सुरेश वाडकर

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Thursday, July 7, 2016

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों की मदद की थी : शम्सुल इस्लाम
06 Jul 2016
RSS/BJP ने फ़िलहाल अपने अव्वल नंबर के देशभक्त ‘वीर’ सावरकर की स्तुति काफ़ी हद तक कम कर दी है। इस की सब से बड़ी वजह यह है कि इस ‘वीर’ की असली कहानी दुनिया के सामने आ गई है। हिंदुत्व के इस ‘वीर’ ने अंग्रेज़ हुक्मरानों से एक बार नहीं बल्कि पांच बार (1911, 1913, 1914, 1918 और 1 920 में) रिहाई पाने के लिए माफ़ी-नामे लिखे, जिन में अपने क्रांतिकारी इतिहास के लिए माफ़ी मांगी और आगे अंग्रेज़ी राज का वफ़ादार बने रहने का आश्वासन दिया। अंग्रेज़ हकूमत ने इस ‘वीर’ के माफ़ी-नामों को स्वीकारते हुए 50 साल की क़ैद में से 37 साल की कटौती कर दी।

हिंदुत्व टोली के नए ‘देश-भक्त’ डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी (1901-1953) हैं। वे स्वतंत्रता-पूर्व हिन्दू-महासभा में सावरकर के बाद सब से अहम नेता थे और यह मानते थे कि हिन्दुस्तान केवल हिन्दुओं के लिए है। वे 1944 में हिन्दू-महासभा के मुखिया भी रहे। आज़ादी के बाद वे देश के पहले अंतरिम मंत्री मंडल, जिस के मुखिया जवाहरलाल नेहरू थे, में उद्योग और रसद मंत्री थे। उन्हों ने अप्रैल 1950 में नेहरू से पाकिस्तान से किस तरह के सम्बन्ध हों, पर विरोध होने की वजह से इस्तीफ़ा दे दिया था। इस्तीफ़े के बाद उन्होंने आरएसएस का हाथ थाम लिया और उस के आदेश पर आरएसएस के एक राजनैतिक अंग, भारतीय जन संघ की स्थापना की और इस के पहले अध्यक्ष भी बने। उनकी मृत्यु 23 जून 1953 को श्रीनगर, जम्मू व कश्मीर के एक जेल में हुई, जहां उन्हें उस क्षेत्र में प्रवेश निषेध आदेश के बावजूद दाख़िल होने के लिए गिरफ़्तार करके रखा गया था।

2015 तक इन की मृत्यु के दिन को ‘धारा 370 समाप्त करो दिवस’ और ‘कश्मीर बचाओ दिवस’.के रूप में मनाया जाता था, लेकिन इस साल (2016 में) इन का दर्जा बढ़ा कर इन्हें देश का ‘एक निस्स्वार्थ देशभक्त’ (A Selfless Patriot of India) घोषित कर दिया गया।

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी कितने महान ‘निस्स्वार्थ देशभक्त’ थे इसे परखने के लिए हमें निम्नलिखित सच्चाइयों पर ग़ौर करना होगा।

(1) डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सेदारी का कोई प्रमाण नहीं हैं।

अगर देश-भक्त होने का मतलब है कि किसी ने अंग्रेज़ी राज के ख़िलाफ़ लड़ाई में हिस्सा लिया हो, दमन सहा हो और किसी भी तरह का त्याग किया हो तो यह जानकर ताजुब्ब नहीं होना चाहिए कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आज़ादी की लड़ाई में कभी भी और किसी भी तरह से भाग नहीं लिया। ना ही तो स्वयं मुखर्जी की लेखनी में ना ही उस समय के सरकारी या ग़ैर-सरकारी दस्तावेज़ों और ना ही हिन्दुत्ववादी संगठनों के समकालीन अभिलेखागार में उन की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सेदारी का कोई ज़िक्र मिलता है। इस के विपरीत आज़ादी की लड़ाई के विरुद्ध किए गए उन के अनगिनित कारनामों का वर्णन ज़रूर मिलता है। आज़ादी से पहले के दस्तावेज़ इस सच्चाई को बार-बार रेखांकित करते हैं कि कैसे इस ‘निस्स्वार्थ देशभक्त’ ने अंग्रेज़ों की सेवा की और सांझी आज़ादी की लड़ाई को धार्मिक आधार पर विभाजित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। वे जीवन भर सावरकर के मुरीद रहे जो मुस्लिम लीग की तरह हिन्दुओं और मुसलमानों को दो अलग राष्ट्र मानते थे।

(2 ) भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में मुखर्जी बंगाल की मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिली-जुली सरकार में उप-मुख्य मंत्री थे।

जब जुलाई 1942 में गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अगस्त 8 से अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया, तब मुखर्जी बंगाल की मुस्लिम लीग के नेतृत्व वाली सरकार, जिस में हिन्दू महासभा भी शामिल थी, के वित्त मंत्री थे और साथ में उप-मुख्य मंत्री भी। इस आंदोलन की घोषणा के साथ ही कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया, कांग्रेस के तमाम बड़े नेता जिन में गांधीजी, नेहरू, मौलाना आज़ाद, सरदार पटेल शामिल थे बन्दी बना लिए गए, पूरा देश एक जेल में बदल गया और हज़ारों लोग इस जुर्म में पुलिस और सेना की गोलिओं से भून दिए गए कि वे तिरंगे झंडे को लहराते हुए सार्वजनिक स्थानों से गुज़रना चाह रहे थे। हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों जैसे कि हिन्दू महासभा व आरएसएस और मुस्लिम राष्ट्रवादी संगठन, मुस्लिम लीग ने कांग्रेस द्वारा छेड़े गए भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध ही नहीं किया बल्कि इस को कुचलने के लिए अंग्रेज़ शासकों को हर प्रकार से मदद करने का फैसला लिया।

जब देश में किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि पर पाबंदी थी उस समय हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग को एक साथ मिलकर बंगाल, सिँध और NWFP में साझा सरकारें चलाने की अनुमति दी गई। अंग्रेज़ों के दमनकारी विदेशी राज को बनाए रखने में सहायता हेतु इस शर्मनाक गठबंधन को महामंडित करते हुए हिन्दू महासभा के अध्यक्ष सावरकर ने 1942 के हिन्दू महासभा के कानपुर अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए बताया:

“व्यावहारिक राजनीति में भी हिन्दू महासभा जानती है कि हमें बुद्धिसम्मत समझौतों के ज़रिये आगे बढ़ना चाहिए। हाल ही में सिंध की सच्चाई को देखें, यहां सिंध हिन्दू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली-जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सब को पता है। उद्दंड लीगी (अर्थात् मुस्लिम लीग) जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद रख सकी, हिन्दू महासभा के साथ संपर्क में आने पर तर्क संगत समझौतों और सामाजिक सम्बन्धों के लिए तैयार हो गए और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक़ के प्रधानमंत्रित्व और महासभा के क़ाबिल और मान्य नेता श्यामाप्रसाद मुकर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदायों के फ़ायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।”

(3) बंगाल के उप-मुख्यमंत्री रहते हुए मुखर्जी ने अंग्रेज़ गवर्नर को चिट्ठी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए हर संभव मदद का आश्वासन दिया।

खर्जी ने एक शर्मनाक काम करते हुए बंगाल केअंग्रेज़ गवर्नर को जुलाई 26, 1 942 में एक सरकारी पत्र के द्वारा इस देश भर में चल रहे आंदोलन को शुरू होने से पहले ही कुचलने का आह्वान करते हुए लिखा :

“अब मुझे उस स्थिति के बारे में बात करनी है जो कांग्रेस द्वारा छेड़े गए व्यापक आंदोलन के मद्देनज़र पैदा होगी। युद्ध [दूसरा विश्व युद्ध] के दिनों में जो भी आम लोगों की भावनाएं भड़काने की कोशिश करेगा, जिस से बड़े पैमाने पर दंगे या असुरक्षा फैले उसका हर हाल में सत्ताधारी सरकार द्वारा प्रतिरोध करना ही होगा।”

(4) मुखर्जी ने भारत छोड़ो आंदोलन के कुचलने को सही ठहराया और अंग्रेज़ शासकों को देश का मुक्तिदाता बताया ।


मुखर्जी ने बंगाल की मुस्लिम लीग-हिन्दू महासभा साझी सरकार की ओर से बंगाल के अंग्रेज़ गवर्नर को लिखी चिट्ठी में अंग्रेज़ हकूमत को प्रांत का मुक्तिदाता बताते हुए उसे भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए कई क़दम भी सुझाए:

“प्रश्न यह है कि बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन से कैसे निपटा जाए? राज्य का शासन इस तरह चलाया जाए कि कोंग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आंदोलन बंगाल में क़दम जमाने में कामयाब न हो सके। हमारे लिए विशेषकर उत्तरदायी मंत्रियों के लिए जनता को यह समझाना संभव होना चाहिए कि आज़ादी, जिस के लिए कांग्रेस ने आंदोलन शुरू किया है, वह पहले से ही जन-प्रतिनिधियों को प्राप्त है। कुछ मामलों में आपातकालीन हालात की वजह से यह सीमित हो सकती है। भारतीयों को अंग्रेज़ों पर भरोसा करना चाहिए, ब्रिटेन के वास्ते नहीं, इस लिए नहीं कि इस से ब्रिटेन को कुछ फायदा होग, बल्कि प्रांत की आज़ादी और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए।”

(5) हिन्दू महासभा के प्रमुख नेता के तौर पर मुखर्जी ने उस समय अंग्रेज़ी सेना के लिए देश भर में ‘भर्ती कैंप’ लगाए जब सुभाष चन्द्र बोस ‘आज़ाद हिंद फ़ौज़’ द्वारा देश को आज़ाद कराना चाहते थे।

एक और शर्मनाक घटनाक्रम में ‘वीर’ सावरकर और मुखर्जी के नेतृत्व वाली हिन्दू महासभा ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेज़ सरकार को पूर्ण समर्थन देने का फ़ैसला किया। याद रहे कि कांग्रेस ने इस युद्ध को साम्राज्यवादी युद्ध की संज्ञा दी थी और यही समय था जब नेताजी ‘आज़ाद हिंद फौज़’ खड़ी करके एक सैनिक अभियान द्वारा देश को अंग्रेज़ी चुंगल से मुक्त कराना चाहते थे। हिन्दू महासभा लुटेरे अंग्रेज़ शासकों की किस हद तक मदद करना चाहती थी इस का अंदाज़ा ‘वीर’ सावरकर के निम्नलिखित आदेश से लगाया जा सकता है जो उन्होंने देश के हिन्दुओं के लिए जारी किया था:
“जहां भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिन्दू समाज को भारत सरकार [अंग्रेज़ सरकार] के युद्ध सम्बन्धी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिन्दू हित के फायदे में हो। हिन्दुओं को बड़ी संखिया में थल सेना, नौ सेना और वायु सेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वग़ैरा में प्रवेश करना चाहिए…ग़ौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने के कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के सीधे निशाने पर आ गये हैं। इस लिए हम चाहें या ना चाहें, हमें युद्ध के क़हर से अपने परिवार और घर को बचाना है, और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताक़त पहुंचाकर ही किया जा सकता है। इस लिए हिन्दू महासभाओं को खास कर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीक़े से संभव हो, हिन्दुओं को अविलम्ब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।”

(6) मुखर्जी ने जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष दर्जे की वकालत की थी।

हिंदुत्व टोली के दावों के बरक्स मुखर्जी ने जम्मू और कश्मीर की विशेष हैसियत को स्वीकारा था। इस सिलसिले में प्रधान मंत्री नेहरू और उनके बीच चिट्ठी-पत्री का एक लम्बा दौर चला था। उन्हों ने नेहरू को 17 फ़रवरी 1953 के दिन लिखे ख़त में निम्नलिखित मांग की थी:

“दोनों पक्ष इस पर सहमत हों कि राज्य की एकता बनी रहेगी और’स्वायत्तता का सिद्धांत जम्मू-लद्दाख़ और कश्मीर पर लागू होगा।”

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