सुरेश वाडकर

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Sunday, June 7, 2015

आजाद भारत के महान घोटाले भी लोकतंत्र का स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है

आजाद भारत के महान घोटाले भी लोकतंत्र का स्वास्थ्य इस बात पर निर्भर करता है कि उसके तीनों अंगों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संबंध कैसे हैं और इन तीनों में जवाबदेही बची है या नहीं. आज भारत की दुर्दशा भी इन्ही दो कारकों पर आंकी जा सकती है. पिछले साल भारत में भ्रष्टाचार और घोटालों का बोलबाला रहा. ऐसा लगा, जैसे भारत में घोटाले नहीं, घोटालों में भारत है. आम जनता जहां महंगाई से बदहाल हुई जा रही है, वहीं हमारे नेता और सरकारी अफ़सर नियमों को ताक पर रखकर बेशर्मी से जनता का पैसा दबाए जा रहे हैं. देखने में आया कि भारतीय प्रजातंत्र के तीनों अंग आपस में ही लड़ते रहे. लड़ ही नहीं रहे हैं, बल्कि अपने भीतर के ही विरोधाभासों से जंग भी कर रहे हैं. मंत्री प्रधानमंत्री की बात नहीं मानते हैं और सुप्रीमकोर्ट हाईकोर्ट में हो रहे भ्रष्टाचार पर उंगली उठा रहा है. सरकारी अफ़सर घोटालों में लिप्त होने के बावजूद पद छोड़ने को तैयार नहीं हैं. भारत में आज ये सारी घटनाएं एक साथ ऊपरी सतह पर और जनता के सामने आ गई हैं, इसलिए आश्चर्य होता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि घोटाला और अनियमितता कोई नई बात है. इस देश में घोटालों की पूरी श्रृंखला है और वह भी बहुत लंबी. भारत में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां घोटाले नहीं हुए हैं. पहले ये सारे घोटाले जनता की नज़र से या तो बच जाते थे या दबा दिए जाते थे. बात यह भी है कि आपस में ही फूट पड़ने की वजह से राज्य के तीनों तंत्रों में झगड़ा हो गया है और सब एक-दूसरे का गिरेबान पकड़ने में लग गए हैं. अच्छी बात यह है कि इस वजह से जनता को घोटालों के बारे में पता भी चल गया है. आज के भारत में किसी को भी ईमानदार कहना एक ज़ोखिम की बात बन गई है. कल के जो ईमानदार थे, आज उनकी कलई खुल गई है. आज भी मनमोहन सिंह अपने आप को जितना पाक-साफ़ बताएं, लेकिन जनता ने सबसे बड़े घोटाले तो उन्हीं की नाक के नीचे होते देखे हैं. यही हाल शुरू से रहा है. कोई नई बात नहीं है यह. वी के कृष्णमेनन का मुस्तक़बिल इतना ऊंचा था कि खुद नेहरू जी ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था और उन्हें भारत के रचयिताओं में जगह दी. लेकिन भारत का पहला घोटाला भी उन्होंने ही कर डाला था, यह भी सच है. आज़ाद होने के बाद से अब तक हमारे प्रजातंत्र का बुरा हाल हो गया है. जवाबदेही धीरे-धीरे सामाजिक जीवन से ग़ायब होती जा रही है. देशप्रेम की कोई जगह नहीं बची है. देश के नेताओं और सरकारी अफसरों के मूल्य घटते जा रहे हैं और आज स्थिति यह आ गई है कि सभी जनता को ठगने में लगे हुए हैं. आइए, हम आपको बताते हैं कि इस पूरे भ्रष्ट तंत्र की नींव इतिहास में कितनी दूर तक जाती है और भारत के सबसे बड़े घोटालों के इतिहास से आपका परिचय कराते हैं. एक पौधे को वटवृक्ष बनने के लिए भरपूर खाद-पानी की भी ज़रूरत होती है. आज़ादी के ठीक बाद हमारे राजनेताओं ने घोटालों के फलने-फूलने का पूरा इंतजाम कर दिया था. अगर जीप घोटाले के आरोपी वी के कृष्णमेनन को रक्षा मंत्री नहीं बनाया जाता, प्रताप सिंह कैरों को क्लीन चिट नहीं दी जाती और नागरवाला कांड की सच्चाई जनता के बीच आ जाती तथा असली गुनहगारों का पता चल जाता तो शायद फिर कोई प्रभावशाली आदमी घोटाला करने से डरता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नतीजतन, इस देश को जीप से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम तक सैकड़ों घोटाले सहने पड़े. और न जाने कब तक यह सब सहना पड़ेगा. जीप घोटाला आज़ाद हिंदुस्तान का पहला घोटाला था. देश अभी आज़ादी के बाद कश्मीर मसले पर पाकिस्तान से दो-दो हाथ कर चुका था. तब वी के मेनन ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त थे. पाकिस्तानी हमले के बाद भारतीय सेना को क़रीब 4603 जीपों की जरूरत थी. मेनन इस सौदे में कूद पड़े. उनके कहने पर रक्षा मंत्रालय ने उस वक्त 300 पाउंड प्रति जीप के हिसाब से 1500 जीपों का आदेश दे दिया, लेकिन 9 महीने तक जीपें नहीं आईं. 1949 में जाकर महज 155 जीपें मद्रास बंदरगाह पर पहुंचीं. इनमें से ज्यादातर जीपें तय मानक पर खरी नहीं उतरीं. जांच हुई तो मेनन दोषी पाए गए, लेकिन कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं हुआ. आगे चलकर उन्हें रक्षा मंत्री भी बनाया गया. ज़ाहिर है, जीप घोटाले ने भारत को घोटालों के देश में तब्दील करने के लिए बीजारोपण तो कर ही दिया था, क्योंकि इससे यह साबित हुआ कि आप भले ही घोटाले कर लो, लेकिन सत्ता पक्ष का समर्थन आपके पास है तो आपको कुछ नहीं होगा. इसमें बाद में कुछ भी नहीं हुआ. स़िर्फ 1992 से लेकर अब तक घोटालों की वजह से देश की आम जनता का लगभग एक करोड़ करोड़ रुपये (10000000 रुपये) का नुक़सान हो चुका है या कहें, आम आदमी का एक करोड़ करोड़ रुपया लूटा जा चुका है. अब जीप के बाद बारी थी साइकिल की, जो साइकिल इंपोट्‌र्स घोटाले के रूप में सामने आई. 1951 में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के सचिव एस ए वेंकटरमण थे. ग़लत तरीक़े से एक कंपनी को साइकिल आयात करने का कोटा जारी करने का आरोप लगा. इसके बदले उन्होंने रिश्वत भी ली. इस मामले में उन्हें जेल भी भेजा गया. लेकिन ऐसा भी नहीं था कि हर मामले में आरोपी को जेल भेजा ही गया. जैसे सिराजुद्दीन की डायरियों का मामला. साइकिल घोटाले के 6 साल बाद यानी 1956 में यह खबर आई कि उड़ीसा के कुछ नेता व्यापारियों के काम कराने के बदले उनसे दलाली ले रहे थे. जब इस संबंध में छापेमारी हुई. पूर्वी भारत के एक बड़े व्यवसायी मुहम्मद सिराजुद्दीन एंड कंपनी के कोलकाता और उड़ीसा स्थित दफ्तरों में भी छापेमारी हुई. पता चला कि सिराजुद्दीन कई खानों का मालिक है और उसके पास से एक ऐसी डायरी मिली, जिससे साबित हो रहा था कि उसके संबंध कई जाने-माने राजनेताओं से थे. लेकिन इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं हुई. कुछ समय बाद जब यह खबर मीडिया के हाथ लगी और छपने लगी, तब तत्कालीन खान और ईंधन मंत्री केशव देव मालवीय ने यह स्वीकार किया कि उन्होंने उड़ीसा के एक खान मालिक से 10,000 रुपये की दलाली ली थी. बाद में नेहरू के दबाव में मालवीय को इस्ती़फा देना पड़ा. लेकिन इस सबके बीच एक अच्छी बात यह रही कि उस वक्त भी कुछ ऐसे लोग थे, जो भ्रष्टाचार के खिला़फ लिख-बोल सकते थे. उदाहरण के लिए मूंध्रा कांड. 1957 में फिरोज गांधी ने एक सनसनीखेज कांड का खुलासा कर संसद को हिला दिया. उन्होंने बताया कि उद्योगपति हरिदास मूंध्रा की कई कंपनियों को मदद पहुंचाने के लिए उनके शेयर भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) द्वारा 1.25 करोड़ रुपये में खरीदवाए गए. निगम द्वारा शेयरों की बढ़ी हुई कीमत दी गई. जांच हुई तो उस मामले में वित्त मंत्री टी टी कृष्णामाचारी, वित्त सचिव एच एम पटेल और भारतीय जीवन बीमा निगम के अध्यक्ष दोषी पाए गए. मूंध्रा पर 160 करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप था. 180 अपराधों के मामले थे. दबाव बढ़ा तो वित्त मंत्री को पद से हटा दिया गया. मूंध्रा को 22 साल की सजा मिली. कृष्णामाचारी को तो उनके पद से हटा दिया गया, लेकिन प्रताप सिंह कैरों के मामले में सरकार ने ऐसी तेज़ी नहीं दिखाई. 1963 में पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों के खिला़फ कांग्रेसी नेता प्रबोध चंद्र ने आरोपपत्र पेश किया. आरोपपत्र में ये बातें शामिल थीं कि पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए अनाप-शनाप धन-संपत्ति जमा किया. इसमें उनके परिवारीजन शामिल थे. मसलन, अमृतसर कोऑपरेटिव कोल्ड स्टोरेज लि., प्रकाश सिनेमा, कैरों ब्रिक सोसायटी, मुकुट हाउस, नेशनल मोटर्स अमृतसर, नीलम सिनेमा चंडीगढ़, कैपिटल सिनेमा जैसी संपत्तियों पर प्रताप सिंह कैरों के रिश्तेदारों का मालिकाना हक़ था. जब जांच हुई तो रिपोर्ट में कहा गया कि कैरों के पुत्र एवं पत्नी ने पैसा कमाया है. लेकिन इस सब के लिए प्रताप सिंह कैरों को सा़फ-सा़फ बरी कर दिया गया. कैरों तो बच गए, लेकिन एक और मुख्यमंत्री बीजू पटनायक अपनी कुर्सी नहीं बचा पाए. उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक पर यह आरोप लगा कि उन्होंने अपनी ही एक निजी कंपनी कलिंगा ट्यूब्स को एक सरकारी ठेका दिया. इस आरोप के बाद उन्हें इस्ती़फा देने पर मजबूर होना प़डा. इतने सालों में राजनेताओं और घोटालों का मानो एक अनकहा संबंध स्थापित हो गया था और इसमें प्रधानमंत्री तक का नाम सामने आने लगा. जैसे नागरवाला कांड. 1971 की 24 मई को दिल्ली में एसबीआई की संसद मार्ग शाखा के कैशियर के पास एक फोन आया. फोन पर उक्त कैशियर से बांग्लादेश के एक गुप्त मिशन के लिए 60 लाख रुपये की मांग की गई और कहा गया कि इसकी रसीद प्रधानमंत्री कार्यालय से ले जाएं. यह खबर आई कि फोन पर सुनी जाने वाली आवाज़ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पी एन हक्सर की थी. बाद में पता चला कि यह कोई और आदमी था. रुपये लेने वाले और नकली आवाज निकाल कर रुपये की मांग करने वाले व्यक्ति रुस्तम सोहराबनागरवाला को गिरफ्तार कर लिया गया. 1972 में संदेहास्पद हालात में नागरवाला की मृत्यु हो गई. उसकी मौत के साथ ही मामले की असलियत भी जनता के सामने नहीं आ सकी. इस मामले को रफा-दफा कर दिया गया. घोटालों को दबाने का यह काम अब ज़ोर पकड़ने लगा था. आपातकाल के दौरान कर्नाटक के मुख्यमंत्री देवराज अर्स और उनके मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के क़रीब 25 आरोप लगे. उन पर 20 एकड़ जमीन अपने दामाद को आवंटित करने, अपने परिवार को बेंगलुरू की पॉश कालोनी में चार कीमती भूखंड आवंटित करने, अपने भाई को राज्य फिल्मोद्योग का प्रभारी बनाने आदि सगे-संबंधियों को अवैध तरीकों से फायदा पहुंचाने के कई आरोप लगे, लेकिन मामला सामने आने के बाद भी कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं हुआ. 1980 का दशक भी घोटालों के लिहाज़ से 2010 की टक्कर ले रहा था. कुओ तेल कांड. इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन ने 3 लाख टन शोधित तेल और 5 लाख टन हाई स्पीड डीजल की खरीद के लिए टेंडर निकाला. यह टेंडर हरीश जैन को मिला. जैन की पहुंच राजनैतिक गलियारों तक थी. इस सौदे में 9 करोड़ रुपये से ज़्यादा की हेराफेरी का आरोप लगा. जांच भी हुई. लेकिन कहा जाता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय से ही इस मामले से जुड़ी फाइलें गुम हो गईं. तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री पी सी सेठी को इस्ती़फा देना पड़ा. बाद में उन्हें फिर से मंत्री बना दिया गया. 1982 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ए आर अंतुले का नाम एक घोटाले में सामने आया. उन पर आरोप यह था कि उन्होंने इंदिरा गांधी प्रतिभा प्रतिष्ठान, संजय गांधी निराधार योजना, स्वावलंबन योजना आदि ट्रस्ट के लिए पैसा इकट्ठा किया था. जो लोग, खासकर बड़े व्यापारी या मिल मालिक ट्रस्ट को पैसा देते थे, उन्हें सीमेंट का कोटा दिया जाता था. ऐसे लोगों के लिए नियम-क़ानून में ढील दे दी जाती थी. ऐसे लोगों के लिए नियम-क़ानून का कोई मतलब नहीं होता था. इस मामले में मुख्यमंत्री पद से ए आर अंतुले को हटना पड़ा. इसके बाद इस दशक के सबसे हाई प्रोफाइल घोटाले से लोगों का परिचय हुआ. बोफोर्स. 1986 में स्वीडन की ए बी बोफोर्स कंपनी से 155 तोपें खरीदने का सौदा तय किया गया. कहा गया कि इस सौदे को पाने के लिए 64 करोड़ रुपये की दलाली दी गई थी. ओटावियो क्वात्रोची और राजीव गांधी का नाम इसमें सामने आया. सीबीआई को जांच भी सौंपी गई, लेकिन अंतिम परिणाम अब तक सामने नहीं आ सका है. उल्टे सीबीआई ने कोर्ट में अर्जी लगाकर इस मामले को बंद करने की गुहार भी लगाई. हालांकि इसमें रक्षा राज्यमंत्री अरुण सिंह को इस्ती़फा देना पड़ा. यह दशक इसलिए भी चर्चा में रहा कि घोटाला पैदा करने के लिए भी घोटाला किया गया. मसलन, सेंट किट्‌स धोखाधड़ी. इस मामले में वी पी सिंह की साफ छवि को धूमिल करने के लिए नरसिम्हाराव ने एक षड्‌यंत्र रचा. उस वक्त नरसिम्हाराव विदेश मंत्री थे. उन्होंने वी पी सिंह पर अवैध पैसा लेने का आरोप लगवाया. बाद में पता चला कि जिन दस्तावेजों के सहारे वी पी सिंह को फंसाने की कोशिश की गई थी, उन पर अंग्रेजी में हस्ताक्षर थे, जबकि सच्चाई यह थी कि वी पी सिंह किसी भी सरकारी दस्तावेज पर अंग्रेजी में हस्ताक्षर नहीं करते थे. नतीजतन, वी पी सिंह इस मामले में निर्दोष साबित हुए. नब्बे के दशक तक आते-आते घोटालों का स्वरूप भी बदलने लगा. घोटालेबाज़ चारे जैसी चीज से भी पैसा पैदा करने लगे. जैसे बिहार का चारा घोटाला. लालू प्रसाद यादव जब मुख्यमंत्री थे तो यह घोटाला सामने आया. पहली बार लोगों को लगा कि पशुओं को खिलाए जाने वाले चारे में भी घोटाला करके सैकड़ों करोड़ कमाए जा सकते हैं. करीब एक हज़ार करोड़ रुपये के इस घोटाले में राज्य के दो मुख्यमंत्रियों की संलिप्तता की बात सामने आई. उस समय के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और 1980 में मुख्यमंत्री रहे जगन्नाथ मिश्र दोनों के नाम इस घोटाले से प्रमुख रूप से जुड़े. सीबीआई को इस घोटाले की जांच करने का ज़िम्मा दिया गया. 20 साल से ज़्यादा हो गए, लेकिन अभी तक इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया है. नब्बे के दशक में अर्थव्यवस्था तो मुक्त हो गई, लेकिन मुक्त अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए कोई क़ानून नहीं बन सका. नतीजतन, हमें प्रतिभूति जैसे क्षेत्र यानी शेयर मार्केट में भी घोटाला देखने को मिला. यह घोटाला बैंक अफसरों, नेताओं और शेयर दलालों की मिलीभगत का नतीजा था. शातिराना ढंग से ये सारे लोग मिलकर सरकारी नियम-क़ायदों को तोड़कर करोड़ों रुपये की हेराफेरी करते रहे. यह घोटाला 10 हज़ार करोड़ रुपये से भी ज़्यादा का था. इस मामले में सबसे चर्चित नाम रहा शेयर दलाल हर्षद मेहता का. हर्षद ने इस मामले में नरसिम्हाराव पर भी आरोप लगाया था, लेकिन अंत तक असली अपराधियों का नाम सामने नहीं आ सका. हर्षद मेहता की मृत्यु जेल में रहने के दौरान ही हो गई. शीर्ष राजनेताओं की संलिप्तता का एक और नमूना था लक्खू भाई पाठक केस. अचार व्यापारी लक्खू भाई पाठक ने नरसिम्हाराव और चंद्रा स्वामी पर 10 लाख रुपये रिश्वत लेने का आरोप लगाया. लक्खू भाई पाठक इंग्लैंड में रहने वाले भारतीय व्यापारी थे. उन्होंने यह आरोप लगाया कि 100 हजार पाउंड उन्हें बेवक़ूफ बनाकर इन दोनों ने ठग लिए थे. लक्खू भाई पाठक की मृत्यु हो गई और राव एवं चंद्रा स्वामी 2003 में सबूतों के अभाव में बरी हो गए. एक-एक करके मंत्री और नेता घोटाले पर घोटाले करते गए. सुखराम जो कि दूरसंचार मंत्री थे, पर आरोप लगा कि उन्होंने हैदराबाद की एक निजी कंपनी को टेंडर दिलाने में मदद की, जिसकी वजह से सरकार को 1.6 करोड़ रुपये का घाटा हुआ. 2002 में उन्हें इस मामले में जेल भी जाना पड़ा. फिर यूरिया घोटाला हुआ. नेशनल फर्टिलाइजर के एमडी सी एस रामकृष्णन ने कई अन्य व्यापारियों, जो कि नरसिम्हाराव के नजदीकी थे, के साथ मिलकर दो लाख टन यूरिया आयात करने के मामले में सरकार को 133 करोड़ रुपये का चूना लगा दिया. यह यूरिया कभी भारत तक पहुंच ही नहीं पाई. इस मामले में अब तक कुछ भी नहीं हुआ. नित नए तरीके खोजे जाने लगे. इसी क्रम में हवाला भी सामने आया. देश से बाहर धन भेजने की इस कला से आम हिंदुस्तानियों का परिचय इसी घोटाले की वजह से हुआ. 1991 में सीबीआई ने कई हवाला ऑपरेटरों के ठिकानों पर छापे मारे. इस छापे में एस के जैन की डायरी बरामद हुई. इस तरह यह घोटाला 1996 में सामने आया. इस घोटाले में 18 मिलियन डॉलर घूस के रूप में देने का मामला सामने आया, जो कि बड़े-बड़े राजनेताओं को दी गई थी. आरोपियों में से एक लालकृष्ण आडवाणी भी थे, जो उस समय नेता विपक्ष थे. इस घोटाले से पहली बार यह बात सामने आई कि सत्ताशीन ही नहीं, बल्कि विपक्ष के नेता भी चारों ओर से पैसा लूटने में लगे हैं. दिलचस्प बात यह थी कि यह पैसा कश्मीरी आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन को गया था. कई नामों के खुलासे हुए, लेकिन सीबीआई किसी के भी खिला़फ सबूत नहीं जुटा सकी. नरसिम्हाराव के समय झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता शैलेंद्र महतो ने यह खुलासा किया कि उन्हें और उनके तीन सांसद साथियों को 30-30 लाख रुपये दिए गए, ताकि नरसिम्हाराव की सरकार को समर्थन देकर बचाया जा सके. यह घटना 1993 की है. इस मामले में शिबू सोरेन को जेल भी जाना पड़ा. 1994 में खाद्य आपूर्ति मंत्री कल्पनाथ राय ने बा़जार भाव से भी महंगी दर पर चीनी आयात का फैसला लिया. यानी चीनी घोटाला. इस कारण सरकार को 650 करोड़ रुपये का चूना लगा. अंतत: उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा. उन्हें इस मामले में जेल भी जाना पड़ा. बहरहाल, नब्बे के दशक में घोटाले भी अजीबोग़रीब शक्ल लेने लगे. जैसे जूता घोटाला. सोहिन दया नामक एक व्यापारी ने मेट्रो शूज के रफीक तेजानी और मिलानो शूज के किशोर सिगनापुरकर के साथ मिलकर कई सारी फर्जी चमड़ा कोऑपरेटिव सोसाइटियां बनाईं और सरकारी धन लूटा. 1995 में इसका खुलासा हुआ और बहुत सारे सरकारी अफसर, महाराष्ट्र स्टेट फाइनेंस कार्पोरेशन के अफसर, सिटी बैंक, बैंक ऑफ ओमान, देना बैंक आदि भी इस मामले में लिप्त पाए गए. इन सबके खिला़फ आरोपपत्र दाखिल किया गया, लेकिन कोई नतीजा सामने नहीं आ सका. तब तक देश 21वीं सदी में पहुंच चुका था. अब घोटाले कैमरे पर भी होने लगे और सीधे दुनिया ने इसे होते हुए देखा. इसका एक उदाहरण तहलका कांड है. एक मीडिया हाउस तहलका के स्टिंग ऑपरेशन ने यह खुलासा किया कि कैसे कुछ वरिष्ठ नेता रक्षा समझौते में गड़बड़ी करते हैं. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को रिश्वत लेते हुए लोगों ने टेलीविजन और अ़खबारों में देखा. इस घोटाले में तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज और भारतीय नौसेना के पूर्व प्रमुख एडमिरल सुशील कुमार का नाम भी सामने आया. इस मामले में अटल बिहारी वाजपेयी ने जॉर्ज फर्नांडीज का इस्ती़फा मंजूर करने से इंकार कर दिया. हालांकि बाद में जॉर्ज ने इस्ती़फा दे दिया. इन घोटालों से खेल जगत भी नहीं बच सका. साल 2000 का मैच फिक्सिंग याद कीजिए. जेंटलमैन स्पोट्‌र्स यानी क्रिकेट में मैच फिक्सिंग का धब्बा पहली बार भारतीय खिलाड़ियों पर लगा. इसमें प्रमुख रूप से अज़हरुद्दीन और अजय जडेजा का नाम सामने आया. अजय शर्मा और अजहर पर आजीवन प्रतिबंध लगा तो जडेजा और मनोज प्रभाकर पर पांच साल का प्रतिबंध. बराक मिसाइल रक्षा सौदे में भ्रष्टाचार का एक और नमूना बराक मिसाइल की खरीदारी में देखने को मिला. इसे इज़रायल से खरीदा जाना था, जिसकी क़ीमत लगभग 270 मिलियन डॉलर थी. इस सौदे पर डीआरडीपी के तत्कालीन अध्यक्ष ए पी जे अब्दुल कलाम ने भी आपत्ति दर्ज कराई थी. फिर भी यह सौदा हुआ. इस मामले में एफआईआर भी दर्ज हुई. एफआईआर में समता पार्टी के पूर्व कोषाध्यक्ष आर के जैन की गिरफ्तारी भी हुई. जॉर्ज फर्नांडीस, जया जेटली और नौसेना के एक पूर्व अधिकारी सुरेश नंदा के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज हुई. सुरेश नंदा पूर्व नौसेना प्रमुख एस एम नंदा के बेटे हैं. जांच जारी है. अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है. शेयर मार्केट से निकल कर ये घोटाले बैंकिंग सेक्टर में भी घुस गए. यूटीआई घोटाला. 48 हजार करोड़ रुपये का यह घोटाला पूर्व यूटीआई चेयरमैन पी एस सुब्रमण्यम और दो निदेशकों एम एम कपूर और एस के बासु ने मिलकर किया. ये सभी गिरफ्तार हुए, लेकिन सज़ा किसी को नहीं मिली. स्टांप पेपर घोटाला जब सामने आया था, तब इसे सबसे बड़े घोटाले का ताज मिला था. इसके पीछे अब्दुल करीम तेलगी को मास्टर माइंड बताया गया. इस मामले में उच्च पुलिस अधिकारी से लेकर राजनेता तक शामिल थे. तेलगी की गिरफ्तारी तो ज़रूर हुई, लेकिन इस घोटाले के कुछ और अहम खिलाड़ी साफ बच निकलने में अब तक कामयाब हैं. तेल के बदले अनाज. वोल्कर रिपोर्ट के आधार पर यह बात सामने आई कि तत्कालीन विदेश मंत्री नटवर सिंह ने अपने बेटे को तेल का ठेका दिलाने के लिए अपने पद का दुरुपयोग किया. उन्हें इस्ती़फा देना पड़ा, हालांकि सरकार ने उन्हें बिना विभाग का मंत्री बनाए रखा. एक के बाद एक नेता घोटालों के सरताज बनते जा रहे थे. इसी कड़ी में एक और घोटाला सामने आया. ताज कॉरिडोर. 175 करोड़ रुपये के इस घोटाले में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती पर लगातार तलवार लटकी रही और अब भी लटकी हुई है. सीबीआई के पास यह मामला है, लेकिन राजनीतिक वजहों से कभी जांच की गति तेज हो जाती है तो कभी मंद. कुल मिलाकर इस घोटाले के आरोपी अपने अंजाम तक पहुंचेंगे या नहीं, कहना मुश्किल है. अब भला कार्पोरेट जगत इस बहती गंगा में हाथ धोने से पीछे क्यों रहता. अब सामने आया सत्यम घोटाला. कार्पोरेट जगत का शायद सबसे बड़ा घोटाला. 14 हज़ार करोड़ रुपये के इस घोटाले में सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज के मालिक राम लिंग राजू का नाम आया. राजू ने इस्ती़फा दिया और वह अभी भी जेल में हैं. मुकदमा चल रहा है. राजनैतिक घोटालों की कभी न खत्म होने वाली श्रृंखला में एक और नाम शामिल हुआ. मधु कोड़ा का. मुख्यमंत्री रहते हुए कोई अरबों की कमाई कर सकता है, यह साबित किया झारखंड के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा ने. 4 हज़ार करोड़ से भी ज्यादा की काली कमाई की कोड़ा ने. बाद में इन पैसों को विदेश भेजकर जमा किया और विदेशों में निवेश किया. इस मामले में केस दर्ज हुआ. कोड़ा फिलहाल जेल में हैं. जांच चल रही है. अब बात ऐसे घोटालों की भी, जहां महज़ सौ-दो सौ करोड़ का नहीं, बल्कि हज़ारों करोड़ का खेल होता है. जैसे राष्ट्रमंडल खेल घोटाला. हजारों करोड़ रुपये का घोटाला, जिसमें अधिकारी से लेकर नेता तक शामिल थे. सीवीसी ने अपनी जांच में कहा कि अनियमितताएं हुईं. फिलहाल सुरेश कलमाडी को राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया है. सीबीआई जांच कर रही है. कुछ अधिकारियों को गिरफ्तार किया गया है. और अब बात एक ऐसे घोटाले की, जिसका नाम ही आदर्श है. यानी आदर्श घोटाला. मतलब अब घोटाले भी आदर्श होने लगे. आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी (लि.) ने ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से कोलाबा के आवासीय क्षेत्र नेवी नगर और रक्षा प्रतिष्ठान के आसपास इमारत का निर्माण किया. यह योजना कारगिल युद्ध में शहीद हुए लोगों के परिवार वालों के लिए बनाई गई थी, जबकि इसके फ्लैट्‌स 80 फीसदी असैनिक नागरिकों को आवंटित किए गए. इस कारनामे में सेना के शीर्ष अधिकारी तक शामिल थे. सेना के दोषी अधिकारियों के खिला़फ कार्रवाई होनी बाकी है. मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण से इस्ती़फा ले लिया गया. बहरहाल, घोटालों की यह सूची अभी और लंबी है. जिसकी बात फिर कभी, लेकिन इन घोटालों को देखने-पढ़ने के बाद यह सवाल भी उठता है कि आ़िखर इस कैंसर को खत्म करने के लिए क्या कोई क़दम भी उठाया गया. भारत में समय-समय पर भ्रष्टाचार को रोकने के लिए नियम और संस्थाएं बनती आई हैं. इसी वजह से सीबीआई और सीवीसी का गठन हुआ, लेकिन ये दोनों ही अपने मक़सद में नाकाम हैं. अलग-अलग कारणों से. आज तक के इतिहास में सीबीआई को अलग-अलग राजनैतिक पार्टियों ने बस इधर-उधर अपने विरोधियों के पीछे ही दौड़ाया है. ऐसा आरोप शुरू से सीबीआई पर विपक्षी लगाते रहे हैं. और सीवीसी को कोई अधिकार ही नहीं है. स्थिति यह हो गई है कि देश के प्रधानमंत्री इतने मजबूर और कमज़ोर हो गए हैं कि वह अपने ही मंत्रिमंडल के लोगों पर नकेल नहीं कस पा रहे. सरकार बचाना साख बचाने से ऊपर हो गया है. प्रधानमंत्री संसद से लेकर मीडिया तक कठघरे में खड़े किए गए, लेकिन फिर भी सरकार को सुध नहीं आई. सीवीसी पी जे थॉमस ने तो हद कर दी, लेकिन सरकार फिर भी कुछ नहीं कर पाई. आ़खिर क्यों? कहां गए लाल बहादुर शास्त्री और वी पी सिंह जैसे नेता, जो जनता के हित में अपनी कुर्सी तक छोड़ देते थे? कहां गए वे दिन, जब राजनीति घोटालेबाज़ों का गढ़ न होकर सम्मानित लोगों के लिए जनता की सेवा करने का एक ज़रिया था? - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2011/02/aajad-bharat-ke-mahan-ghotale.html#sthash.ZGw8gFIh.dpuf ये थे ब़डे घोटाले… 1948 जीप घोटाला, आज़ाद भारत का पहला घोटाला 1951 साइकिल घोटाला, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के सचिव फंसे 1956 बीएचयू फंड घोटाला, आज़ाद भारत का पहला शैक्षणिक घोटाला 1958 मूंध्रा घोटाला, फिरोज गांधी ने किया खुलासा, फंसे वित्त मंत्री 1963 आज़ाद भारत में मुख्यमंत्री पद के दुरुपयोग का पहला मामला, आरोप प्रताप सिंह कैरों (पंजाब) पर 1965 उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक पर अपनी ही कंपनी को फायदा पहुंचाने का आरोप 1971 नागरवाला कांड. दिल्ली के पार्लियामेंट स्ट्रीट स्थित स्टेट बैंक शाखा से लाखों रुपये मांगने का मामला, इसमें इंदिरा गांधी का नाम भी उछला 1976 कुओ तेल घोटाला. आईओसी ने हांगकांग की फर्ज़ी कंपनी के साथ डील की, बड़े स्तर पर घूस का लेनदेन 1995 जूता घोटाला. जूता व्यापारियों ने फर्ज़ी सोसाइटी बनाकर सरकार को चूना लगाया - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2011/02/aajad-bharat-ke-mahan-ghotale.html#sthash.ZGw8gFIh.dpuf

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