सुरेश वाडकर

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Thursday, August 27, 2015

दलितों के सच्चे मसीहा थे ललई सिंह यादव and ललई सिंह यादव जीवन परिचय

दलितों के सच्चे मसीहा थे ललई सिंह यादव

सच अक्सर कड़वा लगता है। इसी लिए सच बोलने वाले भी अप्रिय लगते हैं। सच बोलने वालों को इतिहास के पन्नों में दबाने का प्रयास किया जाता है, पर सच बोलने का सबसे बड़ा लाभ यही है कि वह खुद पहचान कराता है और घोर अंधेरे में भी चमकते तारे की तरह दमका देता है। सच बोलने वाले से लोग भले ही घृणा करें, पर उसके तेज के सामने झुकना ही पड़ता है। इतिहास के पन्नों पर जमी धूल के नीचेे ऐसे ही एक तेजस्वी तारे ललई सिंह यादव का नाम दबा है।
ललई सिंह यादव ऐसे योद्धा का नाम है, जिसने शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद की और उपेक्षितों को उनका हक दिलाने के लिए जीवन समर्पित कर दिया। जिला कानपुर के गांव कठारा रेलवे स्टेशन झींझग के रहने बाले गज्जू सिंह यादव और मूला देवी के घर 1 सिंतबर 1911 ई. को जन्मे ललई सिंह यादव पर अपने पिता का पूरा प्रभाव था। आर्य समाजी पिता गज्जू सिंह गलत बात बर्दास्त नहीं करते थे। सही बात के पक्ष में किसी का भी विरोध करने लगते थे। उस दौर में उस गांव में परंपरा थी कि दलित के घर बेटा होने पर ढोलक नहीं बजाने दी जाती थी। इस पुरानी परंपरा को गज्जू सिंह ने ही तुड़वाया। ऐसे पिता के बेटे ललई सिंह यादव ने सन 1926 में हिंदी व सन 1928 में उर्दू भाषा से मिडिल तक पढ़ाई की। पढ़ाई के बाद 1929 में वह वन विभाग में गार्ड की नौकरी करने लगे। गलत बात का तत्काल विरोध कर देते थे। जिससे समकक्ष सहकर्मियों में तो लोकप्रिय हो गये पर सजा के तौर पर कई बार निलंबित होना पड़ा। इस बीच 1931 में कानपुर के गांव जौला का पुरवा रूरा निवासी सरदार सिंह यादव की पुत्री दुलारी देवी से उनका विवाह हो गया। विवाह के बाद उन्होंने 1933 में सशस्त्र पुलिस बल की नौकरी के लिए आवेदन किया तो चुन लिये गये। सिपाहियों की हालत उनसे नहीं देखी गयी और यहां भी उन्होंने पुलिस के रहन-सहन को लेकर आवाज बुलंद करनी शुरु कर दी। विद्रोह के चलते 1935 में ललई सिंह यादव को बर्खास्त कर दिया गया। बाद में अपील पर सुनवाई हुई और एचजी वाटर फील्ड डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस ने बहाल कर दिये। 1936 में चीफ प्रोसीक्यूटिव इंस्पेक्टर पुलिस हाईकोर्ट एंड अपील डिपार्टमेंट में उनका तबादला कर दिया गया। एक वर्ष बाद वह हेड कांस्टेबिल के पद पर प्रोन्नत कर दिये गये। उपेक्षित व शोषित लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए कई साल बीत गये। 1942 में कांग्रेस का करो या मरो आंदोलन जोर पकड़ रहा था। उसी दौरान 1946 में मध्य प्रदेश में कांग्रेसी नेता भीखम चंद की अध्यक्षता में बैठक हुई। जिसमें नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एवं आर्मी संघ की स्थापना की गयी और ललई सिंह यादव सर्वसम्मति से अध्यक्ष चुन लिये गये। वह पुलिस व आर्मी के जवानों को सुविधायें देने की लड़ाई लडऩे लगे तभी उन्हें साथियों के साथ जेल भेज दिया गया। पर ललई सिंह यादव ने जेल में भी आंदोलन छेड़ दिया और कैदियों की दशा को लेकर जंग शुरु कर दी। इस बीच 1925 में उनकी माता मूला देवी, 1939 में पत्नी दुलारी देवी, 1946 में बहिन शकुंतला और 1953 में पिता गज्जू सिंह का निधन हो गया। जिससे ललई सिंह यादव टूट गये और उनके अंदर सन्यासी जैसे भाव पैदा हो गये। सेवानिवृत्ति के बाद सामाजिक एवं धार्मिक कार्याे में वह बढ़-चढ़ कर रुचि लेने लगे। ललई सिंह यादव ने सामाजिक व धार्मिक असमानता को लेकर जंग शुुरु कर दी। स्पष्टवादी, निर्भीक और कडक़ती आवाज से प्रभावित होकर आरपीआई के नेता कन्नौजी लाल ने उन्हें पार्टी में आने का निमंत्रण दिया तो उन्होंने पार्टी की सदस्यता ले ली। वह बौद्ध धर्म में जाने के इच्छुक थे पर उनका प्रण था कि जिस गुरु से बाबा साहब अंबेडकर ने दीक्षा ली है उसी गुरु से वह दीक्षा लेंगे। उनके इस प्रण के चलते ही दीक्षा कार्यक्रम काफी दिनों तक टलता रहा। 21 जुलाई 1967 को उन्होंने कुशीनगर जाकर भदन्त चन्द्रमणि महास्थिविर से दीक्षा लेकर  बौद्ध धर्म भी स्वीकार कर लिया। 1964-65 में आरपीआई विखरने लगी तो उन्होंने पार्टी छोड़ दी पर वह उपेक्षित वर्ग की आवाज बुलंद करने में जुटे रहे। इसी दौर में ब्राहमणवाद के घोर विद्रोही के रूप में रामास्वामी पेरियार ने दक्षिण भारत से आवाज बुलंद कर रखी थी। उनके द्वारा लिखित द रामायन-ए ट्रू रीडिंग की बहुत चर्चा हो रही थी। ललई सिंह यादव रामास्वामी पेरियार के सपंर्क में आये और उनकी रामायण का हिंदी अनुवाद करने का आग्रह किया। अनुमति मिलते ही उन्होंने सच्ची रामायण नाम से हिंदी संस्करण निकाल दिया। इस रामायण के छपते ही हिंदू समुदाय, खास कर ब्राहमणों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की तो प्रदेश सरकार ने इस रामायण पर प्रतिबंध लगाते हुए रामायण की प्रतियां जब्त करा लीं। ललई सिंह यायव ने अदालत की शरण ली। हाईकोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट से ललई सिंह यादव की ही जीत हुई। उनकी सच्ची रामायण को प्रतिंबध मुक्त कर दिया गया। इस रामायण में भगवान श्रीराम को लेकर आपत्तिजनक बातें कही गयी हैं। उन्हें शूद्रों का द्रोही करार देते हुए दक्षिण भारतीयों का भी दुश्मन बताया गया है। इसी तरह उनकी किताब सच्ची रामायण की चाभी को भी प्रतिबंधित कर दिया गया पर अदालत से ललई सिंह यादव ही जीते। उन्होंने शोषितों पर धार्मिक डकैती, शोषितों पर राजनीतिक डकैती, अंगुलिमाल नाटक, संत माया बलिदान नाटक, शम्बूक बध नाटक, एकलव्य नाटक, नाग यज्ञ नाटक व सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो जैसी क्रांतिकारी किताबों की रचना की। 24 दिसंबर 1983 ई. को रामास्वामी पेरियार का निधन हो गया। ललई सिंह यादव शोक सभा में पहुंचे तो चर्चा के बाद विचार हुआ कि हमारा अगला पेरियार कौन?... भीड़ से आवाज आयी ललई सिंह यादव, तो ललई सिंह यादव पूरी तरह पेरियार के कार्य को ही आगे बढ़ाने लगे। ललई सिंह यादव हिंदू धर्म को उधार का धर्म और बौद्ध धर्म को नकद का धर्म बताते थे। उन्होंने बौद्ध धर्म को नकद का धर्म बता कर काफी चर्चित किया। तर्क देते हुए कहते थे कि विश्व के सभी देशों का कानून बौद्ध धर्म पर आधारित हैं। इस लिए सच्चा धर्म बौद्ध धर्म ही है। वे कहते थे कि आज अच्छे कार्य करो तो अगले जन्म में बेहतर परिणाम मिलेंगे पर बौद्ध धर्म में अच्छे काम करो और तत्काल अच्छे परिणाम भी ले लो। उनकी भाषा में जा हाथ देब और वा हाथ लेब। ललई सिंह यादव सिर्फ उपदेश ही नहीं देते थे। वह वैरागी भाव में निर्भीक और निडरता के साथ अपने शुभचिंतकों पर भी कटाक्ष करते थे। आगरा में एक सम्मेलन के दौरान उन्होंने आयोजकों और सम्मेलन में आये लोगों को ही डांटना शुरु कर दिया। बोले-मेरे पास जो लोग मंच पर बैठे हैं एवं जो लोग सामने बैठे हैं वह सब सहायताइष्ट, वजीफाइष्ट और रिजर्वेशनाइष्ट हैं, आप में से कोई भी बौद्धिष्ट व अम्बेडकराइष्ट नहीं है। बौद्ध धर्म के विद्धानों ने विरोध किया तो बोले-जब तक आप बौद्धों में रोटी-बेटी का सम्बंध नहीं बनायेंगे और हिंदू रीति-रिवाजों और त्योहारों को मनाना नहीं छोड़ेंगे तब तक तक आपका बौद्ध होना सिर्फ ढोंग ही है। 1987 में अपनी समस्त संपत्ति कानपुर के अशोका पुस्तकालय को दान दे दी। सामाजिक परिवर्तन का यह साहसी योद्धा 7 फरवरी 1993 को शरीर छोड़ गया।
ललई सिंह यादव के उक्त संक्षिप्त जीवन परिचय पर ही अगर गंभीरता और ईमानदारी से गौर किया जाये तो अहसास होगा कि ललई सिंह यादव सामान्य नहीं बल्कि असामान्य व्यक्ति या महापुरुष थे। उन्होंने अपना जीवन, धन-संपत्ति या यूं कहें कि सब कुछ समाज सेवा में ही लगा दिया। पूरा जीवन शोषितों और उपेक्षितों के उत्थान में लगा दिया। ऐसे ललई सिंह यादव के साथ आज उपेक्षा ही की जा रही है। ललई सिंह यादव के नाम में ही यादव जातिसूचक शब्द लगा है जिससे जाति बताने की जरूरत नहीं है। पर अपरोक्ष रूप से यादवों एवं परोक्ष रूप से पिछड़ों की राजनीति करने बाले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव या भाजपा से विद्रोह करने के बाद खुद को कभी हिंदुओं का तो कभी पिछड़ों का नेता बताने बाले कल्याण सिंह के मुंह से शायद ही किसी ने ललई सिंह यादव का नाम सुना होगा। इनके शासनकाल में भी ललई सिंह यादव को विशेष सम्मान नहीं दिया गया। दलितों की हितैषी होने का दावा करने बाली कांग्रेस पार्टी और उसके नेता कभी ललई सिंह यादव का नाम नहीं लेते। इसी तरह जातियों की जगह सिर्फ हिंदुत्व की बात करने बाली भाजपा ने भी ललई सिंह यादव को कभी महापुरुष नहीं माना। वर्तमान में उत्तर प्रदेश में उपेक्षित, शोषित और दलित वर्ग की हिमायती कही जाने बाली बहुजन समाज पार्टी की मायावती के नेतृत्व में सरकार है पर ललई सिंह यादव का नाम आज भी अपने स्थान को तरस रहा है हालांकि ललई सिंह यादव जैसे योद्धा के लिए किसी स्थान या सम्मान की जरूरत नहीं है क्यों कि ललई सिंह यादव तो खुद एक सम्मान का नाम है।
यादव जाति में जन्म होने के कारण ललई सिंह यादव को दलित वर्ग ज्यादा पसंद नहीं करता। भले ही यादव या पिछड़ों में पैदा हुए पर ललई सिंह यादव ने उपेक्षित, शोषित और दलितों के न्याय व सम्मान की आवाज उठायी, इस लिए पिछड़े वर्ग के नेता पसंद नहीं करते। सवर्ण तो न पहले पसंद करते थे और न आज करेंगे। पर किसी के पसंद करने या न करने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्यों कि ललई सिंह यादव के कार्यों ने उन्हें जाति-धर्म से ऊपर उठा दिया है। इस लिए वह हमेशा याद रखे जायेंगे। 





ललई सिंह यादव जीवन परिचय
महाप्राण कर्मवीर पैरियार ललई सिंह यादव का जन्म एक सितम्बर 1911 को ग्राम कठारा रेलवे स्टेशन-झींझक, जिला कानपुर देहात के एक समाज सुधारक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था। पिता चै. गुज्जू सिंह यादव एक कर्मठ आर्य समाजी थे। इनकी माता श्रीमती मूलादेवी, उस क्षेत्र के जनप्रिय नेता चै. साधौ सिंह यादव निवासी ग्रा. मकर दादुर रेलवे स्टेशन रूरा, जिला कानपुर की साध्वी पुत्री थी। इनके मामा चै. नारायण सिंह यादव धार्मिक और समाज सेवी कृषक थे। पुराने धार्मिक होने पर भी यह परिवार अंधविश्वास रूढि़यों के पीछे दौड़ने वाला नहीं था।
ललईसिंह यादव ने सन् 1928 में हिन्दी के साथ उर्दू लेकर मिडिल पास किया। सन् 1929 से 1931 तक फाॅरेस्ट गार्ड रहे। 1931 में ही इनका विवाह श्रीमती दुलारी देवी पुत्री चै. सरदार सिंह यादव ग्रा. जरैला निकट रेलवे स्टेशन रूरा जिला कानपुर के साथ हुआ। 1933 में शशस्त्र पुलिस कम्पनी जिला मुरैना (म.प्र.) में कान्स्टेबिल पद पर भर्ती हुए। नौकरी से समय बचा कर विभिन्न शिक्षायें प्राप्त की।
सन् 1946 ईस्वी में नान गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ ग्वालियर कायम कर के उसके अध्यक्ष चुने गए। ‘सोल्जर आॅफ दी वार’ ढंग पर हिन्दी में ‘‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जिसने कर्मचारियों को क्रांति के पथ पर विशेष अग्रसर किया। इन्होंने आजाद हिन्द फौज की तरह ग्वालियर राज्य की आजादी के लिए जनता तथा सरकारी मुलाजिमान को संगठित करके पुलिस और फौज में हड़ताल कराई जवानों से कहा कि
बलिदान न सिंह का होते सुना,
बकरे बलि बेदी पर लाए गये।
विषधारी को दूध पिलाया गया,
केंचुए कटिया में फंसाए गये।
न काटे टेढ़े पादप गये,
सीधों पर आरे चलाए गये।
बलवान का बाल न बांका भया
बलहीन सदा तड़पाये गये।
हमें रोटी कपड़ा मकान चाहिए,

दिनांक 29.03.47 ईस्वी को ग्वालियर स्टेट्स स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में पुलिस व आर्मी में हड़ताल कराने के आरोप धारा 131 भारतीय दण्ड विधान (सैनिक विद्रोह) के अंतर्गत साथियों सहित राज-बन्दी बने। दिनांक 06.11.1947 ईस्वी को स्पेशल क्रिमिनल सेशन जज ग्वालियर ने 5 वर्ष स-श्रम कारावास तथा पाँच रूपये अर्थ दण्ड का सर्वाधिक दण्ड अध्यक्ष हाई कमाण्डर ग्वालियर नेशनल आर्मी होने के कारण दी। दिनांक 12.01.1948 ईस्वी को सिविल साथियों सहित बंधन मुक्त हुये।
उसी समय यह स्वाध्याय में जुटे गये। एक के बाद एक इन्होंने श्रृति स्मृति, पुराण और विविध रामायणें भी पढ़ी। हिन्दू शास्त्रों में व्याप्त घोर अंधविश्वास, विश्वासघात और पाखण्ड से वह तिलमिला उठे। स्थान-स्थान पर ब्राह्मण महिमा का बखान तथा दबे पिछड़े शोषित समाज की मानसिक दासता के षड़यन्त्र से वह व्यथित हो उठे। ऐसी स्थिति में इन्होंने यह धर्म छोड़ने का मन भी बना लिया। अब वह इस निष्कर्ष पर पहुंच गये थे कि समाज के ठेकेदारों द्वारा जानबूझ कर सोची समझी चाल और षड़यन्त्र से शूद्रों के दो वर्ग बना दिये गये है। एक सछूत-शूद्र, दूसरा अछूत-शूद्र, शूद्र तो शूद्र ही है। चाहे कितना सम्पन्न ही क्यों न हो।
उनका कहना था कि सामाजिक विषमता का मूल, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था, श्रृति, स्मृति और पुराणों से ही पोषित है। सामाजिक विषमता का विनाश सामाजिक सुधार से नहीं अपितु इस व्यवस्था से अलगाव में ही समाहित है। अब तक इन्हें यह स्पष्ट हो गया था कि विचारों के प्रचार प्रसार का सबसे सबल माध्यम लघु साहित्य ही है। इन्होंने यह कार्य अपने हांथों में लिया सन् 1925 में इनकी माताश्री, 1939 में पत्नी, 1946 में पुत्री शकुन्तला (11 वर्ष) और सन् 1953 में पिता श्री चार महाभूतों ने विलीन हो गये। अपने पिता जी के इकलौते पुत्र थे। पहली स्त्री के मरने के बाद दूसरा विवाह कर सकते थे। किन्तु क्रान्तिकारी विचारधारा होने के कारण इन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया और कहा कि अगली शादी स्वतन्त्रता की लड़ाई में बाधक होगी।

साहित्य प्रकाशन की ओर भी इनका विशेष ध्यान गया। दक्षिण भारत के महान क्रान्तिकारी पैरियार ई. व्ही. रामस्वामी नायकर के उस समय उत्तर भारत में कई दौरे हुए। वह इनके सम्पर्क में आये। जब पैरियार रामास्वामी नायकर से सम्पर्क हुआ तो इन्होंने उनके द्वारा लिखित ‘‘रामायण ए टू रीडि़ंग’’ (अंग्रेजी में) में विशेष अभिरूचि दिखाई। साथ ही दोनों में इस पुस्तक के प्रचार प्रसार की, सम्पूर्ण भारत विशेषकर उत्तर भारत में लाने पर भी विशेष चर्चा हुई। उत्तर भारत में इस पुस्तक के हिन्दी में प्रकाशन की अनुमति पैरियार रामास्वामी नायकर ने ललईसिंह यादव को सन् 01-07-1968 को दे दी।
इस पुस्तक सच्ची रामायण के हिन्दी में 01-07-1969 को प्रकाशन से सम्पूर्ण उत्तर पूर्व तथा पश्चिम् भारत में एक तहलका सा मच गया। पुस्तक प्रकाशन को अभी एक वर्ष ही बीत पाया था कि उ.प्र. सरकार द्वारा 08-12-69 को पुस्तक जब्ती का आदेश प्रसारित हो गया कि यह पुस्तक भारत के कुछ नागरिक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को जानबूझकर चोट पहुंचाने तथा उनके धर्म एवं धार्मिक मान्यताओं का अपमान करने के लक्ष्य से लिखी गयी है। उपरोक्त आज्ञा के विरूद्ध प्रकाशक ललई सिंह यादव ने हाई कोर्ट आफ जुडीकेचर इलाहाबाद में क्रमिनल मिसलेनियस एप्लीकेशन 28-02-70 को प्रस्तुत की। माननीय तीन जजों की स्पेशल फुल बैंच इस केस के सुनने के लिए बनाई। अपीलांट (ललईसिंह यादव) की ओर से निःशुल्क एडवोकेट श्री बनवारी लाल यादव और सरकार की ओर से गवर्नमेन्ट एडवोकेट तथा उनके सहयोगी श्री पी.सी. चतुर्वेदी एडवोकेट व श्री आसिफ अंसारी एडवोकेट की बहस दिनांक 26, 27 व 28 अक्टूबर 1970 को लगातार तीन दिन सुनी। दिनांक 19-01-71 को माननीय जस्टिस श्री ए. के. कीर्ति, जस्टिस के. एन. श्रीवास्तव तथा जस्टिस हरी स्वरूप ने बहुमत का निर्णय दिया कि -
1. गवर्नमेन्ट आॅफ उ.प्र. की पुस्तक ‘सच्ची रामायण’ की जप्ती की आज्ञा निरस्त की जाती है।
2. जप्तशुदा पुस्तकें ‘सच्ची रामायण’ अपीलांट ललईसिंह यादव को वापिस दी जाये।
3. गर्वन्र्मेन्ट आॅफ उ.प्र. की ओर से अपीलांट ललई सिंह यादव को तीन सौ रूपये खर्चे के दिलावें जावें।
ललईसिंह यादव द्वारा प्रकाशित ‘सच्ची रामायण’ का प्रकरण अभी चल ही रहा था कि उ.प्र. सरकारी की 10 मार्च 1970 की स्पेशल आज्ञा द्वारा सम्मान के लिए धर्म परिवर्तन करें नामक पुस्तक जिसमें डाॅ. अम्बेडकर के कुछ भाषण थे तथा जाति भेद का उच्छेद नामक पुस्तक 12 सितम्बर 1970 को चै. चरण सिंह की सरकार द्वारा जब्त कर ली गयी। इसके लिए भी ललई सिंह यादव ने श्री बनवारी लाल यादव एडवोकेट, के सहयोग से मुकदमें की पैरवी की। मुकदमें की जीत से ही 14 मई 1971 को उ.प्र. सरकार की इन पुस्तकों की जब्ती की कार्यवाही निरस्त कराई गयी और तभी उपरोक्त पुस्तके जनता को भी सुलभ हो सकी। इसी प्रकार ललई सिंह यादव द्वारा लिखित पुस्तक ‘आर्यो का नैतिक पोल प्रकाश’ के विरूद्ध 1973 में मुकदमा चला दिया। यह मुकदमा उनके जीवन पर्यन्त चलता रहा।
हाई कोर्ट में हारने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में अपील दायर कर दी वहां भी अपीलांट उत्तर प्रदेश सरकार क्रिमिनल मिसलेनियस अपील नम्बर 291/1971 ई. निर्णय सुप्रीम कोर्ट आॅफ इण्डिया, नई दिल्ली दि. 16-9-1976 ई. के अनुसार अपीलांट की हार हुई अर्थात् रिस्पांडेण्ट श्री ललई सिंह यादव की जीत हुई। (सच्ची रामायण की जीत हुई) फुलबैंच में माननीय सर्वश्री जस्टिस पी. एन. भगवती जस्टिस वी. आर. कृष्णा अय्यर तथा जस्टिस मुर्तजा फाजिल अली थे।
चै. ललईसिंह, पैरियार ललई सिंह बन गये
महान क्रान्तिकारी पैरियार ई. व्ही. रामास्वामी नायकर जो गड़रिया (पाल-बघेल) जाति के थे, के संघर्षमय जीवन का लम्बा इतिहास है। 20 दिसम्बर 1973 की सुबह चार महाभूतों में समाहित हो गये। इनके जीवन काल से ही इनका जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाने लगा था इनकी मृत्यु के पश्चात् एक विशाल सभा में चै. ललईसिंह यादव को भी भाषण के लिए बुलाया गया। निर्वाण प्राप्त रामास्वामी नायकर की श्रद्धांजलि सभा में दिये गये इनके भाषण पर दक्षिण भारतीय मुग्ध हो गये। इनके भाषण की समाप्ति पर तीन नारे लगाये गये अब हमारा अगला पैरियार-इसी पर आवाज आई पैरियार ललई सिंह, पैरियार ललई सिंह।
इस घटना के बाद से ही इनके नाम के पूर्व पैरियार शब्द का शुभारम्भ हुआ। दक्षिण भारत में पैरियार शब्द जाति वादी नहीं अपितु स्वच्छ निष्पक्ष-निर्भीक अथवा सागर के अर्थों में प्रयोग किया जाने वाला सम्मान सूचक शब्द है। साहित्य प्रकाशन के लिए उन्होंने एक के बाद एक तीन प्रेस खरीदे। शोषित पिछड़े समाज में स्वाभिमान व सम्मान को जगाने तथा उनमें व्याप्त अज्ञान, अंधविश्वास, जातिवाद तथा ब्राह्मणवादी परम्पराओं को ध्वस्त करने के उद्देश्य से वह लघु साहित्य के प्रकाशन की धुन में अपनी उनसठ बीघे सरसब्ज-जमीन कौडि़यों के भाव बेच प्रकाशन के कार्य में आजीवन जुटे रहे। जातिवाद का अन्तिम संस्कार
unity of obc - जागो ओबीसी जागो

 

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