लगे हैं और इस प्रयास में वे चीनी-पाकिस्तानी एजेंसियों का मोहरा बन रहे हैं. नेपाल में शासनिक-प्रशासनिक अराजकता जितनी ही गहराएगी, आईएसआई को अपनी जड़ें जमाने का उतना ही मा़ैका मिलेगा. नेपाल में माओवादियों द्वारा तख्ता पलट के बाद नई बनी सरकार ने राजघराने के क़रीब आधा दर्जन से अधिक महलों का अधिग्रहण कर लिया था, जिनमें काठमांडू स्थित मशहूर नारायणहिति, रानी कोमल का महल, नेपाल नरेश का ग्रीष्मकालीन नार्गाजुन महल, गोकर्ण महल, दियालुबंगला महल और पोखरा स्थित दो महल शामिल हैं. नेपाल नरेश के क़रीब आधा दर्जन वन्य-भूमि क्षेत्र को भी राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर दिया गया, लेकिन कई वन्य क्षेत्रों पर माओवादी गुटों का धीरे-धीरे कब्जा हो रहा है. इन वन्य क्षेत्रों से राजघराने को भारी राजस्व की कमाई होती रही है, जो अब माओवादी वसूल रहे हैं.
नेपाल के माओवादी गुट राजघराने की अथाह संपत्ति की थाह पाने की जद्दोजहद में लगे हैं. ज्ञानेंद्र राजघराने के अकेले ऐसे वारिस हैं, जो नेपाल में रह रहे हैं. उनके पुत्र पारस अपने परिवार से अलग होकर थाईलैंड में रह रहे हैं. नेपाल का राजघराना दुनिया का सर्वाधिक धनी राजघराना माना जाता था. उसका पैसा दुनिया भर की कंपनियों, होटल्स, रिजॉर्ट्स और अन्य कारोबार में लगा है. काठमांडू के सॉल्टी क्राउन प्लाजा होटल के 40 फीसद शेयर ज्ञानेंद्र के हैं, जिन्हें उनकी बेटी प्रेरणा देखती हैं. पारस शाह थाईलैंड में रहते हुए मालदीव से लेकर अफ्रीका तक फैले तेल के कारोबार का संचालन करते हैं. पारस मालदीव के एक द्वीप के मालिक भी हैं. चाय की बड़ी कंपनी हिमालयन-गुडरिक के 54 फीसद शेयर ज्ञानेंद्र के हैं. सूर्या नेपाल टोबैको कंपनी, नेपाल बिस्किट कंपनी, ज्योति स्पिनिंग मिल वीरगंज, नारायण घाट ब्रेवरीज़, हिमालय इंटरनेशनल पॉवर कॉरपोरेशन, व्यापारिक जहाज कंपनी मर्स्क-नेपाल, मेरो मोबाइल कंपनी एंड मैन पावर कंसल्टेंसी जैसे बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठानों में नेपाल राजघराने का भारी धन लगा हुआ है, जिसकी डोर पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र के हाथ में है. टाटा और टोयोटा जैसी नामी ऑटो मोबाइल कंपनियों की डीलरशिप ज्ञानेंद्र के पास है. कारोबार में ज्ञानेंद्र के दामाद राज बहादुर सिंह भी हाथ बंटाते हैं.
जून 2001 में वीरेंद्र वीर विक्रम शाह और उनके परिवार की हत्या के बाद नेपाल नरेश की गद्दी पर बैठते ही ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह ने काठमांडू स्थित स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक में तत्कालीन शाही महल के नाम पर बड़ी धनराशि जमा की थी. दो साल बाद ही मार्च 2003 में ज्ञानेंद्र ने उसमें से एक बड़ा हिस्सा निकाल कर ब्रिटेन के एक बैंक में ट्रांसफर कर दिया. 15 महीने के शासन में नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र और उनके बेटे पारस ने केवल विदेश यात्राओं पर 172 करोड़ रुपये खर्च किए थे. राजशाही खत्म होने के बावजूद ज्ञानेंद्र की नेपाल में अरबों की संपत्ति है और विभिन्न व्यवसायों में अरबों का निवेश है. इससे अधिक धन विदेशी बैंकों में जमा है. खुफिया एजेंसियों के मुताबिक, नेपाल राजघराने का विदेशी बैंकों में जमा धन क़रीब 95 बिलियन डॉलर यानी भारतीय मुद्रा में 63 खरब 32 अरब 69 करोड़ 52 लाख 50 हज़ार रुपये है. माओवादी इस धन को हथिया कर समानांतर राष्ट्र गठन का सपना देख रहे हैं.

उस समय ज्ञानेंद्र की आय दुनिया में सबसे अधिक थी
एक आकलन है कि ज्ञानेंद्र जब नेपाल के राजा थे, तब वह विश्व के सबसे अधिक वेतन-सुविधाएं पाने वाले राष्ट्राध्यक्ष थे. ज्ञानेंद्र की आय चीनी राष्ट्रपति की आय से 2,426 गुना, भारतीय राष्ट्रपति से 318 गुना, पाकिस्तानी राष्ट्रपति से 301 गुना, रूसी राष्ट्रपति से 173 गुना, फ्रांसीसी राष्ट्रपति से 57 गुना, ब्रिटेन की महारानी से 15 गुना और अमेरिकी राष्ट्रपति से 10 गुना अधिक थी.

पहाड़ बनाम मैदान नहीं, भारत विरोधी बनाम भारत समर्थक संघर्ष
सा़फ है कि नेपाल की राजनीतिक-सामाजिक-प्रशासनिक अराजकता के पीछे किस तरह की ताकतें सक्रिय हैं. ये वही ताकतें हैं, जिन्हें भारत का नेपाल से ऐतिहासिक रिश्ता नहीं सुहाता. रणनीतिकारों का कहना है कि सामरिक दृष्टि से भी तराई में हो रही उथल-पुथल भारत के लिए ़खतरनाक है. रणनीतिकार कहते हैं कि मधेशियों के आंदोलन को गोरखा बनाम तराई का नाम दिया जा रहा है, लेकिन असलियत में यह भारत विरोधी और भारत समर्थकों का संघर्ष है, जो अब सड़क पर आ गया है. इसे रणनीति पूर्वक रोकने और समाधान का रास्ता निकाले जाने की ज़रूरत है. भीषण भूकंप की त्रासदी से उबरने की कोशिश कर रहे नेपाल में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो गई है. इसके पीछे चीनी और पाकिस्तानी जासूस सक्रिय हैं. ये दोनों ताकतें मिलकर भारत-नेपाल का शाश्वत रिश्ता ़खत्म करने की साजिश में लगी हैं. साजिशन पहले संपर्क भाषा हिंदी पर आपत्ति की गई, फिर नागरिकता का मसला खड़ा किया गया और अब मधेशी इलाके को पहाड़ी इलाके के साथ विलय कराने की अदूरदर्शी कोशिश की जा रही है. नेपाल में तक़रीबन 60 लाख लोगों की नागरिकता लंबित है. नेपाली नागरिकता मिलने पर भी मधेशियों को मुख्य धारा में शामिल नहीं किया जाता. उन्हें न सरकारी नौकरी मिलती है और न संपत्ति का स्वामित्व. विचित्र तथ्य यह है कि नेपाल में पहाड़ की चार-पांच हज़ार की आबादी पर एक सांसद है, लेकिन तराई में सत्तर हज़ार से एक लाख की आबादी पर एक सांसद. मधेशी इसी भेदभाव के ़िखला़फ आंदोलन कर रहे हैं. अब तो नेपाली सांसद भी कहने लगे हैं कि चीन और पाकिस्तान के इशारे पर मधेशियों को भारत खदेड़ भगाने की साजिश चल रही है. संविधान सभा के सदस्य एवं सांसद अभिषेक प्रताप शाह ने कहा कि मधेशियों का आंदोलन नेपाल की 51 ़फीसद मधेशी आबादी के लिए स्वाभिमान का सवाल बन गया है. मधेशियों का रिश्ता भारत के दार्जिलिंग से लेकर बिहार होते हुए उत्तराखंड तक के लोगों से है, इसीलिए उनकी राष्ट्रीय पहचान पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. मधेशियों एवं थारुओं का दमन भारत-नेपाल मैत्री संधि तोड़ने और पहाड़ पर प्रभाव रखने वाले चीन-पाकिस्तान का संपूर्ण नेपाल पर वर्चस्व कायम करने के इरादे से हो रहा है. मधेशियों की संख्या नेपाल के तराई इलाकों में ज़्यादा है. उनकी मांग है कि मधेशी बाहुल्य इलाकों को स्वायत्तता दी जाए. वे संविधान में मधेशियों के समावेशी अधिकार, सेना व पुलिस समेत लोकसेवा आयोग की भर्ती में बराबरी का हक़, भारतीय लड़की से शादी के बाद उसे तुरंत नागरिकता एवं समान अधिकार और ऐसी शादी से होने वाली संतान को वंशज मानते हुए नागरिकता देने की मांग कर रहे हैं.
वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, नेपाल में 51 फीसद आबादी मधेशियों की है, जिसमें नेपाल के मूल और भारत से गए लोग शामिल हैं. मधेशियों की भाषा मैथिली, भोजपुरी, बज्जिका एवं नेपाली है. दो करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले नेपाल में कुल पांच राज्य और 75 ज़िले हैं. आंदोलनकारी थारू और मधेशियों के लिए अलग-अलग राज्य बनाए जाने की मांग हो रही है. नेपाल के 22 ज़िले मधेशी आंदोलन से प्रभावित हैं. मधेशी नेताओं का आरोप है कि नेपाल के नए संविधान में अलग मधेशी राज्य को मान्यता न देने और भारतीय युवतियों एवं उनसे जन्मे बच्चों को दोयम दर्जे की नागरिकता का प्रस्ताव रखा गया है. नए संविधान के मसौदे में सात राज्यों का प्रस्ताव है, लेकिन विडंबना यह है कि उसमें मधेशी और थारू शामिल नहीं हैं. संविधान के नए मसौदे में मधेशी बाहुल्य ज़िलों को अलग-अलग राज्यों के साथ मिलाया जा रहा है. नेपाली सांसद बृजेश गुप्त कहते हैं कि मधेशी समुदाय अहिंसक आंदोलन कर रहा है, लेकिन शासक वर्ग के गुर्गे आंदोलनकारियों में घुसकर हिंसा फैला रहे हैं. सांसद गुप्त के मुताबिक, मधेशी आंदोलन में अब तक 52 लोग शहीद हो चुके हैं, लेकिन नेपाल सरकार शांति और समाधान के लिए कोई पहल नहीं कर रही. उल्टे भारत से लगने वाली सारी सीमाएं सील कर दी गई हैं और भारत से संपर्क काट दिया गया है. भारतीय सीमा क्षेत्र से वाहनों के आवागमन पर पूरी तरह रोक लगा दी गई है और सीमा पर बैरियर लगाकर पैदल आवागमन भी बाधित किया जा रहा है.

नए संविधान के बहाने संस्कृति मिटाने की कोशिश -शत्रुंजय सिंह रैकवार 
मधेशी और थारू आंदोलनकारियों की मांग है कि तराई क्षेत्र के ज़िले पहाड़ के प्रदेशों से न जोड़े जाएं. इसके अलावा तराई के तीन ज़िलों सुनसरी, मोरड़ एवं झापा को प्रदेश संख्या दो से जोड़ दिया जाए, जिन्हें अभी पहाड़ी प्रदेश-एक से जोड़ा गया है. पश्चिम के तराई ज़िले कंचनपुर एवं कैलाली प्रदेश संख्या पांच में मिलाए जाएं और प्रदेश संख्या दो एवं पांच को मधेशी या थरुहट प्रदेश घोषित किया जाए तथा उन्हें स्वायत्त प्रदेश का दर्जा मिले. संघर्ष समाजवादी फोरम नेपाल के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र यादव ने कहा कि एक मधेश-एक प्रदेश की मांग जब तक पूरी नहीं होगी, तब तक शांतिपूर्ण एवं अहिंसात्मक आंदोलन जारी रहेगा. आंदोलन दबाने के लिए नेपाल सरकार सेना एवं पुलिस का इस्तेमाल कर रही है. उन्होंने कहा कि सात वर्ष पहले मधेशियों की इसी मांग को लेकर आंदोलन हुआ था. उस समय गिरिजा प्रसाद कोईराला सरकार ने मधेशियों से समझौता किया था, जिसमें एक मधेश-एक प्रदेश की बात मानी गई थी. लेकिन, वर्तमान सरकार उससे इंकार कर रही है. संविधान से मधेशियों को वंचित करने का कुचक्र रचा जा रहा है, जिसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. उन्होंने कहा कि सरकार का दोहरा मापदंड नहीं चलेगा. पहाड़ी जब आंदोलन करते हैं, तो उन पर पानी की बौछार फेंकी जाती है और मधेशी आंदोलन करते हैं, तो उन पर गोली की बौछार होती है.
माओवादी संघर्ष के पटाक्षेप के बाद शांति के रास्ते पर लौट रहे नेपाल को अशांति में धकेलने की साजिशें हो रही हैं. नए राज्यों के सीमांकन, नामांकन एवं नागरिकता जैसे मुद्दों को लेकर मधेशी और थारू बाहुल्य 22 ज़िले आंदोलनरत हैं. बेलहिया से शुरू हुआ अहिंसक आंदोलन कैलाली में जाकर खूनी संघर्ष में तब्दील हो गया. मधेशी नेताओं का कहना है कि प्रदेशों का बंटवारा उत्तर से दक्षिण करना सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पहचान के विरुद्ध है. यह बंटवारा पूर्व से पश्चिम की ओर होना चाहिए. इससे मधेशियों एवं थारुओं के समक्ष पहचान और वजूद का संकट नहीं आएगा. तराई मधेश लोकतांत्रिक पार्टी के प्रवक्ता सर्वेंद्र नाथ शुक्ला कहते हैं कि नेपाल में जब पहला संविधान आयोग बना था, तो 22 ज़िले मिलाकर एक प्रदेश बनाने की बात हुई थी. बाद में प्रदेश संख्या चार को मधेश, मिथिला एवं भोजपुर नाम दिया गया था और प्रदेश संख्या पांच को अवध, थारूवान एवं लुम्बिनी. उन्होंने कहा कि प्रदेश का कोई भी नाम हो, इस पर कोई ऐतराज नहीं, लेकिन नवलपरासी ज़िले को न बांटा जाए. नए प्रारूप में मधेशियों एवं थारूओं का सम्मान हो. इससे कम पर समझौता नहीं होगा.

ये बन रहे हैं नेपाल के सात नए प्रदेश
प्रदेश संख्या-1: ताप्लेजूड़, पांचथर, इलाम, झापा मोरड़, सुनसरी, घनकुटा, भोजपुर, संखुवा सभा, सोलुखंबु, खोटाड, उदयपुर एवं ओखलढ़गा.
प्रदेश संख्या-2: सप्तरी, सिरहा, धनुषा, महोत्तरी, सर्लाही, रोतहट, बारा, पर्सा, ठोरी एवं गाविसा (बाहरी क्षेत्र).
प्रदेश संख्या-3: सिंधुली, रामेछा, दोलखा, सिंधुपाल्चैक, काभ्रे, रसुवा, नुवाकोट, घादिंग, काठमांडू, ललितपुर, भकपुर, मकवानपुर, चितवन पर्सा, ठोरी एवं गाविसा.
प्रदेश संख्या-4: गोरखा तन्हू, स्यांजा, मनाड़, मुस्तांग, म्याग्दी, पर्वत, बांग्लुड, पूर्वी क्षेत्र के नवलपरासी एवं दाउन्ने पूरब.
प्रदेश संख्या-5: नवलपरासी, दाउन्ने पश्चिम, रूपन्देही, कपिलवस्तु, पाल्पा, अर्घाखांची, गुल्मी, बांग्लुग, पश्चिम क्षेत्र, दांग, प्यूठान, रोल्पा, रूकम, रूकमकोटा पूर्व, बांके एवं बर्दिया.
प्रदेश संख्या-6: डोल्पा, जुम्ला, मुगुत्र हुम्ला, कालिकोट, सल्यान, पश्चिम, जाजरकोट, दैलेख एवं सुर्खेत.
प्रदेश संख्या-7: उल्लेथर, दार्चुला, बैतड़ी, बाजुरा, बझांग अछाम, डोटी, कैलाली एवं कंचनपुर.
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बिहार विधानसभा चुनाव : जनता में उत्साह नहीं है

बिहार विधानसभा चुनाव : जनता में उत्साह नहीं है


बिहार में विकास की किरण तो दूर, विकास की परछाई भी कहीं नज़र नहीं आती. ज़िंदगी के बोझ से दबे परेशान चेहरे, कुपोषित महिलाएं-बच्चे, कच्चे मकान, टूटे-फूटे सरकारी भवन और अंधकार में डूबे गांव, यही आज बिहार की पहचान बन गई है. ग़रीबी और महंगाई की ऐसी दोहरी मार है कि जीविकोपार्जन के लिए आज भी आम बिहारी दर-दर की ठोकरें खा रहा है. बिहार विधानसभा चुनाव की जो तस्वीर मीडिया के ज़रिये देश के सामने पहुंच रही है, वह सच्चाई से कोसों दूर है. मीडिया में तो काफी चहल-पहल है, लेकिन बिहार की जनता चुनाव को लेकर फिलहाल उत्साहित नहीं है. भारतीय जनता पार्टी हो या फिर लालू यादव, नीतीश कुमार एवं सोनिया गांधी का महा-गठबंधन, किसी की रैलियों में आम जनता की भागीदारी न के बराबर है. इन रैलियों में स़िर्फ और स़िर्फ पार्टी कार्यकर्ता, सक्रिय समर्थक एवं भाड़े पर लाए गए लोग नज़र आते हैं. दरअसल, बिहार की जनता राजनीतिक दलों, सरकार और सरकारी तंत्र से निराश हो चुकी है. राजनीति में जिस तरह की अवसरवादिता का उदाहरण विभिन्न राजनीतिक दलों ने बिहार में पेश किया है, उससे लोग भ्रमित हो गए हैं. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि सही कौन है और ग़लत कौन? यही वजह है कि बिहार में चुनाव को लेकर आम जनता में कोई उत्साह नहीं है.
1भारत में राजनीतिक दलों ने प्रजातंत्र का तमाशा बना दिया है. राष्ट्रीय पार्टियां हों या फिर क्षेत्रीय, सबने मिलकर प्रजातंत्र को मात्र एक चुनाव प्रबंधन की प्रक्रिया में तब्दील कर दिया है. देश को आज़ाद कराने और संविधान बनाने वाले महापुरुषों ने प्रजातंत्र को सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का माध्यम माना था. उनके सामने सा़फ लक्ष्य था कि सरकार का चरित्र कल्याणकारी और जन-हितकारी होगा. सरकार अपनी नीतियों से ग़रीबों के दु:ख-तकलीफ दूर करेगी. ज़िंदगी जीने के लिए ज़रूरी विभिन्न संसाधन मुहैया कराएगी. गांवों का पिछड़ापन दूर करके उन्हें विकास की ओर ले जाएगी. ग़रीब, पिछड़े, दलित एवं शोषित वर्ग की मदद करेगी, ताकि वे भी देश की मुख्य धारा से जुड़ सकें और देश के विकास में अपना योगदान कर सकें. देश की जनता के सामाजिक-आर्थिक विकास की ज़िम्मेदारी राजनीतिक दलों की थी, लेकिन उन्होंने राजनीति को सत्ता पाने का माध्यम बना डाला. सत्ता का एकमात्र उद्देश्य कॉरपोरेट्‌स और उद्योगपतियों का विकास बना दिया गया. आज राजनीति का मतलब स़िर्फ यह हो गया है कि ग़रीब जनता को झूठी दिलासा देकर, वादे करके वोट ले लो और सत्ता पर विराजमान होते ही उसे भूल जाओ. झूठे वादों की भी एक सीमा होती है. बिहार की जनता का अब नेताओं के वादों से विश्वास उठने लगा है. शायद यही वजह है कि बिहार चुनाव को लेकर राजनीतिक दलों और मीडिया में भारी शोरगुल है, लेकिन जनता के बीच कोई उत्साह नहीं है.
बिहार के लोगों में चुनाव को लेकर उत्साह कम होने के कई कारण हैं. सबसे बड़ा कारण यह है कि लोगों का नेताओं से भरोसा उठ गया है. उन्हें लगता है कि सरकार किसी की भी बने, उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आने वाला, उनके इलाके का विकास नहीं होने वाला. बिहार के लोग राजनीतिक तौर पर काफी परिपक्व हैं. बड़े विश्वास के साथ उन्होंने लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दिया, लेकिन चुनाव के डेढ़ साल के बाद उन्हें निराशा हाथ लगी. लोगों को कोई भी वादा ज़मीन पर उतरता दिख नहीं रहा है, वे खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं. जिस तरह लोग मोदी से निराश हैं, उसी तरह नीतीश कुमार से भी उन्हें कोई उम्मीद नहीं बची है. नीतीश कुमार जंगलराज ़खत्म कर विकास करने का वादा करके बिहार के मुख्यमंत्री बने थे. नीतीश कुमार ने अपने पहले कार्यकाल में क़ानून व्यवस्था दुरुस्त कर दी थी और उस दौरान बिहार में सड़कों की हालत में भी खासा सुधार हुआ था. नीतीश कुमार के पिछले पांच वर्षों का कार्यकाल राजनीति की भेंट चढ़ गया. हर राजनीतिक दल अपनी-अपनी सरकार की तारी़फ करता है, बिहार के विकास में अपने योगदान का दावा करता है और इसके लिए तरह-तरह के आंकड़े पेश करता है. टीवी चैनलों पर बहस के लिए तो यह सब महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन आम जनता पर इन दावों और आंकड़ों का कोई असर नहीं होता, क्योंकि वह तो भुक्तभोगी है. गांव-ब्लॉक में कोई चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं, प्रधानमंत्री या केंद्र सरकार की योजनाएं उस तक पहुंचती नहीं हैं, स्कूल-कॉलेज नहीं हैं, पीने के लिए सा़फ पानी नहीं है. सड़कें नहीं हैं. जो सड़कें पहले बनी थीं, वे देखरेख के अभाव में टूटने लगी हैं और क़ानून व्यवस्था की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है. एक वाक्य में अगर कहा जाए, तो यह कि बिहार में सरकार का एक भी महकमा ऐसा नहीं है, जिस पर बिहार के लोग नाज कर सकें. ऐसे माहौल में लोगों की निराशा न तो पैकेज की राजनीति से ़खत्म होने वाली है और न बड़े-बड़े वादों से.
सरकारी तंत्र के प्रति निराशा के लिए कोई एक राजनीतिक पार्टी या सरकार ज़िम्मेदार नहीं है. इसमें सारे राजनीतिक दलों और सरकारों का योगदान है. पर कैपिटा इनकम के हिसाब से बिहार देश का सबसे ग़रीब राज्य है. यहां प्रति व्यक्ति सालाना आय सिर्फ 35-36 हज़ार रुपये है. जबकि गोवा और दिल्ली जैसे राज्यों में प्रति व्यक्ति सालाना आय बिहार से सात गुना ज़्यादा है. इसकी वजह यह है कि बिहार में उद्योग नहीं हैं, आर्थिक गतिविधियां थमी हुई हैं. दूसरी बड़ी समस्या यह है कि बिहार की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. मतलब यह कि सीमित अवसर, रोज़गार एवं मूलभूत सुविधाओं पर लगातार बढ़ते दबाव के अनुरूप बिहार में विकास नहीं हो रहा है. बिहार देश के अन्य राज्यों की तुलना में लगातार पिछड़ता जा रहा है. इतना ही नहीं, बिहार में शिक्षा क्षेत्र की समस्याओं एवं कमियों के चलते शिक्षित-अप्रशिक्षित युवाओं की भीड़ बढ़ती जा रही है. गांवों का हाल और भी खराब है. भूमिहीन कृषक-मज़दूरों की संख्या बहुमत में है. मनरेगा जैसी योजनाओं से ग़रीबों को कुछ राहत तो मिली है, लेकिन यह किसी को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए पर्याप्त नहीं है. इससे दूसरे राज्यों की ओर पलायन तो थोड़ा थमा, लेकिन जीवन स्तर में कोई परिवर्तन नहीं आया.
बिहार की सबसे बड़ी समस्या ग़रीबी और सरकारी तंत्र की तबाही है. मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने वाले हर महकमे की स्थिति बद से बदतर है. आज़ादी के बाद 68 वर्ष बीत गए, लेकिन बिहार के ज़्यादातर जिलों में शत- प्रतिशत विद्युतीकरण नहीं हुआ है. मतलब, 21वीं सदी के बिहार में ऐसे हज़ारों गांव हैं, जहां बिजली पहुंची ही नहीं है. यह कोई मनगढ़ंत बात नहीं है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, बिहार के ग्रामीण इलाकों में महज 52.8 प्रतिशत गांवों का विद्युतीकरण हुआ है. बिहार के ग्रामीण इलाकों में मात्र छह प्रतिशत घरों में बिजली पहुंच सकी है. मतलब यह कि 85 प्रतिशत ग्रामीण बिना बिजली के जीवन बिताने को मजबूर हैं. अब इन गांव वालों को इससे क्या मतलब है कि विद्युतीकरण का काम संविधान के मुताबिक राज्य सरकार या केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी है या नहीं है? इन गांव वालों को बजट के आंकड़ों से क्या लेना-देना है? उनके लिए तो स़िर्फ एक ही सत्य है कि उनके गांव-घर में बिजली नहीं पहुंची. आज के जमाने में बिजली न होने का मतलब ज़िंदगी अंधकारमय है. ज़्यादातर गांव ऐसे हैं, जहां चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं. आज भी बिहार के गांवों में झाड़-फूंक से इलाज कराने का प्रचलन है. ब्लॉक स्तर पर भी पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं. सरकार पीने का सा़फ पानी तक उपलब्ध कराने में नाकाम रही है. अब तो बिहार के कई इलाकों में कुएं का पानी भी प्रदूषित हो चुका है. बच्चों की पढ़ाई पेड़ के नीचे हो रही है. स्कूल और शिक्षा के नाम पर जो कुछ चल रहा है, वह हास्यास्पद है. एक तो योग्य शिक्षकों का घोर अभाव है और जो हैं भी, वे पढ़ाने से ज़्यादा मिड डे मील मुहैया कराने में व्यस्त रहते हैं. यही हाल कमोबेश हर सरकारी महकमे का है. दुनिया न जाने कहां से कहां निकल गई और बिहार में आज भी ऐसा कुछ नहीं है, जो 21वीं सदी के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलने लायक हो.
बिहार में उत्साह की कमी के पीछे एक महत्वपूर्ण वजह यह भी है कि राजनीतिक दल अब इवेंट मैनेजमेंट कंपनी में तब्दील हो गए हैं. जनता से उनका न तो अब कोई संपर्क-सरोकार है और न उनकी प्राथमिकता में जनता की समस्याएं हैं. दरअसल, राजनीतिक दलों का डीएनए खराब हो चुका है. राजनीतिक दलों ने अपना दायित्व भुला दिया है. नेताओं को पता ही नहीं है कि एक राजनीतिक दल की ज़िम्मेदारी क्या होती है? राजनीतिक दलों ने राजनीति को स़िर्फ सत्ता पाने का माध्यम समझ लिया है. यही वजह है कि सारे दल स़िर्फ चुनाव के समय जीवंत होते हैं और चुनाव के बाद सुषुप्तावस्था में चले जाते हैं. दो चुनाव के बीच इनका जनता से अब कोई रिश्ता ही नहीं रहता. जीवंत और क्रियाशील प्रजातंत्र में राजनीतिक दलों के लिए चुनाव के बाद भी जनता से सीधा संवाद रखना ज़रूरी है. कार्यकर्ताओं को तैयार करना, उन्हें प्रशिक्षित करना, जन-जागरण अभियान चलाना, स्थानीय एवं राष्ट्रीय मुद्दों पर लोगों को लामबंद करना आदि कई ज़िम्मेदारियां राजनीतिक दलों की होती हैं.
भारत में राजनीतिक दलों ने यह सब करना छोड़ दिया है. जनता से संवाद वे स़िर्फ मीडिया के माध्यम से रखते हैं. राजनीतिक दल टीवी चैनलों एवं अ़खबारों में बयान देकर और प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी सारी ज़िम्मेदारी से मुक्ति पा लेते हैं. जहां तक बात कार्यकर्ता बनाने की है, तो यह महज पैसे का खेल हो गया है. यह भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य है कि उसमें अब विचारधारा का कोई स्थान नहीं रहा. इसलिए जो युवा राजनीति में आते हैं, वे या तो बेरोज़गार होते हैं या फिर चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वाले धनाढ्य होते हैं. हक़ीक़त यह है कि जिसके पास धन है, वह नेता बन जाता है और जो पैसे लेकर पार्टी का काम करता है, वह कार्यकर्ता बन जाता है. ज़मीन से जुड़ा कार्यकर्ता ही पार्टी और जनता के बीच कड़ी की भूमिका निभाता है. जब पैसे लेकर काम करने वाले कार्यकर्ता होंगे, तो पार्टी जनता से कट जाती है. यही वजह है कि राजनीतिक दलों ने जन-जागरण अभियान चलाना बंद कर दिया है. जन-जागरण का काम भारत में अब सिविल सोसाइटी के ज़िम्मे आ गया है. राजनीतिक दल जनता से बिल्कुल कट चुके हैं. यही वजह है कि लोगों में निराशा बढ़ी है. बिहार में इसका असर ज़्यादा है. आम तौर पर हर विश्लेषक का मानना है कि बिहार की जनता राजनीतिक तौर पर सबसे ज़्यादा जागरूक है, लेकिन इस पर कोई ध्यान नहीं देता कि बिहार में लोकसभा चुनाव के दौरान सबसे कम मतदान हुआ. पूरे देश में लोकसभा चुनाव में 66 प्रतिशत मतदान हुआ, लेकिन बिहार में महज 52 प्रतिशत लोगों ने ही वोट डाले. लोकसभा चुनाव के बाद बिहार में दस विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए, जिसमें मात्र 47 प्रतिशत लोगों ने ही मतदान किया. इसका मतलब सा़फ है कि चुनाव को लेकर बिहार की जनता में उत्साह की कमी है.
अब जब बिहार में चुनाव सिर पर हैं, तो राजनीतिक दल सक्रिय हुए हैं. आजकल राजनीतिक दलों के सक्रिय होने का मतलब भी अजीबोग़रीब है. चुनाव की घोषणा से पहले हर दल के नेताओं के होर्डिंग्स लगने लगे हैं, रेडियो-टीवी पर प्रचार आने लगा है, टीवी और अ़खबारों में खबरें आने लगी हैं. राजनीतिक दलों ने रैलियां करना शुरू कर दिया. कहने का मतलब यह कि राजनीतिक दलों ने पैसा बांटना शुरू कर दिया. हर रैली में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिए जाते हैं. इसकी वजह यह है कि राजनीतिक रैलियों में आम जनता ने शामिल होना बंद कर दिया है. राजनीतिक दलों को गाड़ी, खाना-पीना और पैसे देकर लोगों को जुटाना पड़ता है. हालत यह है कि अब इसे ग़लत भी नहीं माना जाता है. चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आएंगे, तमाशा और बढ़ेगा. फिल्मी सितारों को प्रचार में लगाया जाएगा, गांवों-कस्बों में नाच-गाने के कार्यक्रम होंगे और शराब बांटी जाएंगी. इन सबसे काम न चला, तो वोट खरीदने का भी काम धड़ल्ले से होगा. फिर विचारधारा, मुद्दे और समस्याएं, सब कुछ पीछे चला जाएगा. चुनाव के दौरान भी राजनीतिक दल इवेंट मैनेजमेंट कंपनी की तरह काम करते हैं.
बिहार चुनाव के बारे में टीवी चैनलों पर बहस करने वाले राजनीतिक विश्लेषक हों या फिर वोट के लिए झूठे वादे करने वाले नेता, सब यही कहते नज़र आते हैं कि इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव का ऐतिहासिक महत्व है. इसके नतीजे भारतीय राजनीति के भविष्य का फैसला करेंगे. कुछ लोग तो कहते हैं कि यह बिहार का नहीं, बल्कि देश का चुनाव है. अगर बिहार की जनता का ़फैसला इतना ही महत्वपूर्ण है, तो बिहार के लोगों की समस्याओं को महत्व क्यों नहीं दिया गया? आज बिहार देश का सबसे पिछड़ा, भूखा और असहाय राज्य क्यों है? क्यों यहां के लोगों को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं? बड़ी-बड़ी बातों से ग़रीब का पेट नहीं भरता और आंकड़ों से ज़मीनी हक़ीक़त का पता नहीं चलता. सवाल यह है कि जिस देश में केरल और पंजाब जैसे खुशहाल राज्य हों, वहां बिहार जैसा मेहनतकश राज्य पिछड़ा क्यों है, बदहाल क्यों है? जिस देश में दिल्ली और बंगलुरू जैसे आधुनिक शहर हों, वहां के दूसरे बड़े राज्य बिहार का कोई शहर, शहर जैसा नहीं है, तो इसकी वजह क्या है? बिहार के लोग रोजी-रोटी की तलाश में देश के कोने-कोने में मौजूद हैं. वे इस विषमता को जानते-देखते हैं और भलीभांति समझते भी हैं. इसके बावजूद कोई महाज्ञानी यह कहे कि बिहार के चुनाव का ऐतिहासिक महत्व है, तो यह मज़ाक के सिवाय कुछ और नहीं है. ये लोग भूल चुके हैं कि प्रजातंत्र में सरकार जन-संसाधन के प्रतिपादन का तंत्र होती है. जनता के बीच संसाधनों और अवसरों का बंटवारा सरकार का सबसे अहम दायित्व है. इससे ही जनता एवं सरकार के बीच विश्वास और सार्थकता का रिश्ता बनता है. अगर बिहार की जनता के हाथ में भारत का भविष्य है, तो देश के संसाधन और आधुनिक मूलभूत सुविधाएं बिहार की जनता के क़दमों में होने चाहिए थे.
आज बिहार की जो हालत है, उसके लिए स़िर्फ और स़िर्फ राजनीतिक दल एवं नेता ज़िम्मेदार हैं. बिहार में कांग्रेस का शासन रहा, लालू यादव ने राज किया, नीतीश कुमार ने सरकार चलाई और भारतीय जनता पार्टी भी सात वर्षों तक सत्ता में रही. इसलिए कोई भी राजनीतिक दल यह कहने की स्थिति में नहीं है कि उसे मौक़ा नहीं मिला. यही वजह है कि बिहार के लोग निराश हैं, उन्हें किसी से कोई आशा नहीं है. उन्हें पता है कि राजनीति अब समाजसेवा नहीं रही, समाज को बदलने का ज़रिया नहीं रही. हर उम्मीदवार अपने स्वार्थ, ऐशोआराम और सत्ता की भूख मिटाने के लिए चुनाव लड़ता है. इसके लिए हर नेता झूठ और फरेब की हर सीमा लांघने के लिए तैयार है. जनता जानती है कि इस चुनाव में भी बिहार में धार्मिक उन्माद, जातीय समीकरण और वोट बैंक की राजनीति का खेल चलेगा. हर राजनीतिक दल उसे ठगने के लिए नए-नए पैंतरे आजमाएगा. यही वजह है कि लोगों में उत्साह नहीं है. राजनीतिक दलों और सरकार चलाने वाले लोगों की खुशनसीबी यह है कि बिहार के लोग अपने हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए आंदोलन की राह पर नहीं उतरे, इतनी सारी समस्याओं से लड़ते हुए उन्होंने धैर्य नहीं खोया और प्रजातंत्र में अब तक उनका भरोसा कायम है. लेकिन जिस दिन धैर्य का यह बांध टूट गया, तो अनर्थ हो जाएगा.
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