किसान पहले भी कर्ज़दार था, पर फांसी नहीं लगाता था
किसानों की मौतें चाहे फांसी लगाकर हुई हों या जहर खाकर अथवा सदमे से, उनकी अकाल मौतों के कारणों पर चर्चा होनी ही चाहिए। एक बात सामने आई है कि अधिकांश पर कर्ज का बोझ था जो उन्होंने फसल बेचकर उतारना चाहा था।
किसानों का कर्ज नया नहीं है परन्तु उनकी आत्महत्याएं नई हैं। पुराने समय में कर्जा बांटने वाले पठान वेष में मोगलिया आते थे, बाद में गुमाश्ते लेकर लाला आने लगेे। ये नौ रुपए देते थे और 10 लिखते थे, एक लिखाई का काट कर। साल भर तक एक रुपया प्रति माह लौटाना होता था। भारी ब्याज के बावजूद किसान आत्महत्या नहीं करता था । किसान की दिनचर्या थी गोबर कर्कट खेतोंं में पहुंचाकर हल बैल लेकर खेतों में चले जाना। तालाबों में वर्षा का साफ पानी संचित होता था जो जानवरों के पीने और खेतों की सिचांई के काम आता था। अपने पीने का पानी कुएं से निकालते थे। तालाबों से हर साल मिट्टी निकालते रहने से उनकी जलग्राही क्षमता कभी घटती नहीं थी।
किसान बैलों से खेती करता था। दुधारू जानवरों से उसके बच्चों को दूध, दही, घी मिलता था। जंगल से जलाने की लकड़ी, जानवरों का चारा, साग-भाजी और जंगली फल मिल जाते थे। पहाड़ की महिलाएं जंगल को अपना मायका कहती हैं। अनाज प्राय: कम पड़ जाता था, बोने के लिए उधार लेते थे और फसल पर डेढ़ गुना चुकाते थे।
किसान बैलों से खेती करता था। दुधारू जानवरों से उसके बच्चों को दूध, दही, घी मिलता था। जंगल से जलाने की लकड़ी, जानवरों का चारा, साग-भाजी और जंगली फल मिल जाते थे। पहाड़ की महिलाएं जंगल को अपना मायका कहती हैं। अनाज प्राय: कम पड़ जाता था, बोने के लिए उधार लेते थे और फसल पर डेढ़ गुना चुकाते थे।
खर्चे कम थे। विभिन्न सेवाओं के लिए जैसे नाई, घोबी, माली, लोहार, बढ़ई को फसल पर खेत से ही पैदावार का कुछ अंश मिलता था। एक-दो गांवों के बीच में एक दुकान होती थी जहां अनाज देकर मसाले आदि मिल जाते थे। गन्ने से गुड़ और मूंगफली आदि बेचकर दूसरे खर्चे चल जाते थे। कभी बैल मर गए तो कर्जा लेने के अलावा कोई उपाय नहीं था। पचास के दशक में नहरों का जाल बिछा तो किसान दो फसलें उगाने लगा और पैदावार भी कुछ बढ़ी।
पानी की उपलब्धता से अब खेत खाली नहीं रहते थे। लेकिन खेती में जो सुधार आरम्भ हुआ था वह ज्यादा दिन नहीं चला। साठ के दशक में ही एक बार फिर सूखा और अकाल ने किसान को बेहाल कर दिया। तब भूगर्भ जल की तलाश आरम्भ हुई तो पता चला जमीन के नीचे पानी का अथाह भंडार था। किसान की मदद के लिए बौनी जाति की गेहूं की प्रजातियां मैक्सिको से और धान की प्रजातियां थाईलैंड जैसे देशों से आईं। इन प्रजातियों को पानी की बहुत आवश्यकता होती थी जिसके लिए पूरी तरह भूजल पर निर्भरता हो गई ।
जमीन से निकाल कर खेतों में पानी भरा जाने लगा और गांवों में कुओं की रस्सी लम्बी होने लगी। जहां हरित क्रान्ति ने जोर पकड़ा वहीं जल संकट भी बढ़ा। उन्हीं दिनों पहली बार रासायनिक खादें, कीटनाशक तथा खरपतवार नाशक प्रचलित हुए। इससे पहले सही अर्थों में आर्गेनिक खेती होती थी। अभी तक आत्महत्याएं नहीं होती थीं। सत्तर के दशक में गावों में बैंकों की शाखाएं खुलीं और खेती के लिए कम ब्याज पर बैंकों से ऋण मिलने लगा। अब खेतों के लिए आसानी से कर्ज मिलने लगा। गांवों का विद्युतीकरण आरम्भ हुआ और बिजली की आवश्यकता अधिकाधिक पडऩे लगी। अब किसान को अच्छे बीज, सिंचाई के लिए पानी, खाद और उर्वरकों के साथ बैंकों के माध्यम से ट्रैक्टर भी उपलब्ध होने लगे ।
अस्सी के दशक में आरम्भ हुआ कर्जा माफी, मुफ्त पानी और बिजली, लगान माफी, स्कूलों में फीस माफी का दौर। किसानों में उधार चुकाने की आदत समाप्त होने लगी। खेती के नाम पर लड़कियों की शादी और मकान बनाने के लिए किसान कर्जा लेने लगे कि माफ तो हो ही जाएगा। लेकिन जब माफ नहीं हुआ तो ब्याज बढ़ता गया और इस आशा में चुुकाया भी नहीं कि माफ हो जाएगा। नब्बे के दशक में बैंकों ने वसूली पर जोर दिया तो किसानों की आत्महत्याएं होने लगीं। आत्महत्याओं की पहली घटनाएं सामने आईं महाराष्ट्र के विदर्भ के इलाके से।
अब खेती व्यापार बन चुकी थी और किसान भूल गया था, हमारी धरती सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है परन्तु हमारे लालच की पूर्ति सम्भव नहीं। किसान अपना सादा जीवन फिर अपना सके और शहर के दिखावा को छोड़ सके तो न तो कर्जा की नौबत आएगी और न आत्महत्या की।
No comments:
Post a Comment