सुरेश वाडकर

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Saturday, November 22, 2014

वैश्वीकरण और महिला लेखन का बदलता स्वरूप

वैश्वीकरण और महिला लेखन का बदलता स्वरूप

डॉ. रेणु शाह


अच्छा है कि इस प्रकार के विषय पर भी आज हम विचार करना चाहते हैं। यह विचार इसलिए आवश्यक है कि इन पिछले लगभग अट्ठारह-बीस वर्षों से विश्व में ग्लोबलाइजेशन की जो हवा चली है और विकास हुआ है यह मानो इस दौर की कालावधि का ही समग्र बन गया हो और हमारे जीवन के सभी पक्षों का निर्धारक व नियामक भी बनता जा रहा हो। अमेरिका सहित पश्चिमी जगत् वहां की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और राजनीति, उनके सत्ता नियंत्र्ण में संचालित होने वाली विश्व संस्थाएं ‘यू.एन’ सहित ‘डब्ल्यू.टी.ओ.’ ;ॅवतसक ज्तंकम तहंदप्रंजपवदद्ध आदि विश्व संस्थाएं तो एक तरह से ग्लोबलाइजेशन लाने और बनाने पर तुले हुए ही थे, साथ ही सोवियत रूस आदि अन्य देश भी इस बहाव में बहने हेतु विवश हुए। यह सब कुछ पिछली शताब्दी के नवें दशक के अंतिम वर्षों में 1987-88 के आसपास घटित हो रहा था। भारत में भी वर्ष 1992 में ‘ग्लोबलाइजेशन’ और ‘लिब्रलाइजेशन’ के दौर की शुरुआत हुई। यह आर्थिक, व्यापारिक, व्यावसायिक आदि क्षेत्रें में घटित होने वाला दौर था और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां, विदेशी पूंजी, टेक्नोलॉजी आदि के भारत में अधिकाधिक आगमन को सहज व संभव बनाने का दौर।
यह जो थोडा विस्तार से भूमिका रूप मैंने कहा है, वह वैश्वीकरण यानी ग्लोबलाइजेशन की समग्रता को परिचयात्मक रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता-पूर्ति के रूप में है। वैश्वीकरण और उदारीकरण दोनों अपने जुडवां विकास के रूप में अर्थ व महत्त्व रखते हैं। वैश्वीकरण में सब कुछ ‘जींस’ यानी बाजार की चीज हो गया है। वैश्वीकरण और उदारीकरण का आधार बाजारवाद है और बाजारवाद का आधार उपयोगिता है यानी भूमंडलीकरण के इस दौर में अब चेतना भी बाजार की हो गयी है। उपभोक्तावादी बाजारीकरण के प्रभाव से संस्कृति के मायने बदल रहे हैं। अनेकानेक संकटों से जूझते समाज की संरचना जटिल होती जा रही है। धर्म अपनी मूलभूत अवधारणाओं को खो रहा है। मानव की संवेदना से जुडी संस्कृति पर इलैक्ट्रोनिक मीडिया द्वारा आश्चर्यजनक रूप से बाजार और विज्ञापन की संस्कृति का वर्चस्व स्थापित हो गया है। समाज का संकीर्ण व्यक्तिवादी रूप बदल गया है। वैश्वीकरण ने बाजारवाद के चलते पूंजी के बढते वर्चस्व को स्थापित किया है - पजीवाद, संचार माध्यम, उदारीकरण और भूमंडलीकरण आदि प्रवृत्तियों ने मूल्यों का विघटन किया है। उपभोक्तावाद ने स्त्री को बाजार और विज्ञापन के माध्यम से देह के रूप में प्रस्तुत किया है।
समकालीन कई प्रवृत्तियों को देखकर ऐसा भी अहसास होता है कि आधुनिकता का दौर विज्ञान, मीडिया, ‘स्त्रीविषयक’ होने पर तो कहीं आमादा नहीं है?
नारी स्वातं*य के मूल रूप में जिस स्त्री चेतना या प्रगति की बात उठाई जाती है, उसमें मूल बात यह है कि सामंती दौर में जो स्त्री-शोषण की प्रवृत्ति स्पष्ट थी, खुलापन था, इसलिए न तो उसे समझने की जरूरत होती थी और यहां तक कि जरूरत महसूस हुई तो मीरां ने खुलेआम सामंतशाही का, राजघराने का, प्रबल विरोध किया। भूमंडलीकरण के दौर में जब सब-कुछ बाजार में बदल गया है तो ऐसे दौर में शोषण के तरीके बहुत महीन हो गए हैं जिसे समझ पाना बडा कठिन हो गया है। अब शोषण को ‘ग्लोरिफाइ’ करते हुए स्वयं औरतें उसका शिकार हो गई हैं। स्वेच्छा से उनका वरण कर लिया है। विज्ञापन ने अपार संपदा को उससे जोड दिया है। रूप से लेकर नारी को देह कहकर सब समय परिभाषित किया था, आज नारी ने उसी देह को प्रदर्शन के दौर में डाल दिया है। अच्छा-बुरा तो आने वाला समय तय करेगा। भूमण्डलीकरण के इस दौर में नारी भोग्या से ‘वस्तु के रूप’ में तब्दील हो गई है। चाहे ‘दांतुन’ का विज्ञापन हो या ‘साबुन’ का। सबमें स्त्री को दिखाया जा रहा है। सवाल यह है कि विज्ञापन अपनी विज्ञापित वस्तुओं के लिए है या स्त्री देह के लिए। उदारीकरण से पहले स्त्री-देह के विज्ञापन इस तरह खुले और बेशर्म नहीं हुआ करते थे और न ही समाज ने एवं रचनाकारों ने इस खुलेपन को स्वतंत्र्ता प्रदान की थी।
यूं तो हर युग में ही महिला रचनाकारों ने अपने समय और समाज के अनुसार अपने को एक प्रखर धार दी है, पर वैश्वीकरण, बाजारवाद और पूंजीवाद के बढते प्रभाव ने आज महिला लेखन के स्वरूप में काफी बदलाव ला दिया है। मैंने यहां महिला लेखन की परम्परा के परिप्रेक्ष्य को रेखांकित करते हुए वैश्वीकरण के दौर में लिखे जा रहे लेखन के स्वरूप से जुडे विभिन्न मुद्दों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
महिला लेखन की परम्परा साहित्य से काफी पुरानी है। भारतीय समाज में स्त्री की गुलामी का इतिहास जितना पुराना है, उस गुलामी से मुक्ति के लिए स्त्री के संघर्ष का इतिहास भी उतना ही पुराना है। इस इतिहास की एक झलक ‘विमन राइटिंग इन इंडिया’ (1991) नामक पुस्तक में मिलती है। नारी की दासता का इतिहास उत्तर वैदिककाल से शुरू हुआ। आदर्श बडे-बडे रहे हों, पर यथार्थ कोई अच्छा नहीं रहा।
‘नारी मुक्ति’ के सवाल 18वीं सदी में मेरी वील्सनक्राफ्ट या बीसवीं सदी के मध्य ‘सीमोन द बउआ’ ने उठाए तो उसकी पृष्ठभूमि में श्रमिक औरतों द्वारा अपने श्रम के पूरे मूल्य और समानता के अधिकारों के लिए शुरू किए गए आंदोलन थे। भारतीय समाज में भी 19वीं सदी के मध्य में सावित्री और ज्योति बा फूले ने स्त्री समाज के उत्थान के लिए सुविचारित रूप से गंभीर प्रयास किए। भारतीय संदर्भ में यदि हम स्त्री लेखन के इतिहास का अवलोकन करें तो इतिहास के पन्नों पर पहली पुस्तक के रूप में ‘थेरीगाथा’ आती है जिसमें गौतम बुद्ध की समकालीन भिक्षुणियों ने अपने जीवनानुभव के अंकन द्वारा नारी दुःखों का वर्णन किया है। दुःख की बात है कि आज भी इन्हीं बातों के साथ लडाई जारी है। बहुत पीछे न जाएं तो कथा-साहित्य में 20वीं सदी के आरम्भिक दौर में ही बंग महिला के नाम से लिख रही राजेन्द्र बाला घोष की ‘दुलाईवाला’ (1907) हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी है। इसी दौर में स्त्री शिक्षा के लिए संघर्षरत रुकैया सखावत हुसैन की ‘सुलताना का सपना’ कहानी स्त्री समुदाय की दमित आकांक्षाओं को चित्र्ति करती है। आजादी के पूर्व महिला लेखन इतना विस्तृत नहीं था, उनका लेखन भावना-प्रधान था। उसमें घुटन, पीडा के साथ ही जीवन-आदर्श की प्रधानता मिलती है। उनका लेखन एक ओर जहां उनके त्रसद, पीडत जीवन का यथार्थ है, वहीं उससे आगे के जीवन के विविध रूपों और सत्यों को भी अभिव्यक्त करता है। लेकिन आजादी के लिए किये गये राष्ट्रीय आंदोलन के साथ नारी बाहर आई। सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, सरोजिनी नायडू, उषादेवी मित्र और सुमित्र सिन्हा आदि अनेक लेखिकाओं का साहित्य राष्ट्रीय आन्दोलन से जुडा था।
आधुनिक काल में स्वाधीनता आन्दोलन और भारतीय नवजागरण के साथ हिन्दी क्षेत्र् में नारी- जागरण और स्त्री-मुक्ति के स्वर सुनाई पडते हैं। स्वाधीनता आंदोलन का दौर केवल राजनीतिक आंदोलन नहीं था, वह जीवन की सर्वाङ्गीणता का आंदोलन था। इसलिए नारी मुक्ति का प्रश्न स्वतः आ गया था। ‘श्ाृंखला की कडयां’ निबन्ध में स्त्र्यिों की दशा के सम्बन्ध में महादेवी वर्मा का यह दृष्टिकोण सार्थक प्रतीत होता है कि ‘स्त्री न घर का अलंकार मात्र् बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण-प्रतिष्ठा चाहती है।’ गांधी के राजनीति में आने के बाद तो पूरे आंदोलन की दिशा बदल गई थी। स्वयं स्त्र्यिों ने जिम्मेदारी संभाल ली थी। सुभद्राकुमारी चौहान ने स्त्री स्वायत्तता को एक पूरे राष्ट्र की स्वतंत्र्ता के साथ जोडकर देखा। उनके आह्वान पर हजारों नारियां घरों से निकल कर आईं। वस्तुतः देवी या दासी की अवधारणा से हटकर सखी या सहचरी की अवधारणा को नारी ने स्वाधीनता आंदोलन के समय से प्राप्त किया है। वो नागरिकता के पास आयी थी, अब बाजारवाद के चलते उससे दूर हट गई है। अब नया लेखन नागरिकता की मांग कर रहा है। स्वाधीनता के जितने प्रयास थे, उन प्रयासों को भूमण्डलीकरण के दौर ने धो-पोंछकर रख दिया है। बाजारवाद के दौर में वह अब फिर अनुकरणवादी हो गई है, जो हमारे जीवन की मूल प्रवृत्ति रही है गुलामी की। स्त्री चेतना के औजार स्वाधीनता- आंदोलन ने विकसित किए थे, उन सबको आज तिलांजलि दे दी है। भारतीय समाज में एक तरह से नई स्त्री तो उत्पन्न हुई जैनेन्द्र की ‘मृणाल’, उसमें नयापन तो था, आधुनिकता नहीं थी, समकालीनता भी नहीं थी, इसलिए वह आन्दोलन नहीं बन पाया, न साहित्य में और न जीवन में।
भारतीय समाज की इस मुखर होती स्त्री को स्थान दिया है मन्नू भंडारी ने अपनी कहानी ‘यह भी सच है’ की दीपा के माध्यम से। स्वतंत्र्ता के बाद का सारा स्त्री-लेखन स्त्री-मुक्ति और अस्मिता की पहचान के संघर्ष की महागाथा है। महिला लेखन एक व्यापक व्यक्ति चेतना और सामाजिक चेतना के रूप में विकसित हुआ, जिसमें उसके जीवन का साक्ष्य है और उसके जीवन यथार्थ के अनेक रूप उद्घाटित हुए हैं। कृष्णा सोबती ने ‘मित्रे’ के माध्यम से प्रेम और देह पर नारी का हक बताया। इस संबंध में लेखिका शरद सिंह का यह कथन ‘‘छिपी रहती है हर औरत के भीतर एक और औरत, लेकिन लोग अक्सर देखते हैं सिर्फ बाहर की औरत’’, नारी मन की संवेदना को मुखर करता है। यह वह समय है जब जीवन-यथार्थ से स्त्री की नयी पहचान हुई। यथार्थ अनेक स्तरों पर फैला और विकसित हुआ। परिवर्तित मान्यताओं और मूल्यों के दो ध्रुवों पर खडी स्त्री का अन्तर्विभाजन इस समय की और उसके लेखन की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति है। मध्यवर्गीय परिवारों में एक नए पात्र् की तरह आजीविकारत स्त्री का प्रवेश इस दशक की प्रमुख घटना है। उषा प्रियम्वदा ने ‘पचपन खम्भे लाल दीवारें’ में पुत्री की अहम भूमिका द्वारा परिवार में बेटी की भूमिका पुनः स्थापित की। वैश्वीकरण ने नारी चेतना के क्षितिज को सबसे ज्यादा फैलाया है। विज्ञान, तकनीक, खेल, कॉर्पोरेट जगत् आदि कई क्षेत्रें में स्त्र्यिों ने अपनी मेधा और श्रम द्वारा पहचान बनाई है। भारत की बेटियों ने घर के आंगन को व्यापक कर मन का आकाश बना लिया है। आज कोई बी.बी.सी. प्रमुख है तो कोई देश में और विश्व के सभी देशों में आधुनिक व्यवसायगत उल्लेखनीय कार्य कर दिखा रही हैं और सर्वोच्च पद-प्रतिष्ठा भी पा रही हैं। नारी की दृष्टि से भी इसे सकारात्मक शक्ति-प्रदायक विकास के रूप में देखा जा रहा है। एक तरह से यह कहना कि ‘पिछले पन्ने की औरतें समाज के अगले पन्ने पर जगह पा गई हैं’, ज्यादा सार्थक होगा।
पुरुष भोगे और स्त्री भुगते - यह इस दशक की स्त्री को मान्य नहीं है। वह अब बंधनों के विरोध में खडी हो गई है। मृदुला गर्ग के ‘कठगुलाब’ में स्मिता और अमिता की बातचीत नारी के बदलते तेवर को व्यक्त करती है, ‘‘मुझे यह पुरातन औरतनुमा छल- प्रपंच पसन्द नहीं। दो टूक बात कहने का साहस हो तो मुझसे दोस्ती करना वरना अपना रास्ता माप’’। यहां स्पष्ट रूप से लेखिका ने व्यक्त किया है कि स्त्री का शरीर उसकी अपनी मिल्कियत है। उसकी देह पर उसका अधिकार है। वह चाहेगी, तभी पुरुष उसका उपभोग कर सकता है। नासिरा शर्मा की ‘शाल्मली’ एक स्थान पर कहती है, ‘‘मैं पुरुष विरोधी न होकर अत्याचार विरोधी हूं। मेरी नजर में नारी-मुक्ति और स्वतंत्र्ता समाज की सोच, स्त्री की स्थिति को बदलने में है।’’ यह संघर्षशील नारी बदली हुई स्थितियों में पुराने मूल्यों की पडताल करती है। स्वतंत्र्ता के बाद जब नारी अस्मिता के स्वर तेजी से उभरे तो नारी जीवन को नया आयाम मिला। इस दौर की लेखिकाओं में निरूपमा सेवती, मंजुला भगत, सूर्यबाला, नीलिमा सिंह, मृणाल पाण्डे आदि उल्लेखनीय हैं जिनकी रचनाओं में पारम्परिक ढांचा टूटता नजर आया। आत्माभिव्यक्ति के साथ नारी जीवन की विभिन्न स्थितियों का वर्णन उनके लेखन में मिलता है।
नए बन रहे आधुनिक समाज में मध्यवर्ग का विस्तार हुआ है, नौकरीपेशा स्वावलम्बी औरतों का समूह उभरा तो नई समस्याओं से भी वे रूबरू हुईं। परम्परागत पारिवारिक ढांचे के अलावा पुरुषवादी पूर्वाग्रहयुक्त धारणाओं ने भी कामकाजी महिलाओं के सामने समस्या खडी की है, इस दृष्टि से ममता कालिया की ‘जांच अभी जारी’ है। नमिता सिंह की ‘दर्द’ उल्लेखनीय रचनाएं हैं जो सत्ता-व्यवस्था और भ्रष्टाचार की पर्तें खोलने के साथ कामकाजी महिला के दोहरे व्यक्तित्व से जुडी और अर्थ-सम्बन्धी समस्याओं को सशक्त रूप में रखती हैं। आज स्त्र्यिों द्वारा उच्च पदों पर काम किए जाने के बावजूद उसको स्वतंत्र् अस्तित्व के साथ सहजतापूर्वक स्वीकार नहीं किया जाता। वस्तुतः मानसिक बदलाव की लडाई सबको मिलकर लडनी है, तभी सामाजिक परिवर्तन हो सकता है।
समकालीन महिला लेखन नारी की अस्मिता व स्वतंत्र् अस्तित्व की खोज का लेखन है। आज की लेखिकाओं ने अपनी रचना द्वारा स्त्री की अस्मिता को एक विशिष्ट पहचान दी है, उन्होंने साहित्य में सदियों की चुप्पी को तोडा है। स्त्री की नयी सोच, नयी जीवन-दृष्टि और नए भाव-बोध उनके लेखन की पहचान हैं। उनके लेखन में स्वतंत्र्चेता सम्पन्न नारी ने पहचान बनाई है। वह पुरानी रूढयों, रीति- रिवाजों को मानने के लिए विवश नहीं है, उसने नैतिकता, पुरानी मान्यताओं को तोडा है और अपने अनुकूल नए मानदण्डों का निर्माण स्वयं उसी ने किया है। अपने निर्णय वह स्वयं लेती है। ‘कोहरे’ की नायिका कहती है कि ‘‘औरतें जितनी कमजोर दिखती हैं, उतना ही वह भीतर से ठोस होती हैं’’ - यह कथन नारी में सजग हुए आत्मविश्वास को व्यक्त करता है। प्रभा खेतान का ‘छिन्नमस्ता’ उपन्यास इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। चित्र मुद्गल के शब्दों में ‘‘नारी चेतना की मुहिम स्वयं स्त्री के लिए अपने अस्तित्व को मानवीय रूप में अनुभव करने और करवाने का आंदोलन है कि मैं भी मनुष्य हूं और अन्य मनुष्यों की तरह समाज में सम्मानपूर्वक रहने की अधिकारी हूं।’’ उनका ‘आवां’ उपन्यास स्त्री चेतना को अभिव्यक्ति देता समय से मुठभेड की पडताल है। मैत्र्ेयी पुष्पा की ‘फैसला’ कहानी स्त्री का वह तेवर और पहचान है जो पुरुष वर्चस्व के आतंक तले कभी अभिव्यक्ति नहीं पा सका, लेकिन अब उभर रहा है, यह साहस हमें भी प्रत्येक ग्रामीण स्त्री में चाहिए। आज स्त्री ने मातृत्व की क्रांतिकारी स्थापना की है। पुरुष वर्चस्व के इस अभेद्य किले को इसीलिए कात्यायनी ने अपनी पुस्तक को ‘दुर्ग द्वार पर दस्तक’ कहकर स्त्र्यिों की ओर से चुनौती दी है। वैश्वीकरण में स्त्री की क्या छवि हुई है, इसे संवेदना के धरातल पर देखा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच, स्त्री- पुरुषों के बीच, परिवार और समाज के बीच नए समीकरणों का साहित्य रचकर, वह स्वयं कहां खडी है? अपने अस्तित्व की लडाई को मुखर करती है क्षमा शर्मा की कहानी ‘और अब’। ऋता शुक्ल के अनुसार, ‘‘आज का महिला लेखन किसी विशिष्ट चौखट में बंध जाने की विवशता से नहीं, पूरी विश्वसनीयता के साथ जन्दगी की एक-एक परत को उधेडकर भीतर तक प्रवेश कर जाने की उत्सुकता से पूर्ण है। आज स्त्री को हर स्तर पर लडना है, लेखन-संघर्ष उसी का परिणाम है।
वैश्वीकरण के इस दौर ने उपभोक्तावाद को बढावा दिया है। इस नए समाज में मानवीय-मूल्य और संवेदना के लिए स्थान नहीं हैं। यहां परस्पर संबंध, जीवन-मूल्य सभी बाजार आधारित हैं। लगातार आत्म-केन्दि्रत होता मनुष्य दिशाहीन हो रहा है। ममता कालिया का ‘दौड’ इस पूरे विमर्श की सशक्त प्रस्तुति है। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने की दौड में स्त्री भी शामिल हो गई है। शर्मिला जालान की ‘घोंसला’ वर्गीय विषमता और भूमंडलीकरण के दौर में पूंजीवादी मानसिकता पर अनूठे रूप से प्रहार करती है। बाजारवाद के आत्मघाती समय में कोई संबंध बगैर आदान-प्रदान के बिना स्वार्थ के हो सकते हैं या कहें कि नए रूप में परिभाषित संबंधों की कल्पना ‘ऊंचाई’ कहानी को नया आयाम देती है। उपभोक्तावादी संस्कृति की विरूपता को व्यक्त करती रचनाओं में महुआ माजी की ‘ड्राफ्ट’, ‘रोल मॉडल’, नीलमशंकर की ‘प्रतिशोध’, अल्पना मिश्र की ‘पडाव’ जैसी रचनाएं समाज को दिशा देने की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। दैहिक संबंधों की उन्मुक्तता ने विवाह संस्था को ही चरमरा दिया है। स्त्र्यिों ने अपने को मान लिया है कि हां, हम देह हैं। पर इसका स्वामित्व पुरुष का नहीं, स्वयं उसका है। परिस्थितियां भले ही बदलीं, आकार-प्रकार स्वरूप बदला, पर बात वहीं की वहीं है। सौदा वहां भी देह का, यहां भी देह का यानी जैसे सारी मर्यादाएं जिसे प्रतिष्ठा या इज्जत कहते थे, जो सामंत युग की देन है, वह दूसरे तरीके से सामने आयीं। बाजारवाद के इस युग में वह सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के द्वारा या विज्ञापनों के माध्यम से ‘कमोडिटी’ बन रही ह। कर्रतुल ऐन हैदर का ‘अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो’ स्त्री के दैहिक शोषण को मुखरित करती रचना है। ‘जीवन-मित्र्’, ‘विश्व-नागरिकता’ आदि नारी अस्मिता की पहचान के परिचायक हैं जिससे सारी दुनिया की संस्कृति, खण्डहर की तरह भरभरा कर गिर रही है। विवाह, परिवार, दाम्पत्य, मातृत्व सब पर जैसे प्रश्नचिह्न लग गए हैं? स्त्री-विरोधी समाज में कन्याभ्रूण हत्या पर लिखी गई दीपक शर्मा की कहानी ‘चमडे की गंध’ पुरुष मानसिकता को व्यक्त करती है। जिस तरह से पुरुषों की तुलना में स्त्र्यिों का अनुपात कम होता जा रहा है, आज सामाजिकता के चलते यह चिंतनीय प्रश्न है? नारी ने बनी-बनाई ‘ग्लास इमेज’ को तोडा है। वह पावर वूमेन बनती जा रही है। इस पितृसत्तात्मक समाज में खुद स्त्री भी अपने को पुरुष की नजर से देखने को मजबूर है, यानी जो पुरुष करता था, वही वह भी कर रही है। कुंआरे मातृत्व के रूप में यह सवाल कि बच्चा पैदा करना या न करने का अधिकार किसका है, माँ का या पिता का? गर्भपात, यौन शुचिता आदि अनेक प्रश्न जो समाज को झकझोरने वाले हैं, उनका वर्णन महिला लेखन में यथार्थ के धरातल पर बेबाक रूप में हुआ है। कुसुम अंसल की ‘मोहरे’ और एक अन्य कहानी ‘जंगल’ संबंधों के बदलते इसी रूप को अभिव्यक्ति देती है। इस दृष्टि से समकालीन लेखिकाओं में सुधा अरोडा का ‘यह रास्ता जंगल को जाता है’, चन्द्रकांता का ‘अंतिम साक्ष्य’, मीरां सीकरी का ‘गल्ती कहां’, कमल कुमार का ‘हमबरगर’, मेहरून्निसा परवेज का ‘अकेला पलाश’ इसके बाद की पीढी में कात्यायनी, लवलीन, अलका सरावगी, क्षमा शर्मा, जया जादवानी आदि की रचनाएं समाज-परिवर्तन का दिशा-संकेत करतीं अपना महत्त्व रखती हैं।
वस्तुतः आज भूमंडलीकरण के दौर में स्त्री चेतना का जो जलजला आया हुआ है, उसमें मास स्त्री कहां है? स्त्री की लडाई स्त्री के सामने आ गई है। उसे पहले संघर्ष तो विकसित होती स्त्री से करना है जो परम्परा के नाम पर प्राचीनता का विरोध कर रही है। आज के वैश्वीकरण के दौर में परिवर्तन का स्वर तेज है और साहित्य में मंद जिसका वर्णन महिला लेखन में पूरी शिद्दत के साथ हुआ है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में आज अनेक महिला रचनाकार सशक्त लेखन कर रही हैं, जिनमें सुधा गोयल, विमला रस्तोगी, मणिका मोहिनी, आशारानी व्होरा, तेजी ग्रोवर आदि और भी अनेक नाम हैं जो लेखन जगत् में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। कविता के क्षेत्र् में भी नई और पुरानी पीढी बराबर की साझेदारी बनाए हुए है। आज सौंदर्य-भावना और चिंतन के अनुरूप संवेदनाओं ने भी करवट बदली है। वंदना केंगरानी की ये काव्य-पंक्तियां इस रूप में उल्लेख्य हैं - ‘मुझे याद आता है/बार-बार बचपन/मैं सोचती बैठी हूं। ‘अब मेरे पंख कहां हैं’ (दस्तावेज, 88)।’’
नारी जीवन की परवशता के साथ उसकी अस्मिता के संघर्ष को यहां अभिव्यक्त किया गया है। इसी प्रकार निर्मला गर्ग की ये काव्य-पंक्तियां द्रष्टव्य हैं -
‘‘क्या ले जाऊं नवजात बच्ची के लिए/मैं थोडे से फूल/थोडे से वाक्य/किसी कविता से/और यह विश्वास कि बडी होकर देखेगी दुनिया को/अपनी नजर से/तोडेगी जंजीरें/मांगेगी आजादी/उससे कम कुछ नहीं।’’
नव भाव-बोध के साथ समय के तेवर की चुनौती समाज में परिवर्तित जीवन-मूल्यों को स्वर देती महिला-लेखन को नया आयाम प्रदान करती है। इस दृष्टि से डॉ. रमा सिंह, विभा देवसरे, कात्यायनी, सावित्री डागा, गगन गिल, अनामिका और रजनी कुलश्रेष्ठ आदि अनेकानेक लेखिकाओं के नाम उल्लेखनीय हैं। सभी ने वैश्वीकरण की प्रक्रिया स्वरूप जीवन-मूल्यों के खण्डन को बताते हुए स्त्री- चेतना के साथ धरती की महक से संपृक्ति का प्रयास किया है।
अन्ततः कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण के माध्यम से, उसके प्रभाव से जो महिलाओं का लेखन है, उसमें हमारी अपनी जमीन खो गई है। अपने सरोकार खो गए हैं। हमारी अपनी जडों को सिंचाई की वे बूंदें नहीं मिल पा रही हैं, जिनसे हमारा समाज भारतीय संस्कृति को सुरक्षित बनाए रख सके। कथानकों में जब हम देखते हैं तो उसमें वे पात्र् देखने को मिलते हैं, जिनका भारतीय जीवन से कोई संबंध दिखाई नहीं देता, जबकि आवश्यकता है कि वह भारतीय जीवन और धरती की संपृक्ति को अभिव्यक्त करे। आज नारी स्वचेता के रूप में उभर रही है। समाज और पारिवारिक संबंधों - पत्नी, बहिन, माँ और बेटी वाली भूमिकाओं से विलग होती पहचान बना रही है। परिवार और समाज को संस्कारित करने वाली महती भूमिका के रूप में इसे लेखन में गरिमामय स्वीकार के साथ लाने की भी चुनौती दिखाई देती है। नारी सशक्त बने इसके लिए आवश्यक है कि समाज की भी सोच बदले। इस नए समाज की रचना में मानवीय-जीवन की संवेदना और भारतीय मानस की उपेक्षा हुई है, ऐसे में मृदुला सिन्हा और डॉ. रमा सिंह, क्षमा शर्मा आदि कतिपय लेखिकाओं का लेखन संस्कृति और धरती से जुडाव को प्रेरित करता मन के आंगन को फैलाव देता है, वृहत्तर यथार्थ से जुडने की कोशिश उनमें दिखाई देती है। वैश्वीकरण ने विज्ञान दिया है, ठीक है उससे विकास होता है, किन्तु केवल विज्ञान द्वारा संस्कृति की रक्षा संभव नहीं है। वैश्वीकरण के इस नए ज्वार को बहुत समझ-बूझकर उससे जुडना है। यही आज की चिंता का विषय है, इसका उपयोग जो हमारे अनुकूल हो, वह ग्राह्य है और जो जडों पर प्रतिघात करे, वह त्याज्य होना चाहिए। आज महिला लेखन वैश्वीकरण की चकाचौंध में खो न जाए। हमारे मन की, समाज की, परिवारों की मौलिकता से जुडे, यह देखना होगा।
इस प्रकार एक ओर महिला लेखन ने वैश्वीकरण के प्रभाव से बदलते सामाजिक मूल्यों और उसके विघटन को रेखांकित किया है तो दूसरी ओर उसका सकारात्मक रूप भी सशक्त रूप में उभरकर आया है। इस तरह महिला लेखन बिना किसी खांचे में बंधे अबाध गति से, समय के तेवर की चुनौती को स्वीकारते हुए, भविष्य की ओर अग्रसर है। सांस्कृतिक विघटन से प्रभावित मानव-मूल्यों को सुरक्षित रखने और संजोने-संवारने का दायित्व भी महिला रचनाकार के लिए एक चुनौती है, जिसे उसने समझा है। स

‘देवराज उपाध्याय पुरस्कार’ से पुरस्कृत कृति ‘साहित्यालोचन ः विविध रंग’ से साभार।

 

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