सुरेश वाडकर

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Friday, October 2, 2015

लालू-नीतीश अहंकारी, जातिवादी और भ्रष्टाचारी हैं

लालू-नीतीश अहंकारी, जातिवादी और भ्रष्टाचारी हैं


आज बिहार में प्रतिभा की कमी नहीं है. बिहार में अच्छे डॉक्टर हैं, पत्रकार हैं, आईएएस अधिकारी सबसे ज़्यादा बिहार से बनते हैं. फिर भी बिहार पिछड़ा हुआ है. इसकी वजह क्या है? क्या यहां की लीडरशिप इसके लिए ज़िम्मेदार है या फिर जाति-पात की राजनीति इस सबके लिए दोषी है? जिस बिहार ने जेपी के नेतृत्व में जाति-पात को भूलकर, एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर आपातकाल के खिला़फ लड़ाई लड़ी थी, उसी बिहार में आज जाति की राजनीति इतनी ताकतवर क्यों बन गई है? जाति क्यों विकास पर भारी पड़ गई है? ये ऐसे सवाल हैं, जो बिहार विधानसभा चुनाव के नज़दीक आते ही एक बार फिर प्रासंगिक हो गए हैं. हमने इन सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की और बिहार के कद्दावर नेता राम विलास पासवान से बिहार की वर्तमान एवं भविष्य की राजनीति पर एक लंबी बातचीत की. राम विलास जी ने बिहार के राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक हालात को लेकर हमारे विशेष संवाददाता से खुलकर अपने दिल की बात रखी.
page-1बिहार में लैक ऑफ लीडरशिप यानी नेताओं की कमी नहीं है. लीडर तो बिहार में इतने हैं कि दुनिया में कहीं नहीं मिलेंगे. बिहार में गाय चराने वाला, भैंस चराने वाला भी राजनीति की बात करता है. लेकिन, सबसे बड़ी बात यह है कि नेताओं की नीयत सा़फ नहीं है. नीयत का मतलब यह है कि वे जाति से ऊपर सोच ही नहीं पाते. आज़ादी की लड़ाई से निकलने वालों की एक पीढ़ी थी, जिसमें डॉ. श्रीकृष्ण सिंह वगैरह थे. लेकिन, जिस समय डॉ. श्रीकृष्ण सिंह थे, उस समय भी बिहार में दो ग्रुप थे. एक डॉ. श्रीकृष्ण सिंह जी का ग्रुप था और दूसरा अनुग्रह नारायण सिंह जी का. एक ग्रुप एक जाति का प्रतिनिधित्व करता था, तो दूसरा ग्रुप दूसरी जाति का. चूंकि श्री बाबू आज़ादी की लड़ाई से निकले थे, सो उन्होंने अपने काम में कभी कास्ट लाइन झलकने नहीं दी. ऐसा नहीं है कि इस समस्या से बिहार ऊपर नहीं उठा है. बिहार में जब जेपी का आंदोलन हुआ था, तो लोग कास्ट क्रीड (जाति-पात) सब भूल गए थे. जेपी आंदोलन के सक्रिय सिपाही रहे राम विलास पासवान इस बारे में कहते हैं, तब लोगों के पास एक ही मुद्दा था. लोग कहते थे कि भाई, हम लोग आज़ादी की दूसरी लड़ाई लड़ रहे हैं. पहली बार सड़क पर दलित, अमीर, ग़रीब सब जेपी के नेतृत्व में निकल पड़े थे, लेकिन हम उस ट्रेंड को कायम नहीं रख सके.
लेेकिन जैसे ही आपातकाल खत्म हुआ, दिल्ली में सरकार बनी, जाति-पात का खेल फिर से चलने लगा. आ़िखर ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि जेपी का आंदोलन छात्रों एवं युवाओं तक सीमित नहीं रहा, उसमें राजनीतिक दलों का समावेश हो गया. और, हर राजनीतिक दल किसी न किसी जाति से, संकीर्ण विचारधारा से बंधा हुआ था. तो क्या बिहार में इस जाति प्रथा या जाति से ऊपर उठकर विकास की कोई संभावना है? राम विलास पासवान का मानना है कि बिल्कुल संभावना है. 2005 में नीतीश कुमार की सरकार बनी. लालू यादव से नाराज़ जनता ने नीतीश कुमार की सरकार बना दी. पांच साल तक एनडीए सरकार ने क़ानून व्यवस्था के मसले पर ईमानदारी से काम किया. ज्यों ही लगने लगा कि सड़कों की स्थिति कुछ सुधर गई है, स्कूलों की स्थिति कुछ सुधर गई है, विकास हो रहा है, तो लोग जाति-पात को भूल गए. ज़ाहिर है, पहली बार सरकार में भ्रष्टाचार कम हुआ था. लालू यादव के समय में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच चुका था. नीतीश कुमार के जमाने में भ्रष्टाचार थोड़ा कम हुआ. क़ानून व्यवस्था में थोड़ा सुधार हुआ, तो लोगों को महसूस हुआ कि यह एक बेहतर सरकार है. लोगों को लगा कि नीतीश कुमार की दूसरी बार सरकार बनेगी, तो बिहार जीडीपी में, सब कुछ में आगे हो जाएगा. दूसरी बार जब चुनाव हुआ, तो लोगों ने विशुद्ध रूप से विकास के नाम पर नीतीश कुमार को वोट दिया. यह कोई मामूली बात नहीं है कि वह 243 में से 200 से अधिक सीटें जीते थे. राम विलास पासवान के मुताबिक, दूसरी बार चुने जाने के बाद नीतीश कुमार अहंकार में डूब गए. वह कहते हैं, नीतीश कुमार ने कहा कि हमने नींव डाली है, अब हम महल बनाएंगे. लेकिन, उन्होंने नींव का ही पत्थर उखाड़ना शुरू कर दिया. फिर उसी राह पर बिहार चलने लगा, भ्रष्टाचार की राह पर. जीडीपी के मुद्दे पर लोगों को भरमाने का काम किया गया. मान लीजिए, गुजरात में पहले से सौ किलोमीटर सड़क बनी है और आगे एक किलोमीटर सड़क बनती है, तो 0.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई जीडीपी में. बिहार में जहां एक भी किलोमीटर सड़क नहीं है और एक किलोमीटर सड़क बनती है, तो 100 प्रतिशत की वृद्धि हुई जीडीपी में. इसे लेकर यह दिखाना शुरू कर दिया गया कि हम तो गुजरात से भी आगे चले गए. हमारा 22 प्रतिशत का ग्रोथ है.
बिहार के लोगों को लगा कि नीतीश सरकार ने पांच साल में अच्छा काम किया. उसका नतीजा यह हुआ कि लोग जाति-पात को भूल गए और उन्होंने नीतीश कुमार को दोबारा भारी बहुमत से चुना. इसलिए यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि बिहार की जनता को अगर थोड़ी-बहुत भी उम्मीद की किरण नज़र आती है, तो वह जाति-पात को भूल जाती है. लेकिन, जब दोबारा सरकार बनी, तो क्या हुआ? राम विलास पासवान के मुताबिक, दूसरी बार सरकार बनने के बाद फिर उसी तरह से भ्रष्टाचार शुरू हो गया. कभी बैकवर्ड, तो कभी फॉरवर्ड, तो कभी इस जाति को बढ़ावा दो, तो कभी उस जाति को बढ़ावा दो वाली राजनीति शुरू हो गई. राम विलास पासवान कहते हैं, आज भले ही अनंत सिंह या सुनील पांडेय जेल में बंद हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या 10 सालों से वे क्रिमिनल नहीं थे? 10 सालों से तो वे नीतीश कुमार के साथ ही थे. यदि वे क्रिमिनल हैं भी, तो नीतीश कुमार क्यों पूरे समुदाय को इससे जोड़ते हैं? मानो पूरा का पूरा भूमिहार समाज क्रिमिनल हो गया है. इस तरीके की भाषा का प्रयोग लालू यादव और नीतीश कुमार कर रहे हैं. अब कह रहे हैं कि हम फिर 1990 को दोहराना चाहते हैं.
विपक्ष की राजनीति सत्ता की राजनीति से अलग होती है. विपक्ष का मूल काम होता है सरकार के कृत्यों की आलोचना करना. राम विलास पासवान मानते हैं कि वह शुरू से विपक्ष में रहे हैं और कहते रहे हैं कि नीतीश कुमार के आने से कोई विकास नहीं हुआ. वह कहते हैं कि लॉ एंड ऑर्डर में कोई सुधार नहीं हुआ. नीतीश कुमार ने कुछ जाति विशेष के अपराधियों को जेल में बंद करा दिया. लोगों को लगा कि बहुत काम हो रहा है. यूपीए सरकार के समय केंद्र से बिहार में खूब पैसा गया. उससे सड़क आदि में सुधार होना शुरू हुआ. राम विलास पासवान कहते हैं, लोगों को लगा कि यह आदमी विकास करना चाहता है, विकास हो रहा है. लेकिन जैसे ही वह दोबारा सत्ता में आए, वही ठेकेदारी, वही भ्रष्टाचार. अफसरशाही का नंगा नाच होने लगा. जब नीतीश कुमार गांवों में जाने लगे, तो लोगों ने सवाल पूछना शुरू कर दिया कि आप कहते हो कि उस घर में शादी न करो, जहां शौचालय न हो. इसलिए हमारे यहां शौचालय बनवा दो. पीने के लिए सा़फ पानी नहीं है. नीतीश कुमार ने आशा कर्मचारियों और तीन लाख शिक्षकों को लॉलीपॉप थमा दिया. जब लोगों का विरोध शुरू हुआ, तो खूब विरोध हुआ. यहां तक कि पत्थरबाजी होने लगी. उनके मुताबिक, जब नीतीश कुमार को लगा कि विकास के नाम पर हम आगे नहीं बढ़ सकते, तब वह धीरे-धीरे दलित-महादलित, जाति-पात की राजनीति पर उतर आए. लव-कुश का नारा देने लगे. लव माने कुर्मी और कुश माने कुशवाहा. इसलिए मैं कहता हूं कि बिहार में सुधार हो सकता है, यदि लीडरशिप की नीयत सही हो जाए.
बिहार के तीनों बड़े नेता जेपी आंदोलन से निकले हुए हैं. ये तीनों नेता हैं लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और राम विलास पासवान. राजनीति में किसकी कितनी हैसियत रही, इस बारे में राम विलास पासवान कहते हैं कि नीतीश जी का ज़्यादा रोल कभी नहीं रहा. वह टेक्निकल आदमी थे, इंजीनियर थे. वह मास मूवमेंट में कभी रहे नहीं. मास मूवमेंट में रहते, तो 1977 में क्यों हार जाते या 1980 में क्यों हार जाते? नीतीश का तो उदय ही 1985 के बाद हुआ. राम विलास पासवान मानते हैं कि उनका कद छोटा करने के लिए लालू प्रसाद यादव ने नीतीश कुमार को राजनीति में बढ़ाने का काम किया और वही उन्हें दिल्ली लाए. लेकिन, नीतीश कुमार को राम विलास पासवान उस कैटेगरी में नहीं मानते, जिससे वह उनका कद छोटा कर सकें. राम विलास पासवान इसके लिए उदाहरण भी देते हैं और कहते हैं कि वह 1969 में राजनीति में आए, एमएलए बने. बकौल राम विलास, लालू प्रसाद यादव या नीतीश कुमार को सोशलिस्ट मूवमेंट से कभी कोई मतलब नहीं रहा, वे सोशलिस्ट मूवमेंट में एक दिन भी जेल नहीं गए. हां, शरद यादव जी और केसी त्यागी जी ज़रूर सोशलिस्ट विचारधारा के हैं.
सवाल यह भी है कि राम विलास पासवान लालू प्रसाद यादव से अलग क्यों हुए? जेपी आंदोलन से एक साथ निकले इन दोनों नेताओं की राहें अलग क्यों हो गईं? राम विलास पासवान इसके लिए लालू यादव के व्यवहार को ज़िम्मेदार मानते हैं. वह कहते हैं, लालू जी के डाउनफॉल का मुख्य कारण उनका अहंकार था. जेपी का मूवमेंट मिल जाने के कारण लालू यादव टाइप के आदमी लीडर बन जाते हैं. उनके पास न तो कोई विजन रहा, न कोई कल्पना रही. वह कितने दिन स्कूल-कॉलेज या क्लास में रहते थे या नहीं रहते थे, मैं जानता हूं. 1977 के चुनाव में सबसे ज़्यादा वोटों से मैं जीता था. मुझे याद है कि 1980 में जब विधानसभा चुनाव हुआ, तो लालटेन लेकर दलितों की बस्ती में घूमते थे लालू जी.
यह जानना भी ज़रूरी है कि जनता दल के गठन के समय क्या हुआ? जनता दल बन गया, तो शुरू में देवीलाल जी और वीपी सिंह जी बिल्कुल साथ-साथ थे. देवीलाल जी ने सरकार बनाने में बहुत मदद की थी. राम विलास पासवान का मानना है कि चंद्रशेखर जी दिल से कभी वीपी सिंह के साथ नहीं रहे. 1989 का चुनाव आ गया था और उस समय दो गुट बन गए थे. राम विलास पासवान के मुताबिक, चंद्रशेखर जी, देवीलाल जी और लालू यादव जैसे लोग एक खेमे में आ गए थे और वह खुद वीपी सिंह के साथ थे. जब चुनाव का समय आया, तब रघुनाथ झा पार्टी अध्यक्ष थे बिहार के. चंद्रशेखर जी ने बनाया था. रघुनाथ जी ने क्या किया? राम विलास जी बताते हैं कि रघुनाथ झा और लालू यादव ने मिलकर प्रस्ताव रख दिया पार्लियामेंट्री बोर्ड के सामने कि राम विलास पासवान को हाजीपुर से चुनाव न लड़ाया जाए, दूसरी जगह से लड़ाया जाए, क्योंकि हाजीपुर के लोग उनके ़िखला़फ हैं. फिर सवाल आया कि किसे दिया जाए वहां से टिकट? जवाब मिला कि राम सुंदर दास जी को दिया जाए. राम सुंदर दास जी भी वहां बैठे हुए थे. लेकिन, वीपी सिंह जी ने अंत में टिकट राम विलास पासवान को ही दिया.
इसी दौरान राम विलास पासवान और लालू यादव के बीच मनभेद शुरू हो गया. टिकट मिलने के बाद राम विलास पासवान ने रिकॉर्ड पांच लाख 26 हज़ार वोटों से हाजीपुर से जीत हासिल की. वीपी सिंह जी ने उन्हें मंत्री भी बनाया. 1990 में विधानसभा चुनाव हुआ. उस चुनाव के बाद वीपी सिंह जी ने राम विलास पासवान से पूछा था कि क्या वह बिहार का मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं, लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में ही रहने की बात कहकर मना कर दिया. यह पूछने पर कि फिर किसे बनाया जाए, राम विलास पासवान ने राम सुंदर दास का नाम आगे कर दिया. राम सुंदर दास जीत भी जाते, लेकिन ऐसा नहीं हुआ? इस बारे में राम विलास पासवान बताते हैं कि इसी बीच चंद्रशेखर जी ने एक नया दांव खेला. उन्हें पता था कि ये 11 वोट लालू यादव के नाम पर नहीं मिलने वाले. इसलिए बीच में रघुनाथ झा को खड़ा कर दिया गया. रघुनाथ झा ने 11 वोट झटक लिए और इस वजह से तीन-चार वोटों से लालू जी निकल गए. राम विलास ईमानदारी से यह स्वीकारते हैं कि उस समय पशुपति कुमार पारस या उनके साथ के लोगों ने लालू यादव को मुख्यमंत्री पद के लिए होने वाली वोटिंग में वोट नहीं दिया था. वह कहते हैं, हमने छिपाया भी नहीं, खुलकर खिला़फ में वोट दिया. लालू जी को भी मालूम था और शायद उस बात को न लालू यादव कभी भूल पाए और न हम. हम दिल से कभी उसके बाद नहीं मिल पाए.
हालांकि, चुनाव के समय इन दोनों के बीच दोस्ती हो जाती थी, क्योंकि कहीं न कहीं ये सारे नेता धर्मनिरपेक्षता और जाति के मसले पर कमोबेश एक ही राजनीतिक लाइन पर चलने वाले लोग हैं. अभी बिहार की जो समस्याएं हैं, वे भयावह हैं. जाति वाले मामले पर राम विलास पासवान ज़्यादा चिंतित नहीं दिखते. वह कहते हैं, इस बात से मैं उतना चिंतित नहीं हूं. बिहार में इतना ही होता है कि चुनाव स़िर्फ कास्ट लाइन पर होता है. जो सबसे मूलभूत समस्या है, वह है भयंकर तरीके से पिछड़ापन. नीतीश सरकार की आलोचना करते हुए राम विलास कहते हैं कि नीतीश कुमार को सत्ता में आए दस साल हो गए हैं. वह सुई का कारखाना तक नहीं लगवा सके, लेकिन भाषण में ऐसी बातें होती हैं, मानो बिहार का औद्योगीकरण हो गया हो. बिहार में दो बड़े पुल हैं, उत्तरी बिहार को दक्षिणी बिहार से जोड़ने वाला पटना-हाजीपुर पुल और दूसरा मोकामा का. दोनों पुलों की हालत जर्जर है. अब दस सालों में आप पुल नहीं बना सके. 1200 करोड़ रुपये का बजट है. अब 600 करोड़ रुपये और लग रहे हैं. पटना में हड़ताली चौक पर म्यूजियम बना रहे हैं. हाईकोर्ट ने अभी एक महीने पहले कहा कि यह पैसे का अपव्यय है. शराबबंदी के मसले पर राम विलास का कहना है कि पिछले दस सालों में नीतीश सरकार ने शराब को बढ़ावा दिया, गांव-गांव में शराब की दुकान खुल गई. बच्चों के हाथों में किताब की जगह शराब की बोतल थमा दी गई. अब नीतीश कहते हैं कि अगली बार सरकार में आएंगे, तो शराबबंदी करेंगे. इससे ज़्यादा हास्यास्पद बात क्या होगी?
बकौल राम विलास, पटना में एक भी अच्छा अस्पताल नहीं है और एम्स के 80 प्रतिशत मरीज बिहार से आते हैं. पिछले दस सालों में एक पैसे का निवेश नहीं हुआ. न कहीं स्कूल बढ़िया है, न कहीं कॉलेज बढ़िया है. कटिहार में एक मेडिकल कॉलेज था, उसे बंद करने की कोशिश की गई. राम विलास दूसरे राज्यों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कहीं भी दूसरी जगह चले जाइए, महाराष्ट्र में, कर्नाटक में. हर जगह मेडिकल कॉलेज, इंजीनियरिंग कॉलेज मिल जाएंगे. बिहार में क्या है? बिहार का डेवलपमेंट कैसे होगा? शिक्षा की वही हालत, स्वास्थ्य की वही हालत, पीने का पानी नहीं, ग़रीबी उसी भयंकर तरीके से है. अब चुनाव आया है, तो फिर से जातिवाद शुरू. दरअसल, उन्हें सा़फ दिख रहा है कि लोग विकास के नाम पर तो वोट नहीं देंगे, इसलिए बैकवर्ड-फॉरवर्ड करो. राम विलास कहते हैं कि जो लोग भाजपा पर आरोप लगाते थे कि वह जाति की राजनीति करती है, वही लोग आज खुद जाति के आधार पर रोज सम्मेलन कर रहे हैं और कहते हैं कि जातिगत जनगणना की रिपोर्ट क्यों नहीं जारी हो रही? यदि जातिगत जनगणना की रिपोर्ट जारी हो गई, तो मामला इन्हीं लोगों के विपरीत चला जाएगा.
राम विलास कहते हैं, लालू यादव जितने अहंकारी हैं, उनसे कम अहंकारी नीतीश कुमार नहीं हैं. नीतीश कुमार की हालत गुड़ खाए, गुलगुले से परहेज वाली है. उन्हें लालू यादव के वोट चाहिए, एमवाई (मुस्लिम-यादव) वोट भी चाहिए और अकेले हाथ उठाए हुए फोटो खिंचवा कर प्रचार कर रहे हैं. यह उनका अहंकार ही तो है. भ्रष्टाचार के मसले पर राम विलास लालू यादव और नीतीश कुमार को एक ही कठघरे में खड़ा करते हैं. उनके मुताबिक, लालू यादव को किसी सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं है, उन्हें खुद कोर्ट ने सर्टिफिकेट दे दिया है. जेल से निकले हैं, जमानत पर हैं. नीतीश कुमार के खिला़फ भी कोई कम आरोप नहीं लगे. सीएजी ने जो रिपोर्ट दी थी, उस पर हाईकोर्ट ने कहा था कि सीबीआई जांच होनी चाहिए. राम विलास बिहार में बीडीओ, एसडीओ व कलेक्टर के ट्रांसफर-पोस्टिंग में पैसे के खेल का भी आरोप लगाते हैं. उनके मुताबिक, बिहार में हर चीज में कमीशन तय है. पुल बन नहीं रहा है, पुल गिर रहा है. जातिवाद तो खुलकर जारी है. और जब तक ऐसा रहेगा, तब तक बिहार तरक्की नहीं कर सकेगा.
अब सवाल है कि तब इन दोनों के अलावा बिहार के सामने क्या विकल्प बचता है? राम विलास पासवान के मुताबिक, एक ही विकल्प है, भाजपा. उनका मानना है कि भाजपा में नेता बैठे हुए हैं, नरेंद्र मोदी जी बैठे हुए हैं. वे सब कुछ देख रहे हैं. पासवान कहते हैं कि अभी सरकारें बनी हैं, चाहे फडणवीस की सरकार हो, खट्टर की सरकार हो या झारखंड की. इन सरकारों में भ्रष्टाचार का मुद्दा तो नहीं आया है. बिहार विधानसभा चुनाव में महा-गठबंधन के असर के सवाल पर राम विलास कहते हैं कि ये लोग झारखंड में एक साथ चुनाव लड़े थे, कितनी सीटें जीते वहां से? वही हाल बिहार में होने वाला है. लालू यादव दिन-रात नरेंद्र मोदी-नरेंद्र मोदी करते रहते हैं और जब फोटो खिंचवाने का समय आता है, तो परिवार के साथ अपनी फोटो उनके साथ खिंचवाने में गर्व महसूस करते हैं. सैफई में मुलायम सिंह के यहां उन्होंने कैसे फोटो खिंचवाई?
बिहार की हालत बहुत ही दयनीय है, इसे लेकर राम विलास पासवान एक कहावत सुनाते हैं. वह कहते हैं कि घोड़ा अड़ा क्यों, रोटी जली क्यों और पान सड़ा क्यों? इसका एक ही जवाब है कि उसे पलटा नहीं गया. इसलिए घोड़े की चाल बिगड़ गई, रोटी जल गई और पान सड़ गया. उसे पलटना ज़रूरी है.
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