सुरेश वाडकर

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Saturday, November 22, 2014

भाजपा में मुस्लिम उम्मीदवार क्यों नही ?

भाजपा में मुस्लिम उम्मीदवार क्यों नही ?

modi-shri लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व सामूहिक होता है वर्गीकृत नहीं होता फिर भी दलितों आदिवासियों की समाजिक स्तिथि को देखते हुए उन्हें वर्गीकृत किया गया है. देश ने इस जरूरत को समझा पर जब कोई इससे आगे जाकर उम्मीदवारों का मजहबी क्लासिफिकेशन की बात करता है तो इसके बेहद गंभीर दुष्परिणामो को फौरी फायदे के लिए भुलाने का काम करता है, मजहबी वर्गीकरण की यही विषैली व्यवस्था पाकिस्तान में लागू है. ऐसे में सब कुछ जानते हुए जब मीडिया मुस्लिम उम्मीदवारी और ख़ास तौर पर भाजपा में मुस्लिम उम्मीदवार क्यों नही का प्रश्न बनाती है तो वह जाहिर तौर पर क्लासिफिकेशन की बात कर रही होती है. हमारा लोकतंत्र समावेश है इसके बड़े राज्य महराष्ट्र-राजस्थान में क्रमशः नौ प्रतिशत व् पांच प्रतिशत मुस्लिम होने के बावजूद मुस्लिम मुख्यमंत्री बन जाता है तब ऐसे में इस तरह के वर्गीकृत प्रतिनिधित्व की आवश्यकता ही क्या है ?
मुस्लिमो के प्रतिनिधित्व के नाम पर उठाई गयी यह मांग इस लिए बेमानी होती है क्यूंकि नेतृत्व नीचे से उभरता है- कैडर से उभरता है. भाजपा एक अनुशासित दल है उसका अपना कैडर है सप्पोर्ट बेस है उस सप्पोर्ट बेस से ही नेता उभरते है. अगर आप पूरे भाजपा को देखे तो आप पायेंगे की नेताओं का बहुत कम प्रतिशत डायरेक्ट एंट्री (नामचीन व् दलबदलू ) और परिवारवाद से आता है – यानी ज्यादातर नेता जमीन से आ रहे है. यही हाल हमारी राजनीतिक व्यव्स्था की इकाइयां यानी सियासती पार्टियों में नेताओं को चुनने की प्रक्रिया है. पहला नेता के चुनाव का तरीका है सन्गठन के प्रति निष्ठा, सांगठनिक इकाइयों व् कार्यकर्ताओं की पसंद, जनसमस्याओं से जुड़ाव, चुनावों का अनुभव आदि आदि पर इस प्रक्रिया से उपर लोकप्रियता एक अन्य अहम फैक्टर है जिससे पार्टियां टिकट देती है. पार्टियां अक्सर खुद से लोकप्रिय लोगो को अपने यहाँ का न्योता देती है जैसे इस बार परेश रावल को भाजपा ने अमदावाद पूर्व से मौका दिया है यहाँ संगठन के सहयोग से लोकप्रिय व्यक्ति मुकाबले में आ जाता है, यह नेता के चुनाव का दूसरा तरीका है. कई बार लोकप्रिय व्यक्ति खुद ही पार्टी बना लेते है जैसे केजरीवाल की ‘आप’ या चौथा तरीका है लोकप्रिय व्यक्ति स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़े जैसे पिछले लोकसभा चुनाव में प्रकाश झा लड़े थे.
इन तरीको पर विचार करने पर हम पायेंगे की मुस्लिम नेतृत्व भाजपा में नीचे से आये तभी संगठन उन पर दांव लगाएगा या फिर कोई इतनी लोकप्रिय शख्सियत जुड़े जो जीत सके पर इन दोनों ही मापदंड़ो पर उत्तर प्रदेश के मुस्लिम भाजपा में कही नही फिट बैठते इसलिए भाजपा में मुल्सिम नेताओं या उम्मीदवारी की स्तिथि ठीक वैसी ही है जैसी की मुस्लिम सपोर्ट बेस की है. भाजपा ने यूपी से आरिफ मोहम्मद खान को सन 2004 में कैसरगंज लोकसभा से मौक़ा दिया था कैसरगंज से अगर जीत होती तो ऐसे फार्मूले और भी अपनाये जाते. उस चुनाव में मुस्लिमो ने भाजपा के आरिफ जैसे कद के मुस्लिम प्रत्याशी को नकार दिया तब अन्य मुस्लिम नेताओं का क्या हश्र होगा यह भी समझ में आता है. भाजपा में मुस्लिम नेतृत्व का उभार मुसलमानों की भी जिम्मेवारी है इसके लिए उन्हें भाजपा को विकल्प के तौर पर चुनना होगा तभी समावेशिक उम्मीदवारी की मांग उचित है क्यूंकि संसदीय लोकतंत्र में चुनावी जीत भी महत्वपूर्ण चीज़ है.
इसी चुनावी जीत के समीकरण पर प्रहार करते हुए द वीक से सम्बद्ध पैट्रिक फ्रेंच ने एक लेख में लिखा की एक बड़ी आबादी से कटने के परिणाम गंभीर होते है . वे 1937 के चुनावो का उदाहरण देते हुए लिखते है कांग्रेस ने 1500 अनारक्षित सीटों पर अप्रत्याशित सफलता पायी मगर मुस्लिम आरक्षित सीटों में से वे केवेल 26 सीटें जीत पायी. इन परिणामों नतीजा हुआ की कांग्रेस के नेतृत्व ने भविष्य में मुसलमानों पर निर्भर रहे बिना अपने लक्ष्य को हासिल करने को ठाना. मुस्लिम का यह अलगाव मुस्लिम लीग ने खूब भुनाया मुस्लिम लीग ने भी नए सदस्यों के लिए अपना सदस्यता शुल्क ‘दो आना’ कर दिया, जोकि कांग्रेस के सदस्यता शुल्क से आधा था, परिणामस्वरूप छोटी सी मुस्लिम लीग एक बड़े जन-आन्दोलन में परिवर्तित हो गयी.
मुस्लिम लीग के जीतनी के कारण जो पैट्रिक देखते है मुझे उसमे सिर्फ एक बात समझ नही आती की अंडा पहले आया की मुर्गी ? यानी मुसलमानों ने वोटबैंक बनकर धर्म विशेष की पार्टी को पहले चुना या सेक्युलर पार्टी ने मुसलमानों को पहले अलहदा किया. वैसे भाजपा में मुस्लिमो का एक अच्छा प्रतिशत है यहाँ एम् जे अकबर आते है पर यह जमीनी एंट्री नही है ना ही इससे चुनावी जीत ही सुनिश्चित होती है. टिकट का प्रश्न उठाने वाले क्या यह बताएंगे की कितने मुसलमान भाजपा को वोट करने जा रहे है — जब वोट आना ही नही तो प्रत्याशी जीतेंगे कैसे ?
संजीव सिन्हा

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