सुरेश वाडकर

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Sunday, May 24, 2015

जाति क्यों न जाती?

जाति क्यों न जाती?

अभी 14 अप्रैल को बाबासाहब की जयंती है। सवा सौ साल हो जाएंगे एक युगप्रवर्तक को पैदा हुए।manjeetबाबासाहब भीमराव अंबेडकर को संविधान के जनक कहने के साथ दलितों-वंचितों के हितरक्षक के तौर पर जाना जाता है।मैं अभी उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री के सिलसिले में उनके जन्मस्थान महू और फिर नागपुर की दीक्षाभूमि देखकर आया हूं। बाबासाहब दस लाख लोगों के साथ बौद्धधर्म में दीक्षित हुए थे। इससे पहले सन् 1935 में ही बाबासाहब ने कह दिया था कि वह हिन्दू धर्म से जाति-प्रथा और छुआछूत को खत्म करने के लिए बीस साल का वक्त दे रहे हैं और ऐसा नहीं होने पर, वह भले ही हिन्दू धर्म में जन्में हों लेकिन उनकी मृत्यु हिन्दू धर्म में नहीं होगी।
बाबासाहब ने अपनी मृत्यु से तीन महीने पहले बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। जातियां खत्म नहीं हुईं। आज भी देश में अंतरजातीय विवाहों का प्रतिशत महज 5.4 है। एक दशक पहले के सर्वेक्षण में भी आंकड़ा यही था। इसका मतलब यह है कि जाति तोडऩे के मामले में वैश्वीकरण नाकाम रहा है। और अगर कोई यह कहे कि आर्थिक वृद्धि जाति-व्यवस्था को तोड़ देगी, तो उस बयान पर सवालिया निशान लगाया जा सकता है।जहां तक छूआछूत का प्रश्न है, यह समाज से कहीं नहीं गया है। सर्वे के मुताबिक, गांव में हर तीसरा परिवार और शहरों में पांचवां परिवार छुआछूत मानता है। हमारे राजनीतिक दलों या आन्दोलनों का एजेंडा अब अश्पृश्यता नहीं रह गया है।
नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकनॉमिक्स रिसर्च के सर्वेक्षण के आंकड़ों के लिहाज से मध्य प्रदेश (50 फीसदी), छत्तीसगढ़ (48 फीसदी), राजस्थान और बिहार (47 फीसदी) व उत्तर प्रदेश (43 फीसदी) छुआछूत मानने वालों में अव्वल हैं।वैसे अमेरिका के राष्ट्रपति अपने हालिया दौरे पर भारत को जाति व्यवस्था पर सीख देकर गए हैं। उनको यह भी ध्यान देना चाहिए कि अमेरिका में 56 फीसद लोग रंगभेद करते हैं। और अश्वेत लड़कों को देखकर श्वेत महिलाएं रास्ता बदल लेती हैं। अपने देश में छुआछूत का यह मामला सिर्फ सनातनी हिन्दुओं तक नहीं है। उच्चवर्णीय मुसलमान अपने कब्रिस्तान में पसमांदा को क$फन-दफन नहीं करने देते। सर्वे के मुताबिक जैनों, सिखों, इसाईयों और यहां तक कि बौद्धों में भी छुआछूत मौजूद है।
यकीन मानिए, ब्राह्मणों में तकरीबन 52 फीसदी लोग छुआछूत मानते हैं तो उसके बाद ओबीसी जातियां हैं, जिनकी आबादी का 33 फीसambedkarदी छुआछूत मानता है। गैर-ब्राह्मण अगड़ों में छुआछूत का आंकड़ा 24 फीसदी है तो 23 फीसदी आदिवासी छुआछूत बरतते हैं।इस जाति व्यवस्था की कई परते हैं। जैसे कि सिर्फ उत्तर भारतीय ब्राह्मणों में ही कान्यकुब्ज, सरयूपारीण और मैथिल जैसे कई क्षेत्रीय वर्ग हैं। इन क्षेत्रीय जाति वर्गों में भी कई उपजातियां हैं। मिसाल के तौर पर मिथिला के ब्राह्मणों में श्रोत्रीय और जेबार जैसी कई उपजातियां हैं और हर उप-जाति अपने जाति वर्ग में खुद को श्रेष्ठ मानती है। इसके पीछे के तर्क समझ से परे होते हैं। मसलन, दोबैलिया तेली, यानी वैसे तेली जो कोल्हू में तेल निकालने के लिए दो बैलों का इस्तेमाल करते हैं, खुद को एकबैलिया तेली यानी ऐसी तेली जो कोल्हू में एक बैल से तेल निकालते हैं, से श्रेष्ठ मानते हैं।
इसी तरह यादवों में कृष्णैत और कंसैत होते हैं। इनमें आपस में शादी ब्याह का भी परहेज होता है। फिलहाल तो देश के कानून में भी विभिन्न धार्मिक समूहों के दलितों के लिए किसी फायदे का प्रावधान नहीं है। दलित इसाईयों या दलित मुसलमानों को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता। विभिन्न समाजवादी पार्टियां इसका पुरजोर विरोध भी करती हैं। विभिन्न धर्मों में समानता एक सिद्धांत है और इसके तहत वर्ग या जाति को माना नहीं जा सकता। लेकिन असली जिंदगी में सिद्धांत अलग और व्यवहार तो अलग होता है ना?
(लेखक के अपने विचार हैं)

गरीबी खत्म होगी या गाँव ?

गरीबी खत्म होगी या गाँव ?

क्या एक समय ऐसा आएगा जब गाँवों में सिर्फ अमीर लोग होंगे औऱ गरीब शहरों में जिदगी की जंग लड़ेंगे? क्या गाँवों deepको जिंदा रखने के रास्ते बंद होते जा रहे हैं? क्या तरक्की के लिए गाँवों को शहर बनाना जरूरी है? क्या शहर और गाँव एक खूबसूरत तारतम्य के साथ जिंदा नहीं रह सकते? इन सवालों पर चर्चा शुरू हो चुकी है। लेकिन जवाब मिलने में अभी लंबा वक्त लग सकता है।
वित्त बिल पर चर्चा के दौरान देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने गाँवों की गरीबी मिटाने का सबसे आसान फॉर्मूला दे दिया। जेटली ने कहा गाँवों की गरीबी कम करनी है तो देश की अर्थ व्यवस्था में कृषि विकास का हिस्सा 15 प्रतिशत से ज्यादा करना होगा और इसके साथ ही जो लोग कृषि पर निर्भर हैं उनकी संख्या कम करनी होगी। जेटली के मुताबिक अगर कृषि पर निर्भर लोग कुछ और काम काज में लग जाएं तो गरीबी कम हो जाएगी। आसान शब्दों में फॉर्मूला ये है कि खेती कम लोग करें लेकिन उत्पादन ज्यादा करें। कम जमीन वाले और कम उत्पादन करने वालों के लिए कुछ और रोजगार का इंतजाम किया जाए।
Subham Photography (33)
फोटो शुभम श्रीवास्तव
असल में पिछले कुछ समय से राजनीति में जब भी धन की बात होती है तो घूम-फिर कर जमीन अधिग्रहण का ही मुद्दा उठने लगता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। वित्त मंत्री ने कहा कि जमीन अधिग्रहगण का कानून पास हो जाए तो देश में कृषि उत्पादन भी बढ़ जाएगा और खेती में नुकसान झेल रहे लोगों को दूसरा रोजगार भी मिल जाएगा। यानी सरकार बड़ी शिद्दत से ये मानती है कि जमीन के नए कानून से ही गाँवों की गरीबी दूर हो पाएगी। सरकार ऐसा क्यों सोच रही है ये आप भी समझ लीजिए।
सरकारी सर्वे के मुताबिक देश के छोटे किसानों में से 56 प्रतिशत ऐसे हैं जिनके पास सिर्फ 100 वर्ग मीटर की जमीन है। ऐसे किसान दूसरों के खेतों में मजदूरी या फिर दूसरे मौसमी धंधे करके अपनी जिंदगी चलाते हैं। सरकार मानती है कि ऐसे किसानों की जमीन अगर मार्केट रेट से ज्यादा में सरकार ले लेती है तो फायदा किसान का ही होगा। साथ ही किसान को जमीन अधिग्रहण के बाद उस इलाके में होने वाले विकास का भी फायदा मिलेगा औऱ रोजगार भी मिलेगा। सरकार ये भी मानती है कि कृषि के काम में लगे कई लोग कुछ और काम करने की इच्छा रखते हैं। उनके भी ‘एसपिरेशन’ हैं यानि अभिलाषाएं हैं। वो फैक्ट्रियों में, दफ्तरों में, शॉपिंग मॉल में काम करना चाहते हैं। ये आकांक्षाएं तभी पूरी होंगी जब उन्हें खेती से दूर होने का मौका मिलेगा। यानी कोई ऐसा रोजगार मिलेगा जो उनके लिए खेती से बेहतर हो। और सरकार की दलील ये है कि जमीन अधिग्रहण के बाद ही रोजगार के नए अवसर पैदा हो पाएंगे।
खेती छोड़कर नया रोजगार पाने का रास्ता गाँव वालों को शहर की तरफ ले जाएगा। इस पलायन की वकालत कई बरसों से हो रही है। छह साल पहले ही वर्ल्ड बैंक ये साफ कर चुका है कि अगर भारत में गाँवों से शहरों की तरफ पलायन रुका तो तरक्की की राह मुश्किल हो जाएगी। उस वक्त वर्ल्ड बैंक ने मनरेगा जैसी योजनाओं को भी तरक्की के लिए घातक बताया था। और इसमें कुछ हद तक सच्चाई भी है। मनरेगा की वजह से शहरों की तरफ पलायन में कमी जरूर आई थी।
गाँव और गाँव में रहने वालों की तकदीर को लेकर हो रही चर्चा से कुछ ऐसे सवाल उठने लगे हैं जो गाँवों के वजूद पर ही सवाल उठा रहे हैं। क्या एक समय ऐसा आएगा जब गाँवों में सिर्फ अमीर लोग होंगे और गरीब शहरों में जिदगी की जंग लड़ेंगे? क्या गाँवों को जिंदा रखने के रास्ते बंद होते जा रहे हैं? क्या तरक्की के लिए गाँवों को शहर बनाना जरूरी है? क्या शहर और गाँव एक खूबसूरत तारतम्य के साथ जिंदा नहीं रह सकते? इन सवालों पर चर्चा शुरू हो चुकी है। लेकिन जवाब मिलने में अभी लंबा वक्त लग सकता है।
गाँव का ढांचा बदला जाना तय है। गाँव से जुड़ी नीतियों का भी बदला जाना तय है। ये भी तय है कि गाँव अब शहरों से दूर नहीं रह सकता। बदलाव जरूरी है लेकिन किसी भी बदलाव से पहले गाँव वालों से भी पूछना पड़ेगा कि वो क्या चाहते हैं। कृपया उनके नागरिक अधिकारों को नजरंदाज ना करें। ऐसा नहीं हुआ तो मरहम ढूंढ़ते- ढूंढ़ते हम एक नया नासूर बना देंगे जिसका इलाज फिर किसी के पास नहीं होगा।
(लेखक न्यूज 24 में डिप्टी न्यूज डायरेक्टर हैं। ये उनके अपने विचार हैं)

किसान पहले भी कर्ज़दार था, पर फांसी नहीं लगाता था

किसान पहले भी कर्ज़दार था, पर फांसी नहीं लगाता था

किसानों की मौतें चाहे फांसी लगाकर हुई हों या जहर खाकर अथवा सदमे से, उनकी अकाल मौतों के taujiकारणों पर चर्चा होनी ही चाहिए। एक बात सामने आई है कि अधिकांश पर कर्ज का बोझ था जो उन्होंने फसल बेचकर उतारना चाहा था।
किसानों का कर्ज नया नहीं है परन्तु उनकी आत्महत्याएं नई हैं। पुराने समय में कर्जा बांटने वाले पठान वेष में मोगलिया आते थे, बाद में गुमाश्ते लेकर लाला आने लगेे। ये नौ रुपए देते थे और 10 लिखते थे, एक लिखाई का काट कर। साल भर तक एक रुपया प्रति माह लौटाना होता था। भारी ब्याज के बावजूद किसान आत्महत्या नहीं करता था । किसान की दिनचर्या थी गोबर कर्कट खेतोंं में पहुंचाकर हल बैल लेकर खेतों में चले जाना। तालाबों में वर्षा का साफ पानी संचित होता था जो जानवरों के पीने और खेतों की सिचांई के काम आता था। अपने पीने का पानी कुएं से निकालते थे। तालाबों से हर साल मिट्टी निकालते रहने से उनकी जलग्राही क्षमता कभी घटती नहीं थी।
किसान बैलों से खेती करता था। दुधारू जानवरों से उसके बच्चों को दूध, दही, घी मिलता था। जंगल से जलाने की लकड़ी, जानवरों का चारा, साग-भाजी और जंगली फल मिल जाते थे। पहाड़ की महिलाएं जंगल को अपना मायका कहती हैं। अनाज प्राय: कम पड़ जाता था, बोने के लिए उधार लेते थे और फसल पर डेढ़ गुना चुकाते थे।
खर्चे कम थे। विभिन्न सेवाओं के लिए जैसे नाई, घोबी, माली, लोहार, बढ़ई को फसल पर खेत से ही पैदावार का कुछ अंश मिलता था। एक-दो गांवों के बीच में एक दुकान होती थी जहां अनाज देकर मसाले आदि मिल जाते थे। गन्ने से गुड़ और मूंगफली आदि बेचकर दूसरे खर्चे चल जाते थे। कभी बैल मर गए तो कर्जा लेने के अलावा कोई उपाय नहीं था। पचास के दशक में नहरों का जाल बिछा तो किसान दो फसलें उगाने लगा और पैदावार भी कुछ बढ़ी।
पानी की उपलब्धता से अब खेत खाली नहीं रहते थे। लेकिन खेती में जो सुधार आरम्भ हुआ था वह ज्यादा दिन नहीं चला। साठ के दशक में ही एक बार फिर सूखा और अकाल ने किसान को बेहाल कर दिया। तब भूगर्भ जल की तलाश आरम्भ हुई तो पता चला जमीन के नीचे पानी का अथाह भंडार था। किसान की मदद के लिए बौनी जाति की गेहूं की प्रजातियां मैक्सिको से और धान की प्रजातियां थाईलैंड जैसे देशों से आईं। इन प्रजातियों को पानी की बहुत आवश्यकता होती थी जिसके लिए पूरी तरह भूजल पर निर्भरता हो गई ।
जमीन से निकाल कर खेतों में पानी भरा जाने लगा और गांवों में कुओं की रस्सी लम्बी होने लगी। जहां हरित क्रान्ति ने जोर पकड़ा वहीं जल संकट भी बढ़ा। उन्हीं दिनों पहली बार रासायनिक खादें, कीटनाशक तथा खरपतवार नाशक प्रचलित हुए। इससे पहले सही अर्थों में आर्गेनिक खेती होती थी। अभी तक आत्महत्याएं नहीं होती थीं। सत्तर के दशक में गावों में बैंकों की शाखाएं खुलीं और खेती के लिए कम ब्याज पर बैंकों से ऋण मिलने लगा। अब खेतों के लिए आसानी से कर्ज मिलने लगा। गांवों का विद्युतीकरण आरम्भ हुआ और बिजली की आवश्यकता अधिकाधिक पडऩे लगी। अब किसान को अच्छे बीज, सिंचाई के लिए पानी, खाद और उर्वरकों के साथ बैंकों के माध्यम से ट्रैक्टर भी उपलब्ध होने लगे ।
अस्सी के दशक में आरम्भ हुआ कर्जा माफी, मुफ्त पानी और बिजली, लगान माफी, स्कूलों में फीस माफी का दौर। किसानों में उधार चुकाने की आदत समाप्त होने लगी। खेती के नाम पर लड़कियों की शादी और मकान बनाने के लिए किसान कर्जा लेने लगे कि माफ तो हो ही जाएगा। लेकिन जब माफ नहीं हुआ तो ब्याज बढ़ता गया और इस आशा में चुुकाया भी नहीं कि माफ हो जाएगा। नब्बे के दशक में बैंकों ने वसूली पर जोर दिया तो किसानों की आत्महत्याएं होने लगीं। आत्महत्याओं की पहली घटनाएं सामने आईं महाराष्ट्र के विदर्भ के इलाके से।
अब खेती व्यापार बन चुकी थी और किसान भूल गया था, हमारी धरती सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है परन्तु हमारे लालच की पूर्ति सम्भव नहीं। किसान अपना सादा जीवन फिर अपना सके और शहर के दिखावा को छोड़ सके तो न तो कर्जा की नौबत आएगी और न आत्महत्या की।

आरक्षण रास्ता भटक गया, लक्ष्य ओझल हुआ

आरक्षण रास्ता भटक गया, लक्ष्य ओझल हुआ

संविधान निर्माता डा.भीमराव अम्बेडकर ने दलितों के लिए 10 साल यानी 1960 तक आरक्षण का प्रावधान रक्खा था। बाद के taujiनेताओं ने इस प्रावधान को ऐसे लागू किया कि आरक्षण का बन्दरबांट होने लगा। यदि आरक्षण को उन्हीं सीमाओं में रहते हुए लागू किया गया होता जो डा. अम्बेडकर ने निर्धारित की थीं तो आज तक उन सभी को न्याय मिल गया होता जिनके साथ अतीत में सचमुच अन्याय हुआ था। दलितों में आत्मविश्वास पैदा करके उनमें प्रतिस्पर्धा की जुझारू भावना लाई जा सकती थी। लेकिन दलितों के नेताओं ने घोषणा कर दी कि आरक्षण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है यानी हमेशा बैसाखी चाहिए। यह सोच समाज और देश के लिए घातक है।
आजादी के 67 साल बाद भी अनुसूचित जाति के नेताओं को चिन्ता इस बात की नहीं है कि उनके भाई बिरादर गांवों में किस हालत में रह रहे हैं बल्कि चिन्ता इस बात की है कि जिनके पास पहले से नौकरी है उन्हें प्रमोशन में आरक्षण का लाभ मिलेगा या नहीं। चिन्ता यह भी है कि उच्चतम न्यायालय ने प्रमोशन में आरक्षण को नामंजूर कर दिया तो सरकार ने संविधान में संशोधन करके निर्णय को पलट क्यों नहीं दिया ।
डा. अम्बेडकर ने आरक्षण का सहारा उन्हीं को देना चाहा था जिनके साथ अतीत में अन्याय हुआ था। आज के नेताओं ने कुछ ऐसा कर दिया कि एक शहरी वर्ग शिक्षित और सम्पन्न दलितों का बन गया और दूसरा ग्रामीण वर्ग अनपढ़, मलिन और विपन्न दलितों का। अब गांव के दलितों को आरक्षण का लाभ कैसे मिलेगा यदि शहरी अनुसूचित यह लाभ दोनों हाथों से बटोरते रहेंगे।
अभी डा. अम्बेडकर का सपना पूरा भी नहीं हुआ था कि स्वार्थी नेताओं ने सच्चर कमीशन बिठा दिया। यह कमीशन उस वर्ग के लिए बिठाया गया जिसने भारत पर 1000 साल तक हुकूमत की थी। लेकिन माननीय उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप करके देश को बेइंसाफी से बचा लिया। स्वार्थी नेता यह जानते हैं कि मुस्लिम समाज के साथ इस देश में कभी भेदभाव नहीं हुआ उनका कभी हक नहीं छीना गया। यदि पाकिस्तान बनने के बाद शेष बचे भारत में मुस्लिम पिछड़े हैं तो 60 साल तक राजनेताओं के निकम्मे शासन के कारण।
दलितों में शहरी वर्ग के लोग अब सवर्णों के बराबर कुर्सी पर बैठ सकते हैं, उनके बच्चे समान स्कूलों में पढ़ते हैं, वे एक जैसे मकानों में रहते हैं और एक जैसे कपड़े पहनते और भोजन करते हैं, एक ही अस्पताल से दवा लाते हैं यानी शहरों के दलित अब दलित नहीं रहे। इसके विपरीत गाँवों में जातिवादी नेताओं ने दलितों में झूठी अकड़ तो पैदा की है लेकिन इससे शहरी अनुसूचित की तरह विकास तो नही आएगा। सच कहूं तो सम्पूर्ण अनुसूचित समाज को उन्नत करने का इरादा ही नहीं है वर्ना मुद्दा समाप्त हो जाएगा।
डा. अम्बेडकर एक प्रतिभावान व्यक्ति थे उन्होंने कभी नहीं चाहा होगा कि देश में योग्यता का अपमान और प्रतिभा का विदेशों को पलायन हो। यह भी नहीं चाहा होगा कि अगड़े दलित और पिछड़े दलित ऐसे दो वर्ग बनकर तैयार हो जाएं। डा. अम्बेडकर ने अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण जरूरी नहीं माना था क्योंकि उनकी माली हालत सवर्णों से बेहतर है। इनके बच्चे गरीबी या भेदभाव के कारण स्कूल नहीं छोड़ते हैं बल्कि पढ़ाई में रुचि की कमी के चलते छोड़ते हैं। आखिर सवर्णों के बच्चों ने अतीत में भीख मांग कर पढ़ाई की है। आरक्षण का उद्देश्य आबादी के अनुपात में नौकरियां दिलाना नहीं था, दलितों में आत्मविश्वास पैदा करना था ।
नव जागृत शहरी दलित युवक ग्रामीण सवर्णों के साथ रोटी बेटी का सम्बन्ध स्थापित करने की जल्दी में हैं। यह सामाजिक प्रगति, समानता और समरसता के लिए बुरा नहीं परन्तु यह आरक्षण से नहीं आएगा और न यह तात्कालिक लक्ष्य था। यदि डा. अम्बेडकर के सपने को साकार करना था तो दलित एवं अन्य पिछड़े परिवारों में से प्रत्येक को बारी-बारी आरक्षण का लाभ देकर सब को स्वावलम्बी बनाना चाहिए था। आरक्षण की दिशा और उसका लक्ष्य स्पष्ट रूप से तय किया जाना चाहिए।

जासूसों के सहारे होती राजनीति

जासूसों के सहारे होती राजनीति

इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपी है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी में गुटबाज़ी रोकने के लिए जासूसों कीraveeshएक टोली बनाई है। चार सौ तीन लोगों की यह टोली अखिलेश यादव के निजी जासूसों के तौर पर काम करेगी और सीधे अखिलेश को रिपोर्ट करेगी। ये खुफिया अफसर यूपी के सभी 403 विधानसभाओं में तैनात किए जाएंगे। इनका काम होगा कि पार्टी और सरकार के बारे में फीडबैक इकठ्ठा  करना। इस टीम का समाजवादी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं होगा और यह पार्टी से स्वतंत्र होकर काम करेगी। आने वाले समय में हर विधानसभा में तीन-तीन सदस्य तैनात किये जायेंगे यानी मुख्यमंत्री के निजीकी संख्या 1209 तक जा सकती है।
अख़बार के अनुसार इन्हें इंटेलिजेंस अफ़सर कहा जा रहा है। इंटेलिजेंस अफ़सर होने की कुछ शर्तें हैं। जैसे समाजवादी पार्टी में कोई पद नहीं होगा। समाजवादी पार्टी से सहानुभूति रखने वाला हो सकता है। पढ़ा लिखा हो और कंप्यटूर से लेकर मोबाइल एप्लिकेशन के संचालन में दक्ष हो। स्थानीय नेता से किसी तरह की रिश्तेदारी न हो। चयन के बाद इन्हें बकायदा ट्रेनिंग दी जाएगी और अखिलेश यादव के साथ इनकी मुलाकात कराई जाएगी। इनके फ़ीडबैक के आधार पर अब उम्मीदवार तय किये जायेंगे। अखबार के मुताबिक अखिलेश यादव अगले चुनाव में 100 से ज़्यादा विधायकों के टिकट काट देना चाहते हैं। इंटेलिजेंस अफसर इस बात पर भी नज़र रखेंगे कि स्थानीय विधायक काम कर रहे हैं या नहीं, सरकार की योजनाओं का प्रचार कर रहे हैं या नहीं।
यह कोई सामान्य घटना नहीं है। लोकतंत्र में एक नागरिक का दायित्व है कि वो सिर्फ इसी पर नज़र न रखे कि सरकार कैसी चल रही है बल्कि उसके लिए यह बात समान रूप से महत्वपूर्ण होनी चाहिए कि कोई पार्टी कैसे चलती है। अगर लोकतंत्र में संस्थाओं को चलाने के लिए पार्टी सिस्टम ही सर्वमान्य ईकाई है तो पार्टी का लोकतांत्रिक होना बेहद ज़रूरी है। कोई भी सामान्य नागरिक इन्हीं पार्टी सिस्टम में सक्रिय होकर लोकतंत्र का प्रशिक्षण पाता है और एक दिन धीर-धीरे जनता का प्रतिनिधि बनते हुए सरकार का मुखिया या मुखिया का सहयोगी बनता है। देश और व्यवस्था को चलाने के लिए बनाई जाने वाली नीतियों के प्रति समझदारी उसकी इसी यात्रा के आधार पर बनती चली जाती है।
नेता का अपना इंटेलिजेंस अफसर होना बता रहा है कि आपको एक पार्टी में नेता के अनुसार ही चलना होगा। नेता ही पार्टी है। इसकी शुरुआत चुनावों के वक्त रणनीति बनाने वाले बाहरी मैनजरों के पार्टी में प्रवेश से हुई थी। पहले ये पार्टी के लिए आए और अब ये नेता के लिए आने लगे हैं। चुनाव के वक्त अमरीकी विश्वविद्यालयों से कई बेकार छात्र यहां बदलाव के नाम पर आते हैं और नेताओं को सफलता का मार्ग बताने के नाम पर उन सारे तरीकों से लैस कर जाते हैं जिससे किसी नेता के लिए पार्टी की ज़रूरत ही न रहे। इसी तरह का काम विज्ञापन और स्लोगन कंपनियों के रणनीतिकार भी करने लगे हैं।
पिछले लोकसभा में इस प्रक्रिया का परिपक्व रूप देखने को मिला था। प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी के चयन में बीजेपी के अपने नेताओं से ज्यादा सोशल मीडिया और मीडिया की भागीदारी थी। जिसे खुद नरेंद्र मोदी ने संगठित रूप से संचालित किया। नमो फैन ने बाहर से पार्टी के भीतर दबाव डाला कि जो हमारा नेता बन चुका है आपको उसी को नेता चुनना है। प्रतिकूल शक्तियां तेज़ी से ढहती चली गईं। मैं नहीं कहता कि नरेंद्र मोदी योग्य उम्मीदवार नहीं थे बल्कि उनके चयन में इस प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
लोकसभा चुनावों के दौरान कई जगहों पर मुझे लैपटाप युक्त युवाओं की टीम मिली। ऐसा ही बेहद प्रतिभाशाली युवाओं का एक दल मुझे मिला जो बीजेपी के उम्मीदवार का फीडबैक तैयार करने आया था। उन युवाओं का दावा था कि एक-एक जानकारी जमा कर वे सीधे अपनी केंद्रीय टीम को भेजते हैं और वहां से नरेंद्र मोदी तक पहुंच जाती है। इतना ही नहीं उस संसदीय क्षेत्र में नरेंद्र मोदी की रैली भी होने वाली थी जिसके लिए मुद्दों से लेकर फीडबैक तक तैयार कर उन्हें भेज दिया गया था। ये लड़के एक तरह से अपने निजी ऑडिटर की तरह भी काम कर रहे थे। इसकी शुरूआत भी कुछ चुनाव पहले से हो चुकी है, जब उम्मीदवार निजी तौर पर जासूस रखने लगे थे ताकि विरोधी खेमे की जानकारी मिल सके।
बचपन का एक किस्सा याद आता है जो किसी से सुना था कि एक सांसद थे जो कहते थे कि उन्होंने जितनी बार चुनाव लड़ा उतनी बार पार्टी से जो पैसा मिला उसका फिक्स डिपॉजि़ट कर दिया। जब इंदिरा गाँधी की लहर हुई तो जीत गए, लहर नहीं रही तो हार गए। ऐसे कई किस्से सुने कि उम्मीदवार जानते हुए भी कि वहां से हारेगा पार्टी से इसलिए टिकट चाहता है क्योंकि टिकट मिलते ही पार्टी फंड और इलाके के पार्टी समर्थकों से काफी पैसा मिल जाता है। ऐसे चुनावी कमाऊ उम्मीदवारों का किस्सा मैंने कांग्रेस में ज्यादा सुना, बाद में यह बीमारी बीजेपी में घुस आई। इसका उपाय मोदी ने अपना सिस्टम तैयार कर खोज लिया।
एक पार्टी में नेता की अपनी इंटेलिजेंस अफसरों की टीम के मायने क्या हो सकते हैं? क्या उस नेता का अपनी पार्टी पर भरोसा नहीं रहा, जिसका वो नेता है। हर नेता पार्टी पर नियंत्रण और निगरानी के इन गैर राजनीतिक टोटकों का सहारा लेता हुआ नज़र आ रहा है। नेता अब एक अवतार है जो आसमान से लांच होता है। इवेंट मैनेजमेंट कंपनियां ही अब असली राजनीतिक दल हैं।
राजनीतिक दलों का बुनियादी चरित्र तेज़ी से बदल रहा है। संगठन अब मुख्यालय तक सिमट कर रह गया है और मुख्यालय भी सत्ता में बैठे नेता का एक विस्तार यानी एक्सटेंशन काउंटर बनकर रह गया है। कार्यकर्ता की जगह फैन ने ले ली है जो सोशल मीडिया पर नेता के प्रति सक्रियता बनाए रखते हैं।
पार्टी के भीतर की संस्थाएं गैर ज़रूरी होती जा रही हैं। कई पार्टियों में संगठन के चुनाव बेईमानी हो चुके हैं। पार्टी की कार्यकारिणियां ईवेंट कंपनी को ठेका देने का काउंटर बनकर रह गईं हैं। इंटेलिजेंस अफसर और आईटी सेल ही अब पार्टी होंगे जो एक नेता के लिए काम करेंगे। जहां विचारधारा की कोई जगह नहीं होगी।
(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं, ये उनके अपने विचार हैं)