सुरेश वाडकर

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Thursday, December 11, 2014

अण्‍णाभाऊ साठे

अण्‍णाभाऊ साठे

अण्‍णाभाऊ साठे (1 अगस्‍त 1920 -18 जुलाई 1969)
लोकशाहिर के नाम से पहचाने जाने वाले लब्‍ध प्रतिष्ठित मराठी लेखक अण्‍णाभाऊ साठे का जन्‍म सांगली जिले के वातेगाँव में हुआ था। वे शारीरिक श्रम से आजीविका अर्जित करने वाले गरीब परिवार में पले-बढ़े जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्‍हें औपचारिक शिक्षा प्राप्‍त करने से वंचित रहना पड़ा था। इस सबके बावजूद उन्‍होंने 35 उपन्‍यास लिखे और उनके उपन्‍यास फकीरा (1959) पर एक फिल्‍म भी बनी थी। अण्‍णाभाऊ साठे के 15 लघुकथा संग्रह प्रकाशित हैं। इसके अलावा एक नाटक, रूस पर यात्रा वृतांत, 12 पटकथाएँ, 10 कथा-गीत (पोवाड़ा) उनके नाम हैं। वे लोकप्रिय पोवाड़ा गायक भी थे।महाराष्‍ट्र एकीकरण आंदोलन में वे सक्रिय रहे। भारत सरकार ने उन पर एक डाक टिकट प्रकाशित किया तथा महाराष्‍ट्र सरकार ने विशेष साहित्‍य सम्‍मान से अलंकृत किया गया। उनके साहित्‍य का 27 भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के अलावा रूसी में भी अनुवाद हुआ है।
“श्मशानातिल सोने” नाम से प्रख्यात मराठी भाषा का हिंदी अनुवाद राजेश कातुलकर
पड़ोस के गॉंव में एक धनाढ्य साहूकार की मौत का समाचार सुनकर भीमा उठ बैठा। उसे अपनी समस्‍या का समाधान नज़र आने लगा। उसका ह्दय आनंद से नाच उठा। उसने गॉंव की ओर एक नज़र डालकर झट से सूर्य की ओर देखा ।
उस समय सूर्य छुपने को था। आकाश में बारिश की घटाओं ने धूम मचा रखी थी। वे बक्‍खर चलाकर रखे गए खेत की तरह ऊबड़-खाबड़ दिख रहे थे। उन छोटे-बड़े बादलों से छॅंटकर आती रोशनी मुंबई पर दरक रही थी।
मंद हवा चल रही थी। उसके कारण घना जंगल सिहर रहा था और उस जंगल में बसी पचास झोपड़ियॉं आतंकित हो रही थी। पुराने पत्‍तों, चटाई, फट्टे और बोरों ने उन झोपड़ियों को आकार दिया था और उन घरों में जीवन-लीला चल रही थी। बेकार की चीज़ों ने बेकारों पर छाया की हुई थी। दिनभर पेट को पीठ से चिपकाए हुए भाग-दौड़ करनेवालों की थकान वहॉं आकर ठौर पा लेती थी। सभी घरों में चूल्‍हे जल चुके थे। हरे-हरे पेड़ों के बीच से सफेद धुऑं रेंग रहा था। बच्‍चे खेल रहे थे।
एक इमली के पेड़ के नीचे बैठा भी विचार-मग्‍न था। उसके ह्दय में भयंकर हूक उठ रही थी। उसकी आत्‍मा कितनी ही बार उस गॉंव के श्‍मशान में जाकर उस इमली के पेड़ के नीचे तक लौट रही थी। भीमा फिर से सूरज की ओर देखकर उस गॉंव की ओर देख लेता था। उसे बस अॅंधेरा होने का इंतजार था। इसलिए वह कुलबुला रहा था। उसकी प्‍यारी-सी लड़की नार्बदा पास ही में खेल रही थी और बीवी घर में रोटी बना रही थी। भीमा, शरीर से हट्टा-कट्टा था। लाल रंग की बड़ी-सी पगड़ी, पीली धोती, मोटे-कपड़े की बंडी उसका पहनावा था। वह किसी पहलवान जैसा दिखता था। उसका ऊॅंचा मस्‍तक, भारी गर्दन, मोटी भवें, सख्‍त लेकिन तपा हुआ चेहरा, उसे देखकर कितने ही दादा लोगों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी।
भीमा का गॉंव दूर कही वारणी नदी के पास था। परंतु भैसें जैसा बलवान होने पर भी उसे अपना पेट भरने की ख़ातिर मुंबई आना पड़ा था। मुंबई में आकर उसने काम की तलाश में  सारा शहन छान डाला था परंतु उस काम नहीं मिला। न जाने उसके कितने सपने थे, मैं काम करुँगा, मैं कामगार बनूँगा, तनख्‍वाह मिलेगी, बीवी को पोत का हार लाकर दूँगा। ऐसे कितने टूटे सपने लिए निराश होकर भीमा उस उपनगर के जंगल में जा पहुँचा था। मुंबई में सब कुछ मिलता है पर दो चीजें नही मिलती-काम और दो जून की रोटी। इसलिए उसे मुंबई पर बहुत गुस्‍सा आता था। उस उपनगर के पास जंगल में आते ही उसे एक खदान में काम मिल गया था।
जंगल में काम और खाना दोनों चीजें मिलने से भीमा को खु़शी हुई थी। वह भैंसे जैसे अपने बल से जंगल को ज़ोरदार टक्‍कर दे रहा था। उसके कुदाल उठाते ही जंगल पीछे खिसक जाता था, सब्‍बल उठाते ही जंगल के काले पत्‍थर मुँह पसार लेते थे। ठेकेदार उससे खु़श रहता था और भीमा भी संतुष्‍ट रहता था;क्‍यों न हो, उसे तनख्‍वाह बराबर जो मिल जाती थी। ‍
परंतु छह महीने में ही खदान बंद हो गई और भीमा पर बेकारी की कुल्‍हाड़ी चल गई। एक सुबह उसे पता चला कि आज से खदान बंद हो गई है। काम छूट जाने की ख़बर सुनते ही भीमा का मन बैठ गया …उसकी ऑंखों के सामने भुखमरी नाचने लगी। उसी क्षण वह विचारों की गहराई में डूब गया। वह ख़ुद से एक ही प्रश्‍न कर रहा था, अब कल क्‍या होगा?
शरीर पर पहनने वाले कपड़े अपनी कॉँख में दबाए हुए, भीमा घर की ओर चल पड़ा। वह एक तालाब पर रुक गया। उसने वहॉं नहाया और बुझे मन से घर की ओर चलने लगा। तभी उसकी नज़र राख के एक ढेर पर पड़ी। वह राख किसी चिता की थी। जली हुई हड्डियॉं चारों ओर बिखरी हुई थीं।  मानव की जली हुई हड्डियॉं देखकर भीमा ज्‍़यादा गंभीर हो गया। उसने मन ही मन सोचा यह कोई बेकार आदमी रहा होगा बेचारा! झंझटों में मरा होगा। कम से कम एक बार में मुक्ति तो पा गया। मैं भी ऐसे ही मरूँगा ! दो दिनों में ही भुखमरी शुरु हो जाएगी फिर नर्बदा रोती फिरेगी। बीवी दुख में घुलती रहेगी और मैं कुछ भी नहीं कर पाऊॅंगा।

अचानक उस राख के ढेर पर कोई चीज़ चमकी। उसने राख हटाकर देखा। वहॉँ सोने की एक तोले के अॅंगूठी थी। उसे झटपट उठाकर भीमा ने अपनी मुठ्ठी में कसकर दबा ली। क्‍या कहना! एक तोला सोना और वो भी चिता की राख से, भीमा तो झूम उठा। यह तो उसके लिए नई खोज थी, चिता की राख से सोना, उसे तो नींद से उठा देनेवाला रास्‍ता मिल गया।
और अगले ही दिन से भीमा उस इलाक़े में यहॉं-वहॉं घूमने लगा। नदी-नालों के किनारे श्‍मशान में मशान खोदने लगा। शवों की राख को इकठ्ठा कर छलनी से छानने लगा। उसे रोज़ राख में से कुछ-न-कुछ सोने के कण मिल जाते थे। बाली, अॅंगूठी, नथ, पुतली जैसे कुछ-न-कुछ लेकर वह घर लौटने लगा था।
भीमा का नया धंधा ज़ोरों से चल रहा था। वो निडर होकर राख छानता था। यह बात उसे पता चल चुकी थी आग की गर्मी से मुर्दे के ऊपर पड़ा सोना पिघलकर हड्डी में जा लगता है। जली हुई हड्डियॉं कुरेदकर वह सोना निकाला करता था। उसे मिट्टी की कच्‍ची क़ब्रे तोड़नी पड़ती थी, मरघट को कूटना पड़ता था, पर सब कुछ कर-कराके उसे सोना मिल जाता था।
शाम को कुर्ला जाकर वह सोना बेच देता और पैसा गिनकर अंटी में बॉंध लेता था। घर लौटते हुए नार्बदा के लिए खजूर ख़रीदता था। उसका यह धंधा ब‍हुत बढ़िया चल रहा था।
मुर्दे की राख छानते हुए भीमा का दिन निकलता था। उसे जिंदा रहने और मर जाने के बीच फ़र्क मालूम नहीं होता था। वह तो बस इतना जानता था कि अगर सोना मिले तो वह राख अमीर की और सोना नहीं मिले तो वह राख ग़रीब की है। उसकी समझ कहती थी कि अमीरों को मरना चाहिए और अमीरों को ही पैदा होना चाहिए। ग़रीबों को तो मरना ही नहीं चाहिए। वह दूसरों से कहता कि अपमान भरी जिंदगी जीनेवाले पराश्रितों को न तो जीने और न मरने का ही अधिकार हैं। उसका मानना था कि जो मरते समय तोला भर सोना लेकर मरे, वही भाग्‍यवान है।
बेकारी की व्‍यग्रता ने उसे उग्र बना दिया था। वह रात-दिन श्‍मशान की ख़ाक छानता रहता था। जलती चिताऍं ही उसके जीवन-यापन का साधन बन गई थीं। उसकी दुनिया ही चिता के इर्द-गिर्द सिमटकर रह गई थी।
उसी दरम्‍यान उसके जीवन में कई चमत्‍कार हो र‍हे थे। नदी में बाढ़ आई हुई थी। एक सेठ जी जवान बहु का शव श्‍मशान से नदी में बहकर आ गया था। उसे देखकर कितने ही लोगों की घिग्‍घी बॅंध गई थी। उस पार श्‍मशान से नदी में शव कैसे आ गया, यह सोचकर उसे आश्‍चर्य हुआ। ज़रूर कोई शव खोदकर निकाल रहा है, इसी संदेह की बिला पर पुलिसवाले पड़ताल कर रहे थे। परंतु श्‍मशान में पड़ताल करना उतना आसान काम नहीं था।
सूर्य छिप गया। चारों और अॅंधेरा छा गया। भीमा की बीवी खाना परोस लाई थी वह गंभीर होकर खाना खाने लगा। आज ये कहीं जाएगा यह जानकर वह धीरे से बोली, “आज कहीं जाना है? मेरा कहना है कि हमें यह काम नहीं करना चाहिए। कोई दूसरा काम कर लो। चिता…चिता की राख, सोना, ये काम बिलकुल उल्टा है। लोग भला-बुरा कहने लगे हैं।”
“तू मत बोल!” बीवी के कहने से भीमा का मन दुखी हो गया। वह चिढ़ भरे स्‍वर में बोला, “मैं कुछ भी करूँ, उससे किसी का क्‍या जाता है? मेरा चूल्‍हा बंद होने पर कोई उसे जलाने आनेवाला है?”
“ऐसा नहीं है,” अपने पति का तमतमाया चेहरा देखकर वह धीरे-से बोली,   “भूत-प्रेत की तरह भटकना, अच्‍छा नहीं लगता, मुझे डर लगता है इसीलिए कर रही हूँ ।” “मरघट में भूत होते हैं, ये तुझे किसने बताया? अरे ये मुंबई भूतों का बाज़ार है। सचमुच के भूत घरों में रहते हैं और जो मर जाते हैं वह मरघट में विश्राम करते हैं। भूत गॉंव में पैदा होते हैं; मैदान में नहीं” भीमा बोला।
उसकी बातें सुनकर वह चुप रह गई और भीमा जाने की तैयारी करने लगा। वह गुर्राकर बोला, “मुंबई जाकर मुझे काम नहीं मिलने वाला, लेकिन चिता की राख छानकर सोना मिलेगा” पत्‍थर तोड़कर भी दो ही रुपए मिलते थे, पर आज राख मुझे आसानी से दस रुपए दे देती है।”ऐसा कहकर वह घर के बाहर भागा, उस समय रात काफ़ी हो गई थी। चारो ओर निःशब्‍द शांति छाई हुई थी और भीमा निकल पड़ा था।
भीमा अॅंधेरे में निकल पड़ा था सिर पर बरसाती बॉंध रखी थी। उसके ऊपर गुदड़ी की खोल डाली हुई थी और कमर बॉंध रखी थी। कॉंख में एक नोकदार बरछी लेकर वह डग भर रहा था। उसके चारों ओर घोर अंधकार का साम्राज्‍य था। उसे किसी भी तरह का डर नहीं लग रहा था। मन ही मन सोच रहा था कि एक बढ़िया चोली और खजूर लेना है । वह बिफरा हुआ था।
वातावरण में निश्‍चलता थी। हर अगले ही क्षण में गंभीरता छाती जा रही थी। उसी दरम्‍यान लकड़बग्‍घों की एकाध टोली हुआ-हुआ करके भागी जा रही थी। एकाध सॉंप रास्‍ता छोड़ सरक जाता था। दूर कहीं पर उल्‍लू अपनी आवाज से बेसुरापन भर देता था। उस निर्जन जंगल में सब कुछ उजाड़ दिख रहा था।
आवाज़ों से सतर्क होकर भीमा गॉव के क़रीब आया। उसने नीचे बैठकर दूर तक नज़र दौड़ाई। गॉंव में सन्‍नाटा छाया हुआ था। एकाध दीया भी ऑंखें मिचमिचा रहा था। परिस्थिति अनुकूल जानकर भीमा को खु़शी हुई। जब वह फटाफट श्‍मशान में आकर आज मरे सेठ की चिता खोजने लगा। फूटी मटकी, खपच्चियॉं हटाकर वह एक चिता से दूसरी चिता के ढेर के पास जाकर लकड़ी लेकर कुरेदकर ऐसे देख रहा था मानो वह रॉंगे में से पानी निकाल रहा हो।
आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट बढ़ गई थी। उसी वजह से अंधकार अधिक बढ़ गया था। पर अचानक बिजली चमक उठी, जो बादलों के बीच नाच रही थी। बारिश होने की संभावना बढ़ गई थी। इस वजह से भीमा घबराया हुआ था। बारिश होते ही नई चिता उसे नहीं मिल पाएगी; इसलिए वह जल्‍दबाजी में था। वह पसीने-पसीने हो रहा था।
आधी रात तक उसने सारा श्‍मशान छान मारा और इस निशान से उस निशान तक पहुँच गया था और भौंचक रह वहीं बैठ गया।
हवा से बॉंस और खपच्चियों के पुराने टुकड़े फड़फड़ा रहे थे। ऐसा लगा मानो कोई दॉंत किटकिटा रहा हो। उसमें से भयंकर गुर्राहट उठी। ज़रूर कोई गुर्रा रहा था, और सॉंसे लेता हुआ मिट्टी खोद रहा था। भीमा यह सब पहली बार सुन रहा था। वह आगे बढ़ा तो सब कुछ शांत हो गया। आवाज़ें आनी बंद हो गई। परंतु तभी ऐसा आभास हुआ कि कोई हाथ-पॉंव झाड़ रहा है। वह हड़बड़ाया और वहीं पर रुक गया। उसके शरीर में भय बिजली की तरह मस्तिष्‍क तक दौड़ा। वह धीर-वीर आज पहली बार सहमा हुआ था।
लेकिन दूसरे ही क्षण उसने अपने आपको सॅंभाला। उसे सही बात समझ में आ गई और वह अपने-आप पर खीज उठा, क्‍योंकि पास ही वह नई कच्‍ची कब्र थी। उस मशान पर दस पंद्रह लकड़बग्‍घे उसके चारों ओर से मिट्टी खोद रहे थे। उन्‍हें मरे हुए आदमी की गंध आ गई थी। मिट्टी के ढेर पर रखे पत्‍थरों को छोड़कर वे सब दूर से उसके आसपास की मिट्टी खोद रहे थे। मानो उनमें भी जबरदस्‍त होड़ चल रही थी। सबसे पहले कब्र तक कौन पहुंचेगा, मारे इसी जलन के वे एक-दूसरे पर गुर्रा रहे थे। बार-बार नाक लगाकर शव की गंध सूंघ लेते थे और फिर पूरी ताकत लगाकर मिट्टी खोदने लगते थे।
यह दृश्‍य देखकर भीमा चिढ़ गया। उसने एक लंबी छलॉंग मारी और उस कच्‍ची क़ब्र पर जा बैठा। उसने उसी क़ब्र पर पड़े पत्‍थर उठाकर लकड़बग्‍घों की टोली पर हमला बोल दिया।
अचानक हुए हमले से लकड़बग्‍घे हड़बड़ा गए। वे डर गए और भाग गए। भीमा को राहत मिली। इससे पहले कि लकड़बग्‍घे वापस आऍं उसने वहॉं की मिट्टी को हटाना शुरू किया।
उसी समय लकड़बग्‍घों ने भीमा को देखा। एक लकड़बग्‍घा बौराकर भीमा पर झपटा। क्षणभर में भीमा के कपड़े फाड़ता हुआ वह निकल भागा। उसे कपड़े फटने का दुख हुआ, उसका पूरा शरीर सिहर उठा। हाथ आए कपड़े को झटककर वह लकड़बग्‍घा दुबारा भीमा की ओर दौड़ा और अब भीमा भी उससे मुठ़भेड़ करने के लिए तैयार था। उसने हाथ में धरी बरछी सीधी पकड़ी, लकड़बग्‍घे के सामने आते ही उस पर वार किया। एक ही वार में लकड़बग्‍घा ढेर हो गया। बगल में गिरकर उसने पॉंव ऐंठते हुए दम तोड़ दिया और इस तरह युध्‍द की पहली बलि चढ़ी। भीमा ने फिर से क़ब्र खोदना शुरू किया और अब सारे लकड़बग्‍घे उस पर टूट पड़े। भयंकर युध्‍द शुरू हो गया था।
गॉंव के पास वह अभूतपूर्व युध्‍द चल रहा था। कुंतीपुत्र भीम का नाम धारण करनेवाला वह आधुनिक भीम लकड़बग्‍घों से लड़ रहा था। एक मृत देह के लिए पशु और मनुष्‍य में करुण संघर्ष चल रहा था।
सृष्टि निद्रामग्‍न थी। मुंबई नगरी विश्राम कर रही थी। वह गॉंव ख़ामोश पड़ा हुआ था और श्‍मशान में सोने और उस मुर्दे के लिए झपट मार की ज़ोर आजमाइश हो रही थी। भीमा अपने हमलों से लकड़बग्‍घों को टपका रहा था।
लकड़बग्‍घे उसका वार बचाकर उसके ओढ़े हुए कपड़े फाड़ देते थे या उसकी मार से घायल होकर गुर्रा रहे थे। भीमा कपड़ों के फटने से काफ़ी परेशान हो जाता था। गालियॉं बक रहा था। गाली-गलौज, गुर्राहट से श्‍मशान थरथरा रहा था।
कुछ देर बाद लकड़बग्‍घों का हल्‍ला थम गया। अॅंधेरे में दुबककर वे थोड़ा आराम लेने लगे थे। यह मौका पाते ही भीमा ने उस क़ब्र की सारी मिट्टी हटा दी। उसने मुँह पर आया पसीना साफ़ किया। फिर वह उस क़ब्र में उतरा। तभी फिर लकड़बग्‍घे उस पर टूट पड़े और मारामारी फिर शुरू हो गई, आखि़र में भीमा की प्रचंड शक्ति के सामने वे लकड़बग्‍घे हार गए। उन्‍होंने अपनी हार मान ली। तब भीमा ने उस शव की बगल में हाथ डालकर ज़ोर लगाया और शव को खींचकर ऊपर निकाल लिया। फिर लकड़ी गड़ाकर उसका मुआयना किया। ठंडा और अकड़ा हुआ शव उसके  सामने क़ब्र में पड़ा था।
उसने जल्‍दी से उसका हाथ टटोलकर देखा, एक अॅंगूठी मिली। कान में बालियॉं थीं, भीमा ने वे खींच ली। तभी उसे याद आया कि शव के जबड़े में सोना ज़रूर होगा। उसने मुँह में अॅंगूली डाल दी, लेकिन शव के दाँत मज़बूती से बंद हो गए थे। उसी क्षण उसने अपनी बरछी उसके जबड़े पर मारकर दॉंतों को ऊपर उठाया। शव के दॉंतों में एक तरफ़ से उसने अपनी उॅंगलियॉं शव के मुँह में डाली और उसी समय दुबके हुए लकड़बग्‍घों ने हुऑं…हुऑं की हुँकार मचा दी। उन्‍होंने शोर मचाया और भाग गए, पर उनकी हुंकार से गॉंव के कुत्‍ते जाग गए और कुत्‍तों ने सारे गॉंव को जगा दिया। कोई चिल्‍लाया, “अरे, लकड़बग्‍घों ने शव खा लिया, चलो ..” यह सुनकर भीमा घबरा गया। उसने शव के मुँह में से एक अॅंगूठी निकालकर जेब में डाली और तेज़ी से दुबारा दाहिने हाथ की उॅंगली शव की दाढ़ में डालकर कोने-कोने की जॉंच की और पहले उॅंगलियॉं बाहर निकालने के बजाय बरछी पहले निकाल ली। खटाक से उसकी उॅंगलियॉं शव के दॉंतों में फॅंस गईं। सरौते में फॅंसी सुप़ारी की तरह उसकी उंगलियॉं जकड़ गई थीं। उसके शरीर में भयंकर पीड़ा हो रही थी।
उसी समय गॉंव की ओर से लालटेन लेकर आते हुए आदमी दिखाई दिए। उससे भीमा भयभीत हो गया। उसने उंगलियॉं निकालने की कोशिश की। उसे शव पर बेहद गुस्‍सा आ रहा था। अपनी तरफ़ आदमियों को आता देख वह और चिढ़ गया। उसने हाथ में धरी बरछी शव के सिर पर दे मारी। उस वार से उसकी उॅंगलियॉं और अधिक फॅंस गई। शव के दॉंत उंगलियों में धॅंस गए। उसके शरीर में झुनझुनाहट हो रही थी। यह तो सचमुच का भूत है, यह आज मुझे पकड़वा देगा। लोग आकर मुझे मार डालेंगे। कुछ नहीं तो मार-पीटकर पुलिस के हवाले कर देंगे, यह सब सोचकर भीमा परेशान हो गया। वह गुस्‍से में साहस बटोर रहा था। पूरी शक्ति एक साथ लगाकर वह शव पर प्रहार कर रहा था। वह ज़ोर से चीखा, “अबे भड़वे, छोड़ मुझे।”
गॉंववाले नज़दीक आ रहे थे। भीमा फॅंसा हुआ था। फिर उसने कुछ सोचा और बरछी उस शव के जबड़े पर दे मारी और धीरे से अपनी उंगली खींच ली। उंगलियॉं कट चुकी थी। उन्‍हें वैसे ही मुठ्ठी में धरे हुए उसने दौड़ लगा दी। शरीर में भयंकर पीड़ा लिए हुए वह भाग रहा था।
जब वह घर पहुंचा तो उसे भयंकर बुख़ार चढ़ चुका था। उसकी वह स्थिति देखकर घर में रोना-धोना मच गया। डॉक्‍टर ने उसी दिन भीमा की दोनों उंगलियॉं काट दीं।
और उसी दिन ख़बर मिली कि खदान का काम दुबारा शुरू हो रहा है। यह खबर सुनकर हाथी जैसा भीमा नन्‍हे बच्‍चे की तरह रोने लगा। ज़ाहिर था कि पत्‍थर फोड़ने वाली अपनी दो उंगलियॉं वह श्‍मशान में गॅंवा चुका था।

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