सुरेश वाडकर

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Tuesday, September 15, 2015

नेतृत्व मिले तो

नेतृत्व मिले तो


हम फिर एक होंगे
-इन्द्रेश कुमार
अ.भा. सह सम्पर्क प्रमुख, रा.स्व.संघ
जल और थल में वर्गीकरण के आधार पर पृथ्वी पर सात द्वीप एवं सात ही महासमुद्र माने जाते हैं। इनमें से हम प्राचीन जम्बूद्वीप, जिसे आज एशिया उपमहाद्वीप कहते हैं, तथा इन्दु सरोवरम्, जिसे आज हिन्द महासागर कहते हैं, के निवासी हैं। इस जम्बूद्वीप (एशिया) के लगभग मध्य में हिमालय पर्वत स्थित है। हिमालय पर्वत में विश्व की सर्वाधिक ऊंची चोटी सागरमाथा है, जिसे 1865 में अंग्रेज शासकों ने एवरेस्ट नाम देकर इसकी प्राचीनता व पहचान को बदलने का कूटनीतिक षड्यन्त्र रचा था।
हम पृथ्वी पर जिस भू-भाग अर्थात् राष्ट्र के निवासी हैं उस भू-भाग का वर्णन अग्नि, वायु एवं विष्णु पुराण में लगभग समानार्थी श्लोक के रूप में है :-
उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।
अर्थात् हिन्द महासागर के उत्तर में तथा हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो भू-भाग है उसे भारत कहते हैं। वहां के समाज को भारती या भारतीय के नाम से पहचानते हैं।
भारत के निवासियों को पिछले सैकड़ों-हजारों वर्षों से हिन्दू के रूप में पहचाना जाता है। और हिन्दुओं के देश को हिन्दुस्थान कहते हैं। विश्व के अनेक देश इसे हिन्द व नागरिकों को हिन्दी भी कहते हैं। वृहस्पति आगम में कहा गया है:
हिमालय समारभ्य यावद् इन्दु सरोवरम्।
तं देव निर्मितं देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।
अर्थात् हिमालय से लेकर इन्दु (हिन्द) महासागर तक देव पुरुषों द्वारा निर्मित इस भूगोल को हिन्दुस्थान कहते हैं।
भारतीय समाज में प्रचलित एक परम्परा रही है, जिसमें किसी भी शुभ कार्य पर संकल्प पढ़ा जाता है। संकल्प में काल की गणना एवं भूखण्ड का विस्तृत वर्णन करते हुए संकल्पकर्ता की पहचान अंकित करने की परम्परा है। परन्तु जब संकल्प के श्लोकों की गहराई में जाएं और भूगोल की पुस्तक का अध्ययन करें तो देखेंगे कि श्लोक में पूर्व व पश्चिम दिशा का वर्णन है। जब विश्व (पृथ्वी) का मानचित्र आंखों के सामने आता है तो पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है कि विश्व के भूगोल ग्रन्थों के अनुसार हिमालय के मध्य स्थल "कैलास-मानसरोवर" से पूर्व की ओर जाएं तो वर्तमान का इंडोनेशिया और पश्चिम की ओर जायें तो वर्तमान में ईरान देश का आर्यना प्रदेश हिमालय का अंतिम छोर है। हिमालय 5000 पर्वत श्रृंखलाओं तथा 6000 नदियों का समूह है। इस प्रकार हिमालय, हिन्द महासागर, आर्यना (ईरान) व इंडोनेशिया के बीच के सम्पूर्ण भू-भाग को आर्यव्रत अथवा भारत वर्ष अथवा हिन्दुस्थान कहा जाता है।
प्राचीन भारत की चर्चा हमने की। परन्तु जब हम वर्तमान से 300 वर्ष पूर्व तक के भारत की चर्चा करते हैं तब यह ध्यान में आता है कि पिछले 2,500 वर्ष में जो आक्रांता यूनानी (रोमन, ग्रीक) यवन, हुण, शक, कुशाण, सीरियन, पुर्तगाल, फ्रेन्च, डच, अरब, तुर्क, तार्तर, मुगल व अंग्रेज आदि आये, इन सबका विश्व के सभी इतिहासकारों ने वर्णन किया है। परन्तु सभी पुस्तकों से यह पता चलता है कि आक्रान्ताओं ने हिन्दुस्थान पर आक्रमण किया है। शायद ही कोई ऐसी पुस्तक होगी जिसमें यह वर्णन मिलता हो कि इन आक्रमणकारियों ने अफगानिस्तान, ब्राह्मदेश (मयांमार), श्रीलंका (सिंहलद्वीप), नेपाल, तिब्बत (त्रिविष्टप), भूटान, पाकिस्तान या बंगलादेश पर आक्रमण किया। यहां एक प्रश्न खड़ा होता है कि ये भू-प्रदेश कब, कैसे गुलाम हुए और स्वतंत्र हुए। प्राय: पाकिस्तान व बंगलादेश निर्माण का इतिहास तो सभी जानते हैं, शेष इतिहास मिलता तो है, परन्तु चर्चित नहीं है। सन् 1947 में भारतवर्ष का पिछले 2,500 वर्ष में 24 वां विभाजन हुआ था। अंग्रेजों का करीब 350 वर्ष पूर्व ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में व्यापारी बनकर भारत में आने का और फिर धीरे-धीरे शासक बनने के पश्चात् उनके द्वारा किया गया वह भारत का 7वां विभाजन था। आगे हम चर्चा करेंगे कि ये 7 विभाजन कब और क्यों किए गए।
भारतीयों द्वारा सन् 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए स्वतंत्रमा संग्राम से पूर्व एवं पश्चात् के परिदृश्य पर नजर दौड़ाएंगे तो ध्यान में आएगा कि ई. सन् 1800 अथवा उससे पूर्व के विश्व के देशों की सूची में वर्तमान भारत के चारों ओर जो आज देश माने जाते हैं उस समय वे देश नहीं थे। इनमें स्वतंत्र राज सत्ताएं थीं, परन्तु सांस्कृतिक रूप में ये सभी भारतवर्ष के रूप में एक थे और एक-दूसरे के राज्य में आवागमन (व्यापार, तीर्थ दर्शन, रिश्ते, पर्यटन आदि) पूर्ण रूप से बेरोकटोक था। एक-दूसरे के राज्य में विदेशी नहीं माने जाते थे। इन राज्यों के विद्वान व लेखकों ने जो भी लिखा वह विदेशी यात्रियों ने लिखा, ऐसा नहीं माना जाता है। इन सभी राज्यों की भाषाओं व बोलियों में अधिकांश शब्द संस्कृत से ही हैं। मान्यताएं व परम्पराएं भी समान हैं। खान-पान, भाषा-बोली, वेशभूषा, संगीत-नृत्य, पूजापाठ, पंथ-सम्प्रदाय में विविधताएं होते हुए भी एकता के दर्शन होते थे और होते हैं। जैसे-जैसे इनमें से कुछ राज्यों में भारत से इतर यानी विदेशी पंथ (मजहब) आये तब अन्य अनेक संकट व संभ्रम पैदा हुए।
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व- माक्र्स द्वारा अर्थ प्रधान परन्तु आक्रामक व हिंसक विचार के रूप में माक्र्सवाद, जिसे लेनिनवाद, माओवाद, साम्यवाद, कम्युनिज्म शब्दों से भी पहचाना जाता है, अपने पांव अनेक देशों में पसार चुका था। वर्तमान रूस व चीन, जो अपने चारों ओर के अनेक छोटे-बड़े राज्यों को अपने में समाहित कर चुके थे या कर रहे थे, कम्युनिज्म के सबसे बड़े व शक्तिशाली देश पहचाने जाते हैं। रूस और चीन विस्तारवादी, साम्राज्यवादी मानसिकता वाले देश हैं। अंग्रेज का भी उस समय लगभग आधी दुनिया पर राज्य माना जाता था और उसकी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी, हिंसक व कुटिलता स्पष्ट रूप से सामने थी।
सन् 1834 में प्रक्रिया प्रारंभ हुई और 26 मई 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत में) के बीच गंडामक संधि के रूप में निर्णय हुआ और अफगानिस्तान नाम से एक "बफर स्टेट" स्थापित किया गया। इससे अफगान अर्थात् पठान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से अलग हो गए तथा दोनों ताकतों ने एक-दूसरे से अपनी रक्षा का मार्ग भी खोज लिया। परन्तु इन दोनों पूंजीवादी व माक्र्सवादी ताकतों में अन्दरूनी संघर्ष बना रहा कि अफगानिस्तान पर नियंत्रण किसका हो। अफगानिस्तान (उपगणस्तान) शैव व प्रकृतिपूजक मत से बौद्ध मतावलम्बी और फिर विदेशी पंथ इस्लाम मतावलम्बी हो चुका था। शाहजहां, शेरशाह सूरी व महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में उनके राज्य में कंधार (गंधार) आदि का स्पष्ट वर्णन मिलता है।
मध्य हिमालय के 46 से अधिक छोटे-बड़े राज्यों को संगठित कर पृथ्वी नारायण शाह नेपाल नामक एक राज्य का सुगठन कर चुके थे। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों ने इन क्षेत्रों में अंग्रेज के विरुद्ध लड़ते हुए समय-समय पर शरण ली थी। अंग्रेज ने विचारपूर्वक 1904 में वर्तमान बिहार स्थित सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से संधि कर नेपाल को एक स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करके अपना रेजीडेन्ट बिठा दिया। इस प्रकार नेपाल स्वतंत्र राज्य होने पर भी अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज के अधीन ही था। रेजीडेन्ट के बिना महाराजा को कुछ खरीदने तक की अनुमति नहीं थी। इस कारण राजे महाराजाओं में जहां आंतरिक तनाव था वहां अंग्रेजी नियंत्रण से कुछ में घोर बेचैनी भी थी। सन् 1955 में रूस द्वारा दो बार वीटो का उपयोग कर यह कहने के बावजूद कि नेपाल तो भारत का ही अंग है, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने पुरजोर वकालत कर नेपाल को स्वतंत्र देश के रूप में यू.एन.ओ. में मान्यता दिलवाई। आज भी नेपाली व भारतीय एक-दूसरे के देश में विदेशी नहीं हैं।
सन् 1906 में सिक्किम व भूटान, जो कि वैदिक बौद्ध मान्यताओं के मिले-जुले समाज के छोटे भू-भाग थे, को स्वतंत्रता संग्राम से अलग कर अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में रेजीडेन्ट के माध्यम से रखकर चीन के विस्तारवाद पर अंग्रेजों ने नजर रखना प्रारंभ किया। ये क्षेत्र (राज्य) भी स्वतंत्रता सेनानियों एवं समय-समय पर हिन्दुस्थान के उत्तर, दक्षिण व पश्चिम के भारतीय सिपाहियों व समाज के नाना प्रकार के विदेशी हमलावरों से युद्धों में पराजित होने पर शरणस्थली के रूप में काम आते थे। ज्ञान (सत्य, अहिंसा, करुणा) के उपासक ये क्षेत्र खनिज व वनस्पति की दृष्टि से महत्वपूर्ण थे। यहां के जनजातीय जीवन को धीरे-धीरे मुख्य भारतीय (हिन्दू) धारा से अलग कर मतान्तरित किया जा सकेगा। हम जानते हैं कि सन् 1836 में उत्तर भारत में चर्च ने अत्यधिक विस्तार कर नए आयामों की रचना कर डाली थी। सुदूर हिमालयवासियों में ईसाइयत जोर पकड़ रही थी।
सन् 1914 में तिब्बत को केवल एक पार्टी मानते हुए चीनी साम्राज्यवादी सरकार और भारत के काफी बड़े भू-भाग पर कब्जा जमाये अंग्रेज शासकों के बीच एक समझौता हुआ। भारत और चीन के बीच तिब्बत को एक "बफर स्टेट" के रूप में मान्यता देते हुए हिमालय को विभाजित करने हेतु मैकमोहन रेखा निर्माण करने का निर्णय हुआ। हिमालय सदैव से ज्ञान-विज्ञान के शोध व चिंतन का केन्द्र रहा है। हिमालय अध्यात्म की स्थली है। हिमालय मानवीय समूहों के लिए सदैव निर्बाध रहा। हिमालय को बांटना और तिब्बती व भारतीय को अलग करने का षडंत्र रचा गया। चीन व अंग्रेज शासकों ने एक-दूसरे के विस्तारवादी, साम्राज्यवादी मनसूबों को लगाम लगाने के लिए यह कूटनीतिक खेल खेला। समय ने कुछ ऐसी करवट बदली कि द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् अंग्रेज को एशिया, विशेष रूप से भारत छोड़कर जाना पड़ा। चीन को अवसर मिल गया। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने समय की नजाकत को पहचानने में भूल कर दी और चीन सन् 1949 से 1956 के बीच तिब्बत को हड़पने में सफल हो गया। पंचशील समझौते की समाप्ति के साथ ही अक्तूबर सन् 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर हजारों वर्ग किलोमीटर अक्साईचीन (लद्दाख यानी जम्मू-कश्मीर) व अरुणाचल आदि का कब्जे में कर लिया। तिब्बत को चीन का भू-भाग मानने का निर्णय पं. नेहरू की ऐतिहासिक भूल साबित हुई। आज भी तिब्बत को चीन का भू-भाग मानना और चीन पर तिब्बत की निर्वासित सरकार से बात कर मामले को सुलझाने हेतु दबाव न बनाना बहुत बड़ी कमजोरी व भूल है। नवम्बर 1962 में भारत के दोनों सदनों के संसद सदस्यों ने एकजुट होकर चीन से एक-एक इंच जमीन खाली करवाने का संकल्प लिया। भारतीय राजनीतिक नेतृत्व उस संकल्प को शायद भूल बैठा है। हिमालय परिवार नाम के आंदोलन ने उस दिवस को मानना प्रारंभ किया है ताकि जनता नेताओं के द्वारा लिए गए संकल्प को याद करवाये।
अंग्रेज प्रथम महायुद्ध (1914 से 1919) जीतने में सफल तो हुए, परन्तु भारतीय सैनिक शक्ति के आधार पर। धीरे-धीरे स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु क्रांतिकारियों के रूप में भयानक ज्वाला अंग्रेज को भस्म करने लगी थी। सन् 1935 व 1937 आया। ईसाई ताकतों को लगा कि उन्हें कभी भी भारत व एशिया से बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ सकता है। उनकी अपनी स्थलीय शक्ति मजबूत नहीं है और न ही वे दूर से नभ व थल से अपने वर्चस्व को बना सकते हैं। इसलिए जल मार्ग पर उनका कब्जा होना चाहिए तथा जल के किनारों पर भी उनके हितैषी राज्य होने चाहिए। समुद्र में अपना नौसेनिक बेड़ा बिठाने, उसके समर्थक राज्य स्थापित करने तथा स्वतंत्रता संग्राम से उन भू-भागों व समाजों को अलग करने हेतु सन् 1935 में श्रीलंका व सन् 1937 में म्यांमार को अलग राजनीतिक देश की मान्यता दी। ये दोनों देश इन्हीं वर्षों को अपना स्वतंत्रता दिवस मानते हैं। म्यांमार व श्रीलंका को अलग अस्तित्व प्रदान करते ही मतान्तरण के पूरे ताने-बाने को अधिक विस्तार व सुदृढ़ता भी इन देशों में प्रदान की गई। ये दोनों राज्य वैदिक, बौद्ध, धार्मिक परम्पराओं को मानने वाले हैं।
1905 का लार्ड कर्जन का बंग-भंग का खेल 1911 में बुरी तरह से विफल हो गया। परन्तु इस हिन्दू मुस्लिम एकता को तोड़ने हेतु अंग्रेज ने आगा खां के नेतृत्व में सन् 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना कर एक अलग कौम का बीज बोया। सन् 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में पाकिस्तान की मांग खड़ी कर देश को नफरत की आग में झोंक दिया गया। द्वितीय महायुद्ध में अंग्रेज बुरी तरह से आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से इंग्लैण्ड में तथा अन्य देशों में टूट चुका था। उसे लगता था कि अब वापस जाना ही पड़ेगा और अंग्रेजी साम्राज्य में कभी न अस्त होने वाला सूर्य अब अस्त भी हुआ करेगा। सम्पूर्ण भारत देशभक्ति के स्वरों के साथ सड़क पर आ चुका था। संघ, सुभाष, सेना व समाज सब अपने-अपने ढंग से स्वतंत्रता की अलख जगा रहे थे। सन् 1948 तक प्रतीक्षा न करते हुए 3 जून 1947 को अंग्रेज अधीन भारत के विभाजन व स्वतंत्रता की घोषणा औपचारिक रूप से कर दी गई। यहां यह बात ध्यान रखने वाली है कि उस समय भी भारत की 562 ऐसी छोटी-बड़ी रियासतें (राज्य) थीं जो अंग्रेज के अधीन नहीं थीं। इनमें से 7 ने आज के पाकिस्तान में तथा 555 ने जम्मू-कश्मीर सहित आज के भारत में विलय किया। भयानक रक्तपात व जनसंख्या की अदला-बदली के बीच 14, 15 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान बनाकर अंग्रेज ने भारत का 7वां विभाजन कर डाला। आज ये दो भाग पाकिस्तान व बंगलादेश के नाम से जाने जाते हैं।
हमने सन् 1947 के पश्चात फ्रांसीसियों के कब्जे से पाण्डिचेरी, पुर्तगालियों के कब्जे से गोवा तथा अमरीका के कब्जे में जाते हुए सिक्किम को मुक्त करवाया है। आज पाकिस्तान में पख्तून, बलूच, सिंधी, बाल्टीस्तानी (गिलगित मिलाकर), कश्मीरी, मुजफ्फराबादी व मुहाजिर नाम से आजादी के आन्दोलन चल रहे हैं। पाकिस्तान की 60 प्रतिशत से अधिक जमीन तथा 30 प्रतिशत से अधिक जनता पाकिस्तान से ही आजादी चाहती है। बंगलादेश में बढ़ती जनसंख्या का विस्फोट, चटग्राम आजादी आंदोलन उसे ही जर्जर कर रहा है।
आतंकवाद व माओवाद करीब 200 गुटों के रूप में भारत व भारतीयों को डस रहा है। लाखों उजड़ चुके हैं, हजारों विकलांग हैं और हजारों ही मारे जा चुके हैं। विदेशी ताकतें हथियार, प्रशिक्षण व जिहादी मानसिकता देकर उस-उस प्रदेश के लोगों के द्वारा वहां के ही लोगों को मरवा कर उसी -उसी प्रदेश को बरबाद करवा रही हैं। इस विदेशी षडंत्र को भी समझना आवश्यक है।
आवश्यकता है वर्तमान भारत व पड़ोसी भारतखण्डी देशों को एकजुट करके विकास के मार्ग पर चलाने की। इसलिए अंग्रेजों द्वारा रचे गए षडंत्र को ये सभी देश (राज्य) समझें और सांझा व्यापार व एक मुद्रा निर्माण कर नए अखण्ड होते इस क्षेत्र के युग का सूत्रपात करें। सन् 2007 में, सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की 150 वीं जयन्ती को मिलजुल कर "फिरंगी भगाओ, स्वतंत्रता लाओ" के रूप में मनाएं। इन देशों का समूह बनने से प्रत्येक देश में भय का वातावरण समाप्त होगा तथा प्रत्येक देश का प्रतिवर्ष का सैकड़ों-हजारों-करोड़ों रुपया रक्षा व्यय का बचेगा जो कि विकास पर खर्च किया जा सकेगा।
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