सुरेश वाडकर

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Thursday, July 7, 2016

भाजपा जाति पर खेलेगी उत्‍तर प्रदेश में दांव- डॉ. ओम सुधा

भारतीय राजनीति पर लिखे जाने वाले आलेख चाय पर शुरू होकर गाय पर खत्म हो सकती है. बसआप कोई सिरा पकड़ने की कोशिश तो करि राजनीति खुद आपको जकड़ती चली जाती है. वैसे भी मौसम चुनाव का हो तो राजनीति नित नई करवट लेती है. जैसे मोदी जी के मंत्रिमंडल ने करवट ली है. मज़ा देखिभाजपा खुद को हमेशा जाति-पाती से ऊपर विकास की राजनीति करने की बात करती रहती है. भाजपा ही क्यों लालू प्रसाद जैसे ठेठ नेताओं को छोड़ दें तो हर कोई इसका दावा करता दिखता है. वैसेवाम दलों में भी कुछ सूत्र ढूंढे जा सकते हैंये दीगर है कि जाति और जनेऊ के मामला में एक सिरा वाम को दाम से जोड़ देता है. 

बहरहालयूपी के चुनाव को समझने के लिए भाजपा के चुनावी फेरबदलकांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी द्वारा प्रचार अभियान की कमान संभालनेमायावती की पार्टी से महत्वपूर्ण नेताओं के पलायनमुस्लिमोंं का बसपा की तरफ झुकाव,समाजवादी पार्टी के परिवारवाद और मोदी-मुलायम की बढ़ती-घटती नजदीकियोंअनुप्रिया पटेल के बढ़े़े हुए कद और स्मृति ईरानी के कम हुए कद के इर्द-गिर्द बनते-बिगड़ते समीकरणों के सन्दर्भ में समझना पड़ेगा.

इसके अलावा महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या यूपी चुनाव में दलित वोटर रोहित वेमूला की आत्महत्या, मुसलमान वोटर अख़लाक़ की ह्त्या और यादव वोटर मेरठ में रामवृक्ष यादव प्रकरण से प्रभावित होगाक्या भाजपा फिर से राम मंदिर का झुनझुना बजाएगी?

आनेवाले कुछ महीने बाद उत्तरप्रदेश के 19 करोड़, 95 लाख, 81 हजार, 477 मतदाता सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस की किस्मत तय करेंंगेे. मायावती बहुत दिनों से सत्ता से दूर हैं. लोकसभा में भी मायावती तो बुरी हार का सामना करना पड़ा था. ऐसे में मायावती के लिए यह चुनाव करो या मरो वाली स्थिति में है. विगत कुछ समय में रोहित वेमूला जैसे मुद्दे पर भाजपा का दलित विरोधी चेहरा सामने आया है. वही भाजपा नेताओं के लगातार दलित विरोधी बयानों ने भी भाजपा की मिट्टी पलीद की है. ऐसा नहीं कि भाजपा इन वाक्यों से वाकिफ नहीं हैतभी तो कभी मोदी आंबेडकर जयंती पर जय भीम का उद्घोष करते हैं तो कभी अमित साह दलित-पिछड़े के यहां मिनरल वाटर की बोतल लेकर खाना खाने पहुंच जाते हैं कभी सिंहस्थ मेले में दलित-साधू-सामूहिक-स्नान का आयोजन करते हैं. परभाजपा को भी पता है कि फॉर्मूले अब पुराने हो चुके हैं. 

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दलितों-पिछड़ों के वोट के लिए भाजपा हर कार्ड खेलने के लिए तैयार है. परमायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाना आसान नहीं होगा. भले ही बहुजन समाज पार्टी के दो महत्‍वपूर्ण नेताओं ने मायावती का साथ छोड़ दिया हो. परमौर्या के पार्टी छोड़ने के तुरंत बाद जिस बेबाकी से मायावती प्रेस कॉन्फ्रेंस में रू--रू हु लगता नहीं है कि मायावती खुद को कमजोर दिखने देगी. वैसे भी मायावती अपने कैडर वोटर के दम पर यूपी की सत्ता में दखल करतीरही हैं. लोकसभा हार से खार खायी मायावती एड़ी-चोटी का जोर लगा रही हैं. इस बार एक दिलचस्प रुझान ये भी आ रहा है कि मुसलमान वोटर मायावती की तरफ शिफ्ट हो रहा है. लोकसभा चुनाव के मुकाबले मायावती अपने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले के साथ ज्यादा मजबूत दिख रही हैं.

भाजपा को अच्छी तरह से पता है कि बिना दलित-पिछड़े के वोट के वो यूपी में गद्दीनशींं नहीं हो सकते. इसलिए भाजपा अपनी तरफ से कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहती. ताज़ा तरीन हुए केंद्रीय कैैबिनेट विस्तार को यूपी चुनाव के नज़रिए से देखिएगा तो समझ में आ जायेगा कि कैसे मंत्रालय के बंटवारे में जातियों को साधने की कोशिश की गयी है. तीन ब्राह्मण मंत्रीदो राजपूतदो कुर्मीदो निषाद समेत तमाम बदलाव और नयापन जाति को साधने की कोशिश दिखती है. राजनाथ सिंह अब भी राजपूतोंं का बड़ा चेहरा हैंवहींं कलराज मिश्र और पांडे को ब्राह्मण चेहरे के रूप में पेश किया जा रहा है. असली कोशिश दलित-पिछड़ों को साधने की दिखती है. उमा भारती और साध्वी निरंजना निषाद जाति से आती हैं. वहीँ कृष्णा राज पासी जाति से आती हैं. अनुप्रिया पटेल का मामला सबसे दिलचस्प दीखता है. अपनी पार्टी अपना दल के विरोधाभासों से गुजर रही अनुप्रिया पटेल का इमरजेंस सबसे कमाल है ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा अनुप्रिया को पिछड़ा चेहरे के रूप में यूपी में प्रोजेक्ट करना चाहती हैं. 

इसके बहुतेरे निहितार्थ हो सकते हैमसलन स्मृति ईरानी को खामोश करनाबरुण गांधी और आदित्‍यनाथ जैसे वो तमाम नेता जो खुद को यूपी का भावी मुख्‍यमंत्री के रूप में पेश करने की कोशिश में थे उनपर लगाम लगाए रखना. बहरहालभाजपा ने केशव प्रसाद मौर्या को यूपी का प्रभारी बनाकर पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि भाजपा जाति के भरोसे ही यूपी चुनाव पर दांव खेलेगी. रामलला जब तक भगवत के सपने में नहीं आते, राममंदिर हाशि पर रहेगा.

कांग्रेस अभी तक लोकसभा चुनाव की हार से उबर नहीं पायी है. राहुल गांधी अपनी कमजोर वाचन शैलीफ़र्ज़ी आक्रामकता और ढीले-ढाले राजनितिक ज्ञान की वजह से जनता की नज़रों में चढ़ नहीं पाये हैं. कांग्रेस को हार से उबरने में अभी कुछ और साल लगेंगे. वैसे नहीं कांग्रेस के पास न कोई ढंग का नेता है जिसे मुख्‍यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जा सके और ना ही ऐसी कोई इच्छाशक्ति दिखती है. हाँमोदी के साथ मुलायम की बढ़ती नज़दीकियों से छिटके मुस्लिम वोट और कुछ परंपरागत ब्राह्मण वोट कांग्रेस के हाथ लगते दीखते हैं. प्रशांत किशोर यूपी चुनाव में कुछ ख़ास असर छोड़ पाएंगे ऐसा लगता नहीं है. हाँकुछ लोग प्रियंका में इंदिरा को ढूंढते हुए जरूर कांग्रेस को वोट करेंगे.

समाजवादी पार्टी सत्ता में है और राजनीति का सामान्य सिद्धांत है कि जनता ही विपक्ष हो जाती है. कानून व्यवस्था के सवाल पर तमाम दल सपा को घेरने की कोशिश करेंगे. यूपी में लगभग 18 प्रतिशत मुसलमान वोट को सपा के जनाधार वाला वोट बैंक मान जाता था इस चुनाव में सपा से छिटकते हुए दिख रही है. कुछ वोट मायावती की तरफ जाता हुआ दिख रहा है तो कुछ वोट कांग्रेस की तरफ. अख़लाक़ की ह्त्या के मामले को मुसलमानोंं का एक तबका कानून व्यवस्था का फैल्योर बता रहा है, वहींं मुसलमानोंं का एक बड़ा हिस्सा मुलायम-मोदी की बढ़ती नज़दीकियों से दुखी चल रहा है. अमर सिंह दुबारा हाज़िर हैं. पर इस बार जोकर से अधिक उनकी पोजिशन नहीं है. हाँसपा का परम्परागत यादव वोट अब भी सपा के साथ ही दिख रहा है. परअखिलेश एकबार फिर मुख्य्मंत्री आवास की सीढ़ियां चढ़ेंगेऐसा लगता नहीं है.

पर राजनीति संभावनाओं का खेल भी तो है. पता नहीं कब किस शहरकिस नगरकिस गलीकिस डगर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा हो जाय और भाजपा लीड ले ले. हो सकता है की यूपी का दलित सामूहिक स्नान और दलित के घर खाना खाने से अति भावुक हो गया हो और एक मुश्त वोट कर दें. सियासत है कुछ भी हो सकता है.

पर, यह भी सोचना पड़े़ेगा कि यूपी में गन्ना किसान बेहाल हैंसरकारी नौकरियों का टोटा हैउद्योग धंधे उजड़ते जा रहे हैंकुल साक्षरता अभी भी मात्र 67 % हैजिसमेंं महिला शिक्षा मात्र 57.2 % है. सड़कें बदहाल हैंमोदी सरकार के आने के बाद सिंंचाई परियोजनाओं की फंडिंग रोक दी गयी हैअख़लाक़ असुरक्षित हैंक़ानून व्यवस्था बद से बदतर स्थिति में पहुंच गयी है.

क्या जाति-जाति के शोर में जनता के बुनियादी सवाल खो नहीं जाएंगेसोचिगा...आप भी...
-डॉ. ओम सुधा

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