सुरेश वाडकर

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Wednesday, March 11, 2015

जन-धन योजना: आंकड़ों के आगे क्या?

जन-धन योजना: आंकड़ों के आगे क्या?

बैंकिंग व्यवस्था से अब तक बाहर रहे लोगों को इसके तहत लाने के लिए शुरू की गई महत्वाकांक्षी योजना अपने लक्ष्य से भटकती नजर आ रही है
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अगर कम वक्त में भारी-भरकम संख्या तक पहुंच जाना किसी योजना की कामयाबी का पैमाना हो, तो प्रधानमंत्री जन धन योजना की गिनती देश की अब तक की सबसे कामयाब योजनाओं में की जानी चाहिए. अपनी शुरुआत के 18 हफ्तों के भीतर ही इसके तहत 11 करोड़ खाते खोले जा चुके हैं. लेकिन जैसे-जैसे यह संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे इस बात की आशंका भी बढ़ती जा रही है कि कहीं यह योजना सिर्फ आंकड़ों का खेल बनकर न रह जाए.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 15 अगस्त को लाल किले से इस महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की थी, जिसका लक्ष्य देश के उन परिवारों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ना है, जो अभी तक इससे बाहर हैं. अपने पहले आम बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी वादा किया था कि देश के हर परिवार को दो बैंक खाते उपलब्ध कराए जाएंगे, जिन पर कर्ज की सुविधा भी होगी. वैसे तो भारतीय रिजर्व बैंक कई सालों से वित्तीय समावेशन अभियान के जरिए लगातार इस दिशा में प्रयास कर रहा है, लेकिन इसकी प्रगति काफी धीमी रही है.
इस धीमी प्रगति को देखते हुए जब इस बार लोगों के खाते खोलकर उन्हें बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने की योजना बनाई गई, तो इसके साथ कुछ खास फायदे भी जोड़ दिए गए. मसलन, इस योजना के तहत खोले गए खाते में न्यूनतम राशि रखने की जरूरत नहीं है, लेन-देन के लिए रुपे डेबिट कार्ड मिल रहा है, खाताधारक को 30 हजार रुपये के जीवन बीमा के साथ एक लाख रुपये का दुर्घटना बीमा दिया जा रहा है और छह महीने तक उचित तरीके से खाता चलाने पर खाताधारक को ओवरड्राफ्ट की सुविधा भी मिलेगी. इसके अलावा सरकार ने सब्सिडी, पेंशन, छात्रवृत्ति आदि का पैसा सीधे इन्हीं खातों में भेजने की योजना बनाई है.
लक्ष्य हासिल करने की इस होड़ के बीच एक बात भुला दी गई कि यह योजना उन लोगों के लिए लाई गई थी, जिनके पास बैंक खाते नहीं थे
वैसे तो वित्तीय समावेशन के इस विस्तृत एजेंडा के तहत देश के सभी परिवारों को बैंकिंग सुविधाएं मुहैया कराई जानी हैं, लेकिन शुरुआत से ही यह बात कही जा रही है कि इस अभियान में खास ध्यान समाज के कमजोर वर्गों के सशक्तिकरण पर दिया जाएगा. पिछले साल अगस्त में वित्त मंत्री जेटली ने जोर देते हुए यह बात कही थी कि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में रहनेवाली महिलाओं, छोटे किसानों और श्रमिकों को यह सुविधा देने पर विशेष जोर दिया जाएगा. इस अभियान को सफल बनाने के लिए वित्तीय सेवा विभाग ने पिछले साल 11 अगस्त को एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था ताकि देश के कमजोर वर्गों तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाने के लिए उपलब्ध तकनीकों को समझा जा सके. लेकिन योजना के साथ लक्ष्य जुड़ा होने की वजह से बैंकों का ध्यान इसको पूरा करने में ही लग गया और कमजोर वर्गों पर ध्यान देने की बात कहीं पीछे ही छूट गई. प्रधानमंत्री मोदी ने जब 28 अगस्त 2014 को इस योजना की औपचारिक शुरुआत की तो 26 जनवरी 2015 तक देश-भर में 7.5 करोड़ बैंक खाते खोले जाने का लक्ष्य तय किया गया था. लेकिन जब सरकार को लगा कि खाते काफी तेजी से खुल रहे हैं, तो यह लक्ष्य संशोधित कर 10 करोड़ कर दिया गया था. लक्ष्य को संशोधित करने के बावजूद सरकार ने पिछले साल 24 दिसंबर को ही यानी तय समय सीमा से एक महीने पहले 10 करोड़ बैंक खाते खोलने का यह लक्ष्य हासिल कर लिया. यही नहीं, नौ जनवरी 2015 तक इस योजना के तहत 11 करोड़ से अधिक बैंक खाते खोले जा चुके हैं.
लक्ष्य हासिल करने की इस होड़ के बीच एक बात भुला दी गई कि यह योजना उन लोगों के लिए लाई गई थी, जिनके पास बैंक खाते नहीं थे. योजना से जुड़े फायदे लेने के लिए उन लोगों ने भी इस योजना के तहत खाते खुलवाने शुरू कर दिए, जिनके पास पहले से ही बैंक खाते थे. इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश न होने की वजह से काफी समय तक लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रही. सरकार को जागने में काफी वक्त लगा और 15 सितंबर को उसने स्पष्टीकरण जारी कर कहा कि जिन लोगों के पास पहले से ही बैंक खाता है, उनको इस योजना के फायदे लेने के लिए फिर से खाता खुलवाने की जरूरत नहीं है. ऐसे लोग अपने मौजूदा बैंक खाते पर ही रुपये डेबिट कार्ड के लिए आवेदन कर मुफ्त बीमा का फायदा ले सकते हैं. लेकिन तब तक गड़बड़ी हो चुकी थी.
हड़बड़ी में शुरू की गई थी योजना
इसकी वजह यह थी कि अगस्त में जल्दबाजी में जन धन योजना घोषित तो कर दी गई, लेकिन इसके दिशा-निर्देशों और बाकी चीजों को बाद में तय करने के लिए छोड़ दिया गया.
ऐसे में वित्त मंत्रालय को कई बार स्पष्टीकरण जारी करने पड़े. योजना की घोषणा के समय कहा गया था कि 26 जनवरी 2015 तक इसके तहत खाता खुलवानेवाले व्यक्ति को 30 हजार रुपये का जीवन बीमा दिया जाएगा. इस बारे में इससे अधिक जानकारी किसी के पास नहीं थी. लेकिन सरकार को यह तय करने में कई महीने लग गए कि सभी लोगों को इस जीवन बीमा का हकदार नहीं बनाया जा सकता. भारी संख्या में लोगों ने जीवन बीमा जैसी सुविधाओं से आकर्षित होकर इस योजना के तहत खाता खुलवाया था, लेकिन नवंबर में यह पता लगा कि उनमें से अधिकांश लोग इसके हकदार ही नहीं हैं.
जीवन बीमा लाभ का दायरा सिमटा
वित्त मंत्रालय ने योजना शुरू होने के तीन महीने बाद नवंबर में बैंकों को दिशा-निर्देश जारी कर बताया कि किसी परिवार में केवल एक ही व्यक्ति को जीवन बीमा का लाभ दिया जाएगा और यह बीमा सिर्फ पांच सालों के लिए है. वह व्यक्ति उस परिवार का मुखिया या ऐसा सदस्य होना चाहिए, जिसकी कमाई से घर चलता हो. उसकी उम्र 18 साल से 59 साल के बीच होनी चाहिए. उसके पास वैध रुपे कार्ड होना चाहिए. केंद्र सरकार, राज्य सरकार, पीएसयू में कार्यरत या वहां से सेवानिवृत्त कर्मचारी इस जीवन बीमा के हकदार नहीं हैं. इसके अलावा उनके परिवार के लोग भी इसके हकदार नहीं होंगे. जिनकी आमदनी कर-योग्य (टैक्सेबल) है, जो आयकर रिटर्न दाखिल करते हैं और जिनका टीडीएस कटता है, वे लोग और उनके परिवार के लोग भी इस जीवन बीमा के दायरे से बाहर कर दिए गए हैं. जिन लोगों को आम आदमी बीमा योजना के तहत बीमा कवर मिल रहा है, वे भी इस योजना के तहत जीवन बीमा के हकदार नहीं हैं. इसके अलावा जिन लोगों को किसी अन्य योजना के तहत जीवन बीमा का लाभ मिल रहा है, उनको भी इस योजना के तहत जीवन बीमा नहीं मिल सकता.
जीवन बीमा देने की जिम्मेदारी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) को सौंपी गई है. यह बात दीगर है कि इससे अधिक जानकारी अभी बैंकों के पास नहीं है.
दुर्घटना बीमा की गफलत
योजना के तहत बैंक खाताधारक को दुर्घटना बीमा दिए जाने का प्रावधान भी है. इस बीमा का प्रीमियम देने की जिम्मेदारी नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) पर डाली गई है. यह शुल्क 0.47 रुपये प्रति कार्ड है. लेकिन चार महीने से अधिक वक्त बीत जाने और योजना के तहत 11 करोड़ से अधिक खाते खुल जाने के बाद भी अभी तक यह पता नहीं है कि यह बीमा कौन देगा.
हालांकि जब प्रधानमंत्री जन-धन योजना मिशन के कार्यालय से इस बारे में सवाल किया गया, तो उसने जवाब में लिखा कि 18 से 70 साल तक की उम्र के सभी रुपे कार्डधारकों को एक लाख रुपये का दुर्घटना बीमा मिलेगा. यह लाभ तब मिलेगा, जब कार्ड जारी करनेवाला बैंक उस खाताधारक से जुड़े सभी जरूरी दस्तावेज एचडीएफसी एर्गो जनरल इंश्योरेंस कंपनी के पास जमा कर देगा.
लेकिन बैंकों को अभी तक इस बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है, लिहाजा दुर्घटना बीमा का दावा आने पर वे खाताधारकों को उचित जवाब तक नहीं दे पा रहे हैं. झारखंड के डाल्टनगंज में बैंक ऑफ इंडिया के एक अधिकारी के मुताबिक, ‘अभी हमें इस बारे में ऊपर से कोई आदेश नहीं मिला है. ऐसे में हम खाताधारकों को इंतजार करने की ही सलाह दे रहे हैं.’ बैंक ऑफ महाराष्ट्र के एक अधिकारी ने भी तहलका से बातचीत में इस बारे में अनभिज्ञता ही जताई.
दूसरी ओर जिस कंपनी (एचडीएफसी एर्गो) को इस काम की जिम्मेदारी देने की बात कही गई ह,ै वह योजना के चार महीने बीत जाने के बाद भी इस बारे में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है. इस बारे में तहलका ने कंपनी को जो ईमेल भेजा, उसके जवाब में उन्होंने लिखा, ‘अभी हम इस स्टोरी के बारे में कुछ नहीं बोलना चाहते.’
सरकार ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि योजना के तहत खोले गए खाते आगे भी चालू रहें, तो यह योजना भी औंधे मुंह गिर सकती है
दुर्घटना बीमा का लाभ किसको मिलेगा, उसके प्रावधानों पर नजर डालने से पता चलता है कि मौजूदा स्थिति में बहुत कम लोग इसका फायदा उठा सकने की स्थिति में होंगे. इस बीमा का लाभ लेने के लिए यह जरूरी है कि पिछले 45 दिनों के दौरान कम से कम एक बार रुपे डेबिट कार्ड का इस्तेमाल किया गया हो. लेकिन नौ जनवरी तक खोले गए 11.02 करोड़ खातों में से आठ करोड़ खातों में पैसा ही नहीं है (ये जीरो बैलेंस खाते हैं). इसके अलावा 9.12 करोड़ लोगों को ही डेबिट कार्ड दिया गया है. इसका मतलब यह है कि 1.9 करोड़ खाताधारक ऐसे हैं जिनको डेबिट कार्ड नहीं दिया गया है. ऐसे में कुछ बड़े और वाजिब सवाल उठते हैं कि खाते में जीरो बैलेंस होने की स्थिति में खाताधारक रुपे डेबिट कार्ड का इस्तेमाल क्यों करेगा, इसी तरह 1.9 करोड़ डेबिट कार्ड से महरूम खाताधारक कैसे कार्ड का इस्तेमाल करेंगे.
बैंकों के सामने बड़ी चुनौती
दिशा-निर्देशों की अस्पष्टता और उचित सोच-विचार के बिना शुरू की गई योजना के चलते जहां अधिकांश खाताधारक इससे जुड़ी सुविधाओं से वंचित होते दिख रहे हैं, वहीं खाता खोलनेवाले बैंकों के सामने यह योजना कई दूसरी चुनौतियां भी पेश कर रही है. दरअसल सरकार ने इस अभियान को पूरा करने की जिम्मेदारी बैंकों के ऊपर डाल दी है, लेकिन न तो बैंकों का देश-भर में इतना विस्तार है और न ही उनके पास पर्याप्त संसाधन हैं कि वे इस जिम्मेदारी को उठा सकें. डेलॉयट और सीआईआई की ओर से सितंबर 2014 में जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री जन धन योजना के पहले चरण (15 अगस्त 2014 से 14 अगस्त 2015 तक) के दौरान ही बैंकों को 50,000 अतिरिक्त बिजनेस कॉरेस्पांडेंट नियुक्त करने होंगे और 7,000 से अधिक नई शाखाएं खोलनी होंगी. इसके अलावा इस दौरान उन्हें 20,000 नए एटीएम स्थापित करने होंगे. लेकिन बैंक ऐसा करने की स्थिति में नहीं दिखते.
खाते की मारामारी योजना के तहत खाता खुलवाने के लिए बैंकों के बाहर उमड़ा लोगों का हुजूम
खाते की मारामारी योजना के तहत खाता खुलवाने के लिए बैंकों के बाहर उमड़ा लोगों का हुजूम
चूंकि बैंक इस योजना के अनुपात में जरूरी एटीएम नहीं लगा पा रहे हैं. इसलिए इन खातों की वजह से देश में बैंक खातों और एटीएम का अनुपात गड़बड़ाता दिख रहा है. ऐसे में यह आशंका भी जताई जा रही है कि एटीएम की कमी की वजह से कहीं यह योजना पटरी से ही न उतर जाए. यहां ध्यान देने वाली बात है कि रुपे डेबिट कार्ड का इस्तेमाल किए बिना खाताधारक योजना के फायदों के लिए अर्ह नहीं होगा. दूसरी समस्या यह है कि एटीएम ऑपरेटरों और बैंकों के लिए एटीएम चलाने का बिजनेस मॉडल फायदेमंद नहीं दिख रहा है. उनके मुतािबक, मौजूदा इंटरचेंज फी इतनी कम है कि उनके लिए इस बिजनेस मॉडल को चला पाना मुश्किल हो रहा है. इसी वजह से वे अधिक एटीएम लगा पाने की स्थिति में नहीं हैं. अप्रैल-जून 2014 के दौरान देश में कुल एटीएम की संख्या में महज एक फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. जून 2014 तक देश में कुल एटीएम की संख्या 1,66,894 थी, जबकि कुल पीओएस (प्वाइंट ऑफ सेल्स) की संख्या 1.08 करोड़ थी.
11 करोड़ पार, लेकिन दिक्कतें बेशुमार
जन धन योजना में खास ध्यान समाज के कमजोर वर्गों पर दिया जाना है, लेकिन लक्ष्य पूरा करने की होड़ में बैंक इस बात को भुला चुके हैं
योजना की शुरुआत के कुछ ही समय बाद यह बात पीछे छूट गई कि यह उन लोगों के लिए लाई गई थी, जिनके पास बैंक खाते नहीं थे
योजना के फायदे लेने के लिए उन लोगों ने भी इसके तहत खाते खुलवाने शुरू कर दिए, जिनके पास पहले से ही बैंक खाते थे
इस बारे में स्पष्ट दिशा-निर्देश न होने की वजह से काफी समय तक लोगों में भ्रम की स्थिति बनी रही
योजना का फायदा लेने के लिए लोगों ने कई-कई खाते खुलवा लिए हैं, ताकि उन्हें कई बार ओवरड्राफ्ट और बीमा की सुविधा मिल जाए
यह भी संभव है कि लोगों ने अलग-अलग दस्तावेजों का इस्तेमाल कर कई खाते खुलवाए हों
अगस्त में जल्दबाजी में योजना तो घोषित कर दी गई, लेकिन बाकी चीजों को बाद में तय करने के लिए छोड़ दिया गया
सरकार को यह तय करने में कई महीने लग गए कि सभी लोगों को इस जीवन बीमा का हकदार नहीं बनाया जा सकता
जीवन बीमा देने की जिम्मेदारी एलआईसी को सौंपी गई है. लेकिन चार महीने बाद भी इससे अधिक जानकारी बैंकों के पास नहीं है
बैंकों को दुर्घटना बीमा के बारे में कोई जानकारी नहीं है, लिहाजा बीमा का दावा आने पर वे उचित जवाब तक नहीं दे पा रहे हैं
जिस कंपनी (एचडीएफसी एर्गो) को दुर्घटना बीमा की जिम्मेदारी देने की बात कही गई है, वह इस बारे में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है
योजना के तहत बड़ी संख्या में खाते खुलने की वजह से देश में बैंक खातों और एटीएम का अनुपात गड़बड़ाता दिख रहा है
देश के ग्रामीण इलाकों में बैंक एटीएम की संख्या बहुत कम है, इस वजह से भी बैंक शाखाओं पर दबाव बढ़ेगा
बैंकों को अपने यहां अतिरिक्त कर्मचारी लगाने पड़ेंगे, जिसकी वजह से बैंकों की परिचालन लागत बढ़ेगी
इतनी बड़ी संख्या में खातों पर ओवरड्राफ्ट देने से बैंकों पर पड़नेवाले बोझ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है
अगर नए खातों में कामकाज नहीं हुआ और वे ठप पड़ गए, तो इनकी लागत के बोझ से उबरना भी बैंकों के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा
बैंकों के लिए चुनौतियां यहीं खत्म नहीं होतीं. इन खातों पर बैंकों को ओवरड्राफ्ट की सुविधा भी देनी है. हर परिवार में केवल एक व्यक्ति को 5,000 रुपये की ओवरड्राफ्ट सुविधा मिलेगी. प्राथमिकता इस बात को दी जाएगी कि यह उस परिवार की महिला को मिले. लेकिन अब तक 11 करोड़ खाते खुल चुके हैं और खातों का खुलना लगातार जारी है. ऐसे में ओवरड्राफ्ट के रूप में बैंकों पर पड़नेवाले बोझ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है.
बैंकिंग विशेषज्ञ यूएस भार्गव बताते हैं, ‘अगर रुपपे कार्ड लोकप्रिय हो गए और लोगों ने एटीएम में जाकर पैसे निकालना सीख लिया और बैंक शाखा में जाकर लेन-देन नहीं किया, तब तो बैंकों का काम मौजूदा कर्मचारियों से चल जाएगा, लेकिन अगर ये खाताधारक छोटे लेन-देन के लिए शाखाओं में आने लगे, तब बैंकों की सामान्य सेवाओं पर भी विपरीत असर पड़ने लगेगा.’ देश के ग्रामीण इलाकों में बैंक एटीएम की संख्या बहुत कम है, इस वजह से भी बैंक शाखाओं पर दबाव बढ़ेगा. ऐसे में बैंकों को अपने यहां अतिरिक्त कर्मचारी लगाने पड़ेंगे, जिसकी वजह से बैंकों की परिचालन लागत बढ़ेगी. अभी तो इनमें से 30 फीसदी खातों में ही कुछ कामकाज हो रहा है. बैंकों को असली चुनौती का सामना तो तब करना पड़ेगा, जब इन सारे खातों में कामकाज होने लगेगा. इसका एक दूसरा पहलू भी है. अगर नए खातों में कामकाज नहीं हुआ और वे ठप पड़ गए, तो इनकी लागत के बोझ से उबरना भी बैंकों के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा.
बिजनेस कॉरेस्पांडेंट का सवाल
वित्तमंत्री जेटली ने जन-धन योजना की सफलता में बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स की भूमिका को काफी अहम माना है. आरबीआई के सुझाव के अनुरूप बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों में बिजनेस कॉरेस्पांडेंट नियुक्त भी किए हैं, लेकिन यह व्यवस्था अभी तक सुचारु रूप से आगे नहीं बढ़ पाई है. आरबीआई के पूर्व डिप्टी गवर्नर केसी चक्रवर्ती द्वारा वित्तीय समावेशन पर मार्च 2013 में जो रिपोर्ट पेश की गई थी, उसमें साफ कहा गया था कि बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स में पेशेवर रवैये का अभाव है. रिपोर्ट ने यह भी माना था कि बिजनेस कॉरेस्पांडेंट्स को इस काम से काफी कम आमदनी हो रही है, जिसकी वजह से ये लोग काम छोड़ रहे हैं. इन स्थितियों में योजना की सफलता पर सवालिया निशान लगना लाजमी है.
आरबीआई कोे बदलनी पड़ी समय सीमा
जन धन योजना के शुरू हो जाने की वजह से अब देश में वित्तीय समावेशन की दो समांतर योजनाएं चल रही हैं. भारतीय रिजर्व बैंक की पहले से चल रही वित्तीय समावेशन योजना में उन गांवों को दायरे में लाने का लक्ष्य बनाया गया है जिनकी आबादी 2000 से अधिक है. देश के 5.92 लाख गांवों में से 74,000 गांवों को अब तक वित्तीय समावेशन के दायरे में लाया जा चुका है.
इतनी भारी संख्या में खुल रहे खातों पर ओवरड्राफ्ट देने में बैंकों पर पड़नेवाले बोझ के बारे में सहज ही कल्पना की जा सकती है
लेकिन इस योजना के तहत ध्यान गांवों पर था, न कि परिवारों पर. इसके अलावा यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों को वित्तीय सेवाओं के दायरे में लाने के लिए काम करती थी. जन धन योजना परिवारों को बैंक खाते उपलब्ध कराने पर ध्यान देती है और इसका ध्यान ग्रामीण क्षेत्रों के साथ ही साथ शहरी क्षेत्रों पर भी है.
आरबीआई की पहले से चल रही योजना का पहला चरण 2009-10 में शुरू हुआ था. इसका दूसरा चरण 2013 से शुरू होकर मार्च 2016 तक चलना था. दूसरी ओर जन धन योजना का पहला चरण 14 अगस्त 2015 तक चलना है. ऐसे में इस योजना की वजह से आरबीआई को वित्तीय समावेशन की अपनी पहली योजना की तिथियां बदलनी पड़ गई हैं. दो जनवरी 2015 को जारी सर्कुलर में आरबीआई ने मार्च 2016 तक की समय सीमा को कम करके 14 अगस्त 2015 कर दिया है, ताकि इसे जन धन योजना के तालमेल में लाया जा सके.
और भी सवाल हैं
खातों की तेजी से बढ़ती संख्या के बीच कई और सवाल उठ खड़े हुए हैं. आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने सितंबर में एक बैंकिंग कांफ्रेंस में बोलते हुए कहा था, ‘जब हम कोई योजना शुरू करते हैं, तो हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह पटरी से न उतरे. इसका लक्ष्य लोगों को शामिल करना है, सिर्फ तेजी और संख्या इसका लक्ष्य नहीं है.’ साथ ही राजन ने यह चिंता भी जताई थी कि यदि एक ही व्यक्ति कई-कई खाते खोले, नए खातों में कोई लेन-देन न हो और बैंकिंग व्यवस्था में पहली बार शामिल हो रहे व्यक्ति को खराब अनुभव का सामना करना पड़े, तो यह योजना निरर्थक साबित हो सकती है. भार्गव बताते हैं, ‘ऐसी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि इस योजना का फायदा लेने के लिए लोगों ने कई-कई खाते खुलवा लिए हैं, ताकि उन्हें कई बार ओवरड्राफ्ट और बीमा की सुविधा मिल जाए.’ इसके अलावा यह भी संभव है कि लोगों ने अलग-अलग दस्तावेजों का इस्तेमाल कर कई खाते खुलवाए हों. ऐसे में स्मर्फिंग (बड़ी राशि को कई हिस्सों में बांटकर कई खातों के जरिए भेजना) और मनी लांड्रिंग की समस्या भी बढ़ सकती है.
आरबीआई के डिप्टी गवर्नर एसएस मुंद्रा ने भी डुप्लिकेट खाते खुलने की बात स्वीकार की है. पिछले दिनों उन्होंने कहा, ‘मैं डुप्लिकेट खातों की सही संख्या तो नहीं बता सकता, लेकिन कुछ सर्वेक्षणों के मुताबिक इनकी संख्या 30 फीसदी तक हो सकती है.’ दिक्कत यह है कि वक्त के साथ जैसे-जैसे कुल खातों की संख्या बढ़ेगी, इस तरह की गड़बड़ी को दूर करना काफी मुश्किल होता जाएगा.
इसके अलावा सवाल यह भी है कि 11 करोड़ का यह आंकड़ा कितना विश्वसनीय है. भार्गव कहते हैं, ‘दरअसल इस योजना के साथ सबसे बड़ी गड़बड़ी यह हो गई कि बैंकों को छोटी अवधि में एक लक्ष्य पूरा करने को दे दिया गया. इससे इस बात का खतरा हो गया है कि दबाव में आकर बैंक कहीं गलत रिपोर्टिंग न करने लगे हों.’ यह जानना भी जरूरी है कि इनमें से कितने खाते बैंकिंग सुविधा की पहुंच से दूर उन ग्रामीण क्षेत्रों में खुले हैं, जहां वाकई इनकी जरूरत है. ऐसी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि इतनी भारी संख्या में खाते खोलेजाने के बावजूद इसके असली हकदार इससे वंचित रह गए हों.
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देश में राजनीति का अनुभव यही कहता है कि राजनेता अपनी उपलब्धियां दिखाने के लिए आंकड़ों के खेल में उलझ जाते हैं. इस योजना के साथ भी ऐसी आशंकाएं जन्म लेने लगी हैं. भार्गव कहते हैं, ‘अगर सरकार ने इस योजना के साथ देख-रेख और निगरानी का काम जारी नहीं रखा और इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि योजना के तहत खोले गए खाते आगे भी चालू रहें, तो यह योजना भी औंधे मुंह गिर सकती है.’ हालांकि भार्गव यह भी कहते हैं कि जल्दीबाजी में इस योजना के बारे में किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले कम से कम छह महीने और इंतजार करना बेहतर होगा.


आरबीआई की अब तक की कोशिशों का हाल
डेलॉयट और सीआईआई की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में केवल 50 फीसदी लोगों के पास ही बैंक खाते हैं और 20 फीसदी से कम लोगों के पास बैंकों से कर्ज की सुविधा है. इसका सीधा मतलब यह है कि शेष जनता को औपचारिक बैंकिंग व्यवस्था के तहत लाने के लिए अभी काफी लंबी दूरी तय की जानी बाकी है. भारतीय रिजर्व बैंक काफी समय से वित्तीय समावेशन की दिशा में प्रयास भी कर रहा है. साल 2004 में इसने खान आयोग का गठन किया था, जिसे इस बारे में सुझाव देने के लिए कहा गया था. आयोग की सिफारिशों को आरबीआई की साल 2005-06 की मध्यावधि समीक्षा रिपोर्ट में शामिल किया गया. इसके तहत बैंकों से कहा गया कि कमजोर वर्गों को बैंकिंग व्यवस्था से जोड़ने के लिए वे नो-फ्रिल्स खाते (बेसिक एकाउंट) उपलब्ध कराएं. जनवरी 2006 में आरबीआई ने बैंकों को इस बात की अनुमति दे दी कि वे इस काम के लिए एनजीओ, स्वयं सहायता समूहों, माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं आदि की मदद ले सकते हैं और इन्हें बिजनेस कॉरेस्पांडेंट के तौर पर नियुक्त किया जा सकता है.
लेकिन इस दिशा में प्रगति की दर काफी धीमी है. दरअसल इसकी एक बड़ी वजह इसके लिए जरूरी उपयोगी बिजनेस मॉडल का अभाव है. चक्रबर्ती रिपोर्ट के अनुसार, ‘वित्तीय समावेशन के काम को आगे बढ़ाने के लिए देश में उपयोगी बिजनेस मॉडल अभी तक विकसित नहीं हो सका है. इसके लिए रेवेन्यू जेनरेशन मॉडल का अभाव इसकी असफलता की एक बड़ी वजह है.’
इसके अलावा वित्तीय समावेशन के प्रयासों के तहत अब तक जो खाते खोले भी गए हैं, उनमें से काफी अधिक खातों में कोई कामकाज नहीं हो रहा है या फिर काफी कम लेन-देन हो रहा है. यह इस बात का प्रमाण है कि महज खाता खोल देने भर से कोई व्यक्ति वित्तीय रूप से व्यवस्था का हिस्सा नहीं बना जाता.
भार्गव के मुताबिक, इस लिहाज से वित्तीय साक्षरता और जागरुकता की भूमिका काफी अहम है. लोगों को इस बारे में शिक्षित करने की जरूरत है कि अगर वे बैंकिंग व्यवस्था में सक्रिय रूप से भागीदारी करते हैं, तो आनेवाले समय में उनको क्या-क्या लाभ होंगे. ऐसे उपाय करने होंगे कि ये लोग सूदखोरों और पोंजी स्कीमों के चंगुल में न फंसें. खास तौर पर उन लोगों के लिए वित्तीय उत्पाद तैयार करने होंगे, जो पहली बार बैंकिंग व्यवस्था का हिस्सा बन रहे हैं. उन्हें छोटी बचतों के लिए प्रेरित करना होगा और कामकाज के लिए छोटे कर्ज मुहैया कराने होंगे.
(Published in Tehelkahindi Magazine, Volume 7 Issue 2, Dated 31 January 2015)

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