जाति क्यों न जाती?
अभी 14 अप्रैल को बाबासाहब की जयंती है। सवा सौ साल हो जाएंगे एक युगप्रवर्तक को पैदा हुए।बाबासाहब भीमराव अंबेडकर को संविधान के जनक कहने के साथ दलितों-वंचितों के हितरक्षक के तौर पर जाना जाता है।मैं अभी उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री के सिलसिले में उनके जन्मस्थान महू और फिर नागपुर की दीक्षाभूमि देखकर आया हूं। बाबासाहब दस लाख लोगों के साथ बौद्धधर्म में दीक्षित हुए थे। इससे पहले सन् 1935 में ही बाबासाहब ने कह दिया था कि वह हिन्दू धर्म से जाति-प्रथा और छुआछूत को खत्म करने के लिए बीस साल का वक्त दे रहे हैं और ऐसा नहीं होने पर, वह भले ही हिन्दू धर्म में जन्में हों लेकिन उनकी मृत्यु हिन्दू धर्म में नहीं होगी।
बाबासाहब ने अपनी मृत्यु से तीन महीने पहले बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। जातियां खत्म नहीं हुईं। आज भी देश में अंतरजातीय विवाहों का प्रतिशत महज 5.4 है। एक दशक पहले के सर्वेक्षण में भी आंकड़ा यही था। इसका मतलब यह है कि जाति तोडऩे के मामले में वैश्वीकरण नाकाम रहा है। और अगर कोई यह कहे कि आर्थिक वृद्धि जाति-व्यवस्था को तोड़ देगी, तो उस बयान पर सवालिया निशान लगाया जा सकता है।जहां तक छूआछूत का प्रश्न है, यह समाज से कहीं नहीं गया है। सर्वे के मुताबिक, गांव में हर तीसरा परिवार और शहरों में पांचवां परिवार छुआछूत मानता है। हमारे राजनीतिक दलों या आन्दोलनों का एजेंडा अब अश्पृश्यता नहीं रह गया है।
नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकनॉमिक्स रिसर्च के सर्वेक्षण के आंकड़ों के लिहाज से मध्य प्रदेश (50 फीसदी), छत्तीसगढ़ (48 फीसदी), राजस्थान और बिहार (47 फीसदी) व उत्तर प्रदेश (43 फीसदी) छुआछूत मानने वालों में अव्वल हैं।वैसे अमेरिका के राष्ट्रपति अपने हालिया दौरे पर भारत को जाति व्यवस्था पर सीख देकर गए हैं। उनको यह भी ध्यान देना चाहिए कि अमेरिका में 56 फीसद लोग रंगभेद करते हैं। और अश्वेत लड़कों को देखकर श्वेत महिलाएं रास्ता बदल लेती हैं। अपने देश में छुआछूत का यह मामला सिर्फ सनातनी हिन्दुओं तक नहीं है। उच्चवर्णीय मुसलमान अपने कब्रिस्तान में पसमांदा को क$फन-दफन नहीं करने देते। सर्वे के मुताबिक जैनों, सिखों, इसाईयों और यहां तक कि बौद्धों में भी छुआछूत मौजूद है।
यकीन मानिए, ब्राह्मणों में तकरीबन 52 फीसदी लोग छुआछूत मानते हैं तो उसके बाद ओबीसी जातियां हैं, जिनकी आबादी का 33 फीसदी छुआछूत मानता है। गैर-ब्राह्मण अगड़ों में छुआछूत का आंकड़ा 24 फीसदी है तो 23 फीसदी आदिवासी छुआछूत बरतते हैं।इस जाति व्यवस्था की कई परते हैं। जैसे कि सिर्फ उत्तर भारतीय ब्राह्मणों में ही कान्यकुब्ज, सरयूपारीण और मैथिल जैसे कई क्षेत्रीय वर्ग हैं। इन क्षेत्रीय जाति वर्गों में भी कई उपजातियां हैं। मिसाल के तौर पर मिथिला के ब्राह्मणों में श्रोत्रीय और जेबार जैसी कई उपजातियां हैं और हर उप-जाति अपने जाति वर्ग में खुद को श्रेष्ठ मानती है। इसके पीछे के तर्क समझ से परे होते हैं। मसलन, दोबैलिया तेली, यानी वैसे तेली जो कोल्हू में तेल निकालने के लिए दो बैलों का इस्तेमाल करते हैं, खुद को एकबैलिया तेली यानी ऐसी तेली जो कोल्हू में एक बैल से तेल निकालते हैं, से श्रेष्ठ मानते हैं।
इसी तरह यादवों में कृष्णैत और कंसैत होते हैं। इनमें आपस में शादी ब्याह का भी परहेज होता है। फिलहाल तो देश के कानून में भी विभिन्न धार्मिक समूहों के दलितों के लिए किसी फायदे का प्रावधान नहीं है। दलित इसाईयों या दलित मुसलमानों को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता। विभिन्न समाजवादी पार्टियां इसका पुरजोर विरोध भी करती हैं। विभिन्न धर्मों में समानता एक सिद्धांत है और इसके तहत वर्ग या जाति को माना नहीं जा सकता। लेकिन असली जिंदगी में सिद्धांत अलग और व्यवहार तो अलग होता है ना?
(लेखक के अपने विचार हैं)
(लेखक के अपने विचार हैं)