सुरेश वाडकर

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Thursday, March 5, 2015

भारतवर्ष की गुलामी के संस्थापक कौन थे?

भारतवर्ष की गुलामी के संस्थापक कौन थे?

भारत को गुलाम किसने किया? जब से हमने होश संभाला और पढ़ना शुरू किया तो हमें यही पढ़ाया जाता रहा कि हमारा देश 1000 साल तक आपसी फूट के कारण गुलाम रहा। लेकिन हमारे सरकारी इतिहासकारों ने इस तथ्य को कभी उजागर नहीं किया कि यह आपसी फूट डालनेवाले लोग कौन थे? इन्होंने कैसे फूट डाली? इतिहास गवाह है कि मामला फूट का नहीं था। ये गद्दारियों से भरा इतिहास है जिसने इस देश को कमजोर किया और यही कारण है कि देश 1000 साल तक गुलामी की बेडि़यों में जकड़कर अपनी किस्मत पर आंसू बहाता रहा। यह सिलसिला आजादी के बाद भी नहीं रुका और एक दूसरे रूप में हमारे सामने आया। हमारा देश ‘परमाणु बम्ब’ बनाकर तथा दर्जनों राकेट आसमान में छोड़कर भी आज नैतिक पतन व भ्रष्टाचार के कारण औंधे मुंह पड़ा है क्यों और कैसे? इसके पीछे भी हमारा एक शर्मनाक इतिहास हमारे संस्कारों का दुश्मन बना बैठा है। उदाहरण के लिए यहाँ कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया जाता है -

(1) अशोक महान् के नाम से हम सभी परिचित हैं। यह मोर गोत्र का बौद्धधर्मी जाट राजा था जिसका लगभग समस्त भारत पर अधिकार था तथा उस समय भी यह भारत वर्ष एक देश था। याद रहे इसके राज में संस्कृत भाषा का कोई भी चलन नहीं था। इनके बाद इनका पुत्र बृहद्रथ राजगद्दी पर बैठा तो उसके ही विश्वासपात्र ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने धोखे से उसकी हत्या करवा दी और सत्ता हथिया ली। लेकिन ये पुष्यमित्र ब्राह्मण पूरे भारत वर्ष को इकट्ठा रखने में पूर्णतया असफल रहा क्योंकि उसने अपने शासन में धर्म के नाम पर असमानता के बीज बोये जिस कारण अशोक महान् का महान् भारत वर्ष छिन्न-भिन्न हो गया। कुछ रही सही कमी ब्राह्मण शशांक ने जाट बौद्धों के मठ तुड़वा कर पूरी कर दी थी। यह ब्राह्मणवाद की भारतवर्ष की गुलामी के लिए पहली चकबन्दी थी। इसी पौराणिक ब्राह्मणवाद ने सम्राट् मोर को शूद्र लिख दिया ताकि जाट और दलित आपस में उलझते रहें। यही छत्रपति शिवाजी के साथ हो रहा है। मैंने स्वयं बहुजन समाज पार्टी के भाषणों में लोगों को कहते सुना है कि ढाई हजार वर्ष पहले उनका अपना राज था। इनका कहने का अर्थ है कि पूरा मौर्यवंश ही शूद्र था। लेकिन ये लोग भूल जाते हैं कि उस समय का चाणक्य ब्राह्मण कैसे एक शूद्र वंशीय चन्द्रगुप्त मौर्य को राज दिला सकता था और उनके आधीन मंत्री रह सकता था? ये कभी भी उस काल में संभव नहीं था और न ही ऐसा उस समय सोचा जा सकता था। नहीं तो वे अपनी जाति के दलित लोगों को क्यों गांव से बाहर एक कोने में फैंकते जो चाणक्य के कहने पर ही हुआ था। इसी प्रकार यह लोग अपनी पार्टी के मंचों पर छत्रपति शिवाजी को शूद्र मानकर उनका चित्र लगाते हैं। क्योंकि ब्राह्मणों ने उनको शूद्र लिखा। जबकि प्रमाण स्पष्ट हैं कि वे बलवंशी जाट थे। इस देश में जब से वर्ण व्यवस्था प्रचलित हुई और स्थायी हुई तब से लेकर सन् 1947 तक शूद्र वंश से न कभी कोई राजा बना और न कभी कोई राज वंश चला। अफसोस है कि जाट कौम इन महापुरुषों को शूद्र लिखने पर पीछे हट गई और अपने ही जाट महापुरुषों को नहीं अपनाया।

(2) ‘चाणक्य’ महाराज (कौटिल्य) को चाहे इतिहास में कितना ही महिमामण्डित किया गया लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू उतना ही बदरंग है। इन्होंने ही एक जाट के हाथ (चन्द्रगुप्त मौर्य) से दूसरे जाट (धन नन्द जिससे जाटों का नादंल गोत्र प्रचलित हुआ) की हत्या करवाई। ये चन्द्रगुप्त मौर्य महाभारत के यौद्धा जरासंध के ही वंशज थे और इस चाणक्य को राजा धनानन्द ने सरेआम अपने दरबार से अपमानित करके निकाल दिया जिस कारण उसने अपना बदला लिया तथा धनानन्द जाट राजा की हत्या करवाकर राजा चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाकर स्वयं मन्त्री बन बैठे। शूद्र वर्ण के लोगों को गाँव से बाहर बसाया। वैदिक संस्कृति के अनुसार भूमि लगान को समाप्त करके किसानों पर दुगुना भूमिकर लगाया। ब्राह्मणों को दान देनेवालों को कर से मुक्त किया। दूसरी तरफ जूए को सरकारी मान्यता देकर उस पर कर लगा दिया। अर्थात् एक बुराई को मान्यता दे दी गई। देश में जो परोक्षरूप से संघों के तौर पर एक प्रजातंत्र प्रणाली, जो बौद्ध राजाओं के समय से चली आ रही थी, उसको समाप्त कर दिया गया तथा ब्राह्मणवाद को फिर से श्रेष्ठ बना दिया और देश में छूआछूत को स्थायी कर दिया। इसी ब्राह्मण ने षड्यन्त्र करके तोरण द्वार गिरवाकर तीर्थराज की हत्या करवाई। यह तोरण से मारने की प्रथा ऐसी चली कि महाराजा रणजीतसिंह के पुत्र नोनिहालसिंह की हत्या के बाद बंद हुई। भारत में जाति द्वेष और अछूत प्रथा चाणक्य जी की चतुर और पक्षपाती बुद्धि की उपज है जिसने देश को पक्षाघात कर दिया। (पुस्तक - किसान संघर्ष और विद्रोह)
इसी प्रकार इस देश को गुलाम रखने में ब्राह्मणग्रंथों का बहुत बड़ा योगदान है। उदाहरण के लिए- ऐतरेय ब्राह्मण (3/24/27) - वही नारी उत्तम है जो पुत्र को जन्म दे। (35/5/2/47) पत्नी एक से अधिक पति ग्रहण नहीं कर सकती, लेकिन पति चाहे कितनी भी पत्नियां रखे। आपस्तब (1/10/51/52) बोधयान धर्म सूत्र (2/4/6)शतपथ ब्राह्मण (5/2/3/14) जो नारी अपुत्रा है उसे त्याग देना चाहिए। तैत्तिरीय संहिता (6/6/4/3) पत्नी आजादी की हकदार नहीं है।शतपथ ब्राह्मण (9/6) केवल सुन्दर पत्नी ही अपने पति का प्रेम पाने की अधिकारिणी है।बृहदारण्यक उपनिषद् (6/4/7) यदि पत्नी सम्भोग के लिए तैयार न हो तो उसे खुश करने का प्रयास करो। यदि फिर भी न माने तो उसे पीट-पीट कर वश में करो। मैत्रायणी संहिता (3/8/3) नारी अशुभ है। यज्ञ के समय नारी, कुत्ते व शूद्र को नहीं देखना चाहिए। अर्थात् नारी और शूद्र कुत्ते के समान हैं। (1/10/11) नारी तो एक पात्र (बरतन) समान है। महाभारत (12/40/1) नारी शॆ बढ़कर अशुभ कुछ नहीं है। इनके प्रति मन में कोई ममता नहीं होनी चाहिए। (6/33/32) पिछले जन्मों के पाप से नारी का जन्म होता है । मनुस्मृति (100) पृथ्वी पर जो भी कुछ है वह ब्राह्मण का है। मनुस्मृति (101) दूसरे लोग ब्राह्मणों की दया के कारण सब पदार्थों का भोग करते हैं। मनुस्मृति (11-11-127) मनु ने ब्राह्मण को संपत्ति प्राप्त करने के लिए विशेष अधिकार दिया है। वह तीनों वर्णों से बलपूर्वक धन छीन सकता है अथवा चोरी कर सकता है। मनुस्मृति (4/165 - 4/166) जान बूझकर क्रोध से जो ब्राह्मण को तिनके से भी मारता है वह इक्कीस जन्मों तक बिल्ली योनि में पैदा होता है। मनुस्मृति (5/35) जो मांस नहीं खाएगा वह इक्कीस बार पशु योनि में पैदा होगा । मनुस्मृति (64 श्लोक) अछूत जातियों के छूने पर स्नान करना चाहिए। गौतम धर्म सूत्र (2-3-4) यदि शूद्र किसी वेद को पढ़ते सुन ले तो उसके कानों में पिंघला हुआ शीशा या लाख डाल देनी चाहिए। मनुस्मृति (8/21-22) ब्राह्मण चाहे अयोग्य हो उसे न्यायाधीश बनाया जाए नहीं तो राज मुसीबत में फंस जाएगा। इसका अर्थ है कि वर्तमान में भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश श्री जी. बाला कृष्ण जो शूद्र हैं को इस पद से हटा देना चाहिए? मनुस्मृति (8/267) यदि कोई ब्राह्मण को दुर्वचन कहेगा तो वे मृत्युदण्ड के अधिकारी हैं। मनुस्मृति (8/270) यदि कोई ब्राह्मण पर आक्षपे करे तो उसकी जीभ काट कर दण्ड दें। मनुस्मृति (5/157) विधवा का विवाह करना घोर पाप है। विष्णुस्मृति में स्त्री को सती होने के लिए उकसाया गया है तो ‘शंख स्मृति’ में दहेज देने के लिए प्रेरित किया गया है। ‘देवल स्मृति’ में किसी को भी बाहर देश जाने की मनाही है। ‘बृहदहरित स्मृति’ में बौद्ध भिक्षु तथा मुण्डे हुए सिर वालों को देखने की मनाही है। ‘गरुड़ पुराण’ पूरे का पूरा अंधविश्वास का पुलिंदा है जिसमें ब्राह्मण को गाय दान करने तथा उसके हाथ मृतकों का गंगा में पिण्डदान करने के लिए कहा गया है। कहने का अर्थ है कि इस पुराण में ब्राह्मणों की रोजी-रोटी का पूरा प्रबन्ध किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह ब्राह्मण साहित्य इस देश को कितना पीछे ले गया और भारत की गुलामी की एक बड़ा कारण रहा। इस पर एक अंग्रेज इतिहासकार एडमंड बर्क लिखते हैं, ‘हिन्दू समाज क्योंकि आर्थिक तौर पर भ्रष्ट और अन्यायी था। अतः वे अपने देश को स्वतन्त्र नहीं रख पाए और भारत को सदियों तक गुलामी के कष्ट भोगने पड़े।’ इस सम्बन्ध में भारतवर्ष के महान् विचारक तथा विद्वान् स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, ‘एक देश जहां लाखों लोगों को खाने को कुछ नहीं, जहां कुछ हजार व्यक्ति तथा ब्राह्मण गरीबों का खून चूसते हैं। हिन्दुस्तान एक देश नहीं, जिंदा नरक है। यह धर्म और मौत का नाच है।’ स्कन्द पुराण की तो पूरी शिक्षा ही देशद्रोही है। कहते हैं कि नारी के विधवा होने पर उसके बाल काट दो, सफेद कपड़े पहना दो और उसको खाना केवल इतना दो कि वह जीवित रह सके। उसका पुनः विवाह करना पाप है। ऐसे नियमों को पौराणिक ब्राह्मणों ने हमारी राजपूत जैसी जातियों से मनवाया, इसी कारण सती प्रथा का प्रचलन हुआ। विधवा औरत ने सोचा कि इससे अच्छा तो पति के साथ ही जलकर मरना अच्छा है। लेकिन मैं जाट जाति की इस पर प्रशंसा करने पर विवश हूं कि उन्होंने स्कन्द पुराण की शिक्षाओं को नहीं माना और हमेशा से विधवाओं के पुनः विवाह किये। इसी कारण मैं जन्म ले पाया। धन्य हो मेरी महान् जाट जाति, मेरी मां को भी दूसरा जन्म दिया। दूसरा यह स्पष्ट प्रमाण है कि जाटों की जड़ें बौद्ध धर्म में थी और उन्होंने इस नवीन हिन्दू धर्म (ब्राह्मण धर्म) को नहीं माना, इसी कारण इनके इतिहासों ने जाटों को शूद्र माना और आज तक सम्राट् अशोक मोर को शूद्र लिखते हैं।

पाठकों ने देखा होगा कि ‘मीरा’ टी.वी. सीरियल में मीरा बाई जब पुरोहित के लिए थाल में मिठाई लेकर आती है तो पुरोहित उसे ठुकरा देता है और कहता है, “नहीं, मेरा अनादर मत करो! मांस का थाल लाओ।” इन्हीं पौराणिक ब्राह्मणों ने शूरवीर हनुमान (बाना गोत्री) को बन्दर का मुंह लगाया तो गणों के राजा गणेश जिसका एक हाथ दूसरे हाथ से लम्बा था को हाथी का सूंड लगा दिया। मन्दिरों में धन इकट्ठा करके ब्राह्मण वहां टल्ली बजाते रहे और वहीं मन्दिर और देश लुटता रहा और गुलाम होता चला गया। याद रहे ब्राह्मणों ने मन्दिरों में विपुल धन-सम्पत्ति इकट्ठी की जिसने आक्रमणकारियों को ललचाया और देश गुलाम हुआ।

इतिहास में इन ऋषियों का बड़ा गुणगान किया जाता है जबकि कईयों में भारी खानदानी अभाव था। उदाहरणस्वरूप वशिष्ठ ऋषि स्वयं एक निम्न जाति की अप्सरा (वैश्या) उर्वशी की संतान थे। महर्षि व्यास धीवरी (झीमरी) सत्यवती के गर्भ से पराशर से उत्पन्न हुए थे। मदन पाल व मातंग ऋषि चंडाल माताओं से थे। नारद मुनि भी दासी पुत्र थे। उनके वास्तविक पिता का नाम अज्ञात था। जाबाली, सत्यकाम (उपनिषद) की भी यही स्थिति है फिर भी ये लोग स्वाभाविक रूप से ब्राह्मण ही माने जाते हैं। अपितु वेदों के महत्त्वपूर्ण सूक्तों-अध्यायों और काण्डों तथा मंत्रों के प्रणेता गैर ब्राह्मण भी हैं। गुरु मंत्र गायत्री मंत्र के रचयिता वशिष्ठ व भारद्वाज न होकर क्षत्रिय विश्वामित्र थे। कठोपनिषद्, छान्दोग्य, श्वेताश्वेतोपनिषद्, ऐतरेय तथा माण्डूक्य आदि उपनिषद् की गैर ब्राह्मणों द्वारा ही रचना की गई है। पौराणिक ग्रन्थों में लिखा गया है कि ‘मनुस्येषु ब्राह्मण श्रेष्ष्ठः’ अर्थात् मनुष्य जाति में ब्राह्मण सबसे उच्च हैं जबकि यही लोग हमारे शिवजी, श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्री हनुमान जी व श्री गणेश जी आदि क्षत्रिय जाति के देवों को पूजकर सदियों से अपनी संतानों के पेट भरते आए हैं। फिर किस बात में श्रेष्ठ हैं? ब्राह्मण ग्रन्थ गवाह हैं कि पहले श्रीकृष्ण जी को तथा उनकी माता देवकी को शूद्र बतलाया लेकिन जब कृष्ण जी के चाहने वाले करोड़ों दीखे तो उनको पूजकर ब्राह्मणों ने अपनी पेट पूजा आरम्भ कर दी। कई पाठकों ने ‘शर्मा’ शब्द के बारे में पूछा है तो मेरी जानकारी के अनुसार, “गुर्जरों का संक्षिप्त इतिहास” लेखक राणा अली हसन चौहान (पाकिस्तान) हिन्दी अनुवाद पेज नं० 3 के अनुसार, “रावण का पिता विश्रवा एक ऋषि था, विभीषण को छोड़कर पूरा खानदान श्री रामचन्द्र के विरुद्ध लड़ा इसलिए बाकी सभी राक्षस कहलाए। विभीषण की पत्नी का नाम ‘शर्मा’ था।” (पुस्तक ‘स्वदेशी और साम्राज्यवाद’)

आज फिर वर्तमान युग में अन्धविश्वास व पाखण्ड का बोलबाला होता जा रहा है। संसार के लगभग 660 करोड़ लोगों को हमारे पाखण्डी 12 राशियों में बांटकर अर्थात् प्रत्येक राशि में 55 करोड़ लोगों का टी.वी. व समाचार पत्रों में भविष्य बतला रहे हैं जबकि इन्हें पता होना चाहिए कि राम और रावण की राशि एक थी तो कृष्ण व कंष की भी एक ही थी। एक मार तथा दूसरा मर रहा था। ईराक और ईरान की राशि भी एक होते हुए ईराक तबाह हो रहा है तो ईरान ईद मना रहा है। कन्याकुमारी और काश्मीर की राशियां भी एक हैं तो कश्मीर बर्बाद हो रहा है लेकिन कन्याकुमारी में होटल पर होटल बनते जा रहे हैं। अभी वर्तमान अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा तथा खूंखार आतंकवादी ओसामा की भी एक राशि हैं तो भविष्यकर्ता इनका भविष्य बतलाएं ?
लेकिन दुःख की बात है कि आज की जाट कौम इन पाखण्डियों के बहकावे में आने लगी है और कावड़ लाने में जुटे हुए हैं। सुनने मे आया है कि वहां गांजा और भांग के सेवन की भी आदत डाली जाती है।। एक अनुमान के अनुसार 8 लाख जाट प्रतिवर्ष कावड़ लाकर औसतन 40 करोड़ रुपये अंधविश्वास में तबाह कर रहे हैं। और यह अंधविश्वास बढ़ता ही जा रहा है। इसी प्रकार गंगा में मृतकों का पिण्डदान, मृत्युभोज, सवामणि व भण्डारों आदि पर जाट कौम का प्रतिवर्ष औसतन 8 से 9 अरब रुपया अंधविश्वास की भेंट चढ़ रहा है। जबकि यह कार्य जाट के बिल्कुल नहीं थे। गांव के हर पान्ने में होड़ लगी है कि कौन कितना ऊंचा मन्दिर बनवाता है। अपने बुजुर्गों की मृत्यु पर मृत्युभोज (काज) करके उसको किस स्वर्ग की सैर कराना चाहते हैं? ये सब पैसा जो हमारी संतानों की पढ़ाई पर खर्च होना था, आज सरेआम मूर्खता में बर्बाद किया जा रहा है। यही अंधविश्वास और पाखण्डवाद किसी कौम और देश के पतन के कारण बनते हैं। जाट कौम इसमें क्यों पागल हो रही है? यह जाट धर्म नहीं, ब्राह्मण धर्म है।

(3) महाराजा अशोक के राज के बाद महाराजा हर्षवर्धन का वर्णन मिलता है जो अपने समय (सन् 606 से सन् 647) के महान् राजा हुये, जो बैंस गोत्री, बौद्धधर्मी जाट राजा थे। इन्होंने 40 वर्ष तक लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत व उड़ीसा और बंगाल तक राज किया, लेकिन इनके राज में ब्राह्मणवाद ने एक के बाद एक षड्यंत्र किये तथा इनकी हत्या करने के लिए एक बार एक हत्यारे ने भी इनको चाकू से मारने का प्रयास किया। जब हमलावर को पकड़ लिया गया और उससे पूछताछ की गई तो उसने बतलाया कि महाराजा को मारने के लिए ब्राह्मणों ने उसे पैसा दिया था। महाराजा हर्ष के धर्म सम्मेलनों के पण्डालों में उनकी हत्या करने के लिए ब्राह्मणों ने आग तक लगवाई तथा इसके शासन को समाप्त करने के लिए पूरा प्रयास किया। इनका कोई वंशज न होने के कारण इनकी मृत्यु के पश्चात् इनका शासन समाप्त हुआ और उसके बाद इनके राज के टुकड़े हो गये क्योंकि इन्होंने अपने सगे-सम्बन्धियों व रिश्तेदारों में वैराग्य पैदा कर दिया था और इसके बाद भारतवर्ष का शर्मनाक इतिहास प्रारंभ हुआ।
डा० अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक “ब्राह्मणवाद की विजय” में लिखा है, “भारत का इतिहास बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के मध्य संघर्ष का इतिहास है।”

(4) सातवीं सदी में सिंध में भारत की मजबूत दीवार महाराजा सिहासीराय मोर गोत्री जाट का शासन था। चच नाम का एक ब्राह्मण का लड़का नौकरी के लिए इनके मंत्री के संतरी से मिलकर वहाँ मुन्शी लगा। कुछ समय पश्चात् यह राजा बीमार पड़ा तो उसका मंत्री राजा की डाक (पत्राचार) स्वयं राजा के निवास पर ले जाकर उनको पढ़कर सुनाते तथा आदेशानुसार उत्तर देते। एक दिन मंत्री को कोई कार्य हो गया, इसलिए उसने अपने मुन्शी चच को राजा के निवास पर भेज दिया। चच एक बड़ा सुन्दर और वार्ताकुशल चालाक लड़का था, जैसे आमतौर पर ब्राह्मण होते हैं, उसने राजा को बहुत अच्छी तरह से पत्र पढ़कर सुनाये तथा उनका उत्तर भी उतनी ही चतुराई से बनाया। इस प्रकार इस चच मुन्शी का राजनिवास पर आना-जाना शुरू होगया। राजा और रानी सुहानन्दी का इस पर विश्वास बढ़ता चला गया और वह बेरोक-टोक राजनिवास में आने-जाने लगा। राजा की बीमारी का लाभ उठाते हुए इस ब्राह्मण के बेटे ने एक दिन रानी को ही अपने प्यार-मोहब्बत के जाल में फंसा लिया और रानी से मिलकर राजा को जहर देकर मरवा डाला। वह परोक्षरूप से रानी के नाम से राजपाट चलाने लगा और एक दिन रानी से विवाह कर लिया। उसने जाट सेनापति व अन्य उच्च अधिकारियों का धोखे से एक-एक करके वध करवा दिया। जब इस बात का भेद खुला तो राजा सिहासीराय के रिश्तेदार एक-एक करके चच ब्राह्मण को मारने के लिए आये लेकिन घर की भेदी रानी ने एक-एक करके उसी प्रकार उनको लड़ाई में हरवा दिया। इसके बाद यही चच ब्राह्मण सिंध (आलौर) का सम्राट् बन बैठा और अपने राज का शिकंजा कसते हुए जाटों पर अमानवीय जुल्म ढ़ाये जिसमें जाटों को मलमल का कपड़ा न पहनना, सिर पर छतरी न लगाना, घोड़े पर काठी न कसना, जाट औरतों को घाघरे में नाड़ा न डालकर उसे रस्सी से बांधना, राजा की रसोई के लिए केवल जाटों द्वारा ही जंगल से लकड़ी लाना, वह भी नंगे पैरों तथा अपने कुत्तों को साथ ले जाना आदि आदेश जारी किये और उनको बड़ी शक्ति से मनवाया। यह कर्म इसके बाद इनके वंशज चन्द्र ने भी जारी रखा तथा इनके पौत्र राजा दाहिर ने इन नियमों को ओर भी कठोर बना दिया। याद रहे इसी दाहिर ब्राह्मण राजा ने अपनी सगी बहन से विवाह किया था क्योंकि इन्हें किसी पाखण्डी ने बहकाया था कि यदि वह अपनी बहन से शादी करेगा तो उससे उत्पन्न पुत्र छत्रपति सम्राट होगा। यूरोपीयन इतिहासकार लिखते हैं कि चच राजा का राज आने तक सिंध के जाट गुलामी का अर्थ भी नहीं जानते थे। यही चच ब्राह्मण राजा था जिसने अपने “चचनामा” में जाटों को चाण्डाल जाति लिखा है। (पुस्तक - हिस्ट्री एण्ड स्टडी आफ दी जाट्स)
सन् 712 में अरब के खलीफे इज्जाम ने अपने 22 साला भतीजे बिन-कासिम को इस धनाढ्य सम्पन्न राज को अपने अधीन करने के लिए एक भारी सेना के साथ सिंध में भेजा। वहाँ 8 दिन भयंकर लड़ाई हुई और जब बिन कासिम के पैर उखड़ने ही वाले थे तो दाहिर का ब्राह्मण मंत्री ज्ञानबुद्ध व पुजारी मनसुख तथा हरनन्दराय रात्रि में बिन-कासिम से मिले और घूस के लालच में बिन-कासिम को लड़ाई जीतने के लिए एक युक्ति बतलाई कि लड़ाई के मैदान से दिखने वाले एक मन्दिर के ऊपर लहराते ‘केसरिया ध्वज’ (झण्डा) को गिरा दिया जाये ताकि हिन्दू सेना अपना साहस छोड़ दे। अगले दिन प्रातः जब लड़ाई शुरु हुई तो हिन्दू सेना को अपने मन्दिर का झण्डा नहीं दिखने पर अपने होंसले छोड़ बैठी और विजय बिन-कासिम के साथ रही। इस लड़ाई में बिन-कासिम के सिपाहियों ने राजा दाहिर का सिर काट दिया। इन्हीं गद्दार ब्राह्मणों ने बिन-कासिम को गुप्त खजाने का रास्ता बतलाया जो 40 देगों में उस समय के लगभग 72 करोड़ रुपये की कीमत का था। इसके बाद उसी मन्दिर के पुजारियों ने बिन कासिम से खाने में खीर की मांग की। बिन-कासिम ने खीर तो क्या उन सभी गद्दारों के सिर कलम करवा दिये और राजा दाहिर की रानी व दोनों लड़कियों स्वरूप देवी और बीरलदेवी तथा हिन्दुओं की सैंकड़ों अन्य लड़कियों (कुछ इतिहाकारों ने इनकी संख्या हजारों में भी लिखी है) को पकड़कर अरब भिजवा दिया। इस प्रकार भारतवर्ष की गुलामी की नींव का दूसरा पत्थर रख दिया गया। आज उन्हीं ब्राह्मणों के वंशज गुजरात में कनागतों (श्राद्ध) के समय खीर की जगह ‘पिज्जा’ की मांग करते हैं। (टी.वी. ‘आज तक’ 2005) यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि फिर भी जाटों ने ब्राह्मणों का साथ दिया। (पुस्तक चचनामा व सर्वखाप पंचायत का राष्ट्रीय पराक्रम आदि-आदि)।
यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि इस लड़ाई में दाहिर का साथ देने के लिए सर्वखाप पंचायत ने अपने 20 हजार सैनिक भेजे थे और चच तथा दाहिर के अन्याय के बावजूद जाटों ने ब्राह्मणों का साथ दिया।
याद रहे सिंध के जाटों ने चच के जुल्मों के कारण इस्लाम धर्म अपनाया था न कि बिन कासिम व औरंगजेब के कारण।

(5) इतिहास में लिखा है कि पृथ्वीराज चौहान जयचन्द की लड़की संयोगिता से प्यार करता था जो उसकी मौसी की लड़की थी। जब लड़ाई में जयचन्द को हराकर पृथ्वीराज चैहान संयोगिता को लेगया तो जयचन्द के पुरोहितों ने पृथ्वीराज चौहान को हराने के लिए मोहम्मद गौरी को पृथ्वीराज पर चढ़ाई करने का न्यौता दिया और उसे लड़ाई में अपना पूरा सहयोग देने का वायदा किया और इस वायदे को जयचन्द ने तरावड़ी की लड़ाई में मोहम्मद गौरी का साथ देकर पूरा किया, जिस पर भारत के एक और महान् राजा पृथ्वीराज चौहान की हार और मौत हुई। यही लड़ाई भारतवर्ष की गुलामी की नींव का तीसरा पत्थर साबित हुई। वही जयचंद बाद में गौरी के हाथों लड़ाई में मारा गया। (इसे नदी में डुबोकर मारा गया था)

(6) मुगलराज की स्थापना में बाबर का सबसे बड़ा सहयोग करने वाला हिन्दू ब्राह्मण वजीर रेमीदास था जिसने बाबर को उत्तर भारत की पूरी जानकारियां दीं, जो एक बहुत ही बुद्धिमान् और चतुर आदमी था। इसी प्रकार गजनी की सेना में तिलक नाम का हिन्दू ब्राह्मण था जिसने भारतवर्ष के मन्दिरों की पूरी जानकारियां देकर इनको गजनी के हाथों लुटवाया। अंग्रेज इतिहासकारों ने इसे बार्बर (नाई) भी लिखा है। इतिहासकार विपिनचन्द्र तथा डा. रोमिला थापर आदि इतिहासकारों को बतलाना चाहिए कि ये गद्दार कौन थे? यही कहानी अंग्रेज शासन आने पर दोहराई गई। जब अंग्रेजों ने सूरत में अपना पहला कारखाना लगाने की सोची तो वहां के पाखण्डियों ने अंग्रेजों के सामने अपना मांग पत्र रखा और उसके मानने पर ही अंग्रेजों ने वहां कारखाना लगाया।

(7) चच और दाहिर ब्राह्मण ने जो प्रयोग जाटों के विरुद्ध सिंध में किया वही प्रयोग फिर माउंट आबू पर्वत (राजस्थान) पर ‘वृहद् यज्ञ’ रचाकर, जाटों में फूट डालकर राजस्थान में 8वीं सदी से लेकर भारतवर्ष में दोबारा से सन् 1947 में आजाद होने तक दोहराया गया। इसी कारण राजस्थान के जाटों ने एक साथ चौहरी गुलामी को झेला। (भरतपुर क्षेत्र को छोड़कर)। पहली मुगल या अंग्रेज, दूसरी हिन्दू राजपूत राजा, तीसरे जागीरदार तथा चौथे कोठडि़या राजपूत। यदि इस विषय पर गहराई से अध्ययन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राजस्थान में सारे ही उलटपुलट का जिम्मेवार ब्राह्मणवाद था जिसने फिर राजपूतों को आपस में लड़ाने व बर्बाद करने में भी कोई कमी नहीं छोड़ी। शूरवीर महाराणा प्रताप (गहलोत गोत्री) को पकड़वाने के लिए भी गद्दारों ने कोई कमी नहीं छोड़ी और उन्हें आत्मसमर्पण करने के लिए भी मजबूर किया गया। याद रहे जब राणा प्रताप का कत्ल कर दिया तो उसके परिवार की रक्षा भीलों ने की थी।
यदि उस समय के इतिहास को हिन्दू और मुसलमान के नजरिये से देखा गया तो इतिहास के साथ अन्याय होगा। क्योंकि सभी लड़ाईयां सत्ता के लिए या सत्ता बढ़ाने के लिए थी, यही आज भी है लेकिन प्रजातन्त्र में इसका स्वरूप अलग है कि हाथ में हथियार नजर नहीं आता वोट नजर आती है। उस समय इस देश में हिन्दू-मुस्लिम का कोई सवाल नहीं था। इसका स्पष्ट उदाहरण देखिए कि मोहम्मद गजनी का एक सेनापति तिलक ब्राह्मण तो बाबर का सेनापति रेमीदास ब्राह्मण था। जब बाबर ने इब्राहिम लोधी से लड़ाई की तो राणा सांगा इब्राहिम लोधी के साथ था। अकबर ने जब राणा प्रताप पर चढ़ाई की तो राजा मानसिंह अकबर के साथ था। राणा का सगा भाई शक्तिसिंह भी अकबर के साथ था। लेकिन राणा प्रताप की सेना का सेनापति हाकिम खान शूर था। औरंगजेब और शिवाजी के युद्ध में राजा जयसिंह औरंगजेब के साथ तो शिवाजी के तोपखाने का सेनापति एक पठान था। इसी प्रकार जैसे कि पहले लिखा है कि महाराजा सूरजमल और महाराजा रणजीत सिंह की सेनाओं में काफी लोग मुसलमान थे। याद रहे सन् 1790 तक हिन्दू धर्म प्रचलन में नहीं था। ये तो अंग्रेजों ने हिन्दू और मुस्लिम में स्थाई दुश्मनी पैदा करने के लिए इलियट तथा डाउसन को ऐसा इतिहास लिखने की जिम्मेवारी सौंपी थी, जैसे कि बाबरी मस्जिद की कहानी हैं। (पुस्तक - मध्यकालीन इतिहास तथा साम्प्रदायिकता पेज नं० 34-35)

जहां तक महाराणा प्रताप के वंश की बात है तो संक्षेप में बतला दें कि वे गुहिल वंशी जाट थे। सन् 728 में 15 वर्ष की आयु में सूर्य वंश की गुहिल (गहलोत) शाखा के बप्पा रावल ने अपने मामा मान मौर्य से चित्तौड़ राज जीत लिया था। इसी गहलौत वंश की एक उपशाखा चित्तौड़ के पास सिसोदा नामक स्थान पर बसने के कारण सिसोदिया कहलाई जो प्रामाणिक सत्य है कि यह जाट वंश था जो बाद में बृहत् यज्ञ के कारण राजपूत कहलाए जिसमें अग्निवंश दंत कथा जुड़ी है। वास्तविकता यह है कि इसका मूल वंश बल था और इसी वंश से सज्जन सिंह ने महाराष्ट्र में सतारा आदि रियासत की स्थापना की और भौसलमेर पर कब्जा होने पर इनका वंश भौंसले कहलाया। इसी वंश में छत्रपति शिवाजी महायौद्धा हुए और इसी महायौद्धा शब्द से मराठा मरहठा और मराठवाड़ा शब्दों की उत्पत्ति हुई। इसी चित्तौड़ खानदान से समरसिंह का पुत्र नेपाल गया और वहां राणा की उपाधि धारण करने पर अपना राज स्थापित किया और यह नेपाल में इसी बलवंशीय गहलौत गोत्र का राज रहा जिसमें पिछले वर्षों मारामारी हुई। उदयपुर का राज भी इसी खानदान से था। इसलिए मैं बड़े विश्वास और गर्व से लिख रहा हूं कि बप्पा रावल, महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी जैसे यौधा जाट थे और चित्तौड़, उदयपुर, मराठवाड़ा और नेपाल में जाटों ने अपने झण्डे लहराए जिसके ठोस प्रमाण उपलब्ध हैं। मैंने केवल सुना है कि वर्तमान में केन्द्र में मंत्री प्रफूल्ल पटेल के पूर्वज हरयाणा के हिसार जिले के रहने वाले जाट थे। यह विषय शोध का है। (पुस्तक - रावतों का इतिहास व जाट वीरों का इतिहास तथा गहलौत वंशावली आदि।)

ब्राह्मणवाद ने राजपूत जाति को ही वास्तविक क्षत्रिय माना है और यही ब्राह्मणवाद कहता है कि उन्होंने 21 बार क्षत्रियों का विनाश किया अर्थात् जिसको अपना समझा उसी का सर्वनाश किया। यदि नकली क्षत्रियों का विनाश किया तो इसमें गौरव की कौन सी बात है और फिर उन्हें 21 बार फिर से पैदा करने की क्या आवश्यकता थी? फिर यह भी कहा जाता है उन्होंने अग्नि से क्षत्रिय पैदा कर दिये जबकि अग्नि से कोई चींटी भी पैदा नहीं कर सकता। अग्नि से केवल राख पैदा हो सकती है। यह भी एक संसार के सबसे बड़े गप्पों में से एक बड़ा गप्प है और ब्राह्मणवाद की वास्तविकता है। ब्राह्मणवाद ने एक बार जाटों को भी खुश करने के लिए लिख दिया था कि जाट शिव की जटाओं से उत्पन्न हुए हैं। जबकि जट्टाओं से केवल जुएं या ढेरे पैदा हो सकते हैं।
यह प्रचार किया जाता है कि परशुराम भगवान थे तो फिर लड़ाई में भीष्म से क्यों हारे? उन्होंने अपनी मां की हत्या क्यों की थी? फिर उन्हें किस आधार पर अवतार कहा जा रहा है? यदि अग्नि यज्ञ या हवन से क्षत्रिय पैदा होते तो सन् 1999 के कारगिल युद्ध में वहीं पर यज्ञ करके क्षत्रिय पैदा क्यों नहीं किये? आज देश में यज्ञ सामग्री और ऐसे पण्डितों की कौनसी कमी है जो सुबह से शाम तक दुनिया का भविष्य बतलाते रहते हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञ करते रहते हैं। लेकिन उन्होंने इस लड़ाई की भविष्यवाणी कभी नहीं की और ये नहीं बतला पाए कि हमारी ही पहाडि़यों में पाकिस्तानी घुसपैठिये छुपे बैठे हैं। वैसे सुबह से शाम तक हथेली में पूरा भविष्य पढ़ते हैं। यदि यज्ञ या हवन से कोई पैदा होता या मरता तो हम अब तक पाकिस्तान को 25 बार मार चुके होते। इसी साल 2007 में भारतीय क्रिकेट टीम विश्व क्रिकेट प्रतियोगिता में जाने से पहले लोगों ने बहुत यज्ञ और हवन किये जिसका परिणाम यह निकला कि भारतीय टीम जाते ही हार गई। यदि यह लोग यज्ञ व हवन नहीं करते तो हो सकता था कि दो-चार मैच जीत जाती। बाद में यही टीम 20-20 विश्व मैच में गई तो प्रथम रही। उस समय किसी ने हवन यज्ञ नहीं किया था। हवन से वातावरण अवश्य सुगंधित हो जाता है जो वैज्ञानिक है बाकी कुछ नहीं। भारतीय क्रिकेट के कप्तान महेन्द्र सिंह धौनी जैसे अंधविश्वासी खिलाड़ी भी अपने खेल को संवारने के लिए बकरों की बलि चढ़ा रहे हैं। (एन.डी.टी.वी.)

पौराणिक ब्राह्मणों ने कई लेखों में लिखा है कि फलां जाटनी ने राजपूत से विवाह किया तो उसकी संतान जाट कहलाई तो फिर बगैर जाट के जाटनी कैसे पैदा हुई? कोई जरा इनसे पूछे कि जोधाबाई से पैदा होने वाली संतान राजपूत क्यों नहीं कहलाई? इस राजपूत राजकुमारी की वीरता का गुणगान होना चाहिए जिसने मुगलों के महलों के बीच मन्दिर बनवाए तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता बनाकर अपनी कोख से मुगल खानदान का वंश चलाया। लेकिन इतिहास तो चेतक घोड़े को शहीद और बहादुर कह रहा है जबकि जानवर कभी भी शहीद व बहादुर नहीं हो सकता। वह तो वफादार और ताकतवर हो सकता है। उदयपुर से जब हम हल्दी घाटी में प्रवेश करते हैं तो ढलान पर इस घोड़े की यादगार (छतरी) बनी है। जहां कोई नाला नहीं, एक बरसाती पानी की नाली है। जिसे कोई भी जीव आसानी से पार कर सकता है। लेकिन इस देश में शेर अली अफरीदी को लोग नहीं जानते, जिसने देश की आजादी के लिए भारत में अंग्रेजों के सबसे बड़े अधिकारी वायसराय ‘लोर्ड माओ’ को दिनांक 18-2-1872 को सन् 1857 के नरसंहार का बदला लेने के लिए अण्डेमान निकोबार में मार दिया था। जिनकी याद में अंग्रेजों ने अजमेर में ‘माओ कालेज’ बनवाया। लेकिन वीर शहीद शेर अली अफरीदी फांसी पर चढ़कर आज भी गुमनाम है जबकि चेतक घोड़े के नाम से दिल्ली से चित्तौड़गढ़ तक रेलगाड़ी चलती है।

हम यहां यह स्पष्ट कर दें कि जोधाबाई का असली नाम यह नहीं था, यह नाम तो अकबर ने रखा था। सन् 2008 में जोधा अकबर फिल्म पर उठा विवाद कुछ हद तक उचित है। ऐतिहासिक तथ्य बतला रहे हैं कि आमेर (जयपुर) के राजा भारमल की लड़की हरखा बाई का अकबर से विवाह हुआ जिससे सलीम (जहांगीर) पैदा हुए। इसके बाद अकबर ने बीकानेर व जैसलमेर की राजकुमारियों से विवाह किए। इसी राजा भारमल की पोती मानबाई का विवाह जहांगीर से हुआ जिनसे खुसरो पैदा हुआ। इस बारे में विस्तार से जानना है तो लेखक राणा अली हसन चौहान (पाकिस्तान) द्वारा लिखित गुर्जरों का संक्षिप्त इतिहास का हिन्दी अनुवाद की कापी गुर्जर कन्या विद्या मन्दिर देवधर (यमुनानगर) से लेकर अवश्य पढ़ें (पेज नं० 191 से 199)। क्योंकि यहां इसका उल्लेख करना तर्कसंगत नहीं होगा।

मि० आर.सी. लेघम अपनी पुस्तक ‘एथनोलोजी आफ इण्डिया’ के पेज नं. 254 पर लिखते हैं - “The Jat in blood is neither more nor less than a converted Rajput and Vice Versa, A Rajput may be a Jat of ancient faith.” अर्थात् रक्त में जाट परिवर्तन किये हुए राजपूत से न तो अधिक है और न ही कम है। इसमें अदल-बदल भी है। एक राजपूत प्राचीन धर्म का पालन करनेवाला जाट हो सकता है।
विशेष नोट - राजपूत कहते हैं कि जाट राजपूतों से बने हैं जबकि जाट कहते है कि राजपूत जाटों से बने हैं। लेकिन दोनों ही इस वास्तविकता को भूल जाते हैं कि कोई भी किसी से बना हो दोनों का खून तो एक है और खून का रिश्ता दुनियाँ में सबसे बड़ा होता है। इस बात को जाट और राजपूत को कभी नहीं भूलना चाहिए जबकि ब्राह्मणवाद ने इनमें हमेशा फूट डाली और अपना स्वार्थ सिद्ध किया। (बाकी जाट-राजपूतों के रिश्ते की पूरी सच्चाई जाननी है तो पाठक कृपया कर्नल टाड का राजस्थान इतिहास भाग नं.-1 का पेज नं. 73 से 96, भविष्य पुराण पेज नं. 171-175 और जस्टिम कैम्पबैल तथा डिस्ट्रब्यूशन आफ दी रेसेज आफ दी नार्थ वेस्टर्न इण्डिया आदि-आदि पुस्तकें पढ़ें)

(8) कश्मीर में तो बगैर किसी मुसलमान आक्रमणकारी के आये ही वहाँ ब्राह्मणों ने मुसलमान राज स्थापित कर लिया। लगभग 14वीं सदी की घटना है जब वहाँ सहदेव नाम का राजा राज करता था। पंडित रामचन्द्र उनका मंत्री था। लद्दाख का बौद्ध राजकुमार रिनचिन लड़ाई में हारकर राजा सहदेव की फौज में भर्ती होकर एक दिन सेनापति बन गया। उस समय घाटी में मुट्ठीभर मुसलमान थे। शाहमीर नाम का एक अफगानी मुसलमान वहाँ धर्म का प्रचार करता था और लोगों को ताबीज बगैरा बनाकर दिया करता था जिस कारण वह वहाँ की जनता में काफी चर्चित व लोकप्रिय हो रहा था। एक दिन किस्तवाड़ के राजा ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया। राजा सहदेव एक डरपोक किस्म का संतानहीन व्यक्ति था, जो आक्रमण की बात सुनकर जंगलों में भाग गया और कभी लोटकर वापिस नहीं आया। सेनापति रिनचिन ने यह लड़ाई जीत ली। अभी पंडित रामचन्द्र का राजा बनने का अधिकार था लेकिन तुरन्त रिनचिन ने उसका वध कर दिया और स्वयं राजगद्दी पर बैठ गया। पंडित रामचन्द्र की एक सुन्दर और गुणवती लड़की कुट्टा थी। रिनचिन ने उसे धमकी दी कि वह उससे विवाह करले नहीं तो वह उसको भी उसके पिता के पास पहुंचा देगा। लड़की ने शर्त रखी की वह बौद्ध धर्म छोड़कर हिन्दू धर्म अपनाये। रिनचिन ने इसे स्वीकार कर लिया। घाटी में ब्राह्मणों ने शंकराचार्य के आह्वान पर नौवीं तथा दसवीं सदी में लगभग इन 200 सालों में बौद्ध धर्म का लगभग सर्वनाश तो पहले ही कर दिया था। इसलिए रिनचिन के लिए धर्म परिवर्तन करना वैसे भी आवश्यक था। इसी कश्मीर में पहले बौद्ध धर्म के विश्वविद्यालय भी हुआ करते थे। (इसी ब्राह्मण शंकराचार्य का काश्मीर घाटी में ‘डल-झील’ के सामने वाली पहाड़ी पर नौंवी सदी का एक मन्दिर बना है। इसी पहाड़ी को बाद में तख्त-ए-सुलेमान नाम से जाना गया।)

जब बौद्धधर्मी राजा रिनचिन को हिन्दू बनाने का मामला वहाँ की ब्राह्मणसभा में ले जाया गया तो ब्राह्मणों ने अपना फैसला सुनाया कि “कभी कोई हिन्दू बन नहीं सकता, हिन्दू तो केवल हिन्दू के पैदा होता है”। इस प्रकार राजा रिनचिन को हिन्दू बनने से मना कर दिया गया। इस पर शाहमीर ने वक्त की नजाकत देखते हुए तथा मौके का फायदा उठाते हुए राजा के समक्ष पेश हुआ और उसने इस्लाम धर्म की विशेषताओं का व्याख्यान करके रिनचिन को मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए राजी कर लिया। इस प्रकार रिनचिन काश्मीर का प्रथम मुसलमान धर्मी राजा बना, जिसने शाहमीर को अपना मंत्री बनया। कुछ दिन के पश्चात् राजौरी-पूंछ के राजा ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, जिस लड़ाई में रिनचिन (हैदर) मारा गया लेकिन लड़ाई का फैसला कश्मीरियों के हक में रहा। इस पर कुट्टा रानी ने राजसत्ता संभाली और काश्मीर पर लगभग डेढ़ वर्ष तक राज किया। एक रात शाहमीर ने कुट्टा रानी के शयनकक्ष में घुसकर उसकी हत्या कर दी और स्वयं कश्मीर का शासक बन बैठा। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि उसने शाहमीर की करतूतों से बचने के लिए अपने सिराहने रखी कटार से आत्महत्या की थी। इसी मक्कार शाहमीर के वशंजों ने कश्मीर पर 150 वर्षों तक राज किया, जिसमें इसके वंशजों के दो शासक इतने क्रूर और अत्याचारी हुये जिन्होंने हिन्दुओं को डराकर मुसलमान बनाने के लिए बोरियों में बन्द करके ‘डल झील’ में डलवा दिया था और इस प्रकार काश्मीर में हिन्दू अल्पमत में आगये। बादशाह अकबर की सेना से पहले तो 16वीं सदी तक वहाँ कभी कोई मुसलमान सेना नहीं गई थी। इस प्रकार ब्राह्मणों ने भारतवर्ष की गुलामी की नींव का चौथा पत्थर स्थापित कर दिया। इन्हीं ब्राह्मणों के लगभग ढ़ाई लाख वंशज आज कश्मीर छोड़कर बंतलाव, नगरोटा व चण्डीगढ़ आदि के शरणार्थी कैम्पों में रहकर अपने पूर्वजों द्वारा बोई गई फसल काट रहे हैं। आज इसी काश्मीर का नाम कश्यप ऋषि के पहले दो अक्षर तथा शाहमीर के नाम के आखरी दो अक्षरों से मिलकर कश्मीर बना। काश्य+मीर = काश्मीर। याद रहे जाटों का काश्मीर पर चार बार राज रहा। जिसमें सबसे पहले रानी कुट्टा जाटनी, दूसरा अवंती वर्मन तथा उसके वंशज, तीसरा तातरान जाट तथा चौथी बार महाराजा रणजीत सिंह (पहले तीनों के राज का वर्णन राजतरंगिणी में है।)

जब औरंगजेब ने सन् 1675 में शेष कश्मीरी ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने के लिए बाध्य किया तो ब्राह्मणों का एक दल पंडित कृपाराम की अगवाई में सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर जी से मिले जिन्होंने ब्राह्मणों की रक्षा के लिए दिनांक 11 नवम्बर 1675 को चाँदनी चैंक में अपना बलिदान दिया। जिन्हें ‘हिन्द की चादर’ कहा जाता है। लेकिन इस शहीदी गुरु के बेटे गुरु गोविन्दसिंह जी के साथ ब्राह्मणों ने अपनी वफादारी को किस प्रकार निभाया? पढ़ें।

9) सिखों के दसवें गुरु गोविन्दसिंह के दोनों बड़े बेटे अजीतसिंह और झुझारसिंह दोनों ही चमकोर की लड़ाई में लड़ते हुए शहीद हुए। गुरु जी के पंजाब से निकलने के समय उनकी माता जी ने रोपड़ के गाँव खेड़ी में पंडित गंगाराम के घर शरण ले ली जो गुरुजी का कई सालों से रसोइया था। यही गंगाराम ब्राह्मण माता जी के पास कुछ गहने देखकर लालच में आया और सूबा सरहिन्द के अधिकारी नवाब जानी खाँ को सूचना दी की गुरु जी के दोनों छोटे बेटे जोरावरसिंह (9 वर्ष) तथा फतेसिंह (7 वर्ष) उसके पास हैं। सूबा सरहिन्द ने दोनों बच्चों को अपने कब्जे में लेकर कत्ल का आदेश दिया तो नवाब मलेरकोटला शेर मोहम्मदखाँ ने बार-बार कहा ‘सूबा सरहिन्द अपनी शत्रुता का बदला इन निर्दोष बच्चों से ना लें।’ इस पर दीवान सुच्चानन्द खत्री (हिन्दू पंजाबी खत्री) ने नवाब को समझाया कि “भेड़िया के बच्चे भेड़िया ही बनते हैं, सांप के बच्चों को पालने पर भी वे सांप ही कहलाते हैं” आदि-आदि। इस प्रकार इन बहादुर बच्चों को मुसलमान बनने के लिए कहा तो उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। इस पर इन्हें जीवित ही दीवार में चिनवा दिया। माता गूजरी यह समाचार सुनते ही सदमे से मर गई। इस घटना पर गुरु गोविन्दसिंह जी पर क्या बीती होगी, कोई भी इंसान बड़ी आसानी से महसूस कर सकता है।

इन बच्चों की बहादुरी जैसा शायद ही विश्व के इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण हो। लेकिन जब आजाद भारतवर्ष में बच्चों के नाम बहादुरी का पुरस्कार स्थापित करने की बात आई तो यह पुरस्कार नौसेना के एक अधिकारी ‘चोपड़ा’ (हिन्दू पंजाबी खत्री) के दो बच्चों जो गुरु जी के बच्चों से बड़े थे, जिन्हें गुण्डों ने मार दिया था (लगभग सन् 1982 में) के नाम स्थापित किया गया, यह कौनसा न्याय था? इससे पहले पता नहीं कितने बच्चों को गुंडों ने इस देश में मार दिया था। इसी प्रकार एक व्यापारी ‘पुरी’ के बच्चे का अपहरण होने पर मामला संसद में गूंजा, जबकि यहां रोजाना बच्चों के अपहरण होते रहते हैं। क्या विपिनचन्द्र व डा. प्रमिला थापर जैसों ने ऐसी घटनाओं की सत्य जानकारियां देने के लिए इन्हें स्कूल के पाठ्यक्रमों में शामिल किया? ब्राह्मणों की गद्दारी पर लेखक एल. आर. बाली इतिहासकार दौलतराम के हवाले से इस प्रकार लिखते हैं। (पुस्तक - हिन्दुइजम पेज नं. 253) -
“ब्राह्मण एक ऐसेसी जाति है जो लम्बे समय से हिन्दुओं के शरीर से जोंक की भांति खून चूसकर निर्वाह करती आई है।
इनको अपने स्वार्थ और पेटे के लिए अपने स्वामी, राजा, जाति और देश से गद्दारी करने में तनिक भी संकोच नहीं है। भारत का समस्त इतिहास इनकी धोखेबाजियों, नमकहरामियों, स्वार्थों और लालचों से परिपूर्ण है। इनको न मांगने में शर्म है और न भीख मागने में कोई लज्जा। न इनमें मैत्री है और न कृतज्ञता का गुण।”

याद रहे कि सिखों ने पंजाब में सन् 1947 की मारकाट में मलेरकोटला के मुसलमानों के साथ एक भाई की तरह बरताव करके मलेरकोटला के नवाब की गुरु जी के बच्चों के साथ सहानुभूति को अपनी वफादारी से सिद्ध कर दिया, जिस कारण आज मलेरकोटला पंजाब में मुस्लिम-बाहुल्य कस्बा है।

(10) यह लगभग सन् 1340 की बात है जब चित्तौड़ के बलवन सिंह गहलौत गोत्री सज्जन सिंह ने महाराष्ट्र में सतारा नाम की रियासत की स्थापना की और इसी खानदान से एक और योद्धा भीमसिंह लड़ाई हारकर महाराष्ट्र चले गए और वहां भौंसलमेर पर कब्जा करने पर इनका वंशज भौंसले कहलाया। वरना ये बलवंशी बाल्याण थे। इन्हीं के वंशज शिवाजी हुये जिनका इतिहास तो हम सभी जानते ही हैं। यही छत्रपति शिवाजी बाद में ब्राह्मणवाद के जाल में बुरी तरह फंसे कि उन्हें समझाया गया कि इतिहास उन्हें शूद्र लिखेगा, इसलिए काशी के ब्राह्मणों से फतवा जारी करवा के क्षत्रिय घोषित करवाये। इस प्रकार शिवाजी ने इस कर्म के लिए काशी के ब्राह्मणों को बुलवाकर 1 करोड़ 42 लाख हून (1 हून 3 रुपये के बराबर) अर्थात् 4 करोड़ 26 लाख रुपये दान दक्षिणा के तौर पर दिनांक 6 जून 1666 में रायगढ़ में ब्राह्मणों को दिये। इस घूस में ब्राह्मणों के मुखिया गंगाभट्ट ब्राह्मण के हाथ 1 लाख 21 हजार रुपये लगे और इस प्रकार शिवाजी शूद्र नाम से डरकर जाट से क्षत्रिय मराठा होकर हीरो बन गये। जबकि इसी ब्राह्मण गंगाभट्ट ने शिवाजी का राजतिलक अपने हाथ की बजाए पैर के अंगूठे से किया था। इन्हीं ब्राह्मणों ने इसके लड़के सम्भा जी को नशेड़ी बनाया और फिर उसके पिता शिवाजी के विरोध में मुगलों के कमांडर दलेर खाँ के नेतृत्व में सन् 1678 में भूपलगढ़ की लड़ाई में लड़वाया और इसी वंशज को ब्राह्मणों ने सतारा के किले में कैद कर उस पर नजर रखने का काम महाक्रूर निर्दयी त्रिंबकजी डेंगले को सौंपा था। इसी शिवाजी को इन्हीं पेशवा ब्राह्मणों ने औरंगजेब की कैद में डलवाया जिसे मिठाइयों के बहाने टोकरों में ताना जाट ने बाहर निकाला (इनका गोत्र मोलसूरा था) जिस पर एक दोहा है -
“देखा है बहुत जमाना, है कहीं-कहीं याराना,
वह जाट बहादुर ताना, शिवाजी को कैद से छुड़ाना”
 
इन्हीं पेशवा ब्राह्मणों ने बाद में इनके राज पर अधिकार किया तथा शिवाजी की संचित की हुई ताकत का उपयोग लूटमार में किया। पानीपत की तीसरी लड़ाई का हवाला देते हुए लोग महाराजा सूरजमल पर लांछन लगाते हैं कि उन्होंने पेशवा मराठा ब्राह्मणों का साथ नहीं दिया जबकि ऐसे लोग सच्चाई से बिल्कुल भी वाकिफ नहीं हैं। पहली बात तो महाराजा सूरजमल उस समय भारत के एकमात्र राजा नहीं थे। राजा होलकर को छोड़कर बाकी देश के हिन्दू राजा क्या कर रहे थे? जब अहमदशाह अब्दाली दुर्रानी चौथी बार भारत आये थे तो उन्होंने सूरजमल के राजक्षेत्र में लूटपाट की, उस समय यही मराठा सेना राजस्थान में मटरगस्ती क्यों करती रही और बचाव में क्यों नहीं आई? क्या मराठों ने भी सूरजमल के क्षेत्र में पहले दो या तीन बार लूटमार नहीं की थी? महाराजा सूरजमल के सामने सन् 1761 में दो लुटेरे थे। पहले स्वदेशी लुटेरे पेशवा ब्राह्मण तथा दूसरा विदेशी लुटेरा अब्दाली दुर्रानी। इतिहास गवाह है कि महाराजा सूरजमल ने आखिर तक पेशवा ब्राह्मणों की सहायता की लेकिन लड़ाई में लड़कर साथ नहीं दिया। क्योंकि घमण्डी सेनापति भाऊ ब्राह्मण ने सूरजमल की एक भी सलाह नहीं मानी। जिसमें सबसे पहली सलाह थी कि वे अपने चार हजार परिवारों को जो लड़ाई के मैदान में हैं उनको वहाँ से हटाकर उनके किलों डींग व भरतपुर आदि में भिजवा दें। दूसरी मुख्य सलाह थी कि अब्दाली से छापामार पद्धति से ही लड़ा जाये जिसमें जाट माहिर थे तथा अब्दाली की विशाल सेना से सीधा ना लड़ा जाये आदि-आदि। भाऊ इतना घमण्डी था कि उसने सलाह मानना तो दूर, महाराजा सूरजमल को आँखें दिखानी शुरू कर दी जिसे कोई भी आत्मसम्मानी जाट बरदाश्त नहीं कर सकता था, वे तो महाराजा सूरजमल थे। इस युद्ध को कोई मुसलमान और हिन्दुओं के मध्य युद्ध समझता है तो उसकी यह अज्ञानता है। यह सरासर ब्राह्मणवादी प्रचार है। वास्तव में अब्दाली लुटेरा उसी क्षेत्र में लूटमार करने आता था जिस क्षेत्र में पेशवा ब्राह्मण कर रहे थे। इसलिए यह तो दो लुटेरे दादाओं की आपसी लड़ाई थी। हिन्दू-मुस्लिम या देश के लिए नहीं थी। महाराजा सूरजमल को सहयोग इसलिए देना पड़ा कि इससे उसका क्षेत्र प्रभावित हो रहा था। वरना वे भी तमाशा देखते रहते, जैसे देश के सैकड़ों राजा देख रहे थे। इसकी सम्पूर्ण जानकारी के लिए डा० जी.सी. द्विवेदी की शोध पुस्तक ‘जाट और मुगल साम्राज्य’ के पेज नं. 236 से 265 तक पढ़ना चाहिये।

(11) ‘पंजाब केसरी’ महाराजा रणजीतसिंह से हम सभी परिचित हैं जिनका राज काबुल व कन्धार तक था, जब तक वे जीवित रहे अंग्रेजों ने उनके राज की तरफ आँख उठाकर देखने का साहस तक नहीं किया। लेकिन 27 जून 1839 को बुखार के कारण इस महान् सम्राट् का निधन होगया तो गद्दारों ने इनका राज अंग्रेजों के हाथ सौंपने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। पंजाब को अंग्रेजों की गुलामी से बचाने के लिए पंजाब के सिक्ख व सिक्ख जाट लगभग 6 साल तक अपना खून बहाते रहे लेकिन गद्दारी करनेवाले सोहनलाल सूरी (हिन्दू पंजाबी खत्री) अंग्रेजों का भी वेतनभोगी खुफिया ऐजण्ट बना रहा। जो उनसे 125 रुपये वार्षिक वेतन लेता था तथा पंजाब से गद्दारी तथा अंग्रेजों की वफादारी की कीमत उनके वंशज पैंशन के तौर पर सन् 1947 तक वसूलते रहे। राजा रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद डोगरा बन्धुओं गुलाबसिंह, ध्यानसिंह और सूचेतसिंह जो कभी राजा के पहले सैनिक और फिर सेनापति बनते चले गये (काश्मीर इन पैराडाईज अंग्रेजी की पुस्तक में लिखा है कि ये पहले महाराजा के अर्दली थे जो उनकी मालिश किया करते थे) जिन्होंने अपनी वफादारी का परिचय रणजीतसिंह के वंशजों के साथ गद्दारी करके दिया, जिसमें जम्मू को अपनी रियासत बनाने के लिए इस खानदान को तबाह करने में इन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसमें उसके छोटे पुत्र दलीपसिंह को अंग्रेजों के पैरों में डलवा दिया, जिस पूरे इतिहास को पढ़कर किसी भी इंसान की आँखों में आंसू छलक आयेंगे। लेकिन इन विश्वासघातों व बेईमानियों का एक लम्बा इतिहास है। अंग्रेजों के साथ सिखों की लड़ाई के समय सिक्ख सेना की तोपों में बारूद की जगह सरसों का दलिया तक भरवा दिया। इसके बाद अंग्रेजों के साथ सौदेबाजी करके गुलाब सिंह डोगरा ने जम्मू कश्मीर को अंग्रेजों से ढ़ाई लाख पौण्ड में खरीदा।

याद रहे यह पैसा भी महाराजा रणजीत सिंह के खजाने का था जो उनकी मृत्यु के समय 12 करोड़ था। जिसे बाद में विश्वासघातियों ने धीरे-धीरे उड़ा लिया। इतिहास साक्षी है कि पहले भी इन लोगों ने गद्दारियां की थी। सभी जानते हैं कि शाहजहां के चारों बेटों में गद्दी के लिए लड़ाई हुई जिसमें बड़ा लड़का दारशिकोह बड़ा ही खुद्दार व विद्वान् और हिन्दू परस्त था। औरंगजेब ने जब इसके विरुद्ध लड़ाई की ठानी तो दारा की बेगम नादिरा ने जम्मू के राजपूत रामरूप डोगरा को अपनी छातियों का दूध भेजा तथा दारा ने साथ में लाखों मोहरें इस विश्वास के साथ भेजी कि लड़ाई में वह उसका साथ देगा। रूपराम ने नादिरा को मुंह बोली मां माना लेकिन यही रूपराम दिनांक 3 जुलाई 1658 को ब्यास नदी के तट पर औरंगजेब से मिल गया। यह दुनिया का सबसे बड़ा विश्वासघात था जिसने अपनी मुंहबोली मां के दूध की कसम खाकर भी अपमान किया। इसलिए गुरु गोविन्द सिंह जी ने कहा था कि ये पहाड़ी राजा विश्वास के योग्य नहीं हैं। बाकी आपने ऊपर कश्मीर विषय में पढ़ ही लिया हैं इस लड़ाई में सर्वखाप पंचायत ने दारा शिकोह की मदद के लिए अपने 20 हजार सैनिक भेजे थे। यह सच्चाई भारतीय इतिहास क्यों नहीं लिखता? कमलेश्वर अपनी पुस्तक ‘कितने पाकिस्तान’ के पेज नं० 227 पर लिखते हैं कि ‘हिन्दुओं ने चाहे जितनी कायरता दिखाई हो और कितना भी विश्वासघात किया हो, यह साफ जाहिर है कि क्षत्रिय धर्म और राजपूती की चाहे कितनी शौर्य गाथा गाएं - शिवाजी और राणा प्रताप को छोड़कर बाकी शौर्य निर्वीर्य और नपुंसक रहा।’ यह प्रमाणित सत्य है कि राणा प्रताप गहलोत गोत्री और शिवाजी भौंसले गोत्री जाट थे। लेकिन इतिहास ने महाराजा सूरजमल और महाराजा रणजीत सिंह को कैसे भूला दिया जिन्होंने अपने जीवन में कभी कोई लड़ाई नहीं हारी। यही तो भारतीय इतिहास का खोखलापन है। रानी झांसी का गुणगान किया जाता है जिसके लिए अंग्रेजों ने स्वयं माना कि 1857 के गदर में उसका कोई हाथ नहीं था और होडल की रहने वाली महाराजा सूरजमल की बहादुर रानी किशोरी जिसने 1764 में हाथी पर चढ़कर लाल किले पर चढ़ाई की, को इतिहास ने कैसे भूला दिया? जिसके आज तक हरियाणा के गांवों में लोकगीत प्रचलित हैं -
ना रेशमी सलवार ना कुर्ता जाली का।
था मर्दाना बाना होडल वाली का......॥
 
इसी प्रकार हम देखते हैं कि सन् 1947 में जब देश आजाद हुआ और सरदार पटेल के आह्वान पर भारतवर्ष के तीन रियासतों के शासकों ने अपनी रियासतों का भारतसंघ में विलय करने से मना कर दिया जिसमें हैदराबाद और जूनागढ़ के मुसलमान शासक थे तथा जम्मू कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह ही केवल हिन्दू (राजपूत डोगरा) थे। क्या यह राजा हरिसिंह की देश के साथ गद्दारी नहीं थी कि उन्होंने भारतवर्ष में मिलने से मना कर दिया था? मैं यहां यह स्पष्ट कर दूं कि सन् 1947 में जब सरदार पटेल जी ने भारतीय संघ में देशी रियासतों के विलय का आह्वान किया तो उनमें सबसे पहले विलय होने वाली रियासतों में जाटों की रियासत भरतपुर उनमें से एक थी। जब 27 अक्टूबर सन् 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर में कबाईलों की घुसपैठ करवाई और महाराजा हरिसिंह की कश्मीर में ब्रिगेडियर राजेन्द्रसिंह के अधीन कुल 165 सैनिकों की सेना लड़ते-लड़ते शहीद हुई तो वही राजा हरिसिंह भागकर दिल्ली पहुंचे और पंडित नेहरू तथा लार्ड माउंटबैटन से काश्मीर को संभालने की लिखित में प्रार्थना की। जब 18 सितम्बर 1948 को सरदार पटेल ने जूनागढ़ को फतेह करने के बाद मेजर जनरल जे.एन. चैधरी की अगवाई में हैदराबाद को फतेह कर लिया तो पंडित नेहरु ने समझ लिया अब पटेल का अगला निशाना जम्मू काश्मीर है तो उन्होंने तुरन्त जम्मू कश्मीर रियासत का विभाग जो पहले पटेल के गृहमंत्रालय के अधीन था, छीन लिया। जब 27 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तानी कबाईलों को खदेड़ते हुए भारतीय सेना पाक अधिकृत कश्मीर की ओर बढ़ रही थी तो पं. नेहरू ने दूसरी मूर्खता करते हुए एकतरफा युद्धविराम का ऐलान कर दिया जिस कारण आधा कश्मीर पाकिस्तान के पास रह गया। इसी बीच पं. नेहरू ने संयुक्त राष्ट्रसंघ (यू.एन.ओ.) में लिखित रूप में देकर तीसरी गलती की कि कश्मीरियों को यह अधिकार दिया जाये कि वो किस देश के साथ रहना चाहते हैं। आज वही लिखित पत्र हमारे गले की हड्डी बनकर फंसा है, यदि हम उस पत्र के अनुसार चलते हैं तो निश्चित है आज कश्मीरी भारत के साथ नहीं आयेंगे। इसीलिए पाकिस्तान बार-बार उस पत्र पर अमल की बात करता है तो हमें पीछे खिसकना पड़ता हैं। परिणामस्वरूप आज हर तीसरे दिन उत्तर भारत की एक माँ का लाडला पूत, बहन की राखी का रक्षक, पत्नी के माथे का सिन्दूर व चूडियों का पहरेदार लकड़ी के खोखे में बन्द होकर और तिरंगे झण्डे में लिपटकर अपने घर पहुंच रहा है। इस दर्द को केवल ऐसी विधवा ही समझ सकती है। मेरी माँ आज से 65 साल पहले अपने गौने (मुकलावा) के तुरंत बाद दूसरे विश्वयुद्ध के समय विधवा हुई, हालांकि उन्होंने बाद में अपने पति के छोटे भाई (मेरे पिता जी) की चादर ओढ़ी (पुनर्विवाह) लेकिन उन्हें देहांत (6 जुलाई 2009) तक अपने पति (मेरे शहीद ताऊ बलदेवसिंह जी) छत पर खड़े नजर आते थे। हम इससे बड़ी आसानी से समझ सकते हैं कि उन पर कितना बड़ा मनोवैज्ञानिक दबाव रहा था। जीवन जीने और जीवन बिताने में बहुत अन्तर है। पं. नेहरू ने अपने कश्मीरी प्रेम (रिस्ता) के कारण स्वयं संविधान में धारा 370 सम्मिलित करवाई। पं. नेहरू की मूर्खताओं व कायरता की वजह से आज तक हम उसकी क्या कीमत चुका चुके हैं, चुका रहे हैं और चुकाते रहेंगे? ये सब किन लोगों की गद्दारियां थीं? देश के क्रांतिकारी कवि हरिओम पंवार बिल्कुल सही गाते हैंआज मरे पड़े हैं नेहरू के सफेद कबूतर घाटी में। वास्तव में ये सफदे कबूतर नेहरू जी के ही हैं। इन्हें जिन्दा करना है तो अभी एक ही रास्ता है कि आज जो नेता और लोग नेहरू का गुण-गान कर रहे हैं उनके जवान बच्चों के हाथों में हथियार देकर काश्मीर घाटी में हमारी सेना व अर्धसेना के आगे उग्रवादियों से लड़ने के लिए लगा दिया जाये। यह इस समस्या के समाधान की गारंटी है।

(12) जिस प्रकार कुछ भाड़े के इतिहासकार पहले नकली हीरो पैदा करते रहे वैसे ही इतिहासकारों ने कुछ नकली हीरो 1857 की क्रांति के समय भी पैदा किये जिस कारण 1857 के बाद भारत बुरी तरह से अंग्रेजी सत्ता में जकड़ा गया। उसका मुख्य जिम्मेवार एक व्यक्ति था, जो बंगाली ब्राह्मण था। जब नई ‘इन फिल्ड राईफल’ आई तो उनको ग्रीस देने के लिए अंग्रेजी सरकार ने भेड़-बकरी की चर्बी का आदेश दिया। लेकिन इस बंगाली ब्राह्मण ठेकेदार ने गाय की चर्बी सप्लाई की जो ज्यादा सस्ती पड़ती थी। इसी कारण सब बवाल मचा जिसमें मंगल पाण्डे जैसे हीरो बनाये गये, जबकि सच्चाई यह है कि वह बेचारा आजादी की परिभाषा तक नहीं जानता था। उसने तो गाय की चर्बी के कारण भांग के नशे में एक अंग्रेज अफसर ह्मसन को गोली मार दी थी। जो स्पष्ट तौर पर एक धार्मिक कारण था जिसे भारत की स्वतंत्रता से जोड़ दिया गया और उनका चित्र एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में संसद भवन के हाल तक पहुंचा दिया गया। यदि ईमानदारी से कहा जाये तो मंगल पांडे का सन् 1857 की क्रान्ति से कोई सम्बन्ध नहीं था। यदि था तो केवल इसके विफल होने के बड़े कारण थे। क्योंकि क्रान्ति का दिन 31 मई 1857 निश्चित था जिसका मंगल पांडे को कोई पता नहीं था। इससे स्पष्ट है कि उसका इससे कोई सम्बन्ध नहीं था। इसलिए उसने कारतूस में लगी गाय की चर्बी के कारण 15 फरवरी 1857 को गोली चलाकर अंग्रेज लैटिनेंट अंग्रेज ह्मसन को गोली मारने के कारण उसे 8 अप्रैल 1857 को फांसी हो चुकी थी फिर इसमें आजादी की बात कहां से आ गई? मंगल पांडे को धर्म भगत तो कहा जा सकता है लेकिन देशभगत नहीं। इनका देशभक्ति का इतिहास पूरा मनघड़न्त है।

इसी प्रकार रानी लक्ष्मीबाई की कहानी है। जब वह अपने दत्तकपुत्र दामोदर राव को झांसी की गद्दी का उत्तराधिकारी नहीं बनवा पाई तो चुप बैठकर पूजा पाठ करने लग गई। उसकी विद्रोह करने की कोई योजना नहीं थी और ना ही उसने स्वेच्छा से इसमें भाग लिया। जब झांसी के किले को क्रांतिकारी सैनिकों ने घेर लिया तो अंग्रेज कैप्टन गोर्डन भी घिर गये तो उसने रानी से मदद मांगी जिस पर रानी ने पत्र लिखकर उत्तर दिया ‘मुझे भी सैनिकों ने घेर लिया है, मैं क्या मदद करूं, फिर भी मैंने आपकी मदद के लिए गोला, बारुद व सिपाही भेज दिये हैं।’ इन लेखों से प्रमाणित है कि रानी ने गुप्त रूप से गोर्डन को 50-60 बन्दूकें, गोला बारूद और 50 अंगरक्षक दिये थे। जब 67 अंग्रेज किले में मारे गये तो इस बारे में इतिहासकार लेखक सर जान लिखते हैं, “इस हत्याकाण्ड में रानी लक्ष्मीबाई का कोई हाथ नहीं था। न तो उसका कोई आदमी मौके पर विद्यमान था और न ही उसने हुक्म दिया था।” एक लेखक मिश्रा जी ने अपनी पुस्तक में यहां तक लिखा है कि रानी झांसी कैप्टन गार्डन की प्रेमिका थी। यह पुस्तक उसी समय 2008 में प्रतिबंध हो गई। यदि हम इन बातों को भी असत्य मानें तो भी हमें इतिहास के नजरिये से यह मानना होगा कि यह क्रान्ति सन् 1857 के अंत तक विफल हो चुकी थी और लगभग सभी क्रान्तिकारियों को अंग्रेजों ने जनवरी 1858 तक सजाएं दे दी थी तो रानी जी इस अवधि में चुप क्यों बैठी रही। एक लेखक का तो यह कहना है कि जब 1857 में क्रान्तिकारी उससे गोली बारूद मांगने के लिए गए तो उसने एक भी गोली देने से मना कर दिया तो फिर रानी को अचानक मार्च 1858 में कैसे देश प्रेम हो गया? कई लेखकों ने तो लिखा है कि उसकी लड़ाई के अपने निजी कारण थे। यह पूरा ही विषय विरोध का नहीं शोध का है क्योंकि इसके पीछे दत्तक पुत्र वाली कहानी स्पष्ट हैं। जैसे कि कुछ लेखकों ने लिखा है स्थानाभाव के कारण यह किस्सा इस पुस्तक में यहीं छोड़ा जा रहा है। लेकिन यह सच्चाई है कि रानी का इस संग्राम में कोई योगदान नहीं था। यह सरासर झूठ है कि वह पीठ पर बच्चे को बांधकर लड़ी। वह कोई पहाड़ की रहने वाली नहीं थी कि बच्चे को पीठ पर बांधकर चल भी सके। बच्चे को पीठ पर बांधकर कोई फसल भी नहीं काट सकता लड़ाई की बात तो छोड़ो। इसमें शोध की आवश्यकता है। 1857 के सच्चे हीरो तो राजा नाहरसिंह, उसके सेनापति गुलाबसिंह सैनी, नाना साहिब, तात्या टोपे, अब्दुल रहमान नवाब झज्जर आरै राजा कुंवरसिंह आदि थे। जिसमें नाना जी जब महाराजा सिंधिया की शरण में आये तो उन्होंने उसे अंग्रेजों के सुपर्द कर दिया तथा तांत्या टोपे को महाराजा सिंधिया ने गिरफ्तार करवा दिया। क्या यह सिंधिया की गद्दारी नहीं थी? महाराजा नाहरसिंह बल्लभगढ़ व उसके सेनापति गुलाबसिंह सैनी ने दिल्ली के खूनी दरवाजे से लेकर बल्लभगढ़ के किले तक अंग्रेजों को नचा-नचा कर मारा और हार नहीं मानी। महाभारत का युद्ध तो केवल 18 दिन चला था, हल्दी घाटी की लड़ाई तो मात्र साढ़े तीन घण्टे चली जिसमें कुल 59 सैनिक शहीद हुए थे। लेकिन नाहरसिंह का युद्ध तो पूरे 134 दिन चला। इसके बाद भी अंग्रेज उसे पराजित नहीं कर पाये, तो अंग्रेजों ने संसार का सबसे बड़ा अधर्म किया कि शांति के प्रतीक सफेद झण्डे दिखलाकर अंग्रेज अफसर हैण्डरसन ने वार्तालाप के बहाने बुलाकर राजा नाहरसिंह व उनके सेनापति गुलाबसिंह सैनी को गिरफ्तार कर लिया। इस पूरे समय में ब्राह्मण गंगाधर कौल क्रांतिकारियों की मुखबरी करके अंग्रेजों की सेवा करता रहा। जब अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन को विफल कर दिया तो इसी गद्दार पंडित गंगाधर कौल को पदोन्नत करके दिल्ली का कोतवाल बना दिया। राजा नाहरसिंह व उसके साथियों पर 20 दिन मुकदमे का ड्रामा रचकर अंग्रेजों ने इन्हें 9 जनवरी सन् 1858 को इनके प्रिय व महान् योद्धा सेनापति गुलाबसिंह सैनी, साथी भूरासिंह व खुशालसिंह को फांसी देने के लिए दिल्ली के चांदनी चौंक में पंडित गंगाधर कौल उन्हें शृंगार कर लाया। समय का तकाजा देखिये कि इसी गंगाधर कौल का सगा पौत्र पंडित नेहरू देश का प्रथम प्रधानमंत्री बना। क्या पं० नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’ जिसका मीडिया ने आज तक जोरदार प्रचार किया है अपने दादा गंगाधर कौल का जिक्र किया? कहीं नाम तक भी नहीं लिखा? इसी प्रकार इनकी पुत्री भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने जब आपातकाल के समय लाल किले में इतिहास के ताम्रपत्र दबवाए तो अपने खानदान के वर्णन में अपने परदादा गंगाधर कौल का इतिहास क्यों नहीं लिखवाया? पाठकों को देश के गद्दारों के बारे में पढ़ना है तो यह पुस्तकें अवश्य पढ़ें - ‘Letters of Spies and Delhi was Lost’ और ‘Jeevan Lal Traitor of Mutiny’ ये जीवनलाल कायस्थ जाति से सम्बन्ध रखते थे जो गंगाधर कौल तथा राजा सिंधिया की तरह 1857 के बड़े गद्दार थे। जिस आत्मसम्मान और इस जमीन के लिए राजा नाहरसिंह 34 वर्ष की आयु में शहीद हुये उनकी न तो चांदनी चैंक में मूर्ति है न ही संसद में कोई चित्र और ना ही किसी प्रकार की दिल्ली में यादगार जबकि गद्दार गंगाधर कौल के वंशजों के नाम हजारों बीघा जमीन पर राजघाट से लेकर शांन्तिवन तक शानदार स्मारक बने हैं। जबकि इस देश का नारा है ‘सत्यमेवेव जयते।’ न ही सत्य था आरै न ही कहीं जीत थी। मेरा देश वाकई में महान् है और इस प्रकार ‘शहीद’ की परिभाषा ही बदल डाली और जो शहीद नहीं थे उनको शहीद कहा जा रहा है। (पुस्तक ‘राजा नाहरसिंह का बलिदान’ लेखक रणजीतसिंह सैनी।)

1857 का इतिहास गवाह है कि जाटों ने इस स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य बलिदान दिये जिसमें अंग्रेजों ने उनके गाँव के गाँव उजाड़ दिये तथा सड़कों पर सरे आम उन पर बुलडोजर चलवाकर या पेड़ों पर फांसी देकर शहीद कर दिया। जाट पुरुष ही नहीं, जाटनियां व उनकी लड़कियां भी पीछे नहीं रहीं। यहाँ केवल दो ही उदाहरण दिये जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के बड़ौत के पास बिजवाड़ा में एक जाट लड़की धर्मबीरी ने 18 अंग्रेज सैनिकों की गर्दन कलम करके परलोक पहुंचा दिया था और वह स्वयं लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुई। इसी प्रकार इसी क्षेत्र में घर में चरखा कातने वाली तीन लड़कियां ज्ञानदेवेवी, सूखबीरी तथा शांति को जब मालूम हुआ कि उनके गाँव में अंग्रेज सैनिक घुस आये हैं तो ये तीनों लड़कियां पड़ोसी खातियों के घरों से कुल्हाड़े ले आई और गली में कोने पर घात लगाकर बैठ गईं। जैसे-जैसे अंग्रेज सैनिक आते गये उनको काटती रही। इस प्रकार उन्होंने कुल 64 सैनिकों पर वार किया जिसमें 36 वहीं मर गये बाकी संगीन रूप से घायल हो गये। फिर छतों पर चढ़कर अंग्रेज सैनिकों ने इन्हें गोलियों से शहीद किया। पूरे गाँव को बाद में अंग्रेजों ने आग लगवादी थी। उस क्षेत्र में आज भी ऐसे अनके गीत प्रचलित हैं -
‘एक कहानी अजब सुनो, सन् अठारह सौ सत्तावन की।
एक लड़की देश खाप में ब्याही थी, गठवाला बावन की॥,
नाम था धर्मबीरी इसकी उम्र थी अठाईस साल की।
बड़ोत तहसीली गार्द के, ठारहा गौरों की तेग से गर्दन उड़ाई॥
आदि-आदि
लेकिन अन्तर यह है कि इस विशाल इतिहास को विपिनचन्द्र व डॉ. रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों ने प्रमाण-पत्र नहीं दिया, जबकि रानी लक्ष्मीबाई का गुणगान करते रहे। लेकिन इन बहादुर लड़कियों की कहीं कोई यादगार नहीं। यही बहादुरी का इतिहास राजस्थान की जटपुत्री राणाबाई का है जबकि लक्ष्मी बाई की जगह-जगह मूर्तियां लगी हैं। यह अन्याय है और जाटों की लापरवाही भी।
यह प्रमाणित इतिहास है कि आगरा के लालकिले पर जाटों का अधिकार रहा है। महाराजा जवाहर सिंह तो यहां बैठकर राजपाट भी चलाते थे। यहां से मात्र दो किलोमीटर दूर ताजमहल है जो इन्हीं के अधीन था। लेकिन आगरा के इन किलों पर जाटों का आज कोई चिह्न तक नहीं छोड़ा गया जबकि अंग्रेजों के नाम भी लिखे हैं। सबसे बड़ी ताज्जुब की बात तो यह है कि इस किले और ताजमहल के बीच रानी झांसी की घोड़े के साथ बड़ी मूर्ति लगी है जबकि रानी का इस क्षेत्र से कभी कोई रिश्ता नहीं था। जबकि जाटों का राज दिल्ली की चारदीवारी तक फैल चुका था। इसलिए एक मुगल शायर ने कहा था - दिल्ली का शाह आलम सीमा दिल्ली से पालम। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि भरतपुर के लौहगढ़ के किले में जाट शासकों की कोई मूर्ति नहीं लेकिन पं० नेहरू की मूर्ति तो वहां भी स्थापित कर दी गई है। क्यों? जाट कौम उत्तर दे? आज भरतपुर व डींग के किले अपनी किस्मत और जाट कौम को रो रहे हैं। उन पर सजी तोपें गिरने वाली हैं। पत्थर चूना उखड़ रहा है। वहां मातम जैसा माहौल है। लेकिन इस बहादुर कौम जाट को पता नहीं क्यों लकवा मार गया कि इन्हें देखने का समय भी नहीं। इसलिए मैं जाट कौम के लोगों से प्रार्थना करता हूं कि जब भी किसी को समय मिले तो कम से कम एक बार अपनी आंखों से इस अपने उजड़ते हुए चमन को अवश्य देखे।

लेकिन यही इतिहासकार टीपू सलतान को बहादुरी का प्रमाण-पत्र देते रहे और इसके नाम से ‘टीपू सुलतान की तलवार’ आदि टी.वी. धारावाहिक बनते रहे और हम भारतवासी बड़े चाव से देखते रहे हैं। जबकि उसी तलवार ने हजारों हिन्दुओं का जबरदस्ती खतना करवाया और उनको गौमाँस तक खिलाया। दो हजार नायर स्त्रियों को पकड़कर अपने सैनिकों को पेश किया तथा दस हजार पुरुषों को दास बनाया। सचमुच मेरा देश महान् है। विशेष बात है कि हमारे देश ने वर्ष सन् 2007 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ मनाई, इसके लिए जो कमेटी भारतीय सरकार ने बनाई है उसमें कोई भी जाट सदस्य नहीं था। कहने का अर्थ है कि इस वर्षगांठ को भी वही लोग मनाने जा रहे थे, लगभग जिनके पूर्वजों ने इसी संग्राम में भारतवर्ष के साथ गद्दारी की। हो सकता है ये इसे अंग्रेजों के हक में एक खुशी के रूप में मनाया हो।
इस अवसर पर हरयाणा सरकार की बेशर्मी देखिए कि जब सन् 2008 में फतेहाबाद में स्वतन्त्रता संग्राम के शहीदों की याद में प्रदर्शनी लगी तो राजा नाहरसिंह का चित्र और नाम गायब था। फतेहाबाद से चौ० सतबीर सिंह डागर ने उचित मांग की है कि फरीदाबाद के स्टेडियम का नाम ‘नाहर सिंह स्टेडियम’ की बजाए ‘राजा नाहर सिंह स्टेडियम’ कर दिया जाए क्योंकि फरीदाबाद के वर्तमान सांसद अवतार सिंह भडाना ने प्रचार करना शुरू कर दिया है कि यह उसके पिता नाहर सिंह के नाम से है। विशेषकर फरीदाबाद व बल्लभगढ़ के जाटों को जाग जाना चाहिए। (द ट्रिब्यून - दोनों ही खबरें)

(13) हम सभी जानते हैं कि सन् 1962 में चीन के साथ लड़ाई में हमारी शर्मनाक हार हुई थी। जब चीन ने ‘मैकमोहन लाइन’ को मानने से इंकार कर दिया तब भी पंडित नेहरू ने सन् 1954 में चीन के साथ ‘पंचशील’ समझौता किया। चीन हमारी सीमा के नजदीक सड़क बनाता रहा और अपनी सेना का जमावड़ा करता रहा। 21 अक्टूबर सन् 1959 को सी.आर.पी.एफ. के दस जवानों को हमारी जमीन पर शहीद कर दिया, जिनकी याद में इसी दिन आज हमारी सभी भारतीय पुलिस ‘शहीदी दिवस’ मनाती है। चीन ने अक्टूबर सन् 1960 से अगस्त 1962 तक भारतीय वायुसीमा का 52 बार उल्लंघन किया, इन सभी हालातों को देख कर हमारे पश्चिमी कमान के चीफ ले. जनरल दौलतसिंह (सिक्ख जाट) ने बार-बार दिल्ली मुख्यालय को पत्र लिखे लेकिन दिल्ली में पंडित नहेरू की मण्डली आर्मी चीफ जनरल पी.एन. थापर और रक्षासचिव सरीन आदि (दोनों ही हिन्दू खत्री पंजाबी) अपनी खिचड़ी पकाते रहे और उनकी एक बात भी नहीं सुनी और भारतीय फौज की हालत दिन-प्रतिदिन बदतर होती चली गई। जब 20 सितम्बर 1962 को चीन ने धोला पोस्ट पर कब्जा किया तो मामला संसद में गूँजा लेकिन नेफा में तैनात चौथी कोर के कमांडर ले. ज. बी. एम. कौल (कश्मीरी ब्राह्मण) बीमारी का बहाना बनाकर लड़ाई का मैदान छोड़कर दिल्ली पहुंच गये। यही कौल साहब पहले दिल्ली को सूचित करते रहे कि हमें चीन से किसी प्रकार का खतरा नहीं है। चीन हमें गोलियों से मार रहा था और हम उसका जवाब पत्र लिखकर दे रहे थे और साथ-साथ ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का नारा भी लगाते रहे। यह जानकर पाठकों को हैरानी होगी कि पं. नेहरू ने जुलाई 1962 के पहले 10 दिनों में कुल 378 पत्र चीन को लिखे थे। जहाँ जवाब गोलियों से देना था वहाँ पत्रों से दिया जा रहा था। ले. जनरल कौल जिसने कभी एक बटालियन (लगभग 1000 सैनिक) की कमान नहीं की थी उनको लड़ाई के मैदान में लगभग 27 हजार सैनिक कमान के लिए दे दिये। पं. नेहरू ने इन्हें नेफा में चौथी कोर का कमांडर बनाया था लेकिन दुर्भाग्य से बाद में चीन ने हमला कर दिया तो कौल साहब बुरे फंसे, वरना ये शेख अब्दुला की मुखबरी करके नेहरू के विश्वासपात्र बने थे। कौल साहब नेहरू के गोत्र भाई थे।

ब्रिगेडियर होशियारसिंह (राठी गोत्री हिन्दू जाट) का 62वां ब्रिगेड शैला (Tsela) नामक स्थान पर तैनात था जो चीन को हर तरह से कारगर जवाब देने में सक्षम था। इसी बीच शायद लज्जा के कारण (वैसे नेहरू जी में लज्जा थी तो नहीं) नेहरू जी ने कौल साहब को फिर से मौर्चे पर धकेल दिया। जब ब्रिगेडियर होशियारसिंह तथा उसके मातहत कमांडर व सैनिक लड़ाई के लिए तैयार थे तो अचानक 17 नवम्बर की रात का को उनका आदेश मिला कि “वह अपना स्थान छोड़कर डिविजनल मुख्यालय दोरेरांग जोंग में पहुंचें” क्योंकि कौर कमांडर कौल तथा डिविजनल कमांडर मे. जनरल ए.एस. पठानिया (हिन्दू राजपूत डोगरा) को अपने-अपने मुख्यालयों की सुरक्षा की पड़ी थी। क्योंकि दोनों ही जनरल चीन से बुरी तरह भयभीत हो गये थे और वे ब्रिगेडियर होशियारसिंह की सुरक्षा पाकर अपने को सुरक्षित करने में लगे थे। वीर ब्रिगेडियर होशियारसिंह एक आदर्श कमांडर के तौर पर आदेश का पालन करते हुये अपने साथ दो कम्पनी लेकर रात में चल पड़े और दूसरे दिन प्रातः रास्ते में चीन के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुये। शुरु में तो ब्रिगेडियर साहब पर लांछन लगे कि वे स्वयं लड़ाई का मैदान छोड़ गये, लेकिन जब हकीकत सामने आने लगी तो दोनों जनरल एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने लगे। यही मूर्खतापूर्ण आदेश भारत की शर्मनाक हार का दूसरा कारण बना। लड़ाई की समाप्ति पर ‘हैण्ड्रसन ब्रुक्स’ नाम से एक रिपोर्ट तैयार करवाई जिसके अनुसार जनरल कौल तथा जनरल पठानिया के बयान इस प्रकार हैं -

जनरल कौल इसका दोष जनरल पठानिया पर इस प्रकार लगाते हैं -

"Pathania is solely responsible for the Tsela debacle, who lost his nerve and all the time seemed concerned to pull Hoshiar Singh's Brigade form Tsela to Dirong Zong, his divisional HQ, so as to give himself greater protection".
अर्थात् - “शैला की लड़ाई की हार का एकमात्र कारण जनरल पठानिया हैं जिन्होंने अपना धैर्य खो दिया था और अपनी तथा अपने डिविजनल मुख्यालय की विशेष सुरक्षा के लिए होशियारसिंह ब्रिगेड को शैला से डिरोंग जोंग बुलाया।”
जनरल पठानिया कौल पर दोष इस प्रकार लगाते हैं -
“I had not ordered Hoshiar Singh to withdraw from Tsela that night. Hoshiar Singh had withdrawn because Kaul had earlier told them that Hoshiar Singh might have to withdarw from Tsela and must keep ready for such eventuality.”
अर्थात् “होशियारसिंह का शैला छोड़ने का आदेश उस रात मैंने नहीं दिया, बल्कि कौल ने मुझे पहले बतलाया था कि होशियारसिंह को शैला छोड़कर अगले किसी हालात के लिए तैयार रहना चाहिये।”
 
यह पूरी रिपोर्ट एक गंभीर लीपापोती थी क्योंकि जिस मेजर जनरल पी.एस. भगत (हिन्दू पंजाबी खत्री) को बयान दर्ज करने की जिम्मेवारी दी गई वे सभी जरनलों से जूनियर थे जिन्हें अपने सीनियर से बयान लेने का अधिकार नहीं था, इसलिए उन्होंने केवल प्रश्नावलियां भेजकर उत्तर मंगवाये जो नियम के विरुद्ध था और ये कभी भी प्रमाणित नहीं किया गया कि वास्तव में इन दोनों जनरलों में से दोषी कौन था? लेकिन सभी ने यह माना है कि ब्रिगेडियर होशियारसिंह एक महान् अनुभवी कमांडर थे जो पहले ही आई.ओ.एम. तथा आई.डी.एस.एम. जैसे वीरता के पुरस्कारों से सम्मानित थे। ब्राह्मणवादी समर्थक मीडिया आदि ने आज तक धुआंधार प्रचार किया है कि पंडित नेहरु विदेश नीति में बड़े विशेषज्ञ थे। लेकिन वास्तविकता यह है कि इस लड़ाई के समय उनकी विदेश नीति की धज्जियां उड़ गईं जब 55 अफ्रो-एशियन देशों में से केवल 2 ही देशों ने भारत का समर्थन किया। पंडित नेहरू की विदेश नीति की सोच के बारे में एक बार नेताजी सुभाष ने भी सन् 1937 में पत्र लिखकर उनको सचेत किया था। जो भी हो, ब्रिगेडियर होशियारसिंह के साथ कभी भी न्याय नहीं किया गया और आज उनकी रूह हमें बार-बार पुकार कर न्याय की गुहार कर रही है। यदि नेता जी सुभाष की मृत्यु पर तीन बार जांच हो सकती है तो चीन की लड़ाई पर दो बार क्यों नहीं?
डा. रोमिला थापर को स्पष्ट करना चाहिये कि उस समय भारतीय सेना के सेनापति उनके रिश्तेदार पी.एन. थापर ने लड़ाई के मैदान से 2500 किलोमीटर दूर बैठकर अपने पद से त्याग-पत्र क्यों दिया या उनसे त्याग-पत्र लिया गया? क्या उन्हें भगोड़ा सेनापति कहना उचित नहीं होगा? इन इतिहासकारों को चाहिये कि इस लड़ाई का सच्चा इतिहास आने वाली संतानों तक पहुंचायें ताकि वे उचित विश्लेषण करके ऐसे समय में भविष्य की राह तय कर सकें।
पुस्तक Unfought War 1962 में लै० कर्नल सहगल लिखते हैं कि ब्रि. होशियार सिंह के शहीद होने के बाद वहां फौज के सभी सीनियर अफसर नदारद थे। जवानों ने बड़ी निराशा में मोर्चे में वापिसी की और रास्ते में हताश होकर अपनी बन्दूकों की लकड़ी फाड़कर ठंड में अपने हाथ सेके।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस प्रकार की मण्डली सन् 1845 में पंजाब का महाविनाश करने के लिए कार्यरत थी उसी प्रकार की मण्डली ने चीन की लड़ाई में भी देश को अपमानित किया और आज हमारे देश की लगभग ढाई हजार वर्गमील जमीन चीन के अधीन गुलाम है और इस गुलामी का मुख्य कारण पं. नेहरू व उसकी मण्डली है। इसी कारण आज चीन की हिम्मत बढ़ी है कि उसने कहना शुरू कर दिया ‘पूरा अरूणाचल प्रदेश (नेफा) चीन का भाग है।’ इसका दोषी केवल और केवल पण्डित नेहरू है। यही लोग सन् 1962 में चीन के साथ लड़ाई में भारत की हार के जिम्मेवार हैं और सजा के हकदार थे जो सजा अभी तक देय है। (पुस्तकें - Guilty Men of 1962- Unfought War 1962)

इसी प्रकार अनेक शर्मनाक घटनायें हमें आज भी कचोट रही हैं कि स्वामी दयानन्द व गांधी की हत्याएं भी ब्राह्मणवाद के कारण हुई तथा इसी ब्राह्मणवाद ने क्रांतिकारी चन्द्रशेखर को इलाहबाद के ‘एल्फ्रेड पार्क’ में पुलिस के हाथों शहीद करवाया। हम आमतौर पर मुसलमान व मुगल शासकों तथा इस्लाम धर्म की ऐसी बातों के लिए आलोचना करते हैं लेकिन हमारा स्वयं का हिन्दू इतिहास ऐसी गद्दारियों व नमकहरामियों से सना पड़ा है।

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