सुरेश वाडकर

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Saturday, November 22, 2014

मुस्लिम मतों की निकली अर्थी

muslim matdata राष्ट्र-चिंतन
देश में धर्मनिरपेक्षता तो चल सकती है पर छदम् धर्मनिरपेक्षता नहीं चल सकती? न्यायप्रियता स्वीकार हो सकती है पर तुष्टीकरण स्वीकार नहीं हो सकता है। इस मर्म को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को अब स्वीकार कर लेना चाहिए, नहीं तो फिर बहुसंख्यक वर्ग उन्हें सŸाा राजनीति से वंचित करने और उन्हें हाशिये पर ढकेलने का पराक्रम दिखाता रहेगा, जैसाकि इस लोकसभा चुनाव में बहुसंख्यक वर्ग ने अपनी एकजुटता दिखायी है। मुस्लिम आबादी को अपने हिंसक, उफान पैदा करने वाले राजनीतिक नेताओं के खिलाफ आगे आना होगा?

विष्णुगुप्त
मुस्लिम मतों के सारे मिथक टूट गये। छदम् धर्मनिरपेक्षता की भी अर्थी निकल गयी। अब तक यह धारणा थी कि मुस्लिम मत ही सरकार बनाते हैं और सरकार गिराते हैं, छदम् धर्मनिरपेक्षता ही सपा प्राप्ति की कुंजी है? इसीलिए भाजपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों ने इस लोकसभा चुनाव में मुस्लिम मतों की सौदागरी के लिए सभी प्रकार के हथकंडे अपनाये थे। लोकसभा का चुनाव परिणाम यह स्पष्ट करता है कि मुस्लिम मत पावर प्ले करने में विफल रहे हैं। मुस्लिम मतों पर निर्भर रहने वाली राजनीतिक पार्टियां जैसे सपा, बसपा, जद यू, राजद और वामपंथी पार्टियां इस चुनाव में हांशिये पर खड़ी हो गयी। कांग्रेस को उम्मीद थी कि उनकी तुष्टीकरण की नीति के बावजूद हिन्दू मत देंगे और मुस्लिम मत उन्हें मिलना तय है। कांग्रेस या फिर वामपंथी पार्टियां, लालू, मुलायम, मायावती और नीतीश कुमार को मुस्लिम मत तो जरूर मिले पर उनकी संसदीय तकदीर नहीं बन सकी। आखिर क्यों? इसलिए कि मुस्लिम मतों के चक्कर में उन्हें अपने परम्परागत वोट बैंक से हाथ धोना पड़ा है। अब कांग्रेस, वामपंथी पार्टियों और लालू, मुलायम, मायावती और नीतीश कुमार जैसे लोगों की मुस्लिम नीति क्या होगी? यह एक यक्ष प्रश्न है। मुस्लिम आबादी के साथ न्याय हो, उन्हें विकास व उन्नति का वास्तविक भागीदार बनाया जाये, यह हर पार्टी की प्राथमिकता होनी चाहिए पर मुस्लिम मतों की सौदागरी के लिए मुस्लिम मजहबी हिंसा-जेहाद और अलगाव को संरक्षण दिया जो-सहयोग दिया जाये, यह अस्वीकार्य है। अगर कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की इस तरह की राजनीति चलती रहेगी तो फिर राष्ट्रवादी राजनीति का उछाल और प्रबलता को रोका नहीं जा सकता है। पर दुर्भाग्य यह है कि छदम् धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियां इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए कहां तैयार हैं?
दस साल के मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी की यूपीए सरकार, उत्‍तर प्रदेश में अखिलेश-मुलायम सिंह यादव की सरकार, बिहार के नीतीश कुमार की सरकार सहित अन्य सरकारों ने मुस्लिम तुष्टीकरण की हदें पार की थीं। मनमोहन सिंह का यह कहना भी देश के संसाधनों पर पहले मुस्लिम आबादी का हक है। पिछड़ी जातियों, दलितों और आदिवासियों की दयनीय स्थितियों पर कोई उल्लेखनीय चिंता भी नहीं इनकी नहीं थी। राजनीतिक लाभ के लिए प्रत्यारोपित कर दिया गया कि मुस्लिम आबादी की स्थिति दलितों और आदिवासियों से भी दयनीय है। जबकि मुस्लिम आबादी की स्थिति जांचने जैसा कोई आयोग दलित-आदिवासियों के लिए बना क्यों नहीं? फिर किस आधार पर यह स्थापना हुई कि मुस्लिम आबादी की स्थिति आदिवासी-दलितों से भी बदतर है?
देश का सबसे बड़ा राज्य उत्‍तर प्रदेश जो पिछड़ी जातियों और मुस्लिम राजनीति के गठजोड़ के लिए चर्चित रहा है वहां पर छदम् धर्मनिरपेक्षता की कैसी अर्थी निकली है, यह भी जगजाहिर है। उŸार प्रदेश से कोई भी मुस्लिम नेता संसद में नहीं पहुंच पाया जबकि कांग्रेस, बसपा और सपा ने थोक के भाव में प्रत्याशी उतारे थे। कांग्रेस का एक मुस्लिम प्रत्याशी कैसे चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी को बोटी-बोटी काटकर फेंकने जैसे बयान दिये थे। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ इस तरह के संहारक व आपŸिाजनक चुनावी बयानबाजी भी अति मुस्लिमवाद के संरक्षण और सहयोग की प्रक्रिया का परिणाम था। सपा-मुलायम का मुस्लिम नेता आजम खान ने मुस्लिम आबादी को आक्रोशित कर धर्मनिरपेक्षता की दीवार को तोड़ने जैसी राजनीतिक प्रक्रियाएं अपनायी थी। सपा-मुलायम को यह उम्मीद थी कि आजम खान के ऐसे बयानबाजी या फिर मुसिलम उफान की नीति से मुस्लिम मत उनकी झोली में गिरेंगे और उनकी राजनीतिक तकदीर बन ही जायेगी? पर मुलायम, मायावती, कांग्रेस और वामपंथी राजनीतिक पार्टियों को यह खुशफहमी टूट गयी कि अति मुस्लिम वाद, मुस्लिम हिंसा का संरक्षण, मुस्लिम जेहाद पर उदासीनता और मुस्लिम तुष्टिकरण आत्मघाती और ग्रासी भी हो सकता है?
छदम् धर्मनिरपेक्षता पर सवार राजनीतिक पार्टियां मुस्लिम आबादी के साथ गठजोड़ तो कर सकती हैं पर छदम् राजनीतिक पार्टियों की जो असली बुुनियाद है, असली जनाधार है वह मुस्लिम वोट बैंक से हमेशा जुड़ी रहेगी ऐसा संभव नहीं है। यह इस लोकसभा चुनाव परिणाम ने भी प्रमाणित कर दिया है। खासकर पिछड़ी और दलित जातियां जो पहले से मुस्लिम गठजोड़ की समर्थक थीं वह अब विरोध में खड़ी हो गयी हैं। पिछड़ी और दलित जातियों के पढ़े-लिखे लोग यह सोचने लगे हैं कि उनके नेता अति मुस्लिम वाद की चादर ओढ़कर उन्हें मूर्ख बनाते हैं और उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ ही नहीं करते हैं बल्कि उनके अधिकारों पर कैंची चलवाते हैं। बिहार और उत्‍तर प्रदेश में यादव और मुस्लिम गठजोड़ की राजनीतिक समीकरण ने काफी सालों से सŸाा स्थापना को मंथ रहा है। पर गैर यादव पिछड़ी जातियां जब यादव और मुस्लिम गठजोड़ के खतरनाक मर्म को समझीं तो उन्हें अपने राजनीतिक अधिकारों की चिंता हुई और ये गैर यादव पिछड़ी जातियां सीधेतौर पर यादव और मुस्लिम गठजोड़ के खिलाफ खड़ी हो गयीं। बिहार में लालू प्रसाद यादव का पतन गैर यादव पिछड़ी जातियों के विरोधी होने के कारण ही हुआ है।
दंगों में शिकार होने वाले लोग गरीब होते हैं जो अधिकतर पिछड़ी और दलित जातियों से आते हैं। मुजफ्फरनगर दंगे की पृष्ठ ूमि में सिर्फ जाट परिवार की बेटियों-बहुओं की इज्जत की बात नहीं थी बल्कि एक दलित जाति की युवती के साथ आठ-आठ मुस्लिम युवकों द्वारा बलात्कार करने की घटना भी शामिल थी। बलात्कारियों को थाने से भगा दिया गया। मुजफ्फरनगर दंगे में अधिक पीड़ित मुस्लिम आबादी ही हुई थी। पर मुस्लिम आबादी ने दंगे के पूर्व बहुसंख्यक आबादी को किस प्रकार से उत्पीड़ित, अपमानित, बलात्कार और लव जेहाद का शिकार बना रही थी, यह सब भी जगजाहिर है। आवश्यकता इस बात की थी कि दोषियों को बिना भेद ाव के सजा दिलाने की थी। पर सरकार और प्रशासन ने मुस्लिम दंगाइयों को संरक्षण दिया और बहुसंख्यक आबादी को बेलगाम कार्यवाही का भुक्तभोगी बनाया। राहुल गांधी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह मुजफ्फरनगर जाते हैं लव जेहादियों से मिलते हैं, मुस्लिम दंगा पीड़ितों के घर जाकर उनसे मिलते हैं पर किसी एक दंगा पीड़ित हिन्दू परिवार से मिलने की आवश्यकता नहीं समझते हैं। ऐसा ही भेदभाव पूरे उŸार प्रदेश में हुआ है बल्कि देश के अन्य भागों में ऐसी ही छदम् राजनीतिक प्रक्रियाएं चलती रही थी। ऐसी स्थिति में बहुसंख्यक आबादी का अपनी विसंगतियों से ऊपर उठकर अति मुस्लिम वादी राजनीति के खिलाफ खड़ी होने का पराक्रम दिखाना भी स्वा ाविक है।
राजनीतिक पार्टियां या फिर देश-राज्य की सपा मुस्लिम आबादी के साथ न्याय करे, उन्हें राजनीतिक अधिकार दे, विकास-उन्नति में भागीदार बनाये, इस पर किसी को आपत्त्‍ि नहीं होनी चाहिए? हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है। धर्मनिरपेक्षता का प्रवाह हो, इस पर कोई आपत्त्‍ि नहीं हो सकती है। पर धर्मनिरपेक्षता की जगह छदम धर्मनिरपेक्षता नहीं चल सकती है। न्यायप्रियता स्वीकार हो सकती है परन्तु तुष्टिकरण की नीति अस्वीकार्य है। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम हिंसा, मुस्लिम जेहाद का संरक्षण अमान्य है। कश्मीर, असम सहित देश के अन्य भागों में धर्मनिरपेक्षता की किस प्रकार से अर्थी निकाली गयी है, हिन्दुओं को उनके घरों से उजाड़ा गया है, उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए विवश किया गया है? इस पर अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली राजनीतिक पार्टियां कभी भी मुंह नहीं खोलती हैं। मुस्लिम आबादी को भी अब अपने अंदर के हिंसक तत्वों और उŸोजना फैलाने वाले नेताओं और छदम् धर्मनिरपेक्षता वाली राजनीतिक पार्टियों को खारिज करना होगा।

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