आरक्षण रास्ता भटक गया, लक्ष्य ओझल हुआ
संविधान निर्माता डा.भीमराव अम्बेडकर ने दलितों के लिए 10 साल यानी 1960 तक आरक्षण का प्रावधान रक्खा था। बाद के
नेताओं ने इस प्रावधान को ऐसे लागू किया कि आरक्षण का बन्दरबांट होने लगा। यदि आरक्षण को उन्हीं सीमाओं में रहते हुए लागू किया गया होता जो डा. अम्बेडकर ने निर्धारित की थीं तो आज तक उन सभी को न्याय मिल गया होता जिनके साथ अतीत में सचमुच अन्याय हुआ था। दलितों में आत्मविश्वास पैदा करके उनमें प्रतिस्पर्धा की जुझारू भावना लाई जा सकती थी। लेकिन दलितों के नेताओं ने घोषणा कर दी कि आरक्षण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है यानी हमेशा बैसाखी चाहिए। यह सोच समाज और देश के लिए घातक है।
नेताओं ने इस प्रावधान को ऐसे लागू किया कि आरक्षण का बन्दरबांट होने लगा। यदि आरक्षण को उन्हीं सीमाओं में रहते हुए लागू किया गया होता जो डा. अम्बेडकर ने निर्धारित की थीं तो आज तक उन सभी को न्याय मिल गया होता जिनके साथ अतीत में सचमुच अन्याय हुआ था। दलितों में आत्मविश्वास पैदा करके उनमें प्रतिस्पर्धा की जुझारू भावना लाई जा सकती थी। लेकिन दलितों के नेताओं ने घोषणा कर दी कि आरक्षण हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है यानी हमेशा बैसाखी चाहिए। यह सोच समाज और देश के लिए घातक है।
आजादी के 67 साल बाद भी अनुसूचित जाति के नेताओं को चिन्ता इस बात की नहीं है कि उनके भाई बिरादर गांवों में किस हालत में रह रहे हैं बल्कि चिन्ता इस बात की है कि जिनके पास पहले से नौकरी है उन्हें प्रमोशन में आरक्षण का लाभ मिलेगा या नहीं। चिन्ता यह भी है कि उच्चतम न्यायालय ने प्रमोशन में आरक्षण को नामंजूर कर दिया तो सरकार ने संविधान में संशोधन करके निर्णय को पलट क्यों नहीं दिया ।
डा. अम्बेडकर ने आरक्षण का सहारा उन्हीं को देना चाहा था जिनके साथ अतीत में अन्याय हुआ था। आज के नेताओं ने कुछ ऐसा कर दिया कि एक शहरी वर्ग शिक्षित और सम्पन्न दलितों का बन गया और दूसरा ग्रामीण वर्ग अनपढ़, मलिन और विपन्न दलितों का। अब गांव के दलितों को आरक्षण का लाभ कैसे मिलेगा यदि शहरी अनुसूचित यह लाभ दोनों हाथों से बटोरते रहेंगे।
अभी डा. अम्बेडकर का सपना पूरा भी नहीं हुआ था कि स्वार्थी नेताओं ने सच्चर कमीशन बिठा दिया। यह कमीशन उस वर्ग के लिए बिठाया गया जिसने भारत पर 1000 साल तक हुकूमत की थी। लेकिन माननीय उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप करके देश को बेइंसाफी से बचा लिया। स्वार्थी नेता यह जानते हैं कि मुस्लिम समाज के साथ इस देश में कभी भेदभाव नहीं हुआ उनका कभी हक नहीं छीना गया। यदि पाकिस्तान बनने के बाद शेष बचे भारत में मुस्लिम पिछड़े हैं तो 60 साल तक राजनेताओं के निकम्मे शासन के कारण।
दलितों में शहरी वर्ग के लोग अब सवर्णों के बराबर कुर्सी पर बैठ सकते हैं, उनके बच्चे समान स्कूलों में पढ़ते हैं, वे एक जैसे मकानों में रहते हैं और एक जैसे कपड़े पहनते और भोजन करते हैं, एक ही अस्पताल से दवा लाते हैं यानी शहरों के दलित अब दलित नहीं रहे। इसके विपरीत गाँवों में जातिवादी नेताओं ने दलितों में झूठी अकड़ तो पैदा की है लेकिन इससे शहरी अनुसूचित की तरह विकास तो नही आएगा। सच कहूं तो सम्पूर्ण अनुसूचित समाज को उन्नत करने का इरादा ही नहीं है वर्ना मुद्दा समाप्त हो जाएगा।
डा. अम्बेडकर एक प्रतिभावान व्यक्ति थे उन्होंने कभी नहीं चाहा होगा कि देश में योग्यता का अपमान और प्रतिभा का विदेशों को पलायन हो। यह भी नहीं चाहा होगा कि अगड़े दलित और पिछड़े दलित ऐसे दो वर्ग बनकर तैयार हो जाएं। डा. अम्बेडकर ने अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण जरूरी नहीं माना था क्योंकि उनकी माली हालत सवर्णों से बेहतर है। इनके बच्चे गरीबी या भेदभाव के कारण स्कूल नहीं छोड़ते हैं बल्कि पढ़ाई में रुचि की कमी के चलते छोड़ते हैं। आखिर सवर्णों के बच्चों ने अतीत में भीख मांग कर पढ़ाई की है। आरक्षण का उद्देश्य आबादी के अनुपात में नौकरियां दिलाना नहीं था, दलितों में आत्मविश्वास पैदा करना था ।
नव जागृत शहरी दलित युवक ग्रामीण सवर्णों के साथ रोटी बेटी का सम्बन्ध स्थापित करने की जल्दी में हैं। यह सामाजिक प्रगति, समानता और समरसता के लिए बुरा नहीं परन्तु यह आरक्षण से नहीं आएगा और न यह तात्कालिक लक्ष्य था। यदि डा. अम्बेडकर के सपने को साकार करना था तो दलित एवं अन्य पिछड़े परिवारों में से प्रत्येक को बारी-बारी आरक्षण का लाभ देकर सब को स्वावलम्बी बनाना चाहिए था। आरक्षण की दिशा और उसका लक्ष्य स्पष्ट रूप से तय किया जाना चाहिए।
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