जाति प्रथा
भारत
में जाति प्रथा या गौत्र प्रथा का आरम्भ कब से हुआ इसके बारे कोई ठोस
प्रमाण मौजूद नहीं है। लेकिन ये बात सही है कि ब्राह्मणों, राजपूतों और
वैश्यों ने अपनी रणनीति के अनुसार भारत के मूलनिवासियों से अपने आप को अलग
रखने के लिए ही इस व्यवस्था का निर्माण किया था। ताकि समय आने पर ब्राहमण,
राजपूत और वैश्य अपने आपको पहचान कर मूलनिवासियों से अलग कर सके। आज तक
भारत में जीतनी भी लड़ाईयां मूलनिवासियों और यूरोपियन आर्यों के बीच हुई है,
यूरोपियन आर्यों ने मूलनिवासियों को उनके गौत्र और जाति से पहचान कर ही हर
जगह छल-कपट से हराने की कोशिश की है और उस में कामयाब भी हुए है। आज भी
जाति और गौत्र से ही मूलनिवासियों को पहचान कर ब्राह्मण, राजपाट और वैश्य
उनके साथ व्यवहार करते है। उदहारण के लिए मंदिर के गर्भगृह में किसी भी
मूलनिवासी को जाना निषेद है। लेकिन कुछ मूलनिवासियों को मंदिर के प्रांगन
में जाने की छूट है, कुछ मूलनिवासी मंदिर में तो जा सकते है लेकिन प्रांगन
से आगे नहीं जा सकते और कुछ मूलनिवासियों को मंदिर की चारदीवारी से बाहर ही
रहना पडता है। समाज में भी कुछ ऐसे ही नियम है, कुछ मूलनिवासी ब्राह्मणों,
राजपूतों और वैश्यों के घरों में जा सकते है, कुछ बाहर ही खड़े रहते है।
ब्राह्मणों, राजपूतों और वैश्यों के रसोई घर में कोई भी मूलनिवासी नहीं जा
सकता। ब्राह्मणों, राजपूतों और वैश्यों के साथ खाना तो आज की तारीख में भी,
कोई भी मूलनिवासी नहीं खा सकता।
शुद्र संघ के
अध्ययन के मुताबिक जाति प्रथा इतनी पुरानीं नहीं है जितनी पुरानी ये
ब्राह्मण, राजपूत या वैश्य बताते है। अगर इतिहास का अध्ययन किया जाये तो
पता चलता है कि 800 ईसवी तक मूलनिवासियों और यूरोपियन आर्यों के बीच जितनी
भी लड़ाईयां हुई, वो लड़ाईयां मूलनिवासी और यूरोपियन आर्यों के बीच ही हुई
थी। कोई ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य, चमार, महार, मेघवाल या किसी और जाति का
उस समय कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता। यहाँ तक गौतम बुद्ध जी ने बुद्ध
धर्म को मूलनिवासियों का धर्म बताया था, जिसको हर भारतीय ने उस समय अपना
धर्म मानना शुरू कर दिया था और पूरा भारत बौद्धमय हो गया था। 800 इसवी तक
किसी भी मूलनिवासी ने बौद्ध धर्म को मानने से मना नहीं किया, क्योकि सारा
समाज सिर्फ दो वर्गों; आर्य और अनार्य या मूलनिवासियों के बीच बंटा हुआ था।
तो सीधी सी बात है कि हर कोई अपने समुदाय की और आकर्षित होता है और उसी से
जुडना पसंद करता है। गौतम बुद्ध जी के इसी प्रयास से पुरे भारत के
मूलनिवासी संगठित होते जा रहे थे और यूरोपियन आर्यों का वर्चस्व खत्म होता
जा रहा था। क्योकि मूलनिवासियों ने बौद्ध धर्म को स्वीकार करके ब्राह्मणों,
राजपूतों और वैश्यों के धर्म के अनुसार आचरण करना छोड़ रहे थे। कोई भी
मूलनिवासी यूरोपियन आर्यों की सेवा करने को तैयार नहीं था। उस समय यूरोपियन
ब्राह्मणों ने चाल चली और छल कपट से बौद्ध भिक्षु बन गए। सभी मठों में
ब्राह्मण भिक्षु बन कर घुस गए। 800 ईसवी में ब्राहमणों, राजपूतों और
वैश्यों ने मूलनिवासी समुदाय के लोगों के खिलाफ छदम युद्ध की घोषणा कर दी
और भिक्षु बने ब्राह्मणों ने मूलनिवासी भिक्षुयों से कपट करके लाखों
मूलनिवासी भिक्षुयों को मरवा डाला। जिस के परिणाम स्वरुप बहुत से बौद्ध
भिक्षुयों को जान से हाथ धोना पड़ा और यूरोपियन आर्यों ने छल-कपट से पुरे
भारत में बौद्ध धर्म का विनाश कर दिया।
शुद्र संघ के
अध्ययन के मुताबिक 800 ईसवी के बाद यूरोपियन आर्यों ने जाति प्रथा की नीव
रखी और पुरे मूलनिवासी समाज के लोगों को कुछजातियों में बाँट दिया। ताकि
मूलनिवासी समाज के लोगों में उंच नीच की भावना आ जाये और सारे मूलनिवासी
आपस में ही लड़ते रहे। मूलनिवासियों के पास यूरोपियन आर्यों के खिलाफ आवाज
उठाने का समय ही ना बचे। यूरोपियन आर्यों ने उस समय बंटे हुए मूलनिवासियों
को जबरदस्ती भगवान का आदेश बता कर जाति प्रथा को मानने के लिए मजबूर किया।
ब्राह्मण ने अपने आप को भगवान या देवताओं का दूत घोषित कर के जाति प्रथा को
देश के हर कोने में पहुँचाने का काम किया। और जिन मूलनिवासियों ने जाति
प्रथा को स्वीकार कर लिया उनको तो यूरोपियन आर्यों ने अपना गुलाम या दास
बना लिया लेकिन जिन मूलनिवासियों ने यूरोपियन आर्यों के खिलाफ आवाज उठाई
उनको या तो मार दिया या बंधक बना कर तडफा-तडफा कर मार डाला। उस समय बहुत से
मूलनिवासी राजाओं ने ब्राहमणों की इस चाल को समझ कर जाति प्रथा का विरोध
किया, लेकिन ब्राह्मणों ने षड्यंत्र रचा कर उन मूलनिवासी राजाओं को मार
डाला और उन राज्यों पर अपना राज्य स्थापित करके वहाँ के मूलनिवासियों को
जाति प्रथा को मानने के लिए मजबूर किया। आज भी उन मूलनिवासी राजाओं को असुर
या राक्षस बता कर हिंदू शास्त्रों और पुराणों में जगह दी गई है। ताकि सभी
मूलनिवासी उन महान राजाओं को दुष्ट समझे और उन महान राजाओं से नफरत करे।
1400 से 1600
ईसवी में जब रविदास, कबीर और नानक जैसे क्रन्तिकारी महापुरुषों ने फिर से
जाति प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और मूलनिवासी समाज के लोगों को ब्राहमण धर्म
की सचाई बतानी शुरू की। बहुत से मूलनिवासी लोग इन महापुरुषों के अनुयायी
बन गए। ब्राह्मण धर्म को मानाने से मना करने लगे तो यूरोपियन आर्य एक बार
फिर डर गए कि कही फिर से 800 ईसवी जैसी स्थिति ना बन जाये। तो ब्राह्मणों
ने उन महापुरुषों की आवाज को दबाने के लिए एक बार फिर से मनु महाराज के साथ
मिल कर मूलनिवासियों को अलग अलग करने की योजना बनाई। मनु महाराज ने 1600
ईसवी में “मनुस्मृति” की रचना की। मूलनिवासियों को जातियों से उप जातियों
में बाँट दिया गया। मनु महाराज ने कुल मिलाकर 6743 जातियों कि रचना की। हर
जाती के पीछे एक अलौकिक कहानी गढ़ दी गई ताकि उस जाति के लोग खुद को
गौरवान्वित महसूस करे और ब्राह्मणों की बनाई हुई जाति प्रथा को मानने लगे।
आज भी बहुत
से मूलनिवासी समाज के लोग अपनी अपनी जातियों पर गर्व करते है। उन
मूलनिवासियों का वही झूठा गर्व मूलनिवासी समाज के लोगों को एक नहीं होने दे
रहा। जैसे वाल्मीकि, मेघवाल, चमार, यादव आदि ऐसे मूलनिवासी लोग है जिनको
अपनी जातियों पर गर्व है। अपने आपको किसी ढोंगी भगवान या ऋषि की संताने
मानते है, और ब्राह्मणों की जाति प्रथा को आज भी जीवित रखने में भागीदारी
निभा रहे है। हर कोई अपनी अपनी जाति को महान बताते है, लेकिन अपने आपको
मूलनिवासी या शुद्र मानने में इन लोगों को एक शर्म सी महसूस होती है।
ब्राह्मणों ने जाति प्रथा का निर्माण इस चतुराई से किया है कि कोई भी
मूलनिवासी इस व्यवस्था से बाहर नहीं आना चाहता। हर गुरु या ऋषि के साथ
चमत्कारिक घटना को जोड़ दिया है ताकि मूलनिवासी समाज के यह लोग अपने आपको उन
चमत्कारों के मोह से मुक्त ना कर सके और ब्राह्मणों की जाति प्रथा को
लगातार बनाए रखे। जिससे ब्राह्मणवादियों का काम आसान होता रहे। इनके
गुरुओं, ऋषियों और देवताओं, जिनको ब्राह्मण शुद्र देवता कहते है, के कारण
आज भी मूलनिवासी समाज कई टुकड़ों में बंटा हुआ है। आज भी मूलनिवासी गौतम
बुद्ध के अनुसार “दुनिया में कोई भगवान नहीं है” को भुला कर ब्राह्मणवादी
देवी-देवताओं, ऋषियों और मुनियों को भगवान मान कर अपने आप को मूलनिवासी
समाज से अलग किए हुए है। मैं खुद एक चमार हूँ तो औरों की बात क्यों करू,
अपनी ही बात करता हूँ। गुरु रविदास जी ने कभी किसी भगवान को नहीं माना, 151
साल तक उन्होंने कहा कि भगवान अगर है तो वह निराकार है। मानव के हाथों
मानव के शोषण के खिलाफ रविदास जी ने सारी जिंदगी आवाज उठाई। यहाँ तक
उन्होंने शास्त्रार्थ में भी उन्होंने सिद्ध कर दिया कि भगवान निराकार है
ब्राह्मणों के धर्म गुरु तक ने रविदास जी के चरणों में माथा रख कर हार
मानी। लेकिन चमार जाति के लोगों को बेबकुफ़ बनाने के लिए ब्राह्मणों ने
रविदास जी के साथ ऐसी ऐसी घटनाएँ और कहानियों जोड़ दी कि आज पूरा चमार समाज
रविदास जी को एक पथ प्रदर्शक मानने के स्थान पर भगवान माने बैठे है। जो
आदमी जिंदगी भर पाखंडों, आडम्बरों और छल कपट के खिलाफ रहा, जिसने भगवान को
निराकार कहा, उसे ही चमारों ने भगवान बना डाला और अलग से एक धर्म की
स्थापना करके अपने आप को मूलनिवासी शुद्र समाज से अलग करने की पूरी कोशिश
की है। लेकिन लगता है चमार भूल रहे है कि ऐसा कर के वो ब्राह्मणों के
फैलाये हुए जाति प्रथा के जाल को और मजबूत कर रहे है। खुद ही आने वाली
पीढ़ियों को चतुर्वर्ण नाम की व्यवस्था संजो कर दे रहे है। यह सिर्फ चमारों
की बात नहीं है सभी मूलनिवासियों की हालत इस से बहेतर नहीं है।
वाल्मीकि
समाज के लोगों को ब्राह्मणों ने गन्दगी साफ़ करने के काम पर लगा दिया, सकड़ों
सालों से वाल्मीकि समाज के लोग देश की गन्दगी सिर पर ढो-ढो कर साफ़ कर रहे
है और अपने आपको इस समाज के मूलनिवासियों ने वाल्मीकि नाम के ऋषि के नाम पर
मूलनिवासी समाज से दूर किये हुए है। कोई तार्किक बुद्धि का प्रयोग करना ही
नहीं चाहता। वाल्मीकि ने कभी अपनी जिंदगी में गन्दगी नहीं उठाई, तो आप लोग
क्यों उठा रहे हो? वाल्मीकि ने तो रामायण लिखी थी फिर आप लोग क्यों नहीं
पढते लिखते हो?
यादवों के
हाल तो इससे भी बुरे है वो तो भगवान की संताने है। ब्राह्मणों के अनुसार
यादवों का कुल भगवान का कुल है। लेकिन अगर पूछा जाये कि आपका भगवान तो
राजपूत था, क्षत्रिय था फिर आप लोग शुद्र कैसे हो गए तो इसका सही जबाब किसी
के पास नहीं है। बस हर कोई ब्राह्मणवाद को अपने अपने स्तर पर बनाये रखना
चाहता है। कोई भी जाति प्रथा को छोड़ना नहीं चाहता। हर कोई इन झूठे भगवानों
के लालच को नहीं छोड़ना चाहता। क्या ऐसे मूलनिवासी समाज एक होगा? क्या ऐसे
मूलनिवासी समाज के लोगों को ब्राह्मणवाद से छुटकारा मिलेगा?
यह सिर्फ
इन्ही मूलनिवासी समुदायों की बात नहीं है, यह बात सभी मूलनिवासी समुदायों
पर लागु होती है। कोई भी मूलनिवासी समुदाय दूसरे समुदाय से मिलाना नहीं
चाहता। हर कोई अपने आपको दूसरे से अलग रख कर ब्राह्मणों की जाति प्रथा को
बनाये रखना चाहते है। और जब तक मूलनिवासी समाज के लोग इस हकीकत को समझ कर
आपस में मिलजुल कर रहना नहीं सीखेंगे तब तक मूलनिवासी समुदाय के लोगों का
ब्राह्मणवाद से छुटकारा संभव नहीं है। मूलनिवासी समुदायों को ब्राह्मणों के
बनाये काल्पनिक ऋषि-मुनियों और देवी-देवताओं के लालच को छोड़कर सिर्फ
मूलनिवासी शुद्र बनाना होगा। सबसे पहले चतुर्वर्ण व्यवस्था को तोडना होगा
तभी मूलनिवासी समाज इस देश पर अपनी सत्ता कायम कर सकेगा, पुराणी कहावत है
जब तक हाथ की सभी उंगलियां इकठा को कर मुठी का रूप धारण करके प्रयास ना करे
तक तक सामने वाले को जबरदस्त चोट नहीं पहुंचाई जा सकती। चतुर्वर्ण
व्यवस्था को समाप्त करने का एक और रास्ता भी नज़र आता है। मूलनिवासी समाज के
सभी लोग आपस में जाति पाती को भूल कर विवाह करना शुरू कर दे। जब हर
मूलनिवासी समुदाय आपस में विवाह सम्बन्ध बनाना शुरू करेगा तो मूलनिवासियों
में से जाति प्रथा स्वत ही समाप्त हो जायेगी।
शुद्र संघ
सभी मूलनिवासियों से अपील करता है कृपया जाति पाती को छोड़ कर सभी समुदायों
के साथ विवाह प्रथा द्वारा सम्बन्ध स्थापित करे। ब्राह्मणों की जाति प्रथा
का विरोध करे। सभी प्रकार के भेद भाव को छोड़ कर सिर्फ मूलनिवासी शुद्र
बनों, हमारे साथ चलों रास्ता लंबा सही लेकिन मंजिल दूर नहीं है।
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