सुरेश वाडकर

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Thursday, March 12, 2015

आखिर कौन है ये शिर्डी के 'साईबाबा' , 'स्वामी समर्थ' और शेँगाव के 'गजानन महाराज' ?

आखिर कौन है ये शिर्डी के 'साईबाबा' , 'स्वामी समर्थ' और शेँगाव के 'गजानन महाराज' ?

        19 जुलै 1994 को संपादक दिपक तिलक ईनका सह्याद्री अंक मे दुसरा नानासाहब पेशवा ही साईबाबा है यह लेख प्रसिद्ध हूआ था लेखक अरुण ताम्हणकर ईनोने रहस्योद्घाटन करते हूए एक अज्ञात साधु का आधार लिया है । ऊनका ये लेख दै मुलनिवासी नायक के पास ऊपलब्ध है । ताम्हणकर ईस लेख मेँ जो कहते है ऊसका सारांष तो यही कहता है सदाशिवराव पेशवा ही स्वामी समर्थ हैतात्या टोपे ये शेगांव के गजानन महाराज हैदुसरा नानासाहब पेशवा ही साईबाबा है । लेखक ताम्हनकर को बाबा के प्रकटिकरण मान्य नही वे कहते है कि ये बाबा लोग अचानक प्रकट हूए कैसे? साधारण आदमी के तरह माँ के पेट से जनम क्यो नही लिया? स्वजाति के बारमे अपनने ऊलटा सिधा बोल दिया ईसके लिए ताम्हणकर ने अपना मुँह बंद किया तो कभी खोला ही नही । ब्रामणो ने स्वामी समर्थ महाराज ईनके कई जगह मठ स्थापण किये अक्कलकोट मंगलवेढा चिपलुण अहमदनगर कल्याण दादर गिरगांव (महाराष्ट्र) ईन प्रमुख संस्थानो (मठ) मे स्वामी का प्रकट दिन हर साल मनाया जाता है । और हर मठो मे खालि सिंहासन है । क्यो कि सिर्फ ब्रामण ही जानते है की स्वामी समर्थ ये पेशवा सदाशिवरावही है । ईस प्रकरण का शोध लेने के लिए प्रत्यक्ष कुछ मठो मेँ भी जाकर देखा है । यह लेख किसीकी भावनाओ को ठेच पहूचाने के लिए नही लिखा गया है । सामान्य जनता को ब्रामणी षडयंत्र समजे, गुप्त बाते समजकर अंधश्रद्धा खात्मा हो यही हेतु है ।पानिपत कि तीसरी लडाईता 13 फरवरी 1760 को पटदुर यहा विश्वासराव पेशवा ईनके साथ सदाशिवराव पेशवा को मिशन पर भेजने का निर्णय लिया गया । ग्वालियर होकर ता 30 मई 1760 को तोफ, रसद, बारुद, घोडदल कुछ औरते लेकर सव्वालाख फौज निकली । अहमदशाह अब्दाली चौकन्ना हो गया वह कुशल सेनापती था ऊपर से पेशवाओ मे चालाकी का अभाव था सदाशिवराव ये कुत्सित जिद्दि स्वभाव के थे (ऐसा ब्रामण कादंबरीकारो ने लिख कर रखा है) ता14 जनवरी 1760 को पानिपत यहा लडाई हूई ।विश्वाराव ईनकि गोलि लगने से म्रुत्यु हो जाति है तो सदाशिवराव बच्चो कि तरह रोने लगते है ईससे सैनिको का मनोबल कम होता है । सदाशिवराव को बिना लडखडाए मैदान खडा रहना आवश्यक था । पर अचानक सदाशिवराव मैदान मे से गायब हो गये(म .यु. भा. ईतिहास पेज क्र 112) । ईतिहास मे पाणिपत कि लडाई का वर्णन सव्वा लाख चुडिया तुट गई ऐसा किया गया है । स्वामी समर्थ अचानक ऊसी समय 1760/61 मंगलवेढा (महाराष्ट्र) को प्रकट हूए स्वामी समर्थ के प्रकटिकरण से पाणिपत कि लडाई का घटनाक्रम जुडता है ।पहले तो मंगलवेढा गांव के लोग ऊन्हे नग्न मतिमंद पागल व्यक्ती समजते थे । कुछ सालो में ही ईस तरुण नग्न मनुष्य का दिगंबर बाबा हो गया ।(गांधिजी भि सव्वालाख पट चालाक थे ऊनोने प्राप्त किया हूआ महात्मापन एकनंबर माडल है ।)स्वामि समर्थ का चरित्रई स 1818 को ब्रामण गोपलबुवा केलकर ने स्वामी कि पहलि बखर(Historical document) लिखि । गोपालबुवा ये स्वामी के बहुतसी गुप्त बाते जानने वाले शिष्य थे । ऊसके बाद ता 09 मई 1975 को रामचंद्र चिंतामण ने बखर का पुन:लेखन किया । अनंतकोटी ब्रम्हांडनायक राजाधिराज स्वामी समर्थ महाराज ईनका जनम कहा हुआ?, वो छोटे के बडे कहा हुए ? ऊनके मातापिता कौन ? ऊनकी जाति कोनसी ? ईनमसे कोई भि बातो का पता नही चलता ऐसा बखर मे लिखा है । स्वामि मंगलवेढा मे 12 साल रहे । गांव के लोग ऊनको मतिमंद मनुष्य समजते थे । बसप्पा तेलि के घर मे रहने वाला यह नग्न व्यक्ती सिंदुर लगाए हूए पत्थरो पर पेशाब करता था ।स्मशान मे कबरो पर संडास करता था ।बसप्पा तेलि के घर के चुल्हे मे संडास करता ये सब स्वामी के लिला थे, वे अवतारी पुरुष थे ऐसा बखर कहती है (अंग्रेजो को कुछ ब्रामण साधु सन्यासीयो के जिवन चरीत्र के सबुत मिले एक जानकारी हमारे पढने मे आयी के एक साधु अपने अनुयाईयो को अपनी संडास खाने देता और ऊसके बाद ही ऊसे अपना चेला बनाता )। परंतु बसप्पा कि पत्नी मात्र अपना पती कहासे ईस मतिमंद पगले के पिछे लग गया ईसके लिए दुखी थी । रोजि रोटी करके पेठ भरनेवाला यह तेलि परिवार बहुत ही गरीब मे जी रहा था । अचानक बसप्पा के परिवार को कहासे तो सोने की खान मील गयी और उनकी गरीबी हमेशा के लिए नष्ट हो गयी । असलियत मे स्वामी को मिलने के लिए मालोजिराव पेशवा मंगलवेढा आते थे ।ऊन्होने स्वामी का महिने का खर्चा बसप्पा को देने की व्यवस्थ लगा रखी थी । स्वामी कभी कभी बसप्पा के परिवारवालो को घर से बाहर निकाल देते और दरवाजे के सामने लाठी लेकर बैठते ।पेशवाओसे महिना अर्थसहाय्य मिलने के बाद गणपत चोलप्पा नाम का नौकर स्वामी की सेवा के लिए ऊपस्थित हो गया ।मै टोली तयार करता हूस्वामी मंगलवेढा मे रहते समय ऊन्हे जबभी पागलपन का झटका आता तो ऊने शांत करने के लिए चेले गांव कि मतिमंद स्त्रि सरस्वती सुनारीन को लाते ।यह मतिमंद स्त्रि लाठी और बगल मेँ फटे कपडो का गठ्ठा लेकर चेलो के पिछे भागती एक चेला कहता 'ज्ञानबा तुकारम' अर्थात दुसरा कहता 'पगली का क्या काम' यह शरारत देख स्वामी जोरजोरसे हसते इतना कि ऊनका पलंग भि हिलता ।12 साल रहने के बाद भी स्थीती नही सुधारी । अक्कलकोट मे चिंतोपंत टोल के यहासे एरंडी की सुखी लकडियो के हतेलिभर तुकडे करते । ऊनमे मिट्टि भरते और फिर पाँच पाँच सात सात तुकडे सैनिक बंदुक जैसे रखते है उसि प्रकार लाईन से रखते । ये ऊपक्रम कई महीने चलता किसिने अगर पुछा तो स्वामी कहते मै टोली (पलटन) तयार करता हू ।ऊसके बाद स्वामी अक्कलकोट मे दुसरा खेल खेलने लगे । अक्कलकोट मे लक्ष्मी नाम कि ऐक तोफ है वहा जाकर तोफ के मुंह मे सिर डाल कर घंटो बैठते ।बुधावारपेठ मे बडबडाते 'अब हिंदु का कुछ रहा नही घोडा गया हाति गया पालखि गया सब कुछ गया' और बिचमेही चिल्लाते सरबत्ती लगाव! यह सब पाणिपत की हार का परिणाम तो नही ? आज तक सदाशिवपेठी लेखक पेशवाओ के गुण गाते नही थके । स्वामी , राऊ ईन कादंबरीयो मे 'तोतया' कहके ईसि पागलपण का वर्णन किया है ।जो पेशवा गिरफ्तार हुवा क्या वो पागल था ? क्या वो पागलपण का नाटक करता था ? ऐसा प्रश्न कादंबरी पढने वालो को नही पडा ।
        स्वामी एक जगह कभी बैठते नही थे । दिन मे सात आठ बार वो जगह बदलते ईसिलीए ऊन्हे चंचल भारती भी कहते । अक्कलकोट मे स्वामी के स्वतंत्र आश्रम की व्यवस्था की गयी थी । ईस काम मे राणी साहब बहूत ज्यादा ध्यान देती । ईस प्रकार ब्रामणी खोपडी ने मतिमंद सदाशिवराव का स्वामी समर्थ महाराज किया था ।स्वामी के दर्शन से हमारे तूम्हारे प्रश्न छुटते है , भाकड गाय दुध देती है , स्त्रियो को बच्चे होते है । ऐसा प्रचार अडोस पडोस के गांवो मे किया जाता प्रचार मे ब्रामण स्त्रियो का भी सहभाग रहता । पेशवाओ के दफ्तर के दस्तावेजो के प्रमाण से पता चलता है की ब्रम्हेंद्रस्वामी धावडशिकर ये स्वामी के भेस मे शाहूकार और बद्चलन आचरण के थे । ब्रंम्हेँद्रस्वामी के पास लगभग 20 स्त्रि दासिया थी । जहा जहा स्वामी रहते वहा वहा स्त्रि दासिया जाती । ऊनमेँसे कुछ प्रसिद्ध दासियो के नाम ईस प्रकार से है सजनी, गंगी, सोनी, लक्ष्मी, मानकी, नागी, राधी, गोदी, नथी, कृष्णी, यशोदा, नयनी, आनंदी, ई . ये सभी पेशवाओ कि तरफ से नजराणा था ऐसा जानकारो का कहना है । ईतनाही नही जिनको पुत्रप्राप्ती नही होती थी ऊनको स्वामी के पास लाया जाता और ऊनको स्वामी का विशिष्ट प्रसाद दिया जाता । कुछ रातो को तो स्वामी के मठो से अनैतिक मार्ग से पुत्रप्राप्ती की जाती । ईस सारे खेल पर पेशवाओ के जबरदस्ती कि वजह से परदा पड जाता । यही रित स्वामी समर्थ कि थी ऐसा दस्तावेजो के आधार पर प्रमाणीत किया जा सकता है ।
' मुंगी पैठण की विठाबाई '
स्वामी के दर्शन को भक्त आने लगे आश्रम मे गाय, बकरी, कुत्ते, बिल्लियो की संख्या बढने लगी । केशर कस्तुरी के मिश्रण करके पेशवाओ की तरह सीर पर गंध लगाया जाता स्वामी कभी दाढी रखते कभी निकालते वे लहरी स्वभाव के थे ।स्त्रीयोँ के सत्र मेँ पुरुषो को प्रवेश नही था । स्वामी को कभी कभी साडी चोली पहनाकर बिठाया जाता पर स्वामी अधिकतर लंगोठ पहनकर बैठना पसंद करते । मुंगी पैठणकी विठाबाई ये भि स्वामी की दासी थी । एकबार ऊसने चोलप्पा गणपत को साथ मेँ लेकर पंढरपुर जाने का विचार किया । स्वामी को ये समजने के बाद स्वामी ने सबके सामने उसको पुछा की क्या ? अब तक विठोबा का लिंग पकडने नही गयी ? यह सुनकर वहा ईकठ्ठा हूई सभी औरतो ने शर्म से गर्दन निचे कर दी (स्वामी समर्थ बखर पेज क्र. 46)।
" सुंदराबाई प्रकरण "
दिन ब दीन अक्कलकोट मे भक्तो कि संख्या बढती गयी वैसे संस्थान मे पैसो की आमदनी भी बडी । उसी दौरान सुंदराबाई नाम की तरुण विधवा स्वामी की दासी बन गयी ।वो गणपत चोलप्पा बालप्पा ईनको आदेश देने लगी । तो स्वामी ऊसको कहते " ऐ रांड नौकरणी ये क्या तेरे घर के नौकर है ? "। स्वामी खाना खिलाना नहाना दर्शन के लिए तयार करना ये सभी काम वो करती ।ऊसने स्वामी को ऊठने को कहा तो वो उठते सोने को कहा तो सोते ।ईतनाही नही भक्त दर्शन के वक्त सुंदरा स्वामी को पत्नी कि तरह चिपककर बेठने लगी । संस्थान का अनगिनत पैसा सुंदराबाई हडप करने लगी ।तक्रार करने पर शिष्यो ने ऊसे जेल मे डाल दिया ।
स्वामी अवतार थे पर स्त्रिलंपट थे आखिर मामला पोलीसो तक पहूचना जरुरी था , स्वामी समर्थ के अवतारवाद पर प्रश्नचिन्ह खुद स्वामी ने ही लगाया ।ये अवतार न होकर पाखंड था ये सिद्ध हो चुका है ।
स्वामी की बखर मे 264 प्रकरण है वह सभी देणा शक्य नही । एक बार कर्वे नाम का ब्राम्हण स्वामी को मिलने आया कर्वे ईनकी जवान लडकी बिघड गयी थी । स्वामी ने कहा " होली किजिए " कर्वे को बडा ही धक्का पहूचा तो ऊनोने पुछा आपकी जाती कोनसी ? तो स्वामी ने जवाब दिया " यजुर्वेदी - ब्रामण, गोत्र- कश्यप , रास - मिन " (स्वामी समर्थ बखर पेज क्र 58 ) । ई स 1800 को स्वामी की मृत्यु हो गयी स्वामी तब वे सत्तर साल के थे । ई स 1800 मे चैत्र शुद्ध पुर्णीमा को ऊनका मृत्यु हूआ स्वामी की प्रेतयात्रा को हाती सचाये हुए घोडे तोफदार जरिपटका के पेशवे निषाण बारुदकाम करने वाले ऐसा माहौल था । स्वामी पर भरजरी पोशाख व अलंकार चढाए गये । स्वामि को आखिर मेँ सुगंधी पेटी मे बंद किया गया ऐसा बखर मे लिखा है .


परंतु 14 जनवरी 1761 को मैदान से भागे हुए सदाशिवराव का अंत हुआ था ।स्वामी मंगलवेढा मे रहते समय पेशवाऔ की तरफ से उनको मिलने वाला खर्चा कभी बंद नही किया गया स्वामी ने एक बार मालोजिराव के गाल पर थप्पड लगाई ऊसका कारण यही था कि सदाशिवराव ही स्वामी समर्थ थे । आगे यही प्रयोग तात्या टोपे और नानासाहब पेशवा के साथ किया गया । क्योकी ब्रामण मतिमंद पागल आदमी को स्वामी समर्थ बना सकते है तो सिर से पैरो तक ठिक ठाक दिखने वाले तात्या टोपे को गजानन महाराज और नानासाहब पेशवा को शिर्डी के साईबाबा क्यो नही बना सकते ?
" तात्या टोपे ही है गजानन महाराज "
1818 को भिमा कोरेगाव पेशवाओ की हार हुई ।भारत मे अंग्रेजो कि सत्ता प्रस्थापित हूई । अंग्रेजो के विरुध कयी लड़ाईया हुई उनमेसे 1857 की लड़ाई एक संगठित प्रयास था । परंतु तात्या टोपे, नानासहब पेशवा , लक्ष्मीबाई ईनके नेतृत्व मे किया गया यह प्रयास असफल साबित हुआ । हारने के बाद ये लोग भूमिगत हो गए । नानासाहब पेशवा तात्या टोपे रंगो बापुजी ये लोग साधु पंडीतो का भेस धारण कर भटक रहे थे ('रंगो बापुजी' लेखक-प्रबोधनकार ठाकरे-(शिवसेना के बाल ठाकरे के पिता), पान क्र 270) कई लोगो को फासी दि गयी पर परंतु ऊनके रिश्तेदारो ऊनकी लाश पहचान से ईनकार कर दिया । करीब एक साल पहले कि बात है दैनिक जागरण मे एक व्रुत्त प्रकाशीत हूआ है , तात्या टोपे को फासी दि गई पर वो कोई दुसरा ही था , ऐसी खबर है । लेखक ताम्हणकर का कहना है की तात्या टोपे का वर्णन शेगांव के गजानन महाराज से मिलता जुलता है ,शेगांव मे प्रकट होने वाले गजान महाराज तात्या टोपे ही है ऐसा उनका स्पष्ट कहना है ।साईबाबा और गजानन महाराज एकही वक्त मे होके गए । दोनो को चरित् मे दोनो की कभी मुलाकात होने की खबर नही मिलती ।परंतु जब गजानन महाराज का मृत्यु हुआ तो इधर साईबाबा ' मेरा गया रे ' कहकर दुःख व्यक्त कर रहे थे । असल मे ये लोग संत महापुरुष थे ही नही ब्रामणो ने बनाए हुए बेहरुपीये थे । सुख दुःख के भी आगे निकल चुके संतो से तो ये अपेक्षीत नही की वे अपना सेनापति मरने का दुःख जाहिर करे पर इसका दुःख नानासाहब को हुआ । ' सांईबाबा मतलब दुसरा नानासाहब पेशवा ' !
साई यह नाम इसा से लिया गया है ।
केसरी प्रकाशन ने प्रकाशित किया गया ' पेशवा घराणो का ईतिहास ' ईस किताब मे लेखक प्र ग ओक कहते है दुसरे बाजिराव ने 7 जुन 1827 को गोविंद माधवराव भट ईस लडके को गोद लिया । उसकी जनतारिख 6 दिसंबर 1824 ऐसी है । मतलब 1857 के युद्ध मे दुसरे नानासाह पेशवा 32 साल के थे ।
नानासाहब पेशवा को संस्कृत , पर्शियन(ईराणी) , ऊर्दू ईन भाषाओ का ज्ञान था । नानासाहब पेशवा हमेशा किनरवापी कुर्ता डालते । शिर्डी के साईबाबा का द्वारकामाई चावडी के पास का फोटो सबके परिचय की है ।
28 फरवरी 1856 को अंग्रेजो ने नानासाहब पेशवा को पकडने के लिए इनाम जाहिर किया था । रंग गेहुआ , बडी आंखे , छह फिट दो इंच लंबाई, सिधा नाक, साथ मे तुटे कान का नोकर ऐसा भेस जाहिर किया गया था । नानासाहब समझ कर दूसरे किसीको ही फासी दी गई थी । असल मे नानासाहब कबके फरार हो चुके थे । साई यह गांव मै जहा पे पढता हू ऊधर रायगड जिले (महाराष्ट्र) के चिरनेर के पास है । परंतु साई यह नाम ब्रामणो ने येशु ख्रिस्त के ईसा का उलटा लिया है ।
ब्रामण मतिमंद पागल सदाशिवराव को स्वामी बना सकते है तो नानासाहब पेशवा को शिर्डी का साईबाबा भि बना सकते है ।ईन स्वामी बाबा महाराजाओ को लोगो को गाली देने कि आदत थी । और स्वामी समर्थ और साईबाबा ईनकी काठी एक जैसी ही है । और काठि पर हात रखने का तरीका भी एक जैसा है यह विशेष।
ओर दुसरी विशेषता तो यह है की इनको कई तरह की गंदी आदते भी थी उनमे से एक गजानन महाराज की गांजा पिते हूए एक तसविर बहुत लोकप्रिय है ।अय्याशीयो से ही गांजा पीने की आदत लगती है ।
मुलनिवासी बहूजनो के संत मोह, माया, संपत्ती से दुर रहकर लोगो को जिने का मार्ग दिखाते । ' व्रत काया कल्पो से पुत्र होती, तो क्यो करने लागे पती ' । यह भावना विज्ञानवादी विचारधारा का ऊदाहरण है । चिलिमधारी गांजाधारी फोटो का मानसशास्त्रिय परिणाम छोटे बच्चो तथा समाज पर क्या होता होगा ?।वर्तमान मे जो काला पैसा कमाते है , भाईगिरी , चोरी खुन करके पैसा कमाते है , बडे बडे गुंडो के आश्रय से राजनिती मे आते है । 'चरीत्रहीन काम करके मै ही चरीत्रवान ' ईसलिए दर्शन के लिए बिना किसी लाईन मे लगके दर्शन के लिए ज्यादा का पैसा देकर शार्टकट दर्शन लेते है । अमिताभ बच्चन का दर्शन घोटाला तो बडा ही फेमस है । बाल ठाकरे ने भि साईबाबा को क्या क्या नही दिया था यह प्रकरण भि बडा ही फेमस हूआ था । काँग्रेस, राष्ट्रवादी , बिजेपी के नेताओ ने पुंजिपतियो ने कितना पैसा ईन मंदिरो को दिया ईसका कोई हिसाब है ? । यह राजस्व प्राप्त करने का नया तरीका है क्या ? भारत को आजादी मिलने के बाद संस्थानिको के संस्थान विलीन किए गए बदले मे उनको तनख्वा देने कि व्यवस्था कि गई कुछ दिनो बाद भारत सरकार ने तनख्वा बंद किया । ऊसके बाद संस्थाने राजापद इतिहासगत हो गई । परंतु आजादी के बाद अस्तित्व बनाए रखने वाली ब्रामणी व्यवस्था की संस्थाने गब्बर होती जा रही है । इन संस्थानो के आश्रय से अंदर बैठने वाले बुवा , बापु , बाप्या , स्वामी, दादा, नाना-महाराज, सद्गुरू इनकी कृपा से हमारे तुम्हारे प्रश्न चुटकी बजाते ही छुट जाएंगे ऐसा प्रचार यह ब्रामण और ऊनके दलाल हमेशा करते रहते है । धर्म , भक्ती, सेवा, श्रद्धा, अध्यात्म, ब्रामणी कर्मकांड ईनको आकर्षित होकर खुद ही ब्रामणी संस्थानो मे प्रवेश करते हैँ । नसिब पर विश्वास रखकर जिने लगते है । दैववादी बन जाते है । ब्रामणी कर्मकांडो के जाल मे फस चुके लोगो का कर्मवाद पर से विश्र्वास कम होते जाता है ओर वो ब्रामणो का मानसिक गुलाम बन जाता है। ईनमे अशिक्षित शिक्षितो के साथ अमिर गरीब सभि का जमाव रहता है ।
विशेषता तो यह है की मानसिक विकलांग लोग खुद को ब्रामणी व्यवस्था के गुलाम कभी नही समझते । ईसकी कल्पना तक नही करते ।

       गुलामी की बेडीया तोडने का काम तो दुर ही ।ईन संस्थानो मे श्रद्धा के नाम पर लोगो से पैसा निकालने की योजनाए बनाई जाती है ।काकड आरती, महाआरती ,पालखी , ऊत्सव ,अभिषेक ,दर्शन ऊत्सव ,बेडिया, व्रत, मृतआत्माओ को खुश करना, चुटकी बजाते अमिर होना ,गुप्तधन, दिर्घायुष्य माला ,होम हवन ईन सब के द्वारा वो आपके जेब मे हात डालते हैं। इसतरह करोड़ो रुपयो का निधि रोज के रोज संस्थानो की दानपेटीयो मे झरने समान गिरते रहेगा ऐसी ब्रामणी षडयंत्रकारी योजना है । भारत के वित्तिय बजट से दस गुणा ज्यादा रकम मंदिरो मे हर साल जमा होती है, वो कहा जाती है । जहा पे भुखमरी से लोग मर जाते है , किसान आत्महत्या करते है , वही पे होम हवन करके लाखो रुपयो का दूध , दही , घी ,अनाज जलाया जाता है । यही इस देश की दुविधा है ।
जिन पेशवा ब्रामणो ने छत्रपति शिवाजी महाराज को जहर देकर मारा वही ब्रामण पेशवा अर्थात साईबाबा, गजानन महाराज, स्वामी समर्थ हमारे प्रेरणास्त्रोत कैसे हो सकते है ? जिन पेशवा ब्रामणो ने अछुतो के गले मे मटकी बाँधकर उनका थुकना तक पाप होता है ऐसा माना , उनके पैरो के निशान भी जमीन पर नही दिखने चाहिए इसके लिए उनके कमर को झाडु लगाया , ऐसे लोगो को हम अपना प्रेरणास्त्रोत कैसे मान सकते है ? फुले , शाहू , आंबेडकर ईनोने जो 108 साल जो क्रांतीकारी संघर्ष किया , जिससे गले की मटकी दूर होके उसके जगह टाई आ गई । शरीर पर कोट, सुट अच्छे कपड़े आ गए । पैरो मे जूते आ गए । जिन ब्रामणो ने ओबिसी को शुद्र कहा आज लोकतंत्र मे वही ब्रामण राजा बने हुए है ।
        मुलनिवासी बहूजनो ने अपने महापुरूषो को प्रेरणास्थान मानना चाहीए । अपने बाप को ही बाप मानना चाहीए । पेशवा ये विदेशी युरेशियन ब्रामण है । वे अंग्रेजो से झगडते वक्त हार गए और भाग गए अंग्रेज पकड़ेंगे इस डर से ईन लोगो ने दूसरा मार्ग अपनाया वो मतलब साधु , स्वामी बनना । शिर्डी के साईबाबा - दुसरा नानासाहब पेशवा , स्वामी समर्थ -सदाशिवराव पेशवा , गजानन महाराज - तात्या टोपे ये सभी पेशवा ब्रामण है यह इतिहास से सिद्ध हो चुका है ।
इन संस्थानो के मेडिकल इंजिनिअरींग काँलेजेस है । यहा पे ब्रामणो के बच्चे पढते है और बाद पास होने के बाद इन विध्यार्थीयो से दो साल के लिए पुर्णकालिन कार्यकर्ता बनाकर काम करवाया जाता है ।आगे यही विध्यार्थी ब्रामणी व्यवस्था के कट्टर समर्थक कार्यकर्ता बनकर ब्रामणी व्यवस्था का मेंटेनन्स करने का काम करते है ।

        यह लेख मराठी दै मुलनिवासी नायक मे आया हूआ है ।पाठको कि निरंतर मांग के कारण ईसे बार बार प्रकाशित किया गया ।दै मुलनिवासी नायक ने ईन तिनो ब्रामणो को नंगा किया तबसे कुछ महाराष्ट्र के ब्रामणी चँनलो ने अनैतिक टिवी सिरिअल्स शुरु कीये । महाराष्ट्र मेँ तो यह लेख गांव गांव मे पहूच चुका है । ईसिलिए पुरे देशभर के मुलनिवासी साथीयो को जाग्रत करने के लिए ईसका हिंदी अनुवाद किया हू । ईसको ध्यान मे रखते हूए सभि मुलनिवासी साथियो से विनती है की ईसे ज्यादा से ज्यादा मुलनिवासी साथियो के साथ शेअर करे और हो सके तो ईसकी प्रिँट निकाल कर लोगो मे ईसकी प्रतिया बाट सकते है । जल्द ही ईस पर मुलनिवासी पब्लिकेशन ट्रस्ट कि तरफ से एक शोध पुर्ण ग्रंथ प्रकाशित होने वाला है ।    

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Wednesday, March 11, 2015

जन-धन योजना: आंकड़ों के आगे क्या?

जन-धन योजना: आंकड़ों के आगे क्या?

बैंकिंग व्यवस्था से अब तक बाहर रहे लोगों को इसके तहत लाने के लिए शुरू की गई महत्वाकांक्षी योजना अपने लक्ष्य से भटकती नजर आ रही है
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अगर कम वक्त में भारी-भरकम संख्या तक पहुंच जाना किसी योजना की कामयाबी का पैमाना हो, तो प्रधानमंत्री जन धन योजना की गिनती देश की अब तक की सबसे कामयाब योजनाओं में की जानी चाहिए. अपनी शुरुआत के 18 हफ्तों के भीतर ही इसके तहत 11 करोड़ खाते खोले जा चुके हैं. लेकिन जैसे-जैसे यह संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे इस बात की आशंका भी बढ़ती जा रही है कि कहीं यह योजना सिर्फ आंकड़ों का खेल बनकर न रह जाए.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 15 अगस्त को लाल किले से इस महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की थी, जिसका लक्ष्य देश के उन परिवारों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ना है, जो अभी तक इससे बाहर हैं. अपने पहले आम बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी वादा किया था कि देश के हर परिवार को दो बैंक खाते उपलब्ध कराए जाएंगे, जिन पर कर्ज की सुविधा भी होगी. वैसे तो भारतीय रिजर्व बैंक कई सालों से वित्तीय समावेशन अभियान के जरिए लगातार इस दिशा में प्रयास कर रहा है, लेकिन इसकी प्रगति काफी धीमी रही है.
इस धीमी प्रगति को देखते हुए जब इस बार लोगों के खाते खोलकर उन्हें बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने की योजना बनाई गई, तो इसके साथ कुछ खास फायदे भी जोड़ दिए गए. मसलन, इस योजना के तहत खोले गए खाते में न्यूनतम राशि रखने की जरूरत नहीं है, लेन-देन के लिए रुपे डेबिट कार्ड मिल रहा है, खाताधारक को 30 हजार रुपये के जीवन बीमा के साथ एक लाख रुपये का दुर्घटना बीमा दिया जा रहा है और छह महीने तक उचित तरीके से खाता चलाने पर खाताधारक को ओवरड्राफ्ट की सुविधा भी मिलेगी. इसके अलावा सरकार ने सब्सिडी, पेंशन, छात्रवृत्ति आदि का पैसा सीधे इन्हीं खातों में भेजने की योजना बनाई है.
लक्ष्य हासिल करने की इस होड़ के बीच एक बात भुला दी गई कि यह योजना उन लोगों के लिए लाई गई थी, जिनके पास बैंक खाते नहीं थे
वैसे तो वित्तीय समावेशन के इस विस्तृत एजेंडा के तहत देश के सभी परिवारों को बैंकिंग सुविधाएं मुहैया कराई जानी हैं, लेकिन शुरुआत से ही यह बात कही जा रही है कि इस अभियान में खास ध्यान समाज के कमजोर वर्गों के सशक्तिकरण पर दिया जाएगा. पिछले साल अगस्त में वित्त मंत्री जेटली ने जोर देते हुए यह बात कही थी कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में रहनेवाली महिलाओं, छोटे किसानों और श्रमिकों को यह सुविधा देने पर विशेष जोर दिया जाएगा. इस अभियान को सफल बनाने के लिए वित्तीय सेवा विभाग ने पिछले साल 11 अगस्त को एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था ताकि देश के कमजोर वर्गों तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाने के लिए उपलब्ध तकनीकों को समझा जा सके. लेकिन योजना के साथ लक्ष्य जुड़ा होने की वजह से बैंकों का ध्यान इसको पूरा करने में ही लग गया और कमजोर वर्गों पर ध्यान देने की बात कहीं पीछे ही छूट गई. प्रधानमंत्री मोदी ने जब 28 अगस्त 2014 को इस योजना की औपचारिक शुरुआत की तो 26 जनवरी 2015 तक देश-भर में 7.5 करोड़ बैंक खाते खोले जाने का लक्ष्य तय किया गया था. लेकिन जब सरकार को लगा कि खाते काफी तेजी से खुल रहे हैं, तो यह लक्ष्य संशोधित कर 10 करोड़ कर दिया गया था. लक्ष्य को संशोधित करने के बावजूद सरकार ने पिछले साल 24 दिसंबर को ही यानी तय समय सीमा से एक महीने पहले 10 करोड़ बैंक खाते खोलने का यह लक्ष्य हासिल कर लिया. यही नहीं, नौ जनवरी 2015 तक इस योजना के तहत 11 करोड़ से अधिक बैंक खाते खोले जा चुके हैं.
लक्ष्य हासिल करने की इस होड़ के बीच एक बात भुला दी गई कि यह योजना उन लोगों के लिए लाई गई थी, जिनके पास बैंक खाते नहीं थे. योजना से जुड़े फायदे लेने के लिए उन लोगों ने भी इस योजना के तहत खाते खुलवाने शुरू कर दिए, जिनके पास पहले से ही बैंक खाते थे. इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश न होने की वजह से काफी समय तक लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रही. सरकार को जागने में काफी वक्त लगा और 15 सितंबर को उसने स्पष्टीकरण जारी कर कहा कि जिन लोगों के पास पहले से ही बैंक खाता है, उनको इस योजना के फायदे लेने के लिए फिर से खाता खुलवाने की जरूरत नहीं है. ऐसे लोग अपने मौजूदा बैंक खाते पर ही रुपये डेबिट कार्ड के लिए आवेदन कर मुफ्त बीमा का फायदा ले सकते हैं. लेकिन तब तक गड़बड़ी हो चुकी थी.
हड़बड़ी में शुरू की गई थी योजना
इसकी वजह यह थी कि अगस्त में जल्दबाजी में जन धन योजना घोषित तो कर दी गई, लेकिन इसके दिशा-निर्देशों और बाकी चीजों को बाद में तय करने के लिए छोड़ दिया गया.
ऐसे में वित्त मंत्रालय को कई बार स्पष्टीकरण जारी करने पड़े. योजना की घोषणा के समय कहा गया था कि 26 जनवरी 2015 तक इसके तहत खाता खुलवानेवाले व्यक्ति को 30 हजार रुपये का जीवन बीमा दिया जाएगा. इस बारे में इससे अधिक जानकारी किसी के पास नहीं थी. लेकिन सरकार को यह तय करने में कई महीने लग गए कि सभी लोगों को इस जीवन बीमा का हकदार नहीं बनाया जा सकता. भारी संख्या में लोगों ने जीवन बीमा जैसी सुविधाओं से आकर्षित होकर इस योजना के तहत खाता खुलवाया था, लेकिन नवंबर में यह पता लगा कि उनमें से अधिकांश लोग इसके हकदार ही नहीं हैं.
जीवन बीमा लाभ का दायरा सिमटा
वित्त मंत्रालय ने योजना शुरू होने के तीन महीने बाद नवंबर में बैंकों को दिशा-निर्देश जारी कर बताया कि किसी परिवार में केवल एक ही व्यक्ति को जीवन बीमा का लाभ दिया जाएगा और यह बीमा सिर्फ पांच सालों के लिए है. वह व्यक्ति उस परिवार का मुखिया या ऐसा सदस्य होना चाहिए, जिसकी कमाई से घर चलता हो. उसकी उम्र 18 साल से 59 साल के बीच होनी चाहिए. उसके पास वैध रुपे कार्ड होना चाहिए. केंद्र सरकार, राज्य सरकार, पीएसयू में कार्यरत या वहां से सेवानिवृत्त कर्मचारी इस जीवन बीमा के हकदार नहीं हैं. इसके अलावा उनके परिवार के लोग भी इसके हकदार नहीं होंगे. जिनकी आमदनी कर-योग्य (टैक्सेबल) है, जो आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं और जिनका टीडीएस कटता है, वे लोग और उनके परिवार के लोग भी इस जीवन बीमा के दायरे से बाहर कर दिए गए हैं. जिन लोगों को आम आदमी बीमा योजना के तहत बीमा कवर मिल रहा है, वे भी इस योजना के तहत जीवन बीमा के हकदार नहीं हैं. इसके अलावा जिन लोगों को किसी अन्य योजना के तहत जीवन बीमा का लाभ मिल रहा है, उनको भी इस योजना के तहत जीवन बीमा नहीं मिल सकता.
जीवन बीमा देने की जिम्मेदारी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) को सौंपी गई है. यह बात दीगर है कि इससे अधिक जानकारी अभी बैंकों के पास नहीं है.
दुर्घटना बीमा की गफलत
योजना के तहत बैंक खाताधारक को दुर्घटना बीमा दिए जाने का प्रावधान भी है. इस बीमा का प्रीमियम देने की जिम्मेदारी नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) पर डाली गई है. यह शुल्क 0.47 रुपये प्रति कार्ड है. लेकिन चार महीने से अधिक वक्त बीत जाने और योजना के तहत 11 करोड़ से अधिक खाते खुल जाने के बाद भी अभी तक यह पता नहीं है कि यह बीमा कौन देगा.
हालांकि जब प्रधानमंत्री जन-धन योजना मिशन के कार्यालय से इस बारे में सवाल किया गया, तो उसने जवाब में लिखा कि 18 से 70 साल तक की उम्र के सभी रुपे कार्डधारकों को एक लाख रुपये का दुर्घटना बीमा मिलेगा. यह लाभ तब मिलेगा, जब कार्ड जारी करनेवाला बैंक उस खाताधारक से जुड़े सभी जरूरी दस्तावेज एचडीएफसी एर्गो जनरल इंश्योरेंस कंपनी के पास जमा कर देगा.
लेकिन बैंकों को अभी तक इस बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है, लिहाजा दुर्घटना बीमा का दावा आने पर वे खाताधारकों को उचित जवाब तक नहीं दे पा रहे हैं. झारखंड के डाल्टनगंज में बैंक ऑफ इंडिया के एक अधिकारी के मुताबिक, ‘अभी हमें इस बारे में ऊपर से कोई आदेश नहीं मिला है. ऐसे में हम खाताधारकों को इंतजार करने की ही सलाह दे रहे हैं.’ बैंक ऑफ महाराष्ट्र के एक अधिकारी ने भी तहलका से बातचीत में इस बारे में अनभिज्ञता ही जताई.
दूसरी ओर जिस कंपनी (एचडीएफसी एर्गो) को इस काम की जिम्मेदारी देने की बात कही गई ह,ै वह योजना के चार महीने बीत जाने के बाद भी इस बारे में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है. इस बारे में तहलका ने कंपनी को जो ईमेल भेजा, उसके जवाब में उन्होंने लिखा, ‘अभी हम इस स्टोरी के बारे में कुछ नहीं बोलना चाहते.’
सरकार ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि योजना के तहत खोले गए खाते आगे भी चालू रहें, तो यह योजना भी औंधे मुंह गिर सकती है
दुर्घटना बीमा का लाभ किसको मिलेगा, उसके प्रावधानों पर नजर डालने से पता चलता है कि मौजूदा स्थिति में बहुत कम लोग इसका फायदा उठा सकने की स्थिति में होंगे. इस बीमा का लाभ लेने के लिए यह जरूरी है कि पिछले 45 दिनों के दौरान कम से कम एक बार रुपे डेबिट कार्ड का इस्तेमाल किया गया हो. लेकिन नौ जनवरी तक खोले गए 11.02 करोड़ खातों में से आठ करोड़ खातों में पैसा ही नहीं है (ये जीरो बैलेंस खाते हैं). इसके अलावा 9.12 करोड़ लोगों को ही डेबिट कार्ड दिया गया है. इसका मतलब यह है कि 1.9 करोड़ खाताधारक ऐसे हैं जिनको डेबिट कार्ड नहीं दिया गया है. ऐसे में कुछ बड़े और वाजिब सवाल उठते हैं कि खाते में जीरो बैलेंस होने की स्थिति में खाताधारक रुपे डेबिट कार्ड का इस्तेमाल क्यों करेगा, इसी तरह 1.9 करोड़ डेबिट कार्ड से महरूम खाताधारक कैसे कार्ड का इस्तेमाल करेंगे.
बैंकों के सामने बड़ी चुनौती
दिशा-निर्देशों की अस्पष्टता और उचित सोच-विचार के बिना शुरू की गई योजना के चलते जहां अधिकांश खाताधारक इससे जुड़ी सुविधाओं से वंचित होते दिख रहे हैं, वहीं खाता खोलनेवाले बैंकों के सामने यह योजना कई दूसरी चुनौतियां भी पेश कर रही है. दरअसल सरकार ने इस अभियान को पूरा करने की जिम्मेदारी बैंकों के ऊपर डाल दी है, लेकिन न तो बैंकों का देश-भर में इतना विस्तार है और न ही उनके पास पर्याप्त संसाधन हैं कि वे इस जिम्मेदारी को उठा सकें. डेलॉयट और सीआईआई की ओर से सितंबर 2014 में जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री जन धन योजना के पहले चरण (15 अगस्त 2014 से 14 अगस्त 2015 तक) के दौरान ही बैंकों को 50,000 अतिरिक्त बिजनेस कॉरेस्पांडेंट नियुक्त करने होंगे और 7,000 से अधिक नई शाखाएं खोलनी होंगी. इसके अलावा इस दौरान उन्हें 20,000 नए एटीएम स्थापित करने होंगे. लेकिन बैंक ऐसा करने की स्थिति में नहीं दिखते.
खाते की मारामारी योजना के तहत खाता खुलवाने के लिए बैंकों के बाहर उमड़ा लोगों का हुजूम
खाते की मारामारी योजना के तहत खाता खुलवाने के लिए बैंकों के बाहर उमड़ा लोगों का हुजूम
चूंकि बैंक इस योजना के अनुपात में जरूरी एटीएम नहीं लगा पा रहे हैं. इसलिए इन खातों की वजह से देश में बैंक खातों और एटीएम का अनुपात गड़बड़ाता दिख रहा है. ऐसे में यह आशंका भी जताई जा रही है कि एटीएम की कमी की वजह से कहीं यह योजना पटरी से ही न उतर जाए. यहां ध्यान देने वाली बात है कि रुपे डेबिट कार्ड का इस्तेमाल किए बिना खाताधारक योजना के फायदों के लिए अर्ह नहीं होगा. दूसरी समस्या यह है कि एटीएम ऑपरेटरों और बैंकों के लिए एटीएम चलाने का बिजनेस मॉडल फायदेमंद नहीं दिख रहा है. उनके मुतािबक, मौजूदा इंटरचेंज फी इतनी कम है कि उनके लिए इस बिजनेस मॉडल को चला पाना मुश्किल हो रहा है. इसी वजह से वे अधिक एटीएम लगा पाने की स्थिति में नहीं हैं. अप्रैल-जून 2014 के दौरान देश में कुल एटीएम की संख्या में महज एक फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. जून 2014 तक देश में कुल एटीएम की संख्या 1,66,894 थी, जबकि कुल पीओएस (प्वाइंट ऑफ सेल्स) की संख्या 1.08 करोड़ थी.
11 करोड़ पार, लेकिन दिक्कतें बेशुमार
जन धन योजना में खास ध्यान समाज के कमजोर वर्गों पर दिया जाना है, लेकिन लक्ष्य पूरा करने की होड़ में बैंक इस बात को भुला चुके हैं
योजना की शुरुआत के कुछ ही समय बाद यह बात पीछे छूट गई कि यह उन लोगों के लिए लाई गई थी, जिनके पास बैंक खाते नहीं थे
योजना के फायदे लेने के लिए उन लोगों ने भी इसके तहत खाते खुलवाने शुरू कर दिए, जिनके पास पहले से ही बैंक खाते थे
इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश न होने की वजह से काफी समय तक लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रही
योजना का फायदा लेने के लिए लोगों ने कई-कई खाते खुलवा लिए हैं, ताकि उन्हें कई बार ओवरड्राफ्ट और बीमा की सुविधा मिल जाए
यह भी संभव है कि लोगों ने अलग-अलग दस्तावेजों का इस्तेमाल कर कई खाते खुलवाए हों
अगस्त में जल्दबाजी में योजना तो घोषित कर दी गई, लेकिन बाकी चीजों को बाद में तय करने के लिए छोड़ दिया गया
सरकार को यह तय करने में कई महीने लग गए कि सभी लोगों को इस जीवन बीमा का हकदार नहीं बनाया जा सकता
जीवन बीमा देने की जिम्मेदारी एलआईसी को सौंपी गई है. लेकिन चार महीने बाद भी इससे अधिक जानकारी बैंकों के पास नहीं है
बैंकों को दुर्घटना बीमा के बारे में कोई जानकारी नहीं है, लिहाजा बीमा का दावा आने पर वे उचित जवाब तक नहीं दे पा रहे हैं
जिस कंपनी (एचडीएफसी एर्गो) को दुर्घटना बीमा की जिम्मेदारी देने की बात कही गई है, वह इस बारे में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है
योजना के तहत बड़ी संख्या में खाते खुलने की वजह से देश में बैंक खातों और एटीएम का अनुपात गड़बड़ाता दिख रहा है
देश के ग्रामीण इलाकों में बैंक एटीएम की संख्या बहुत कम है, इस वजह से भी बैंक शाखाओं पर दबाव बढ़ेगा
बैंकों को अपने यहां अतिरिक्त कर्मचारी लगाने पड़ेंगे, जिसकी वजह से बैंकों की परिचालन लागत बढ़ेगी
इतनी बड़ी संख्या में खातों पर ओवरड्राफ्ट देने से बैंकों पर पड़नेवाले बोझ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है
अगर नए खातों में कामकाज नहीं हुआ और वे ठप पड़ गए, तो इनकी लागत के बोझ से उबरना भी बैंकों के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा
बैंकों के लिए चुनौतियां यहीं खत्म नहीं होतीं. इन खातों पर बैंकों को ओवरड्राफ्ट की सुविधा भी देनी है. हर परिवार में केवल एक व्यक्ति को 5,000 रुपये की ओवरड्राफ्ट सुविधा मिलेगी. प्राथमिकता इस बात को दी जाएगी कि यह उस परिवार की महिला को मिले. लेकिन अब तक 11 करोड़ खाते खुल चुके हैं और खातों का खुलना लगातार जारी है. ऐसे में ओवरड्राफ्ट के रूप में बैंकों पर पड़नेवाले बोझ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है.
बैंकिंग विशेषज्ञ यूएस भार्गव बताते हैं, ‘अगर रुपपे कार्ड लोकप्रिय हो गए और लोगों ने एटीएम में जाकर पैसे निकालना सीख लिया और बैंक शाखा में जाकर लेन-देन नहीं किया, तब तो बैंकों का काम मौजूदा कर्मचारियों से चल जाएगा, लेकिन अगर ये खाताधारक छोटे लेन-देन के लिए शाखाओं में आने लगे, तब बैंकों की सामान्य सेवाओं पर भी विपरीत असर पड़ने लगेगा.’ देश के ग्रामीण इलाकों में बैंक एटीएम की संख्या बहुत कम है, इस वजह से भी बैंक शाखाओं पर दबाव बढ़ेगा. ऐसे में बैंकों को अपने यहां अतिरिक्त कर्मचारी लगाने पड़ेंगे, जिसकी वजह से बैंकों की परिचालन लागत बढ़ेगी. अभी तो इनमें से 30 फीसदी खातों में ही कुछ कामकाज हो रहा है. बैंकों को असली चुनौती का सामना तो तब करना पड़ेगा, जब इन सारे खातों में कामकाज होने लगेगा. इसका एक दूसरा पहलू भी है. अगर नए खातों में कामकाज नहीं हुआ और वे ठप पड़ गए, तो इनकी लागत के बोझ से उबरना भी बैंकों के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा.
बिजनेस कॉरेस्पांडेंट का सवाल
वित्तमंत्री जेटली ने जन-धन योजना की सफलता में बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स की भूमिका को काफी अहम माना है. आरबीआई के सुझाव के अनुरूप बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों में बिजनेस कॉरेस्पांडेंट नियुक्त भी किए हैं, लेकिन यह व्यवस्था अभी तक सुचारु रूप से आगे नहीं बढ़ पाई है. आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती द्वारा वित्तीय समावेशन पर मार्च 2013 में जो रिपोर्ट पेश की गई थी, उसमें साफ कहा गया था कि बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स में पेशेवर रवैये का अभाव है. रिपोर्ट ने यह भी माना था कि बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स को इस काम से काफी कम आमदनी हो रही है, जिसकी वजह से ये लोग काम छोड़ रहे हैं. इन स्थितियों में योजना की सफलता पर सवालिया निशान लगना लाजमी है.
आरबीआई कोे बदलनी पड़ी समय सीमा
जन धन योजना के शुरू हो जाने की वजह से अब देश में वित्तीय समावेशन की दो समांतर योजनाएं चल रही हैं. भारतीय रिजर्व बैंक की पहले से चल रही वित्तीय समावेशन योजना में उन गांवों को दायरे में लाने का लक्ष्य बनाया गया है जिनकी आबादी 2000 से अधिक है. देश के 5.92 लाख गांवों में से 74,000 गांवों को अब तक वित्तीय समावेशन के दायरे में लाया जा चुका है.
इतनी भारी संख्या में खुल रहे खातों पर ओवरड्राफ्ट देने में बैंकों पर पड़नेवाले बोझ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है
लेकिन इस योजना के तहत ध्यान गांवों पर था, न कि परिवारों पर. इसके अलावा यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों को वित्तीय सेवाओं के दायरे में लाने के लिए काम करती थी. जन धन योजना परिवारों को बैंक खाते उपलब्ध कराने पर ध्यान देती है और इसका ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों के साथ ही साथ शहरी क्षेत्रों पर भी है.
आरबीआई की पहले से चल रही योजना का पहला चरण 2009-10 में शुरू हुआ था. इसका दूसरा चरण 2013 से शुरू होकर मार्च 2016 तक चलना था. दूसरी ओर जन धन योजना का पहला चरण 14 अगस्त 2015 तक चलना है. ऐसे में इस योजना की वजह से आरबीआई को वित्तीय समावेशन की अपनी पहली योजना की तिथियां बदलनी पड़ गई हैं. दो जनवरी 2015 को जारी सर्कुलर में आरबीआई ने मार्च 2016 तक की समय सीमा को कम करके 14 अगस्त 2015 कर दिया है, ताकि इसे जन धन योजना के तालमेल में लाया जा सके.
और भी सवाल हैं
खातों की तेजी से बढ़ती संख्या के बीच कई और सवाल उठ खड़े हुए हैं. आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने सितंबर में एक बैंकिंग कांफ्रेंस में बोलते हुए कहा था, ‘जब हम कोई योजना शुरू करते हैं, तो हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह पटरी से न उतरे. इसका लक्ष्य लोगों को शामिल करना है, सिर्फ तेजी और संख्या इसका लक्ष्य नहीं है.’ साथ ही राजन ने यह चिंता भी जताई थी कि यदि एक ही व्यक्ति कई-कई खाते खोले, नए खातों में कोई लेन-देन न हो और बैंकिंग व्यवस्था में पहली बार शामिल हो रहे व्यक्ति को खराब अनुभव का सामना करना पड़े, तो यह योजना निरर्थक साबित हो सकती है. भार्गव बताते हैं, ‘ऐसी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि इस योजना का फायदा लेने के लिए लोगों ने कई-कई खाते खुलवा लिए हैं, ताकि उन्हें कई बार ओवरड्राफ्ट और बीमा की सुविधा मिल जाए.’ इसके अलावा यह भी संभव है कि लोगों ने अलग-अलग दस्तावेजों का इस्तेमाल कर कई खाते खुलवाए हों. ऐसे में स्मर्फिंग (बड़ी राशि को कई हिस्सों में बांटकर कई खातों के जरिए भेजना) और मनी लांड्रिंग की समस्या भी बढ़ सकती है.
आरबीआई के डिप्टी गवर्नर एसएस मुंद्रा ने भी डुप्लिकेट खाते खुलने की बात स्वीकार की है. पिछले दिनों उन्होंने कहा, ‘मैं डुप्लिकेट खातों की सही संख्या तो नहीं बता सकता, लेकिन कुछ सर्वेक्षणों के मुताबिक इनकी संख्या 30 फीसदी तक हो सकती है.’ दिक्कत यह है कि वक्त के साथ जैसे-जैसे कुल खातों की संख्या बढ़ेगी, इस तरह की गड़बड़ी को दूर करना काफी मुश्किल होता जाएगा.
इसके अलावा सवाल यह भी है कि 11 करोड़ का यह आंकड़ा कितना विश्वसनीय है. भार्गव कहते हैं, ‘दरअसल इस योजना के साथ सबसे बड़ी गड़बड़ी यह हो गई कि बैंकों को छोटी अवधि में एक लक्ष्य पूरा करने को दे दिया गया. इससे इस बात का खतरा हो गया है कि दबाव में आकर बैंक कहीं गलत रिपोर्टिंग न करने लगे हों.’ यह जानना भी जरूरी है कि इनमें से कितने खाते बैंकिंग सुविधा की पहुंच से दूर उन ग्रामीण क्षेत्रों में खुले हैं, जहां वाकई इनकी जरूरत है. ऐसी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि इतनी भारी संख्या में खाते खोलेजाने के बावजूद इसके असली हकदार इससे वंचित रह गए हों.
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देश में राजनीति का अनुभव यही कहता है कि राजनेता अपनी उपलब्धियां दिखाने के लिए आंकड़ों के खेल में उलझ जाते हैं. इस योजना के साथ भी ऐसी आशंकाएं जन्म लेने लगी हैं. भार्गव कहते हैं, ‘अगर सरकार ने इस योजना के साथ देख-रेख और निगरानी का काम जारी नहीं रखा और इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि योजना के तहत खोले गए खाते आगे भी चालू रहें, तो यह योजना भी औंधे मुंह गिर सकती है.’ हालांकि भार्गव यह भी कहते हैं कि जल्दीबाजी में इस योजना के बारे में किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले कम से कम छह महीने और इंतजार करना बेहतर होगा.


आरबीआई की अब तक की कोशिशों का हाल
डेलॉयट और सीआईआई की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में केवल 50 फीसदी लोगों के पास ही बैंक खाते हैं और 20 फीसदी से कम लोगों के पास बैंकों से कर्ज की सुविधा है. इसका सीधा मतलब यह है कि शेष जनता को औपचारिक बैंकिंग व्यवस्था के तहत लाने के लिए अभी काफी लंबी दूरी तय की जानी बाकी है. भारतीय रिजर्व बैंक काफी समय से वित्तीय समावेशन की दिशा में प्रयास भी कर रहा है. साल 2004 में इसने खान आयोग का गठन किया था, जिसे इस बारे में सुझाव देने के लिए कहा गया था. आयोग की सिफारिशों को आरबीआई की साल 2005-06 की मध्यावधि समीक्षा रिपोर्ट में शामिल किया गया. इसके तहत बैंकों से कहा गया कि कमजोर वर्गों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने के लिए वे नो-फ्रिल्स खाते (बेसिक एकाउंट) उपलब्ध कराएं. जनवरी 2006 में आरबीआई ने बैंकों को इस बात की अनुमति दे दी कि वे इस काम के लिए एनजीओ, स्वयं सहायता समूहों, माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं आदि की मदद ले सकते हैं और इन्हें बिजनेस कॉरेस्पांडेंट के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है.
लेकिन इस दिशा में प्रगति की दर काफी धीमी है. दरअसल इसकी एक बड़ी वजह इसके लिए जरूरी उपयोगी बिजनेस मॉडल का अभाव है. चक्रबर्ती रिपोर्ट के अनुसार, ‘वित्तीय समावेशन के काम को आगे बढ़ाने के लिए देश में उपयोगी बिजनेस मॉडल अभी तक विकसित नहीं हो सका है. इसके लिए रेवेन्यू जेनरेशन मॉडल का अभाव इसकी असफलता की एक बड़ी वजह है.’
इसके अलावा वित्तीय समावेशन के प्रयासों के तहत अब तक जो खाते खोले भी गए हैं, उनमें से काफी अधिक खातों में कोई कामकाज नहीं हो रहा है या फिर काफी कम लेन-देन हो रहा है. यह इस बात का प्रमाण है कि महज खाता खोल देने भर से कोई व्यक्ति वित्तीय रूप से व्यवस्था का हिस्सा नहीं बना जाता.
भार्गव के मुताबिक, इस लिहाज से वित्तीय साक्षरता और जागरुकता की भूमिका काफी अहम है. लोगों को इस बारे में शिक्षित करने की जरूरत है कि अगर वे बैंकिंग व्यवस्था में सक्रिय रूप से भागीदारी करते हैं, तो आनेवाले समय में उनको क्या-क्या लाभ होंगे. ऐसे उपाय करने होंगे कि ये लोग सूदखोरों और पोंजी स्कीमों के चंगुल में न फंसें. खास तौर पर उन लोगों के लिए वित्तीय उत्पाद तैयार करने होंगे, जो पहली बार बैंकिंग व्यवस्था का हिस्सा बन रहे हैं. उन्हें छोटी बचतों के लिए प्रेरित करना होगा और कामकाज के लिए छोटे कर्ज मुहैया कराने होंगे.
(Published in Tehelkahindi Magazine, Volume 7 Issue 2, Dated 31 January 2015)

Tuesday, March 10, 2015

विदेशी न सही, स्वदेशी कालाधन तो निकालिए

विदेशी न सही, स्वदेशी कालाधन तो निकालिए

अभी तक कालेधन के विषय में यही अवधारणा रही है कि वह धन जो चोरी-छिपे विदेशी बैंकों में जमा किया गया हो।taujiसुप्रीमकोर्ट ने पिछली यूपीए सरकार को आदेश भी दिया था कि ऐसे लोगों की सूची पेश करें, जिनका पैसा अवैधानिक तरीके से विदेशों में जमा है। उन्होंने तो सूची जमा नहीं किया परन्तु मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए एसआईटी का गठन किया और 600 से अधिक ऐसे खाताधारकों के नाम भी अदालत में पेश किए। विदेशों से काला धन लाने में अनेक और जटिल समस्याएं हैं।
विदेशों से धन लाने की देरी से काफी थुक्का फजीहत हो रही है क्योंकि कुछ नेताओं ने अति उत्साह में कह दिया था कि यदि काला धन वापस आ जाए तो प्रत्येक भारतीय के खाते में कई-कई लाख रुपया जमा हो जाएगा। अब विरोधियों को ताना सुनाने का सुनहरा मौका मिल गया था। मोदी सरकार ने विदेशी काले धन के साथ ही स्वदेशी कालेधन पर भी प्रहार करने का निर्णय लिया है। स्वदेशी हो अथवा विदेशी, रुपए-पैसों का रंग एक ही होता है परन्तु वह धन काला कैसे हो जाता है?
वह धन जिस पर सरकार को टैक्स न दिया गया हो कालाधन कहलाता है। इस प्रकार का धन तो देश में भी भारी मात्रा भरा पड़ा है,जिसे कई बार समानान्तर अर्थव्यवस्था कहा जाता है। विदेशी कालाधन वहां की बैंकों में जमा कर दिया गया है लेकिन स्वदेशी कालाधन अलग-अलग रूपों में अलग-अलग जगहों पर दुबक कर बैठा है। पुराने जमाने में सोना-चांदी के रूप में जमीन के अन्दर बिठा दिया जाता था क्योंकि कहते थे ”वित्ते नृपालात् भयम” यानी धन है तो राजा का डर है । अब जमीन के अन्दर गड़े धन को राजा का डर तो नहीं है परन्तु डकैतों और चोरों का डर है ।
हजारों मन्दिरों, मस्जिदों और गिरिजाघरों में अकूत सम्पदा मौजूद है वह भी काले धन की श्रेणी में आएगी। कहते हैं अंग्रेजों के डर से वहां के राजाओं ने अरबो-खरबों रुपया पद्मनाभ मन्दिर में जमा कर दिया था जो आज भी विद्यमान है। यह भगवान का पैसा नहीं है बल्कि जनता का पैसा है भगवान के संरक्षण में है। क्या इसका उपयोग जन-कल्याण के लिए नहीं किया जाना चाहिए? यही बात दूसरे धर्मस्थानों की सम्पदा पर भी लागू होगा।
आजकल सर्वाधिक काला धन जमीन जायदाद के रूप में रहता है। कई बार बेनामी सम्पत्ति के रूप में। यही कारण है कि पिछले 40 साल में गांवों की जमीन के दाम 400 गुना बढ़ गए हैं जब कि सोने के दाम केवल 150 गुना ही बढ़े हैं। जहां कालेधन का प्रवेश नहीं है वहां महंगाई भी नहीं है जैसे मजदूरी इसी अवधि में करीब 70 गुना और गेहूं करीब 30 गुना बढ़ा है। स्पष्ट है जहां काले धन की पैठ थी वहां महंगाई अधिक बढ़ी।
गांवों में काले धन नहीं है क्योंकि खेती की आमदनी पर टैक्स नहीं बनता और अधिकतर किसान आयकर सीमा से अधिक कमाते भी नहीं। परन्तु राजनेता और अधिकारी रिश्वत के रूप में जो धन लेते हैं उस पर टैक्स नहीं देते इसलिए वह काला है। कभी-कभी इन्कम टैक्स विभाग कालेधन वालों से पूछा जाता है कि ज्ञात स्रोतों से अधिक धन आया कहां से, परन्तु जांच पड़ताल की चुस्त प्रक्रिया नहीं है। जब पहली बार खुलासा होता है तो मीडिया में खूब धूम-धड़ाका होता है परन्तु जब प्रकरण का निस्तारण होता है तो पता नहीं चलता कैसे हुआ ।
अब शायद मोदी सरकार इसे गम्भीर अपराध मान रही है और 10 साल तक की सजा की बात हो रही है। अभी तक टैक्स चोरी पर आर्थिक दंड भरने से काम चल जामा था। वैसे कुछ लोगों को सजाएं भी हुई हैं। एक केन्द्रीय मंत्री थे, हिमाचल के रहने वाले सुखराम जिन्होंने अपने रजाई गद्दों और तकियों में नोटें भर रक्खी थीं। कार्यपालिका और न्यायपालिका के अनेक लोग काले धन के लालच में पड़ चुके हैं और दंड झेला है। अब शायद कुछ अंकुश लग सके ।
कालाधन रोकने के लिए पहले भ्रष्टाचार रोकना होगा। इसके दो ही उपाय हैं पहला तो नीचे से क्रान्ति जो व्यवस्था को उखाड़ फेंकेगी और प्रजातंत्र समाप्त हो सकता है। दूसरा उपाय है शासन प्रशासन द्वारा आदर्श स्थापित करना जिससे नीचे के लोग प्रेरित हों। नरेन्द्र मोदी ने कहा तो था ”ना खाएंगे और ना खाने देंगे” पता नहीं कितना कामयाब होंगे हमारे प्रधान मंत्री इस अभियान में। हम उन्हें शुभकामनाएं ही दे सकते हैं।

Thursday, March 5, 2015

एक कार्पोरेटी बजट

एक कार्पोरेटी बजट

आर्थिक सर्वे के जरिये विकास का जो गुब्बारा फुलाया गया था, दूसरे दिन
ही फूट गया। वर्ष 2004-05 के आधार वर्ष पर देश में सकल घरेलू उत्पाद
(जीडीपी) की जो विकास दर 4.7 प्रतिशत बैठती थी, उसने वर्ष 2011-12 के
आधार पर 7.4 प्रतिशत की दर पर छलांग लगा ली। लेकिन पूरी दुनिया का
अर्थशास्त्र यह बताता है कि यदि राष्ट्रीय आय के समतापूर्ण वितरण के
जरिये राष्ट्रीय सम्पदा का न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं किया जाता, तो देश के
विकास का पैमाना जीडीपी में विकास दर नहीं हो सकता।
यही हो रहा है- विकास दर बढ़ रही है, साथ ही आर्थिक असमानता के बढ़ने के
कारण आम जनता का जीवन स्तर भी गिर रहा है। जहां वर्ष 2011 में इस देश में
डाॅलर अरबपतियों की संख्या 55 थी, वहीं ‘फोब्र्स’ के अनुसार 2014 में यह
संख्या बढ़कर 100 हो गई, लेकिन 80 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों और 45
प्रतिशत शहरी परिवारों का प्रति व्यक्ति दैनिक उपभोक्ता खर्च 50 रुपये से
कम ही है। एक ओर रोजगार बढ़ाने के नाम पर उद्योगपतियों को सब्सिडी दी
जाती है, तो दूसरी ओर घोर दरिद्रता में जी रहे लोगों से बची-खुची सब्सिडी
छीनकर उनके दाना-पानी और दूसरी मानवीय सुविधाओं में भी कटौती कर दी जाती
है। इस नजरिये का सीधा अंतर्विरोध यह है कि यदि आम जनता की खरीदने की
ताकत ही नहीं बढ़ेगी, तो बाजार में मांग घटेगी। यदि मांग घटेगी, तो
उद्योगपति रोजगार का सृजन करके बाजार में आपूर्ति बढ़ाने का काम नहीं
करेगा, बल्कि अपने मुनाफे को बनाये रखने के लिए सब्सिडी को डकारने का ही
काम करेगा। पिछले कई सालों से, हर साल पूंजीपतियों को 5-6 लाख करोड़ की
सब्सिडी ‘टैक्स माफी’ के रुप में दी जा रही है, लेकिन इसका न तो व्यापार
व विर्निमाण के क्षेत्र में प्रगति में कोई असर दिखा और न ही इससे किसी
प्रकार का रोजगार सृजन हुआ। देश में आज 15-29 आयु वर्ग के समूह में 13.3
प्रतिशत की दर से बेराजगारी बढ़ रही है। इसीलिए अर्थशास्त्री इस प्रकार
के विकास को, जहां जीडीपी में वृद्धि दर तो बढ़ती है और सेंसेक्स में
भारी उछाल भी आता है, ‘रोजगारहीन विकास’ कहते हैं। इस प्रकार के विकास से
देश की एक बहुत ही अल्पमत आबादी की बल्ले-बल्ले तो हो सकती है, बहुमत आम
जनता की स्थिति और दयनीय हो जाती है।
इसीलिए यदि कार्पोरेटों को टैक्स में छूट दी जाती है, अमीरों को संपत्ति
कर से मुक्त किया जाता है, प्रत्यक्ष करों से पिछली बार के बजट की तुलना
में कम वसूला जाता है और अप्रत्यक्ष करों से ज्यादा, ईमानदारी से आयकर
देने वाले मध्यम वर्ग को आयकर की दरों और स्लैब पैटर्न में कोई राहत नहीं
दी जाती, बल्कि उस पर 41 हजार करोड़ रुपये का और ज्यादा सर्विस टैक्स का
बोझ बढ़ा दिया जाता है- और बजट पेश किये जाने के तुरंत बाद ही आम जनता को
पेट्रोल-डीजल की कीमतों में भारी वृद्धि के जरिये ‘कड़वा घूंट’ पिलाया
जाता है- तो कुल मिलाकर यह बजट ‘कार्पोरेटी बजट’ ही हो सकता है। इस सरकार
के पिछले बजट को यदि ‘दूध-भात’ भी मान लिया जाये, तो भी इस बजट का एक
देशव्यापी संदेश तो यही गया है कि यह सरकार कार्पोरेटों की, कार्पोरेटों
द्वारा, कार्पोरेटों के लिए संचालित सरकार है और मोदी महाशय तो इसका एक
मुखौटा भर हैं, जिसकी चाबी उस संघी गिरोह के हाथ में है, जिसकी
‘हिन्दुत्व परियोजना’ को आगे बढ़ाने में आज कार्पोरेटों को कोई हिचक नहीं
है। वास्तव में आज की दक्षिणपंथी राजनीति ने अपनी हिन्दुत्व परियोजना को
कार्पोरेट पूंजी के साथ घुला-मिला दिया है। स्पष्ट है कि यदि पूंजी के
मुनाफे को सुनिश्चित कर दिया जाये, तो उसे सांप्रदायिकता से भी कोई परहेज
नहीं है।
विश्व स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में जबर्दस्त गिरावट आई है और हमारा
तेल आयात भुगतान भी घटकर आधा रह गया है, इस गिरावट की कीमत पर सरकार अपना
खजाना भी भर रही है और जीडीपी में वृद्धि दर के सरकारी दावे को भी हकीकत
मान लिया जाये, तो मोदी सरकार के पास यह सुनहरा मौका था कि अपने बजट-आधार
को और ज्यादा व्यापक बना सकती थी। लेकिन हुआ उल्टा ही है। बजट का कुल
आधार कम हुआ है। पिछला बजट 17.94 लाख करोड़ का था और इस बार का 17.77 लाख
करोड़ का ही है। यदि 5 प्रतिशत मुद्रास्फीति के सरकारी दावों को ही मान
लिया जाये, तो पिछले वर्ष की स्थिति को ही बनाये रखने के लिए जरूरी था कि
बजट का आकार 19 लाख करोड़ का होता और इतना ही जरूरी यह भी था कि विभिन्न
सामाजिक-आर्थिक विकास के मदों के बजटी आबंटन में भी कम-से-कम इतनी ही
वृद्धि की जाती। लेकिन हम देखते हैं कि योजना व्यय में, जो कि देश के
योजनाबद्ध विकास के लिए आवश्यक व्यय होता है, 1.10 लाख करोड़ रुपये (19
प्रतिशत) से ज्यादा की कटौती कर दी गई है। पिछले वर्ष 5.75 लाख करोड़
रुपयों का आबंटन किया गया था, तो इस बार केवल 4.65 लाख करोड़ का किया गया
है। योजना आयोग की विदाई के बाद देश के नियोजित विकास को ‘अलविदा’ कहना
ही है और यह इसकी शुरुआत है। जो यह प्रचारित किया जा रहा था कि नीति
आयोग, योजना आयोग की जगह ले लेगी, वास्तव में छलावा साबित होने जा रहा
है। नख-दंतविहीन इस नीति आयोग के पास देश के विकास के लिए नीति बनाने और
उसे वित्त पोषित करने का कोई अधिकार ही नहीं होगा।
यदि सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में की गई लोक-लुभावन घोषणाओं के आवरण को
हटा दिया जाये, और जिसके क्रियान्वयन के लिए पर्याप्त वित्त का प्रबंध ही
नहीं किया गया है, तो योजना व्यय में कटौती की मार सभी योजनाओं पर पड़ी
है। शिक्षा के लिए बजट आबंटन में भारी कटौती हुई है और इसका बुरा असर
मध्यान्ह भोजन योजना में पड़ने जा रहा है। सड़क और सिंचाई जैसी बुनियादी
आधारभूत संरचनाओं और बिजली-पानी जैसी बुनियादी मानवीय सुविधाओं को भी
भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ता- जैसे लाखों ‘योजना
मजदूरों’ के बारे में तो बजट में चुप्पी ही साध ली गई है, तो इस सरकार का कुपोषण से लड़ने, बेटियों को बचाने-पढ़ाने का दावा हवा-हवाई ही है। यदि इस देश की 70 प्रतिशत जनता आज भी कृषि और कृषि संबंधित कार्यों से जुड़ी है तो कृषि और ग्रामीणों की समस्याओं को दरकिनार करके इस देश के विकास की किसी भी अवधारणा को मूर्त रुप नहीं दिया जा सकता। कृषि ऋण के क्षेत्र में 8.5 लाख करोड़ रुपयों के आबंटन का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, लेकिन सबको मालूम है कि इस ऋण का केवल 6 प्रतिशत हिस्सा ही किसानों तक पहुंचता है और बाकी कृषि क्षेत्र के व्यापारियों (एग्री बिजनेस) के हाथों। इसलिए इस आबंटन वृद्धि का कोई खास फायदा किसानों को तो नहीं ही मिलने वाला। किसानों को सीधा फायदा हो सकता था तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार फसल की लागत मूल्य का डेढ़ गुना मूल्य लाभकारी मूल्य के रुप मेें देने की घोषणा करके। लेकिन सभी जानते हैं कि चुनावों के समय किसानों के लिए रोना अलग बात है, सत्ता में आने के बाद इस देश का प्रधानमंत्री तो ‘अनाज मगरमच्छों’ के लिए ही रोता है। मोदी भी इसके कोई अपवाद नहीं हैं, जिनकी घोषित नीति ही यही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के रुप में लागत मूल्य भी नहीं दिया जाएगा। सो, ऐसी कोई घोषणा मोदी के संगी वित्त मंत्री, जिनका ‘कार्पोरेट परस्त’ रुख भी जगजाहिर है, कर नहीं सकते
थे। हां, मनरेगा का गाजे-बाजे के साथ ढोल पीटकर ‘अर्थी’ निकालने का काम उन्होंने जरुर किया है। मनरेगा का पिछले वर्ष का आबंटन पूरा खर्च नहीं
किया गया है और राज्यों द्वारा वर्ष 2013-14 में कराये गये कार्यों का 5
हजार करोड़ रुपयों का भुगतान अभी भी शेष है। इस बजट में पिछली बार की
तुलना में केवल 709 करोड़ रुपयों की वृद्धि की गई है। लेकिन बकाया भुगतान
और मुद्रास्फीति की 10 प्रतिशत दर को गिनती में ले लिया जाये, तो 34699
करोड़ रुपयों का बजट आबंटन वास्तव में 26729 करोड़ रुपये ही बैठता है।
जबकि पिछली स्थिति को बनाये रखने के लिए ही 42389 करोड़ रुपयों का आबंटन
जरूरी था। इस प्रकार मनरेगा बजट में वास्तविक कटौती 37 प्रतिशत है। अब
घटे हुए मजदूरी अनुपात से इससे वास्तव में अधिकतम 68 करोड़ रोजगार-
दिवसों का ही सृजन किया जा सकेगा, जो मनरेगा के इतिहास में सबसे कम सृजन
होगा। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद मनरेगा में जिन परिवारों को
रोजगार मुहैया कराया गया है, उनकी संख्या 83.7 लाख से घटकर 60.7 लाख रह
गई है, याने मोदी राज में 23 लाख परिवार मनरेगा में काम पाने से वंचित
किये गये हैं।
संसद में मोदी ने मनरेगा की जिस तरह से खिल्ली उड़ाई है, उससे स्पष्ट है
कि संघ संचालित मोदी सरकार मनरेगा के पक्ष में कतई नहीं है। वह इसे
‘ग्रामीण परिवारों के लिए रोजगार सुनिश्चित करने वाले कानून’ से हटाकर एक
ऐसी ‘योजना’ में तब्दील कर देने पर आमादा है, जिसमें न्यूनतम मजदूरी
सुनिश्चित करने का भी प्रावधान न हो। एक ऐसी योजना, जिसमें ठेकेदारों और
मशीनों का बोलबाला हो। लेकिन मोदी की मजबूरी है कि मनरेगा के कानूनी
दर्जे को संसद ही खत्म कर सकती है। लेकिन वे इस कानून को धीरे-धीरे
निष्प्रभावी करने का काम अवश्य कर सकते हैं और ऐसा वह कर भी रहे हैं।
मनरेगा के बजट को कर संग्रहण से भी जोड़ दिया गया है। इसका सीधा सा अर्थ
है कि सरकार द्वारा संचालित कर संग्रहण नहीं होता, तो इसके बजट आबंटन में
भी कटौती की जा सकती है, जैसा कि वर्ष 2014-15 में किया गया है।
लेकिन मनरेगा को कमजोर करके ग्रामीणों को प्राप्त रोजगार के अवसर घटाये
जायेंगे, तो उनकी क्रय शक्ति में भी गिरावट आना तय है। इससे किसानों की
कृषि में पूंजी लगाने की ताकत तो घटेगी ही, ग्रामीण बाजारों में औद्योगिक
मालों की मांग में भी गिरावट आयेगी। इससंे कृषि संकट बढ़ने के साथ-साथ
औद्योगिक संकट भी बढ़ेगा और देश की अर्थव्यवस्था प्रतिकूल रुप से
प्रभावित होगी। क्या यह औद्योगिक संकट रोजगार का सृजन करेगा!! रोजगार के
नाम पर पूंजीपतियों को सब्सिडी देने के खेल का यहीं पर्दाफाश हो जाता है।
इस बजट का एक और मजेदार पहलू है, जो भाजपा के काले धन के वादे से जुड़ता
है। बजट में वायदा व्यापार को मजबूत करने और सट्टा बाजार पर रोक लगाने के
लिए वायदा बाजार आयोग का सेबी में विलय की बात कही गई है। हमारा सामान्य
ज्ञान तो यही कहता है कि वायदा व्यापार सट्टा बाजार का ही रुप है। खासतौर
से खाद्यान्न के क्षेत्र में तेजी इसी सट्टा बाजारी के कारण हो रही है,
जिस पर रोक लगाने की सिफारिश पिछली सरकार की संसदीय समिति ने भी किया था,
जिसमें भाजपा भी शामिल थी। सत्ता में आने के बाद अब यही भाजपा वायदा
व्यापार के पक्ष में खड़ी है- ठीक उसी तरह जिस तरह एफडीआई, भूमि
अधिग्रहण, मनरेगा आदि-आदि के मामले में भाजपा ने अपना पक्ष बदला है। यही
वायदा व्यापार देश में काले धन की पैदावार का बहुत बड़ा स्रोत है, जिसे
अब भाजपा कानूनी वैधता देने जा रही है। सेबी में वायदा बाजार आयोग के
विलय का यही अर्थ है। इससे काले धन की कीमत पर सेंसेक्स में उछाल दिखाया
जायेगा और अर्थव्यवस्था की प्रगति के गुण गाये जायेंगे। काले धन को उजागर
करने के प्रति भाजपा कितनी गंभीर है!!
बजट में गैर योजना व्यय में 92 हजार करोड़ की वृद्धि की गई है। कम
बजट-आकार में भी इस बार इस मद में 13.12 लाख करोड़ रुपये आबंटित किये गये
हैं। गैर योजना व्यय प्रशासन में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत होता है।
‘भ्रष्टाचार मुक्त’ प्रशासन के वादे के मामले में भी भाजपा की गंभीरता
सामने आ जाती है!!
बजट में किये गये इस दावे की कलई भी खुल गई है कि केन्द्र से राज्य
सरकारों को ज्यादा पैसे दिये जा रहे हैं। वास्तविकता यही है कि केन्द्र
से राज्यों की ओर संसाधनों का प्रवाह 64 प्रतिशत से घटकर 62 प्रतिशत हो
गया है।
तो 17.77 लाख करोड़ के बजट में 3.50 लाख करोड़ रुपये सेवा कर से जुटाये
जायेंगे, 70 हजार करोड़ विनिवेश और निजीकरण से, व्यक्तिगत आयकर देने वाले
तबके पर पिछली बार से 84 प्रतिशत ज्यादा बोझ लादा जायेगा, आम जनता पर
अप्रत्यक्ष करों का और ज्यादा बोझ लादा जायेगा और अमीरों पर लगने वाले
प्रत्यक्ष करों में और ज्यादा कटौती की जायेगी और हर साल की तरह इस बार
भी कार्पोरेटों का 5-6 लाख करोड़ की कर माफी जारी रखते हुए उन्हें
प्रोत्साहन दिया जाएगा- तो इस बजट का वर्गीय चरित्र स्पष्ट है।
लेकिन इतना सब कुछ मिलने के बावजूद कार्पोरेट जगत खुश नहीं है। वह और
छूट, और कटौती, और सब्सिडी चाहता है। उसके मुनाफे के हवस की कोई सीमा
नहीं है। आखिर माक्र्स ने सही कहा था, पूंजी को दस गुना मुनाफा मिले, तो
पूंजीपति खुद ही फांसी पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाये! लेकिन कार्पोरेट
मुनाफे के लिए अभी तो देश को सूली पर चढ़ाने के लिए एक मोदी ही काफी है!!