सुरेश वाडकर

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Sunday, December 7, 2014

यूपी में कैसे बनेगी नई सरकार?


यूपी में कैसे बनेगी नई सरकार?
दैनिकभास्कर.कॉम | Mar 05, 2012, 12:06PM IST
यूपी में कैसे बनेगी नई सरकार?
thron_256लखनऊ. यूपी में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में नई सरकार का गठन आसान नहीं होगा। सिर्फ छोटे दलों व निर्दलियों के भरोसे बनी तो ठीक है, वरना भारी मुश्किल पेश आएगी। दलबदल और विधायकों को तोड़ लेने का जमाना गुजर चुका है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि यूपी में नई सरकार का गठन किस तरह होगा?
किसी एक दल या गठबंधन के पास सरकार बनाने के लिए जरूरी 202 विधायकों के न होने की स्थिति में मतगणना के बाद 16वीं विधानसभा निष्क्रिय हो जाएगी। उप्र विधानसभा चुनाव के परिणामों को लेकर असमंजस कायम है।
ईवीएम से किसी दल के लिए बहुमत न निकलने पर पांच साल बाद सूबे में राजनीतिक अस्थिरता फिर शुरू हो जाएगी। सरकार बनाने के लिए दलों को काफी पापड़ बेलने पड़ेंगे।
उप्र के पूर्व संसदीय कार्यमंत्री एचएन दीक्षित ने कहा कि हालांकि राज्यपाल बीएल जोशी के पास कभी भी विधानसभा को भंग करने का अधिकार है। त्रिशंकु विधानसभा होने पर वे बिना विधानसभा भंग किए भी मायावती सरकार को कार्यवाहक सरकार के रूप में कार्यकाल जारी रखने के लिए कह सकते हैं।
यह अगली सरकार के गठन तक या फिर विधानसभा की पहली बैठक के पांच वर्ष पूरा होने तक चल सकता है। विधानसभा की पहली बैठक 21 मई 2007 को हुई थी। इस लिहाज से 21 मई 2012 तक 15वीं विधानसभा काम कर सकती है। 21 मई 2012 के बाद राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ेगा।
ऐसी स्थिति में उप्र में राष्ट्रपति शासन को संसद के दोनों सदनों की मंजूरी आसानी से मिल सकती है। उप्र विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष और दल-बदल कानून के विशेषज्ञ केशरीनाथ त्रिपाठी सरकार बनाने के लिए किसी भी तरह के दल-बदल व टूट फूट की संभावना से इंकार करते हैं।
त्रिपाठी ने भास्कर से बात करते हुए कहा कि दल-बदल या विधायकों को तोडऩे का ख्वाब अब भूल जाएं, ऐसा करना लगभग असंभव है, सिर्फ विलय हो सकता है। एक दल का दूसरे दल में या किसी दल के दो तिहाई हिस्से (पार्टी संगठन व विधायक) का दूसरे दल में।
उन्होंने कहा कि संविधान की 10वीं अनुसूची में 2004 में किए गए संशोधन और सुप्रीमकोर्ट के आदेश के बाद विधायकों के साथ पार्टी में भी दो तिहाई टूट जरूरी है। पार्टी के टूटने की भी एक निर्धारित प्रक्रिया है। त्रिपाठी ने कहा कि अब विधायकों को तोड़ कर या विधायक खुद टूटकर सरकार बनाने में किसी की मदद नहीं कर सकते हैं।
बताते चलें कि विधानसभा अध्यक्ष रहते हुए त्रिपाठी ने 1997 में और 2003 में बसपा विधायकों की टूट की मंजूरी दी थी। उनके आदेश में टूट के भीतर टूट का अजब फॉर्मूला था। जिससे किसी भी विधायक की सदस्यता नहीं गई और सरकारों ने कार्यकाल पूरा किया।
जानकारों के मुताबिक उनके आदेशों के कारण ही 2004 में संविधान की 10वीं अनूसूची में संशोधन किए गए। उप्र की विधानसभा में 403 विधायकों की संख्या है। इस बार सभी 403 विधानसभा में चुनाव हो रहा है। जिनके परिणाम मंगलवार को आने हैं।
क्या हो सकता है 6 मार्च की शाम को
: मतगणना में किसी दल को बहुमत मिल जाए और वह सरकार बनाने का दावा करे।
: किसी को बहुमत न मिले और चुनाव बाद का गठबंधन भी न बने। 16वीं विधानसभा चुनी जाने के बाद निष्क्रिय हो जाएगी।
: ऐसी स्थिति में 16वीं विधानसभा के विधायक वेतन तो पाएंगे, लेकिन उनकी जनप्रतिनिधि के रूप में शपथ नहीं होगी।
: मुख्यमंत्री मायावती इस्तीफे की पेशकश कर सकती हैं। राज्यपाल नई सरकार के गठन तक कार्यवाहक सरकार चलाने का अनुरोध कर सकते हैं। संविधान में इसकी व्यवस्था नहीं है। यह एक परंपरा है।
: बसपा फिर से बहुमत में आ गई तो संभव है कि वे तुरंत इस्तीफा न दें। विपक्ष भी उन पर नैतिक दबाव नहीं डाल सकेगा।
: 15 वीं विधानसभा का कार्यकाल 21 मई तक है।
यूपी में साझा सरकारों का इतिहास
दृश्य एक
यूपी में नवंबर 93 में मध्यावधि चुनाव हुए। राज्यपाल मोतीलाल वोरा थे। भाजपा को 177 सीटें मिलीं, सपा-बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था, सपा को 109, बसपा को 67 सीटें मिली। कांग्रेस को 28, जनता दल को 27 सीटें मिली। 425 सीटों का सदन था। 422 सीटों पर चुनाव हुए थे। बहुमत के लिए 212 विधायकों के समर्थन की जरूरत थी।
भाजपा ने सरकार बनाने का दावा पेश किया। सपा-बसपा गठबंधन ने भी दावा किया। राज्यपाल ने भाजपा से समर्थन देने वाले विधायकों की सूची मांगी। बहुमत का फैसला तो सदन में होता है, भाजपा की यह दलील खारिज कर सपा-बसपा गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लिया।
दृश्य दो
सपा-बसपा सरकार नहीं चली,1996 में फिर मध्यावधि चुनाव हुए, रोमेश भंडारी राज्यपाल थे। किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। भाजपा को 174, सपा को 110, बसपा को 67 और कांग्रेस को 33 सीटें मिलीं। कांग्रेस और बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। 424 सीटों के लिए चुनाव हुआ था और बहुमत के लिए 213 विधायकों की जरूरत थी।
राज्यपाल फिर भाजपा के दावे से संतुष्ट नहीं हुए। विधानसभा को निलंबित करते हुए राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। पांच महीने राष्ट्रपति शासन रहा। 19 मार्च 1997 को बसपा-भाजपा ने साझा सरकार बनाने के लिए राज्यपाल के समक्ष दावा पेश किया। सरकार बनी।
21 मार्च को मायावती ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यह छह-छह महीने के लिए मुख्यमंत्री की डील थी। मायावती के छह महीने पूरे करने के बाद भाजपा के कल्याण सिंह ने शपथ ली। कुछ समय बाद मायावती ने समर्थन वापस ले लिया।
दृश्य तीन
2002 के चुनाव में भी किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। सपा को सबसे बड़े दल के रूप में 143 सीटें मिलीं। बसपा को 97, भाजपा को 88, कांग्रेस को 26 और रालोद को 14 सीटें मिलीं थी। उत्तराखंड के पृथक राज्य बन जाने की वजह से उप्र में 403 सीटों का सदन हो गया था। बहुमत 202 पर था।
राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री ने सपा से 202 विधायकों की सूची मांगी, 05 मार्च 2002 से राष्ट्रपति शासन लग गया। इसके बाद 28 अप्रैल को बसपा-भाजपा और रालोद ने साझा सरकार बनाने का दावा पेश किया। इनके साथ तीन निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन था।
राज्यपाल ने इस गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लिया। मायावती ने तीन मई 2002 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यह सरकार 25अगस्त2003 तक ही चली। फिर मुलायम ने बसपा के विधायकों को तोड़ कर सपा गठबंधन की सरकार बनाई।
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