सुरेश वाडकर

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Sunday, May 24, 2015

जासूसों के सहारे होती राजनीति

जासूसों के सहारे होती राजनीति

इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपी है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी में गुटबाज़ी रोकने के लिए जासूसों कीraveeshएक टोली बनाई है। चार सौ तीन लोगों की यह टोली अखिलेश यादव के निजी जासूसों के तौर पर काम करेगी और सीधे अखिलेश को रिपोर्ट करेगी। ये खुफिया अफसर यूपी के सभी 403 विधानसभाओं में तैनात किए जाएंगे। इनका काम होगा कि पार्टी और सरकार के बारे में फीडबैक इकठ्ठा  करना। इस टीम का समाजवादी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं होगा और यह पार्टी से स्वतंत्र होकर काम करेगी। आने वाले समय में हर विधानसभा में तीन-तीन सदस्य तैनात किये जायेंगे यानी मुख्यमंत्री के निजीकी संख्या 1209 तक जा सकती है।
अख़बार के अनुसार इन्हें इंटेलिजेंस अफ़सर कहा जा रहा है। इंटेलिजेंस अफ़सर होने की कुछ शर्तें हैं। जैसे समाजवादी पार्टी में कोई पद नहीं होगा। समाजवादी पार्टी से सहानुभूति रखने वाला हो सकता है। पढ़ा लिखा हो और कंप्यटूर से लेकर मोबाइल एप्लिकेशन के संचालन में दक्ष हो। स्थानीय नेता से किसी तरह की रिश्तेदारी न हो। चयन के बाद इन्हें बकायदा ट्रेनिंग दी जाएगी और अखिलेश यादव के साथ इनकी मुलाकात कराई जाएगी। इनके फ़ीडबैक के आधार पर अब उम्मीदवार तय किये जायेंगे। अखबार के मुताबिक अखिलेश यादव अगले चुनाव में 100 से ज़्यादा विधायकों के टिकट काट देना चाहते हैं। इंटेलिजेंस अफसर इस बात पर भी नज़र रखेंगे कि स्थानीय विधायक काम कर रहे हैं या नहीं, सरकार की योजनाओं का प्रचार कर रहे हैं या नहीं।
यह कोई सामान्य घटना नहीं है। लोकतंत्र में एक नागरिक का दायित्व है कि वो सिर्फ इसी पर नज़र न रखे कि सरकार कैसी चल रही है बल्कि उसके लिए यह बात समान रूप से महत्वपूर्ण होनी चाहिए कि कोई पार्टी कैसे चलती है। अगर लोकतंत्र में संस्थाओं को चलाने के लिए पार्टी सिस्टम ही सर्वमान्य ईकाई है तो पार्टी का लोकतांत्रिक होना बेहद ज़रूरी है। कोई भी सामान्य नागरिक इन्हीं पार्टी सिस्टम में सक्रिय होकर लोकतंत्र का प्रशिक्षण पाता है और एक दिन धीर-धीरे जनता का प्रतिनिधि बनते हुए सरकार का मुखिया या मुखिया का सहयोगी बनता है। देश और व्यवस्था को चलाने के लिए बनाई जाने वाली नीतियों के प्रति समझदारी उसकी इसी यात्रा के आधार पर बनती चली जाती है।
नेता का अपना इंटेलिजेंस अफसर होना बता रहा है कि आपको एक पार्टी में नेता के अनुसार ही चलना होगा। नेता ही पार्टी है। इसकी शुरुआत चुनावों के वक्त रणनीति बनाने वाले बाहरी मैनजरों के पार्टी में प्रवेश से हुई थी। पहले ये पार्टी के लिए आए और अब ये नेता के लिए आने लगे हैं। चुनाव के वक्त अमरीकी विश्वविद्यालयों से कई बेकार छात्र यहां बदलाव के नाम पर आते हैं और नेताओं को सफलता का मार्ग बताने के नाम पर उन सारे तरीकों से लैस कर जाते हैं जिससे किसी नेता के लिए पार्टी की ज़रूरत ही न रहे। इसी तरह का काम विज्ञापन और स्लोगन कंपनियों के रणनीतिकार भी करने लगे हैं।
पिछले लोकसभा में इस प्रक्रिया का परिपक्व रूप देखने को मिला था। प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी के चयन में बीजेपी के अपने नेताओं से ज्यादा सोशल मीडिया और मीडिया की भागीदारी थी। जिसे खुद नरेंद्र मोदी ने संगठित रूप से संचालित किया। नमो फैन ने बाहर से पार्टी के भीतर दबाव डाला कि जो हमारा नेता बन चुका है आपको उसी को नेता चुनना है। प्रतिकूल शक्तियां तेज़ी से ढहती चली गईं। मैं नहीं कहता कि नरेंद्र मोदी योग्य उम्मीदवार नहीं थे बल्कि उनके चयन में इस प्रक्रिया को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
लोकसभा चुनावों के दौरान कई जगहों पर मुझे लैपटाप युक्त युवाओं की टीम मिली। ऐसा ही बेहद प्रतिभाशाली युवाओं का एक दल मुझे मिला जो बीजेपी के उम्मीदवार का फीडबैक तैयार करने आया था। उन युवाओं का दावा था कि एक-एक जानकारी जमा कर वे सीधे अपनी केंद्रीय टीम को भेजते हैं और वहां से नरेंद्र मोदी तक पहुंच जाती है। इतना ही नहीं उस संसदीय क्षेत्र में नरेंद्र मोदी की रैली भी होने वाली थी जिसके लिए मुद्दों से लेकर फीडबैक तक तैयार कर उन्हें भेज दिया गया था। ये लड़के एक तरह से अपने निजी ऑडिटर की तरह भी काम कर रहे थे। इसकी शुरूआत भी कुछ चुनाव पहले से हो चुकी है, जब उम्मीदवार निजी तौर पर जासूस रखने लगे थे ताकि विरोधी खेमे की जानकारी मिल सके।
बचपन का एक किस्सा याद आता है जो किसी से सुना था कि एक सांसद थे जो कहते थे कि उन्होंने जितनी बार चुनाव लड़ा उतनी बार पार्टी से जो पैसा मिला उसका फिक्स डिपॉजि़ट कर दिया। जब इंदिरा गाँधी की लहर हुई तो जीत गए, लहर नहीं रही तो हार गए। ऐसे कई किस्से सुने कि उम्मीदवार जानते हुए भी कि वहां से हारेगा पार्टी से इसलिए टिकट चाहता है क्योंकि टिकट मिलते ही पार्टी फंड और इलाके के पार्टी समर्थकों से काफी पैसा मिल जाता है। ऐसे चुनावी कमाऊ उम्मीदवारों का किस्सा मैंने कांग्रेस में ज्यादा सुना, बाद में यह बीमारी बीजेपी में घुस आई। इसका उपाय मोदी ने अपना सिस्टम तैयार कर खोज लिया।
एक पार्टी में नेता की अपनी इंटेलिजेंस अफसरों की टीम के मायने क्या हो सकते हैं? क्या उस नेता का अपनी पार्टी पर भरोसा नहीं रहा, जिसका वो नेता है। हर नेता पार्टी पर नियंत्रण और निगरानी के इन गैर राजनीतिक टोटकों का सहारा लेता हुआ नज़र आ रहा है। नेता अब एक अवतार है जो आसमान से लांच होता है। इवेंट मैनेजमेंट कंपनियां ही अब असली राजनीतिक दल हैं।
राजनीतिक दलों का बुनियादी चरित्र तेज़ी से बदल रहा है। संगठन अब मुख्यालय तक सिमट कर रह गया है और मुख्यालय भी सत्ता में बैठे नेता का एक विस्तार यानी एक्सटेंशन काउंटर बनकर रह गया है। कार्यकर्ता की जगह फैन ने ले ली है जो सोशल मीडिया पर नेता के प्रति सक्रियता बनाए रखते हैं।
पार्टी के भीतर की संस्थाएं गैर ज़रूरी होती जा रही हैं। कई पार्टियों में संगठन के चुनाव बेईमानी हो चुके हैं। पार्टी की कार्यकारिणियां ईवेंट कंपनी को ठेका देने का काउंटर बनकर रह गईं हैं। इंटेलिजेंस अफसर और आईटी सेल ही अब पार्टी होंगे जो एक नेता के लिए काम करेंगे। जहां विचारधारा की कोई जगह नहीं होगी।
(लेखक एनडीटीवी में सीनियर एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं, ये उनके अपने विचार हैं)

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