सुरेश वाडकर

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Thursday, July 7, 2016

ब्राह्मण तय करेंगे उत्तर प्रदेश का मुखिया?

  • 27 मई 2016
मायावतीImage copyrightPTI
इन दिनों जनता पूरे बहुमत के साथ सरकारें चुन रही है. चुनाव के बाद बनने वाली त्रिशंकु विधानसभा मानो बीते जमाने की बात होती जा रही है.
उत्तर प्रदेश में 17 सालों तक अस्थिर सरकारें रहने के बाद बहुजन समाज पार्टी को 2007 में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ था.
पांच साल पहले 2012 में समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला और अखिलेश यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.
कई जानकार और विश्लेषक दावा कर रहे हैं कि अगर आज उत्तर प्रदेश में चुनाव करवाए जाएं तो लगता है कि मायावती तीसरी बार पूर्ण बहुमत के साथ राज्य की मुख्यमंत्री बन जाएंगी.
लेकिन प्रदेश में चुनाव नौ महीने बाद हैं इसलिए कोई नहीं जानता कि हवा का रुख़ किस तरफ होगा.
उत्तर प्रदेश में अति पिछड़े वर्ग (मोस्ट बैकवार्ड क्लास) के लोग कम संख्या में है और एकजुट नहीं है. लेकिन वे बड़े पैमाने पर मतदान करते हैं.
ये किसी खास पार्टी के समर्थक नहीं हैं. उन्हें जो पार्टी जीतती हुई दिखती है वो उसे वोट देते हैं.
मायावती और मुलायम सिंह Image copyrightAFP
अगर उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ा वर्ग आख़िरी पंक्ति के वोटर माने जाते हैं तो ब्राह्मण पहली पंक्ति के.
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की आबादी कुल आबादी की 10 फ़ीसदी है. 2007 के चुनाव में मायावती ने कुछ ब्राह्मण मतों को अपनी ओर करने में कामयाबी हासिल की थी.
वास्तव में ब्राह्मणों की ताकत सिर्फ 10 फ़ीसदी वोट तक ही नहीं सिमटी हुई है. ब्राह्मणों का प्रभाव समाज में इससे कहीं अधिक है.
स्थानीय मीडिया में, चाय की दुकान पर और बढ़-चढ़ कर बातें करने वाले वर्ग में ब्राह्मण राजनीतिक हवा बनाने में सक्षम है.
2007 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ 17 फ़ीसदी ब्राह्मणों ने ही मायावती को वोट दिया था और इसमें से भी अधिकतर वोट बसपा को वहां मिले थे जहां उसने ब्राह्मण उम्मीदवार खड़ा किए हुए थे.
फिर भी इसे ब्राह्मणों की काबलियत ही कही जाएगी कि उन्होंने अपनी छवि बनाई कि किसी पार्टी को उनका समर्थन देना कितना महत्व रखता है.
2007 में पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा की ओर बढ़ी.
Image copyrightAFP GETTY
वो इसे लेकर इतनी गंभीर थी कि उन्होंने नगालैंड के कोहिमा में भी एक रैली कर डाली.
2009 के आम चुनाव में ब्राह्मणों ने मायावती का साथ नहीं दिया और कांग्रेस को अपना समर्थन दे दिया.
ऐसे तो किसी पार्टी के जीतने और हारने की कई वजहें होती हैं, लेकिन 2009 में बसपा की हार में इसकी एक भूमिका ज़रूर थी.
नरेगा और कृषि ऋण माफी के अलावा ब्राह्मणों के समर्थन ने भी कांग्रेस को 2009 के आम सभा चुनाव में यूपी में 80 में से 21 सीटों पर जीत दर्ज करने में मदद की.
कांग्रेस को इससे पहले 2004 के आम सभा चुनाव में चार सीटें मिली थीं.
उसी तरह, समाजवादी पार्टी ने 2012 में ब्राह्मणों को बड़े पैमाने पर रिझाने की कोशिश की और यह छवि बनाई कि ब्राह्मण मायावती का साथ छोड़कर अखिलेश यादव के पास आ रहे हैं.
राहुल गांधीImage copyrightEPA
इस चुनाव में सिर्फ 80 सीटों पर जीत दर्ज करने के बाद बसपा को अपना दलित आधार खिसकने का डर सताने लगा.
कहा गया कि दलित वोटरों में अलगाव की भावना को रोकने के लिए मायावती ने 2009 के बाद दलितों को कथित तौर पर बड़े पैमाने पर एससी/एसटी एक्ट (प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज एक्ट) के तहत मामले दर्ज करने की छूट दी.
उन्होंने कुछ दलितों को ज़मीन वापस लेने में भी मदद करनी शुरू कर दी. ये ज़मीन दलितों के नाम थी लेकिन ऊंची जाति के लोगों ने ग़ैरक़ानूनी ढंग से उन पर कब्जा कर रखा था.
मायावती के इन कदमों ने ऊंची जाति को, खासकर ब्राह्मणों को समाजवादी पार्टी के नज़दीक पहुंचा दिया और वो मायावती को हराने के लिए एकजुट हो गए.
इस दौरान हालांकि बीजेपी ब्राह्मण वोट का सबसे बड़ा समर्थक दल बना रहा, लेकिन इसकी साझेदारी में कमी आती रही.
उत्तर प्रदेश में बीजेपी को लेकर ब्राह्मणों की एक ही शिकायत है. अटल बिहारी वाजपेयी के बाद उत्तर प्रदेश बीजेपी में उनके कद का कोई भी ब्राह्मण नेता नहीं है.
मुलायम सिंह और अखिलेश यादवImage copyrightPTI
उत्तर प्रदेश में बीजेपी का सबसे कद्दावर चेहरा राजनाथ सिंह हैं. वे ठाकुर हैं.
ब्राह्मणों के लिए विधानसभा में ख़ुद का प्रतिनिधित्व हिंदुत्व की राजनीति से ज्यादा महत्व रखता है.
ब्राह्मण कांग्रेस को आज भी अपना स्वभाविक सत्ताधारी दल मानता है.
कांग्रेस को दलित, मुसलमान और ब्राह्मणों का समर्थन मिलता रहा है, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समाजवादियों के साथ रहे हैं.
कांग्रेस के इस समीकरण के अंदर ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है. ठाकुर भी कांग्रेस के इस समीकरण का हिस्सा रहे हैं.
राहुल गांधी ने काफी कोशिशें की हैं, लेकिन लगता है कि मायावती के दलित वोट बैंक में सेंध लगाना नामुमकिन है.
अगर कांग्रेस ब्राह्मणों को अपनी ओर करने में कामयाब हो पाती है और इसकी बदौलत हवा बनाने में कामयाब होती है तो अचानक से कांग्रेस 2017 में उत्तर प्रदेश में एक अहम भूमिका निभा सकती है.
Image copyrightPIB
कांग्रेस के सामने मुसलमानों के 18 फ़ीसदी और ठाकुरों के 7 फ़ीसदी वोट हासिल करना भी बड़ी चुनौती है.
इस तरह से कुल मिलाकर 35 फ़ीसदी वोट होते हैं जो ये माहौल बनाने के लिए काफी होंगे कि कांग्रेस की हवा चल रही है और इसके कारण अति पिछड़ा वर्ग भी कांग्रेस के साथ आ सकता है.
राज्य में 2014 की मोदी लहर जैसे हालात अब नहीं हैं. उस वक्त बीजेपी को मुसलमानों को छोड़कर राज्य के सभी तबकों का समर्थन हासिल हुआ था.
इसलिए वे 80 सीटों में से 71 पर जीत हासिल कर पाए थे.
उत्तर प्रदेश में बीजेपी तभी जीत सकती है जब वो ब्राह्मणों को पहले नंबर पर तरजीह दे.
बीजेपी ने ओबीसी को आगे लाकर ब्राह्मणों को कुछ नाराज़ किया है, ओबीसी में भी बीजेपी ने यादवों को नज़रअंदाज़ किया है.
मायावती के पास दलित वोट और समाजवादी पार्टी के पास यादव वोट बैंक है इसलिए उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सबसे महत्वपूर्ण हो चुके हैं.
अगर बीजेपी या कांग्रेस में से कोई, या दोनों ही ब्राह्मण उम्मीदवार घोषित करते हैं तो यह धारणा बदल सकती है कि उत्तर प्रदेश की अगली मुख्यमंत्री मायावती बनने जा रही हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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