सुरेश वाडकर

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Monday, November 24, 2014

वास्को द गामा


वास्को द गामा

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
वास्को द गामा
वास्को द गामा (अंग्रेज़ी:Vasco Da Gama) एक पुर्तग़ाली नाविक थे। वास्को द गामा के द्वारा की गई भारत यात्राओं ने पश्चिमी यूरोप से केप ऑफ़ गुड होप होकर पूर्व के लिए समुद्री मार्ग खोल दिए थे। इन्होंने विश्व इतिहास के एक नए युग की शुरुआत की थी। यह यूरोपीय खोज युग के सबसे सफल खोजकर्ताओं में से एक, और यूरोप से भारत सीधी यात्रा करने वाले जहाज़ों का कमांडर थे। वास्को द गामा ने पुर्तग़ाल को एक विश्व शक्ति बनाने में भी मदद की थी।

जीवन

वास्को का जन्म 1460 में दक्षिण-पश्चिम पुर्तग़ाल के अलेंटेजो प्रान्त के समुद्री तट पर स्थित साइनेस के क़िले के कमांडर व कुलीन घराने के एस्टावोडिगामा के तीसरे पुत्र के रूप में हुआ। उनके आरम्भिक जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी है। संभवत: उन्होंने एवोरा के नगर में अध्ययन किया होगा, जहाँ उन्होंने गणित और नौ-परिवहन विज्ञान सीखा था। 1492 में पुर्तग़ाल के किंग जॉन द्वितीय ने उन्हें लिस्बन के दक्षिण में स्थित सेटुबल के बंदरगाह और पुर्तग़ाल के दक्षिणतम प्रान्त अल्गार्वे भेजा था। उनका उद्देश्य शान्तिकाल में पुर्तग़ाल पर हुए फ्रांसीसी हमले के जवाब के रूप में फ्रांसीसी जहाज़ों पर क़ब्ज़ा करना था। वास्को ने इस कार्य को तेज़ी से और सही ढंग से पूरा किया गया था। नाविक राजकुमार हेनरी की नीति का अनुसरण करते हुए किंग जॉन ने एक पुर्तग़ाली बेड़े को भारत भेजने की योजना बनाई, ताकि एशिया के लिए समुद्री मार्ग खुल सके। उनकी योजना मुसलमानों को पछाड़ने की थी, जिनका उस समय भारत और अन्य पूर्वी देशों के साथ व्यापार पर एकाधिकार था। एस्टावोडिगामा को इस अभियान के नेतृत्व के लिए चुना गया, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद वास्को द गामा ने उनका स्थान लिया। उनकी नियुक्ति के बारे में विवरणों में मतभेद हैं कि उन्हें किंग जॉन द्वारा चुना गया और इस नियुक्ति को 1495 में सत्तासीन हुए किंग मैनुअल से स्वीकृति मिली या वह किंग मेनुअल थे, जिन्होंने उन्हें पहले चुना, यह अभी तक अस्पष्ट है। एक विवरण के अनुसार, इस नियुक्ति का सबसे पहला अवसर उनके बड़े भाई पॉउलों को दिया गया था, जिन्होंने ख़राब स्वास्थ्य के कारण इंकार कर दिया।

प्रथम समुद्र यात्रा

8 जुलाई 1497 को वास्को द गामा चार जहाज़ों के एक बेड़े के साथ लिस्बन से निकले थे। उनके पास दो मध्यम आकार के तीन मस्तूलों वाले जहाज़ थे। प्रत्येक का वज़न लगभग 120 टन और नाम सॉओ गैब्रिएल तथा सॉओ रैफ़ेल था। इनके साथ 50 टन का बैरिओ नामक कैरावेल (छोटा, हल्का और तेज़ जहाज़) और एक 200 टन का सामान रखने वाला जहाज़ था। केप वर्डे द्वीप तक उनके साथ बार्तोलोम्यू डिआस के नेतृत्व में एक और जहाज़ भी गया था। बार्तोलोम्यू एक पुर्तग़ाली नाविक थे, जिन्होंने कुछ वर्ष पहले केप ऑफ़ गुड होप को खोजा था और वह गोल्ड कोस्ट (वर्तमान घाना) पर सॉओ ज़ोर्गे डा मीना के पश्चिम अफ़्रीकी क़िले की यात्रा कर रहे थे। वास्को द गामा के बेड़े के साथ तीन दुभाषिए भी थे दो अरबी बोलने वाले और एक कई बंटू बोलियों का जानकार था। बेड़े अपनी खोज और जीते गए ज़मीनों को चिह्नित करने के लिए अपने साथ पेड्राओ[1] भी ले गए थे।
वास्को द गामा
15 जुलाई को केनेरी द्वीप से गुज़रते हुए यह बेड़ा 26 जुलाई को केप वर्डे द्वीप के सॉओ टियागो पर पहुँचा और 3 अगस्त तक वहीं रुका रहा। इसके बाद गुयाना की खाड़ी की तेज़ जलधाराओं से बचने के लिए वास्को द गामा ने केप ऑफ़ गुड होप के दक्षिणी अटलांटिक से होते हुए एक घुमावदार रास्ता अपनाया और 7 नवम्बर को सांता हैलेना खाड़ी (आधुनिक दक्षिण अफ़्रीका में) पहुँचे थे। अभियान दल 16 नवम्बर को वहाँ से निकला, लेकिन प्रतिकूल हवाओं ने केप ऑफ़ गुड होप से मुड़ने की यात्रा को नवम्बर तक विलंबित कर दिया। तीन दिन बाद वास्को द गामा ने मोस्सेल की खाड़ी में लंगर डाला, वहाँ एक द्वीप पर पेड्राओ गाड़ा और सामान रखने वाले जहाज़ को अलग होने का आदेश दिया था। 8 दिसम्बर को पुन: निकलकर बेड़ा क्रिसमस के दिन नटाल के तट पर पहुँचा। 11 जनवरी 1498 को नटाल और मोज़ांबिक के बीच स्थित एक छोटी सी नदी के मुहाने के पास लंगर डाला, जिसे उन्होंने 'रियो दो कोबर'[2] नाम दिया। 25 जनवरी को वर्तमान मोज़ांबिक में क्वेलीमेन नदी पर पहुँचे, जिसे उन्होंने 'रियो डोस बोन्स सिनाइस' [3] कहा और एक अन्य पेड्राओ गाड़ा। इस समय तक नाविक दल के कई सदस्य स्कर्वी से पीड़ित हो गए, इसलिए अभियान दल ने एक महीने का विश्राम किया और जहाज़ों की मरम्मत की गई।
2 मार्च को बेड़ा मोज़ांबिक द्वीप पर पहुँचा। वहाँ के निवासियों ने पुर्तग़ालियों को अपने जैसा मुसलमान समझा। वास्को द गामा को उनके साथ अरब के सौदाग़रों के साथ होने वाले व्यापार का पता चला और सोने, जवाहरात, चाँदी व मसालों से भरे चार अरबी जहाज़ बंदरगाह में खड़े हुए थे। उन्हें यह भी पता चला कि ईसाई शासक 'प्रेस्टर जॉन' अंदरूनी इलाके में रहते हैं और कई तटीय शहरों पर उनका क़ब्ज़ा है। मोज़ांबिक के सुल्तान ने उन्हें दो पोत चालक मुहैया कराए, जिनमें से एक उस समय छोड़कर चला गया जब उसे पता चला कि पुर्तग़ाली वास्तव में ईसाई हैं। अभियान दल 7 अप्रैल को मोंबासा [4] पहुँचा और 14 अप्रैल को मालिंदी[5] में लंगर डाला। वहाँ पर भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर स्थित कालीकट[6] का मार्ग जानने वाले एक चालक को साथ ले लिया गया। हिन्द महासागर में 23 दिन की यात्रा के बाद भारत के पश्चिमी घाट की पहाड़ियाँ नज़र आईं और 20 मई को दल कालीकट पहुँचा। वहाँ पर वास्को द गामा ने एक पेड्राओ को अपने भारत पहुँचने के प्रमाण के रूप में स्थापित किया। वहाँ उस समय के दक्षिणी भारत के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यापार केन्द्र कालीकट के हिन्दू शासक 'जमोरीं' ने उनका स्वागत किया। हालांकि वह उनसे किसी भी प्रकार की संधि करने में असफल रहे, ऐसा कुछ हद तक मुसलमान व्यापारियों की शत्रुता और कुछ हद तक उनके द्वारा दिए गए बेकार तोहफ़े और साथ लाए सस्ते व्यापारिक माल के कारण हुआ। यह व्यापारिक माल पश्चिमी अफ़्रीका के साथ व्यापार के लिए तो उपयुक्त था, लेकिन भारत में उसकी माँग नहीं थी।
वास्को द गामा के अभियान दल और जमोरीं के बीच तनाव बढ़ जाने के कारण वास्को द गामा को अगस्त के आख़िर में निकलना पड़ा। वह अपने साथ पाँच-छह हिन्दुओं को ले गए। ताकि किंग मैनुअल उनके रीति-रिवाजों के बारे में जान सकें। वह मालिंदी के लिए निकलने से पूर्व अंजिदीव द्वीप[7]में रुके, जहाँ वह 8 जनवरी 1499 पहुँचे। प्रतिकूल हवाओं के कारण अरब सागर को पार करने में लगभग तीन महीने लग गए और नाविक दल के कई सदस्यों की स्कर्वी के कारण मृत्यु हो गई। मालिंदी पहुँचने पर दल की संख्या बहुत कम रह जाने के कारण डॉ. गामा ने सॉओ रैफ़ेल को जला देने का आदेश दिया। उन्होंने वहाँ पर भी एक पेड्राओ गाड़ा। उन्होंने अंतिम पेड्राओ मोज़ांबिक में स्थापित किया, जहाँ वह 1 फ़रवरी को पहुँचे। 20 मार्च को सॉओ गैब्रिएल और बेरिओ ने एक साथ केप का चक्कर लगाया, लेकिन एक महीने के बाद एक तूफ़ान में दोनों अलग हो गए। बेरिओ 10 जुलाई को पुर्तग़ाल के टैगॉस नदी में पहुँचा।
सॉओ गैब्रिएल में डॉ. गामा ने एज़ोर्स के टर्सीरा द्वीप के लिए अपनी यात्रा को जारी रखा। जहाँ से कहा जाता है कि उन्होंने लिस्बन के लिए ध्वजपोत को रवाना किया। वह स्वयं 9 सितंबर को लिस्बन पहुँचे और 9 दिनों के बाद अपना विजय-प्रवेश किया। इस बीच का अन्तराल उन्होंने अपने भाई पॉउलो की मृत्यु के शोक में बिताया, जिसकी मृत्यु टर्सीरा में हो गई थी। मैनुअल प्रथम ने वास्को को डॉम [8] की उपाधि और 1,000 क्रुज़ेडो की वार्षिक पेंशन और जागीर प्रदान की।

द्वितीय समुद्र यात्रा

पुर्तग़ाल छोड़ते हुए वास्को द गामा
वास्को द गामा की उपलब्धियों को आगे बढ़ाने के लिए मैनुअल प्रथम ने पुर्तग़ाली नाविक पेड्रो अलवारेज़ कबराल को 13 जहाज़ों के एक बेड़े के साथ कालीकट के लिए रवाना किया। बाद में मुसलमानों द्वारा भड़काए जाने पर हिन्दुओं ने हथियार उठा लिए और कबराल द्वारा छोड़े गए पुर्तग़ालियों को जान से मार डाला। कालीकट के ख़िलाफ़ इस कृत्य का बदला लेने के लिए और हिन्द महासागर में वर्चस्व स्थापित करने के लिए लिस्बन से एक नया बेड़ा तैयार करके रवाना किया गया। पहले इस बेड़े का नेतृत्व कबराल को दिया गया, लेकिन बाद में कमान वास्को द गामा को सौंप दी गई। उन्हें जनवरी 1502 में एडमिरल का ओहदा दिया गया। उन्होंने 10 जहाज़ों का नेतृत्व किया, जिनमें प्रत्येक की सहायता के लिए पाँच जहाज़ों के दो नौ बेड़े थे और प्रत्येक नौ बेड़े की कमान उनके किसी न किसी सम्बन्धी के पास थी। फ़रवरी 1502 को निकाला यह बेड़ा केप वर्डेस पहुँचा और 14 जून को पूर्वी अफ़्रीका के सोफ़ला बंदरगाह पर पहुँचा। मोज़ांबिक के एक संक्षिप्त दौरे के बाद पुर्तग़ाली बेड़ा किलवा [9] के लिए निकला। किलवा के शासक अमीर इब्राहीम कबराल के प्रति असहिष्णु थे। जब वास्को द गामा ने अमीर को धमकी दी कि अगर उन्होंने पुर्तग़ालियों के सामने समर्पण नहीं किया, तो वह किलवा को जलाकर राख कर देगें तब अमीर ने मेनुअल प्रति वफ़ादारी का शपथ लेकर आत्मसमर्पण कर दिया।
दक्षिणी अरब तट का चक्कर लगाते हुए वास्को द गामा गोवा [10] पहुँचे। इसके बाद वह दक्षिण-पश्चिम भारत में कालीकट के उत्तर में स्थित बंदरगाह कन्नानोर की ओर बढ़े, जहाँ पर वह अरबी जहाज़ों के इंतज़ार में रुके रहे। कई दिनों के बाद औरतों और बच्चों सहित 200 से 400 यात्रियों के साथ माल से लदा एक अरबी जहाज़ पहुँचा। माल को ज़ब्त करने के बाद वास्को द गामा ने क़ब्ज़े किए हुए जहाज़ पर सभी यात्रियों को बंदी बनाकर जहाज़ को आग लगा दी और उस पर सवार सभी बंदी जलकर मर गए। यह उनके पेशेवर जीवन का सर्वाधिक नृशंस कृत्य था। जमोरीं के शत्रु कन्नानोर के शासक के साथ एक सन्धि के बाद वास्को द गामा का बेड़ा कालीकट के लिए रवाना हुआ। जमोरीं ने मित्रता की पेशकश की, लेकिन उन्होंने इस पेशकश को ठुकरा दिया और बंदरगाह से मुसलमानों को निर्वासित करने की चेतावनी दी। यह दिखाने के लिए कि वह अपनी धमकी पर खरे उतरते हैं वास्को द गामा ने बंदरगाह पर बमबारी की। उन्होंने जहाज़ पर अपना सामान बेचने आए 38 हिन्दू मछुआरों को पकड़कर मौत के घाट उतार दिया। उनके शरीर को समुद्र में फेंक दिया। ताकि वे किनारे तक पहुँच जाएँ। इसके बाद पुर्तग़ाली दक्षिण की ओर कोचीन के बंदरगाह पर पहुँचे, जिसके शासक (यह भी जमोरीं के शत्रु) के साथ उन्होंने एक सन्धि की। वास्को द गामा को जमोरीं के एक आमंत्रण के बाद, जो उन्हें फंसाने की एक चाल साबित हुई, पुर्तग़ालियों का कालीकट के समीप अरबी जहाज़ों से संक्षिप्त युद्ध हुआ, जहाँ से उन्हें पूरी तरह से भागने पर मजबूर कर दिया गया। वापसी यात्रा के पहले चरण में 20 फ़रवरी 1503 को बेड़ा कन्नानोर से मोज़ांबिक के लिए रवाना हुआ।

तृतीय समुद्रयात्रा

वापसी पर किंग मैनुअल द्वारा वास्को द गामा के स्वागत के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं है, ऐसा प्रतीत होता है कि वास्को द गामा को लगा कि उनके द्वारा उठाए गए कष्टों का उचित मुआवज़ा नहीं मिला। साइनेस नगर के स्वामित्व को लेकर एडमिरल और ऑर्डर ऑफ़ सॉओ टियागो [11] के बीच विवाद खड़ा हो गया। ऐसा एडमिरल को नगर सौंपे जाने के वादे के कारण हुआ, लेकिन ऑर्डर ने इसे उनके हवाले करने से इंकार कर दिया था। वास्को द गामा ने 1500 के आसपास अपने पहले अभियान से वापसी के बाद एक कुलीन घराने की महिला, 'केटरिना डे एटैडे' से विवाह किया था, जिनसे छह बेटे हुए। ऐसा माना जाता है कि वह एवोरा नगर में सेवानिवृत्त हुए। बाद में उन्हें कई अतिरिक्त सुविधाएँ और राजस्व प्रदान किए गए। 1505 तक वह राजा को भारतीय मामलों में सलाह देते और 1519 में उन्हें विडिगुएरा का काउंट बनाया गया। किंग मैनुअल की मृत्यु के बाद ही उन्हें फिर से समुद्री यात्रा पर भेजा गया। किंग जॉन तृतीय ने 1524 में उन्हें भारत का पुर्तग़ाली वाइसरॉय नियुक्त किया। सितंबर में गोवा पहुँचने के बाद वास्को द गामा ने शीघ्र ही पूर्ववर्ती प्रशासकों के अन्तर्गत स्थापित कई प्रशासनिक कुप्रथाओं को सुधारा। बहुत मेहनत या अन्य कारणों से वह जल्द ही बीमार पड़ गए और दिसम्बर में कोचीन[12] में उनकी मृत्यु हो गई। 1538 में उनके शरीर को वापस पुर्तग़ाल ले जाया गया।


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टीका टिप्पणी

  1. पाषाण स्तंभ
  2. कॉपर नदी
  3. अच्छे शकुनों वाली नदी
  4. वर्तमान केन्या
  5. यह भी अब केन्या में
  6. वर्तमान कोझिकोड़
  7. गोवा के निकट
  8. अंग्रेज़ी 'सर' के समकक्ष
  9. वर्तमान तंजानिया
  10. जो बाद में भारत में पुर्तग़ाली सत्ता का केन्द्र बना
  11. एक धार्मिक सभा
  12. वर्तमान कोच्चि

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Posted by Arya Ashutosh Garg at 13:18

आज से लगभग ५०० साल पहले, वास्को डी गामा आया था हिंदुस्तान. इतिहास की चोपड़ी में, इतिहास की किताब में हमसब ने पढ़ा होगा कि सन. १४९८ में मई की २० तारीख को वास्को डी गामा हिंदुस्तान आया था. इतिहास की चोपड़ी में हमको ये बताया गया कि वास्को डी गामा ने हिंदुस्तान की खोज की, पर ऐसा लगता है कि जैसे वास्को डी गामा ने जब हिंदुस्तान की खोज की, तो शायद उसके पहले हिंदुस्तान था ही नहीं.
वास्को डी गामा यहाँ आया था भारतवर्ष को लुटने के लिए, एक बात और जो इतिहास में, बहुत गलत बताई जाती है कि वास्को डी गामा एक बहूत बहादुर नाविक था, बहादुर सेनापति था, बहादुर सैनिक था, और हिंदुस्तान की खोज के अभियान पर निकला था, ऐसा कुछ नहीं था, सच्चाई ये है.............................................
कि पुर्तगाल का वो उस ज़माने का डॉन था, माफ़िया था. जैसे आज के ज़माने में हिंदुस्तान में बहूत सारे माफ़िया किंग रहे है, उनका नाम लेने की जरुरत नहीं है, ऐसे ही बहूत सारे डॉन और माफ़िया किंग १५ वी सताब्दी में होते थे यूरोप में. और १५ वी. सताब्दी का जो यूरोप था, वहां दो देश बहूत ताकतवर थें उस ज़माने में, एक था स्पेन और दूसरा था पुर्तगाल. तो वास्को डी गामा जो था वो पुर्तगाल का माफ़िया किंग था. १४९० के आस पास से वास्को डी गामा पुर्तगाल में चोरी का काम, लुटेरे का काम, डकैती डालने का काम ये सब किया करता था. और अगर सच्चा इतिहास उसका आप खोजिए तो एक चोर और लुटेरे को हमारे इतिहास में गलत तरीके से हीरो बना कर पेश किया गया. और ऐसा जो डॉन और माफ़िया था उस ज़माने का पुर्तगाल का ऐसा ही एक दुसरा लुटेरा और डॉन था, माफ़िया था उसका नाम था कोलंबस, वो स्पेन का था. तो हुआ क्या था, कोलंबस गया था अमेरिका को लुटने के लिए और वास्को डी गामा आया था भारतवर्ष को लुटने के लिए. लेकिन इन दोनों के दिमाग में ऐसी बात आई कहाँ से, कोलंबस के दिमाग में ये किसने डाला की चलो अमेरिका को लुटा जाए, और वास्को डी गामा के दिमाग में किसने डाला कि चलो भारतवर्ष को लुटा जाए. तो इन दोनों को ये कहने वाले लोग कौन थे?
हुआ ये था कि १४ वी. और १५ वी. सताब्दी के बीच का जो समय था, यूरोप में दो ही देश थें जो ताकतवर माने जाते थे, एक देश था स्पेन, दूसरा था पुर्तगाल, तो इन दोनों देशो के बीच में अक्सर लड़ाई झगडे होते थे, लड़ाई झगड़े किस बात के होते थे कि स्पेन के जो लुटेरे थे, वो कुछ जहांजो को लुटते थें तो उसकी संपत्ति उनके पास आती थी, ऐसे ही पुर्तगाल के कुछ लुटेरे हुआ करते थे वो जहांज को लुटते थें तो उनके पास संपत्ति आती थी, तो संपत्ति का झगड़ा होता था कि कौन-कौन संपत्ति ज्यादा रखेगा. स्पेन के पास ज्यादा संपत्ति जाएगी या पुर्तगाल के पास ज्यादा संपत्ति जाएगी. तो उस संपत्ति का बटवारा करने के लिए कई बार जो झगड़े होते थे वो वहां की धर्मसत्ता के पास ले जाए जाते थे. और उस ज़माने की वहां की जो धर्मसत्ता थी, वो क्रिस्चियनिटी की सत्ता थी, और क्रिस्चियनिटी की सत्ता में १४९२ के आसपास पोप होता था जो सिक्स्थ कहलाता था, छठवा पोप. तो एक बार ऐसे ही झगड़ा हुआ, पुर्तगाल और स्पेन की सत्ताओ के बीच में, और झगड़ा किस बात को ले कर था? झगड़ा इस बात को ले कर था कि लूट का माल जो मिले वो किसके हिस्से में ज्यादा जाए. तो उस ज़माने के पोप ने एक अध्यादेश जारी किया. सन १४९२ में, और वो नोटिफिकेशन क्या था? वो नोटिफिकेशन ये था कि १४९२ के बाद, सारी दुनिया की संपत्ति को उन्होंने दो हिस्सों में बाँटा, और दो हिस्सों में ऐसा बाँटा कि दुनिया का एक हिस्सा पूर्वी हिस्सा, और दुनिया का दूसरा हिस्सा पश्चिमी हिस्सा. तो पूर्वी हिस्से की संपत्ति को लुटने का काम पुर्तगाल करेगा और पश्चिमी हिस्से की संपत्ति को लुटने का काम स्पेन करेगा. ये आदेश १४९२ में पोप ने जारी किया. ये आदेश जारी करते समय, जो मूल सवाल है वो ये है कि क्या किसी पोप को ये अधिकार है कि वो दुनिया को दो हिस्सों में बांटे, और उन दोनों हिस्सों को लुटने के लिए दो अलग अलग देशो की नियुक्ति कर दे? स्पैन को कहा की दुनिया के पश्चिमी हिस्से को तुम लूटो, पुर्तगाल को कहा की दुनिया के पूर्वी हिस्से को तुम लूटो और १४९२ में जारी किया हुआ वो आदेश और बुल आज भी एग्जिस्ट करता है.
ये क्रिस्चियनिटी की धर्मसत्ता कितनी खतरनाक हो सकती है उसका एक अंदाजा इस बात से लगता है कि उन्होंने मान लिया कि सारी दुनिया तो हमारी है और इस दुनिया को दो हिस्सों में बांट दो पुर्तगाली पूर्वी हिस्से को लूटेंगे, स्पेनीश लोग पश्चिमी हिस्से को लूटेंगे. पुर्तगालियो को चूँकि दुनिया के पूर्वी हिस्से को लुटने का आदेश मिला पोप की तरफ से तो उसी लुट को करने के लिए वास्को डी गामा हमारे देश आया था. क्योकि भारतवर्ष दुनिया के पूर्वी हिस्से में पड़ता है. और उसी लुट के सिलसिले को बरकरार रखने के लिए कोलंबस अमरीका गया. इतिहास बताता है कि १४९२ में कोलंबस अमरीका पहुंचा, और १४९८ में वास्को डी गामा हिंदुस्तान पहुंचा, भारतवर्ष पहुंचा. कोलंबस जब अमरीका पहुंचा तो उसने अमरीका में, जो मूल प्रजाति थी रेड इंडियन्स जिनको माया सभ्यता के लोग कहते थे, उन माया सभ्यता के लोगों से मार कर पिट कर सोना चांदी छिनने का काम शुरु किया. इतिहास में ये बराबर गलत जानकारी हमको दी गई कि कोलंबस कोई महान व्यक्ति था, महान व्यक्ति नहीं था, नराधम था. और वो किस दर्जे का नराधम था, सोना चांदी लुटने के लिए अगर किसी की हत्या करनी पड़े तो कोलंबस उसमे पीछे नहीं रहता था, उस आदमी ने १४ – १५ वर्षो तक बराबर अमरीका के रेड इन्डियन लोगों को लुटा, और उस लुट से भर – भर कर जहांज जब स्पेन गए तो स्पेन के लोगों को लगा कि अमेरिका में तो बहुत सम्पत्ति है, तो स्पेन की फ़ौज और स्पेन की आर्मी फिर अमरीका पहुंची. और स्पेन की फ़ौज और स्पेन की आर्मी ने अमरीका में पहुँच कर १० करोड़ रेड इंडियन्स को मौत के घाट उतार दिया. १० करोड़. और ये दस करोड़ रेड इंडियन्स मूल रूप से अमरीका के बाशिंदे थे. ये जो अमरीका का चेहरा आज आपको दिखाई देता है, ये अमरीका १० करोड़ रेड इन्डियन की लाश पर खड़ा हुआ एक देश है. कितने हैवानियत वाले लोग होंगे, कितने नराधम किस्म के लोग होंगे, जो सबसे पहले गए अमरीका को बसाने के लिए, उसका एक अंदाजा आपको लग सकता है, आज स्थिति क्या है कि जो अमरीका की मूल प्रजा है, जिनको रेड इंडियन कहते है, उनकी संख्या मात्र ६५००० रह गई है.
१० करोड़ लोगों को मौत के घाट उतारने वाले लोग आज हमको सिखाते है कि हिंदुस्तान में ह्यूमन राईट की स्थिति बहुत ख़राब है. जिनका इतिहास ही ह्यूमन राईट के वोइलेसन पे टिका हुआ है, जिनकी पूरी की पूरी सभ्यता १० करोड़ लोगों की लाश पर टिकी हुई है, जिनकी पूरी की पूरी तरक्की और विकास १० करोड़ रेड इंडियनों लोगों के खून से लिखा गया है, ऐसे अमरीका के लोग आज हमको कहते है कि हिंदुस्तान में साहब, ह्यूमन राईट की बड़ी ख़राब स्थिति है, कश्मीर में, पंजाब में, वगेरह वगेरह. और जो काम मारने का, पीटने का, लोगों की हत्याए कर के सोना लुटने का, चांदी लुटने का काम कोलंबस और स्पेन के लोगों ने अमरीका में किया, ठीक वही काम वास्को डी गामा ने १४९८ में हिंदुस्तान में किया. ये वास्को डी गामा जब कालीकट में आया, २० मई, १४९८ को, तो कालीकट का राजा था उस समय झामोरिन, तो झामोरिन के राज्य में जब ये पहुंचा वास्को डी गामा, तो उसने कहा कि मै तो आपका मेहमान हु, और हिंदुस्तान के बारे में उसको कहीं से पता चल गया था कि इस देश में अतिथि देवो भव की परंपरा. तो झामोरिन ने बेचारे ने, ये अथिति है ऐसा मान कर उसका स्वागत किया, वास्को डी गामा ने कहा कि मुझे आपके राज्य में रहने के लिए कुछ जगह चाहिए, आप मुझे रहने की इजाजत दे दो, परमीशन दे दो. झामोरिन बिचारा सीधा सदा आदमी था, उसने कालीकट में वास्को डी गामा को रहने की इजाजत दे दी. जिस वास्को डी गामा को झामोरिन के राजा ने अथिति बनाया, उसका आथित्य ग्रहण किया, उसके यहाँ रहना शुरु किया, उसी झामोरिन की वास्को डी गामा ने हत्या कराइ. और हत्या करा के खुद वास्को डी गामा कालीकट का मालिक बना. और कालीकट का मालिक बनने के बाद उसने क्या किया कि समुद्र के किनारे है कालीकट केरल में, वहां से जो जहांज आते जाते थे, जिसमे हिन्दुस्तानी व्यापारी अपना माल भर-भर के साउथ ईस्ट एशिया और अरब के देशो में व्यापार के लिए भेजते थे, उन जहांजो पर टैक्स वसूलने का काम वास्को डी गामा करता था. और अगर कोई जहांज वास्को डी गामा को टैक्स ना दे, तो उस जहांज को समुद्र में डुबोने का काम वास्को डी गामा करता था.
 पोर्तुगीज सरकार के जो डॉक्यूमेंट है वो  बताते है कि वास्को डी गामा पहली बार जब हिंदुस्तान से गया, लुट कर सम्पत्ति को ले कर के गया, तो ७ जहांज भर के सोने की अशर्फिया, उसके बाद दुबारा फिर आया वास्को डी गामा. वास्को डी गामा हिंदुस्तान में ३ बार आया लगातार लुटने के बाद, चौथी बार भी आता लेकिन मर गया. दूसरी बार आया तो हिंदुस्तान से लुट कर जो ले गया वो करीब ११ से १२ जहांज भर के सोने की अशर्फिया थी. और तीसरी बार आया और हिंदुस्तान से जो लुट कर ले गया वो २१ से २२ जहांज भर के सोने की अशर्फिया थी. इतना सोना चांदी लुट कर जब वास्को डी गामा यहाँ से ले गया तो पुर्तगाल के लोगों को पता चला कि हिंदुस्तान में तो बहुत सम्पत्ति है. और भारतवर्ष की सम्पत्ति के बारे में उन्होंने पुर्तगालियो ने पहले भी कहीं पढ़ा था, उनको कहीं से ये टेक्स्ट मिल गया था कि भारत एक ऐसा देश है, जहाँ पर महमूद गजनवी नाम का एक व्यक्ति आया, १७ साल बराबर आता रहा, लुटता रहा इस देश को, एक ही मंदिर को, सोमनाथ का मंदिर जो वेरावल में है. उस सोमनाथ के मंदिर को महमूद गजनवी नाम का एक व्यक्ति, एक वर्ष आया अरबों खरबों की सम्पत्ति ले कर चला गया, दुसरे साल आया, फिर अरबों खरबों की सम्पत्ति ले गया. तीसरे साल आया, फिर लुट कर ले गया. और १७ साल वो बराबर आता रहा, और लुट कर ले जाता रहा. तो वो टेक्स्ट भी उनको मिल गए थे कि एक एक मंदिर में इतनी सम्पत्ति, इतनी पूंजी है, इतना पैसा है भारत में, तो चलो इस देश को लुटा जाए, और उस ज़माने में एक जानकारी और दे दू, ये जो यूरोप वाले अमरीका वाले जितना अपने आप को विकसित कहे, सच्चाई ये है कि १४ वी. और १५ वी. शताब्दी में दुनिया में सबसे ज्यादा गरीबी यूरोप के देशो में थी. खाने पीने को भी कुछ होता नहीं था. प्रकृति ने उनको हमारी तरह कुछ भी नहीं दिया, न उनके पास नेचुरल रिसोर्सेस है, जितने हमारे पास है. न मौसम बहूत अच्छा है, न खेती बहुत अच्छी होती थी और उद्योगों का तो प्रश्न ही नहीं उठता. १३ फी. और १४ वी. शताब्दी में तो यूरोप में कोई उद्योग नहीं होता था. तो उनलोगों का मूलतः जीविका का जो साधन था जो वो लुटेरे बन के काम से जीविका चलाते थे. चोरी करते थे, डकैती करते थे, लुट डालते थे, ये मूल काम वाले यूरोप के लोग थे, तो उनको पता लगा कि हिंदुस्तान और भारतवर्ष में इतनी सम्पत्ति है तो उस देश को लुटा जाए, और वास्को डी गामा ने आ कर हिंदुस्तान में लुट का एक नया इतिहास शुरु किया. उससे पहले भी लुट चली हमारी, महमूद गजनवी जैसे लोग हमको लुटते रहे.
लेकिन वास्को डी गामा ने आकर लुट को जिस तरह से केन्द्रित किया और ओर्गनाइजड किया वो समझने की जरूरत है. उसके पीछे पीछे क्या हुआ, पुर्तगाली लोग आए, उन्होंने ७० – ८० वर्षो तक इस देश को खूब जम कर लुटा. पुर्तगाली चले गए इस देश को लुटने के बाद, फिर उसके पीछे फ़्रांसिसी आए, उन्होंने इस देश को खूब जमकर लुटा ७० – ८० वर्ष उन्होंने भी पुरे किए. उसके बाद डच आ गये हालैंड वाले, उन्होंने इस देश को लुटा. उसके बाद फिर अंग्रेज आ गए हिंदुस्तान में लुटने के लिए ही नहीं बल्कि इस देश पर राज्य भी करने के लिए. पुर्तगाली आए लुटने के लिए, फ़्रांसिसी आए लुटने के लिए, डच आए लुटने के लिए, और फिर पीछे से अंग्रेज चले आए लुटने के लिए, अंग्रेजो ने लुट का तरीका बदल दिया.आगे पलासी के युद्ध की सच्चाई जानने के लिए यहाँ क्लिक करे| वास्को डी गामा की सचाई राजीव भाई के श्री मुख से सुने -
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हिंदू और जैन परंपराओं के साथ प्रादेशिक सल्तनतों का अनुकूलन और समझौता

हिंदू और जैन परंपराओं के साथ प्रादेशिक सल्तनतों का अनुकूलन और समझौता

इस्लामी शासकों के भारतीय अनुभव के संबंध में यद्यपि कुछ इतिहासकार सामान्यीकरण का प्रयास करते हैं, परंतुु ऐतिहासिक अभिलेखों को देखने से भारत के इस्लामी दरबारों के रवैयों में काफी भिन्नता प्रगट होती है। दिल्ली में स्थापित सबसे पहले की सल्तनतें, हिंदू और भारतीय मूल के मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण थीं। जबकि भारत में ही पैदा और बढ़े शासकों द्वारा स्थापित कुछ सल्तनतें व्यवहार में ज्यादा उदारवादी थीं और राजपूत तथा हिंदूओं की सहकारिता के ज्यादा इच्छुक थे।

विदेशी विजेताओं द्वारा स्थापित दिल्ली सल्तनत मध्य एशिया के अप्रवासी एवं तुर्क कुलीनवंशी मुस्लिमों की ओर विशेष झुकाव रखते थे। बाद में, अफगान कुलीन और अबीसिनियन हपसी वंश के दास योद्धा भी उभर कर आये। ईरानी शियाओं ने सुन्नी तुर्को एवं अफगानों के विरूद्ध एक धड़ा संगठित किया और परशियन नमूने को पेश करते हुए शक्ति के लिए स्पद्र्धा भी की। जो भी हो, अल्पसंख्यक और सीमित अधिकार प्राप्त इन सल्तनतों को हिंदू मध्यस्थों और परिवर्तित मुसलमानों पर करों की वसूली तथा कानून व्यवस्था के लिए आश्रित रहना पड़ता था। इस तरह ब्राहमण, कायस्थ, खत्राी और अन्य जातियों से हिंदू और मुसलमान जमीनदार एवं प्रशासक इस्लामी दरबारों के अपरिहार्य औजार बने और कभी कभी वे उंचे पदों पर भी पहुंचे। ये दरबार विदेशी व्यापारियांे, वाणिज्यिकों और सभी जातियों के साहूकारों यथा हिंदू, जैन और परिवर्तित मुसलमानों यथा खोजा, बोहरा, और गुजरात के मैमन पर भी आश्रित हुआ करते थे।

इन सल्तनतों की स्थिरता कमाबेश हिंदू और स्थानीय जन्मे मुसलमानों के मध्यस्थों की मौन सम्मति और राजभक्ति पर टिकी हुआ करती थी। जब कभी इनको उकसाया जाता ये प्रमुख सल्तनत के खिलाफ सत्ता पलट और राजद्रोह में सहयोगी बनते और भड़क जाते। 14 वीं सदी में दिल्ली सल्तनत प्रादेशिक विद्रोहों के कारण बिखर गयी थी। इस बात की पूरी संभावना थी कि यह सब मुहम्मद इब्न तुगलक, 1325-51, के निरंकुश शासन के भड़काने से हुआ था जिसकी कट्टर और विस्तारवादी नीतियों ने बड़े पैमाने पर बैरभाव और आक्रोश फैलाया था। दिल्ली की सल्तनत के पतन के फलस्वरूप बहुत से प्रादेशिक कुलीनों ने अपनी स्वतंत्राता घोषित की और स्थानीय सल्तनतों की स्थापना कर ली। जौनपुर की शारकी सल्तनत और अहमदाबाद की गुजरात सल्तनत दोनों को भारत में जन्में मुसलमानों ने स्थापित किया था। अहमदनगर और बंगाल अबीसिनियन दास योद्धाओं की पीढ़ियों ने और खानदेश को एक शासक जो अपने को अरब मूल का पीढ़ी का कहता था, ने स्थापित किया था। भारत मूल के मुसलमान शेरशाह सूरी ने गंगा के दुआब में कुछ समय के लिए वैकल्पिक राज्य की स्थापना की चुनौति मुगल साम्राज्य को दी थी।

ये प्रादेशिक सल्तनतें न केवल हिंदू राजनैतिक और सैन्य सहयोगियों पर विश्वास करतीं थीं वरन् वे भारतीय रिवाजों को अपनाने अथवा देशी परंपराओं को छूटें देने में ज्यादा उदारवादी थीं। उदाहरण के लिए, न केवल गुजरात के मुसलमान कुलीन परिवारों ने एवं कुछ अन्य सल्तनतों ने हिंदू कुलीन परिवारों से समानता एवं आदर का व्यवहार किया वरन् मुस्लिम राजकुमारियों का ब्याह हिंदू सहयोगी परिवारों में उसी प्रकार से किया जिस प्रकार से हिंदू राजकुमारियां मुस्लिम राजसी घरानों में आईं थीं। यह मुगलों के रिवाजों के विपरीत था। मुगलों ने हिंदू राजकुमारियां वधु की तरह स्वीकार तो कीं परंतु अपनी राजकुमारियांे की शादी हिंदू परिवारों में नहीं की। मुगलों ने राजपूत भागीदारी को निम्न स्तरीय ढंग से स्वीकारा था जबकि प्रादेशिक सल्तनतों ने संभवतया, अपने हिंदू सहयोगियों को समान स्तर पर व्यवहार दिया।

हिंदू और मुसलमान कुलीनों के आपसी संबंधों को शादी ब्याह के द्वारा पक्का किया गया। आम जनता के स्तर पर, भक्ति और सूफी रहस्यमय समानतावादी पंथों के द्वारा एक दूसरे के प्रति अभिमुखता पैदा हुई। दोनों ने मिलकर सामाजिक जाति विभाजन और धार्मिक कठोरता के प्रति अवज्ञा पैदा की। सामाजिक शांति और स्थाईत्व को बनाये रखने के लिए प्रादेशिक सल्तनतों ने कुरान की निरंकुशता पर सूफिया लचीलेपन को पालापोसा और दिल्ली के विपरीत, अनेक प्रादेशिक सल्तनतों ने स्थानीय भाषा का समर्थन किया। मातृभाषा के साहित्य को सक्रियता से प्रोत्साहित किया। साथ ही साथ, पारंपरिक कलाओं एवं हस्तकौशल को बढ़ावा दिया। बंगाल, गुजरात और कश्मीर में उर्दू की अपेक्षा मातृभाषा में काव्य और साहित्य की रचना शुरू हुई तथा खानदेश, बुरहानपुर एवं अहमदनगर में संस्कृत एवं मराठी साहित्य को उर्दू साहित्य के साथ अनुग्रह मिला। पारंपरिक पौराणिक विषयों को जौनपुर के लघुचित्रों में जगह मिली और गीत गोविंद के चित्राण तो जौनपुर दरबार में विशेष आकर्षण रखते थे।

दक्खिन के दरबार विभिन्न भारतीय मूल के मुस्लिमों एवं विदेशी मूल के राजवंशों की आपसी दुश्मनी से विदीर्ण हो गये थे। उन्होंने हिंदुओं से संबंध सुधारने की कोशिश की। नतीजतन, हिंदुओं को इस्लामी शासन में सर्वोच्च पदों पर पहुंचने की अनुमति प्राप्त हुई। खासकर, ये राजदरबार देशज हिंदू कलात्मक प्रभावों के लिए खुल गए थे और सबसे सुंदर लघुचित्रों में विभिन्न भारतीय रागों की व्याख्यायें हुईं। फिर चाहे वे अहमदनगर, औरंगाबाद, बीजापुर या हैदराबाद में क्यों न उत्पन्न हुईं हों। ये लघुचित्रा पूना के मराठा राजदरबारों के और कोल्हापुर और सांवतवाड़ी के लघुचित्रों से बहुत समानतायें रखते हैं।

इस प्रकार से इन राजदरबारों ने एक विशेष भारतीय-मुस्लिम संस्कृति को विकसित किया जिसने उन्हें उत्तर पश्चिम के विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा स्थापित संस्कृति से भिन्न पहिचान दी। इन दरबारों ने इस्लाम में परिवर्तित भारतीयांे के समग्र चरित्रा को प्रतिबिंबित किया,उन्होंने अपनी पूर्ववर्ती परंपराओं से अनेक तत्वों को बचा रखा था - सामाजिक रीतिरिवाज, भाषा, साहित्य, संगीत, कला और वास्तुशिल्प से।

इन सल्तनतों में से सबसे समृद्ध गुजरात सल्तनत थी। पहले अहमदाबाद में स्थापित और बाद में चंपानेर में। वहां पहले से ही औद्योगीकरण पूर्व के उन्नत उत्पादों का आधार था और 13 वीं शताब्दी तक, विस्तार में फैले हुए बंदरगाहों एवं वाणिज्यक शहरों का जाल था। अहमदशाह 1, 1410-42 के शासनकाल में और बहादुरशाह, 1526-37 तक के अन्य सुलतानों के शासनकाल में ये उन्नत और विकसित होते रहे थे। 18 वीं सदी के ’’मिराते ए अहमदी’’ ने देखा कि ’’तजकिरात उल मुल्क’’ का लेखक बतलाता है कि ’’अहमदाबाद के उपनगर उस्मानपुर में लगभग 1000 दुकानें हैं और सभी में हिंदू और मुस्लिम व्यापारी, दस्तकार, कलाकार, सरकारी मुलाजिम और सैनिक लोग थे।’’ अन्य यात्रियों ने भी अहमदाबाद के शहर के खुशनुमा विवरण छोड़े हैं कि किस प्रकार से बगीचों और कृत्रिम तालाबों के बीच अनेक महल और रिहायसी प्रतिवास चैड़ी सड़कों एवं बाजारों से युक्त हैं।

गुजरात के शहर वस्त्रा उद्योग और अन्य वस्तुओं के निर्माण के न केवल महत्वपूर्ण केंद्र थे वरन् गुजरात के बंदरगाह अन्य वस्तुओं के साथ मसालों एवं इमारती लकड़ी के व्यापार में उन्नत थे जिन्हें आगे दक्षिण पूर्व एशिया एवं मलाबार तट के बंदरगाहों को और पूर्वी अफ्रीका, मध्य पूर्व तथा यूरोप को भेजा जाता था। देश के भीतरी भागों के उत्पाद भी गुजरात के बंदरगाहों से बाहर भेजे जाते थे। 15 वीं और 16 वीं सदी में दुनियां के सबसे उन्नत शहरों में गुजरात के शहरों की गणना होने लगी और सल्तनत के शासकों ने अपनी राजधानियों को सर्वोत्कृष्ट भारतीय वास्तुशिल्पों से सजाया था।

पहले की दोनों राजधानियां अहमदाबाद और चंपानेर आकर्षक स्मारक समूहों के लिए प्रसिद्ध थे। कुछ मायने में ये स्मारक मुगलों से भी आगे थे। हिंदू और जैन स्थापत्यशिल्प से लिए त्रियामी अलंकृत और विस्मयकारी स्मारक अपने में परंपरागत शुभ संकेतों को संजोये हैं। जैन चिन्हों में ’’ज्ञान द्वीप’’, ’’कल्पलता’’ और ’’कल्पवृक्ष’’ क्रमशः इच्छापूर्ति, प्रगति एवं समृद्धि के सूचक हैं। अहमदाबाद की सबसे कलात्मक मस्जिदें वे हैं जिन्हें अहमदाबाद के मुस्लिम शासकों की हिंदू रानियों ने बनवाया था। रानी सिप्री और रानी रूपमति को इसका श्रेय प्राप्त है।

बंगाल दूसरा राज्य था जहां सल्तनतों के स्मारकों ने देशज रीतिरिवाजों से प्रचुर मात्रा में उधार लिया था। खासकर यह उधार हिंदू और बौद्ध से है। 14 वीं सदी में पंडुआ की राजधानी में एवं वारंगल की राजधानी काकतिया में क्रियाशील रहे कलाकारों को नौकरियां मिलीं और साथ में पाल और सेना शासकों की सेवा में रहे बुर्जुग कलाकारों की नई पीढ़ियों को भी काम मिला। इस प्रकार से गुजरात के समान, बंगाल के हिंदू और बौद्ध रीतिरिवाजों के अनेक चिन्हों को पंडुआ और गौर राजदरबारों के महलों इत्यादि और धार्मिक स्थापत्यशिल्प में समाहित किया गया। ऐसा कुछ हद तक बिना किसी पूर्व निर्णय के भी होता रहा है क्योंकि अनेक मस्जिदें पहले से बने मठों अथवा मंदिर परिसरों के उपर बनाईं गई थीं। तब भी, बंगाल की सल्तनत ने मध्य एशिया या परशियन धाराओं से बिना प्रभावित हुए अपने वास्तु सिद्धांतों को बंगाल के रीतिरिवाजों में से अनेक बातों को स्वीकारते और उनका नवीनीकरण करते हुए, गढ़ा था। बंगाल के मुस्लिम रहस्यवादी कवि और गीतकारों ने भी भक्तिधारा के सहपक्षी के सदृश्य ही लोक परंपराओं में से बहुत कुछ अपने में आत्मसात् किया।

उत्तरी दक्खिन में मुस्लिम किसानों ने कन्नड़ बोलना जारी रखा और ईद और दूसरे मुस्लिम त्यौहार सूफीयों द्वारा मान्य पारंपरिक गानों एवं उच्चकोटि के लोकनृत्यों के साथ अवसर के अनुसार मनाते रहेे। अनेक मौकों पर हिंदू और मुसलमानों के त्यौहार दोनों समुदाय मिलजुलकर मनाते थे।

इस प्रकार से मुगलों के हाथों पराजित होने के पहले प्रादेशिक सल्तनतें आम तौर पर दिल्ली सल्तनत के आधीन अनुभूत विनाशकारी अतिक्रमण और अभिघात से बचने की कोशिश करतीं थीं और भारतीय राज्यों के भौतिक और सांस्कृतिक जीवन में ज्यादा उपयोगी योगदान देतीं थीं। व्यापार एवं वाणिज्य शहरों और बंदरगाहों में उन्नत हुआ था। अस्तु इन सल्तनतों द्वारा ललित कलाओं और वास्तुशिल्प के निर्माण को भारतीय सांस्कृतिक धरोहरों के महत्वपूर्ण अंग की तरह से देखा जाना चाहिए और उन्हें भारत की कलात्मक उत्पाद का सर्वोत्तम दर्जा देना चाहिए।

भारत का इतिहास

भारत का इतिहास

"साउथ एशियन हिस्ट्री" के जालस्थल : http://india_resource.tripod.com/Hindi-Essays.html शिशिर थडानी, संपादक, साउथ एशियन हिस्ट्री, बी ४४, डिफेंस कालोनी, नई दिल्ली ११००२४, ईमेलः kalakriti@mindspring.com से साभार लेकर कृतिदेव_१० ==> यूनिकोड परिवर्तक द्वारा फॉण्ट बदलकर संकलित।

अनुक्रमाणिका