बासी खिचड़ी में फिर से उबाल
पुरानी कहावत है कि राजनीति में कुछ भी मुमक़िन है। राजनीति
की अखाड़े के पुराने समाजवादी पहलवान मुलायम सिंह यादव अभी तक इसी मुहावरे की पूंछ
पकड़कर बैठे हुए हैं। इसलिए पुराने समाजवादियों के साथ फिर से गलबहियां करना शुरू
कर दिया है। देश की राजधानी दिल्ली में हुई पुराने समाजवादियों की बैठक को इसी
संदर्भ में देखा जाना चाहिए। मुलायम सिंह चाहते हैं कि वो किसी भी तरह से एक बार
देश का प्रधानमंत्री बन जाएं। लेकिन उनका ये सपना बार-बार चूर हो रहा है। सबसे
पहले नब्ब के दशक में ज्योति बसु और लालू प्रसाद ने लंगड़ी मारी थी। हालिया लोकसभा
चुनाव में बीजेपी के नरेंद्र मोदी ने चारों खाने चित्त कर दिया। राजनीति के अखाड़े
में मुलायम सिंह यादव हांफ ही रहे थे कि यूपी में विधानसभा के लिए उपचुनाव हो गए। विचित्र
किंतु सत्य की तरह ही मुलायम सिंह यादव की पार्टी को अप्रत्याशित जीत मिल गई। इस
जीत ने एक बार फिर से मुलायम सिंह यादव में जोश भर दिया। इसलिए मुलायम ने कांठ की
हांडी फिर से चढ़ाने की ठान ली।
जो कभी एक दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते थे, आज
हमप्याला- हमनिवाला बनने के लिए मजबूर हो गए हैं। मुलायम सिंह यादव योद्धाओं की एक
ऐसी सेना बनाने में लगे हैं, जो हाल-फिलहाल के युद्धों में लस्त-पस्त हो चुकी है। कपड़े
तार-तार हैं और ढाल ले सेलकर तलवार तक बेहाल हैं। लेकिन सपने अब भी बड़े-बडे देखे
जा रहे हैं। एक सूबा तो ढंग से संभाला नहीं जा रहा। लेकिन तुर्रा ये कि पूरा देश
संभाल लेंगे। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, एचडी देवेगौड़ा और देवीलाल घराने का सबसे
उभरता हुए युवा समाजवादी चेहरा दुष्यंत चौटाला के साथ मिलकर मुलायम ने खिचड़ी
पकाने की कोशिश की है। हैरानी की बात तो ये है कि इनमें से एक भी योद्धा ऐसा नहीं
है, जिसके दम पर मुलायम सिंह रणभेरी बजा सकें। बिहार में नीतीश कुमार की नाव
हिचकोले खा रही है। लोकसभा चुनाव के दौरान नीतीश को अपनी ताक़त और सामाजिक समीकरण
की हैसियत का अंदाज़ा हो चुका है। कुछ यही हाल लालू प्रसाद का भी है। कोर्ट-कचहरी
के चक्कर में जूते घिसा चुके लालू भी बिहार की राजनीति में हाशिए पर धकेल दिए गए
हैं। वो तो भल हो हालिया उपचुनावों का , जिसनें इन दोनों नेताओं को गाल बजाने का
थोड़ा मौक़ा दे दिया। जो नेता पिछले बीस सालों से एक दूसरे के ख़िलाफ़ तलवार लहरा
रहे थे, उन्हें मोदी की लहर ने एक मंच पर आने के लिए मजबूर किया। उप चुनाव में जीत
मिली तो फिर से लंगोट पहनकर ताल ठोंकने लग गए।
लेकिन सवाल केवल ये नहीं है कि मुलायम की मंशा रंग दिखा
पाएगी या नहीं। सवाल इन पुराने समाजवादी नेताओं की मौजूदा राजनीतिक हैयिसत की भी नहीं
है। सवाल इन नेताओं की फितरत और इनकी सोहबत की भी है। इसमें कोई शक़ नहीं कि
भारतीय जनमानस का मन सत्तालोलुप कांग्रेस से भर चुका है। अगर ऐसा नहीं होता तो नई
नवेली पार्टी उस दिल्ली में जीत हासिल नहीं करती, जिसके बारे में लोग पढ़ा लिखा
शहर होने की बात करते हैं। जनता को विकल्प की तलाश थी। फिलहाल जनता इस विकल्प के तौर
पर केवल बीजेपी को ही पसंद कर रही है। इसके पीछे कई सारी वजहें हैं।
जनता चाहती है कि अब देश में जाति और धर्म की राजनीति में
बंद हो। विकास के काम हों। युवाओं को रोज़गार मिले। हर घर में संपन्नता हो। ये देश
अब नब्बे के सामाजिक और राजनीतिक सोच से ऊपर उठ चुका है। एक ऐसी पीढी तैयार हो
चुकी है, जिसकी नज़र में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद झगड़े की कोई अहमियत नहीं रह गई। 12-14
साल की ऐसी पीढ़ी भी तैयार हो चुकी है, जिसके मन में गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र
मोदी के खिलाफ कोई दुर्भावना भी नहीं है। नौजवानों की ये पीढ़ी जब अपनी जीवन शैली
बदलने के साथ ही देश की राजनीति की तरफ ताकती है तो उसे पीड़ी होती है। उसे समझ में
नहीं आता कि लोकतंत्र में शासन करने का अधिकार केवल एक ही ख़ानदान को क्यों दिया
जाए। इस पीढ़ी ने जब विकल्प तलाशना शुरू किया तो समाजवादियों की असलियत सामने आ
गई। पाया कि जिन समाजवादियों ने वंशवाद और भ्रष्टाचार के विरोध में वर्षों तक
तकरीरें दी हैं, वो ख़ुद ही इसके दलदल में धंसे हुए हैं। लालू की पार्टी में जब
नेतृत्व की बात होती है तो लालू या राबड़ी देवी के अलावा कोई चेहरा नज़र नहीं आता।
मुलायम सिंह यादव की पार्टी में नेतृत्व की बात होती है तो नाती-पोते तक
सांसद-विधायक बन जाते हैं। यहां तक महिलाओं के संसद में आने का विरोध में परकटी
मुहावरे उछालने वाले मुलायम सिंह यादव मौक़ा मिलते ही अपनी बहू डिंपल को सांसद बना
देते हैं। देवगौड़ा और ओम प्रकाश चौटाला की पार्टी भी इससे इतर नहीं है। चौटाला
परिवार को अजय और अभय के बाद तीसरी पीढ़ी दुष्यंत में ही नेतृत्व क्षमता दिखी।
देवगौड़ा को अपने बेटे कुमारस्वामी में ही भविष्य दिखता है।
समाजवादियों की ये छल-कपट देखने के बाद जनता का मन अब तीसरे
मोर्चे से भर गया है। जनता जानती है कि ये नेता केवल कुर्सी के लिए एक होने का
दिखावा कर रहे हैं। जिस दिन कुर्सी दिखने लगेगी, उसी दिन से इस मोर्चे में सिर
फुटव्वल की नौबत शुरू हो जाएगी। इस मोर्चे की मुश्किल ये भी कि इस एख डोरे से
बांधे रखने वाले चंद्रशेखर, वी.पी. सिंह, रामकृष्ण हेगड़े, मधु लिमए जैसे नेता भी
नहीं रहे। लिहाज़ा लालू और नीतीश के साथ मिलकर मुलायम सिंह यादव लाख उछल कूद मचा
लें, उनके हाथ फिलहाल कुछ लगनेवाला नहीं है।
Sunday, September 28, 2014
तो क्या अब ममता बनर्जी की बारी है
पहले लालू प्रसाद और उसके बाद जयललिता को आमदनी से ज़्यादा कमाई के मामले में जेल हुई है. लालू की तरह जया भी सियासत के मैदान में खेत हो गयी हैं. अब अगर बड़ी अदालत चाहे तो उनपर रहम कर सकता है. लेकिन फिलहाल रिहाई की रौशनी बेहद काम दिखाई देती है. कहते हैं की इन्साफ देर से मिले तो इन्साफ नहीं कहलाता. लेकिन लालू और जया के मामले में अदालत ने देर से ही सही, इस तरह का फैसला देकर नज़ीर क़ायम किया है. चाहें लालू हो, जया हो, ओम प्रकाश चौटाला हो या फिर सुखराम....इस सबका जेल जाना बनता थाक्योंकि लोगो में ये धरना बन गयी थी की बड़े लोगो को सजा नहीं होती. लोगो का ध्यान भटकने के लिए सुरेश कलमाड़ी, राजा और कनिमौली जैसे लोगो को कुछ दिनों जेल में रहना पड़ता है और फिर आज़ाद हो जाते हैं. औब सवाल ये है क्या औब कोर्ट से मुलयम सिंह यादव, मायावती और ममता बनर्जी जैसे लोगों को सजा होगी? मुलायम और माया के बारे में सब जानते हैं लेकिन कितने लोगो तक अभी ममता की कारगुज़ारी की कोई खबर है?
पश्चिम बंगाल की विद्रोही तेवर वाली मुख्यमंत्री ममता बनर्जी उस समय चर्चा में आई थीं, जब उन्होंने हिंदू महासभा के नेता एन सी चटर्जी के बेटे और मशहूर वकील सोमनाथ चटर्जी को जाधवपुर से लोकसभा का चुनाव में हराया था। लोग ये सोचकर खुश थे कि राजनीती में पाखंड का दिन जाने वाला लहै. ज़मीं से जुड़े लोग राज करेंगे. वो ईमानदार होंगे. क्योंकि एमपी बनने के बाद भी ममता कालीबाडी के अपने मोहल्ले से पानी भरकर घर ले जाती थी. ममता की यह छवि उनके आगामी राजनीतिक जीवन में भी बनी रही. तीन साल पहले उन्होंने जब अपने दम पर माकपा को सत्ता से बेदखल किया था, तो पूरे देश में उन्हें जुझारू नेता के रूप में देखा गया. अपने चार दशक लंबे राजनीतिक कॅरिअर में सादगी और ईमानदारी ही उनकी पूंजी बनी रही है.
मगर, जब से शारदा चिटफंड घोटाले में उनकी तृणमूल कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं के नाम सामने आए हैं, तब से उनकी कथित भूमिका को लेकर संदेह के बादल मंडरा रहे हैं. आलम ये है की कभी बेहद क़रीब रहे तृणमूल कांग्रेस के सचिव मुकुल रॉय ने खुद को ममता से दूर कर लिया है. शारदा घोटाला जब सामने आया था, तब ममता ने विरोधाभासी प्रतिक्रिया दी थी। एक ओर तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से जोर देकर कहा था कि वह और उनका कोई भी विश्वस्त या कोई मंत्री इसमें शामिल नहीं है। उन्होंने बौखला कर कहा था कि वह या उनके परिवहन मंत्री मदन मित्रा चोर नहीं हैं! दूसरी ओर उन्होंने अपनी ओर से भरसक कोशिश की कि इस घोटाले की जांच का जिम्मा सीबीआई को न दिया जाए. जबकि विपक्ष में रहते वह ऐसे किसी भी मामले की सीबीआई जांच की पुरजोर मांग करती रही हैं.उनका यह रवैया इस घोटाले की जद में आए त्रिपुरा, असम और ओडिशा के मुख्यमंत्रियों से बिल्कुल उलट है, जिन्होंने बिना झिझक सीबीआई जांच की मंजूरी दी. ममता ने न केवल सरकारी धन का दुरुपयोग कर इस जांच को रोकने की, बल्कि विशेष जांच समिति गठित कर और प्रत्येक प्रभावित को 10,000 रुपये तक का भुगतान कर पूरे मामले को ही निपटाने की कोशिश की.
ममता ने शुरू में तो शारदा घोटाले के मुख्य आरोपी सुदीप्तो सेन को जानने से ही इन्कार कर दिया था. उन्होंने कहा था कि उनका नाम पहली बार उन्होंने नब्बोर्षो पर सुना था. लेकिन अब इस बात के दस्तावेजी प्रमाण सामने आ चुके हैं कि 2011 में सेन से उनकी मुलाकात हुई थी. यही नहीं, युनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया के प्रबंध निदेशक ने अक्तूबर, 2012 में ही उनके वित्त मंत्री को इस घोटाले के बारे में आगाह किया था. बैंक के प्रबंध निदेशक ने उन्हें न केवल ग्रामीण इलाके में शारदा चिटफंड की फैलती गतिविधियों के बारे में बताया था, बल्कि उन्हें इससे भी अवगत कराया था कि किस तरह केंद्र सरकार की छोटी बचत योजनाओं में निवेश कम हो रहा है. इन आरोपों के अलावा अब सीबीआई जांच से खुलासा हुआ है कि ममता बनर्जी जब रेल मंत्री थीं, तब पांच साल के ज़रूरी अनुभव और टेंडर के बिना ही शारदा कंपनी को एक मोटा ठेका दिया गया था. यदि यह सच है तो यह उनके लिए ताबूत में आखिरी कील साबित हो सकता है। जाहिर है, सीबीआई जांच उन्हें लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव और मायावती की कतार में ला खड़ा करेगी।
यदि अन्य क्षेत्रीय राजनीतिक दिग्गजों से तुलना करें, तो वही ऐसी नेता थीं, जिन तक सीबीआई जांच की आंच नहीं पहुंची थी. अब ऐसा लगता है कि सर्वोच्च अदालत के आदेश और उसकी निगरानी में हो रही सीबीआई जांच से उनकी छवि दागदार हो जाएगी और उन्हें लालू, मुलायम, मायावती, जयललिता, करुणानिधि, शिबू सोरेन, अजित सिंह और ओम प्रकाश चौटाला के साथ खड़ा कर दिया जाएगा. अतीत में देखा गया है कि कैसे सीबीआई जांच के भय से कई नेता संसद में सत्तारूढ़ दल को असहज स्थिति में डालने से बचते रहे हैं. यह अजीब लगता है कि कैसे पिछली यूपीए-दो सरकार के समय उत्तर प्रदेश की दो परस्पर विरोधी पार्टियां सरकार को समर्थन दे रही थीं।.जयललिता ने श्रीलंका के तमिलों के लिए आंसू बहाने और प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखने के अलावा कुछ खास नहीं किया।.तमिलनाडु का मुख्यमंत्री रहते करुणानिधि भी यही करते थे. ममता की स्थिति इन सबसे अलग है। लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने सारी सीमाएं लांघकर कहा था कि यदि नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल में घुसने की कोशिश की, तो वह उन्हें जेल भिजवा देंगी, बावजूद इसके कि वह यह जानती थीं कि वह ऐसा नहीं कर सकतीं. शारदा घोटाले के सामने आने के बाद उनका राजनीतिक भविष्य अधर में है. कई लोग सोचते हैं कि उनकी नियति लालू प्रसाद जैसी हो सकती है, जिन्हें चारा घोटाला में संलिप्त होने के कारण चुनावी राजनीति तक से बाहर होना पड़ गया.
Tuesday, July 29, 2014
मोदी सरकार को शर्म भी नहीं आती
ये
देश के लिए शर्म की बात है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ब्रिक्स
सम्मेलन के बहाने चीनी राष्ट्रपति शी ज़ेनपिंग से गलबहियां कर रहे थे तो
उसी दौरान चीनी फौज सरहद लांघकर कश्मीर के लद्दाख के चुनार और डामचौक में
उत्पात मचा रही थी। मनमोहन सरकार की बात तो छोड़िए, मोदी के सरकार बनाते ही
चीनी फौज ने उत्तराखंड के चमोली में भी आकर अपनी बादशाहत का अहसास कराया
था और हमारी सरकार हमें केवल भरोसा दिलाती रही। शर्म की बात तो ये है कि
सरकार जब बातें बनाने में मशगूल थी, उस दरम्यान पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी
यानी चीनी फौज ने फिर एक बार लद्दाख के ही पागोंग झील में पानी के रास्ते
घुसपैठ करने की कोशिश की।
घुसपैठ
रोकने का भरोसा देकर सरकार बनाने वाले मोदी के नंबर दो मंत्री राजनाथ सिंह
की हालत तो सांप-छुछंदर जैसी दिखने लगी है। उन्हें ये कहने में कोई शर्म
नहीं आई कि चीनी फौज ग़लती से नियंत्रण रेखा लांघ जाती है। सच तो ये है कि
सरकार भी पहले की सरकारों की तरह ही लुंजपुंज है। लेकिन बातें बनाने में
मिट्टी के शेर हैं। राजनाथ ये बयान देकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं कि
नियंत्रण रेखा की वास्तिवक जानकारी न होने की वजह से कई बार हमारे सैनिक भी
सरहद लांघ जाते हैं। इसी तरह से राज्यसभा में जब वित्त मंत्री अरूण जेटली
के मुखारबिंदु से जब विदेश नीति का उदगार हो रहा था, उस समय भी पाकिस्तानी
फौजी हमारे सरहद में घुसकर अखनूर में फायरिंग कर रहे थे। और जेटली बड़ी
बेशर्मी से दम भरे रहे थे कि अब पहले की तरह नहीं होगा। अगर आइंदा से
पाकिस्तान ने सीज़फायर तोड़ने की कोशिश की तो ईंट का जवाब पत्थर से दिया
जाएगा। मोदी की बात सुनकर ऐसा ही लगा मानों किसी मज़बूत बालक ने कमज़ोर
बालक की पिटाई कर दी हो और पिटने के बाद बालक ललकारते हुए कहे कि रूक, अभी
दूध पीकर आता हूं। फिर तुम्हे देख लूंगा।
दरअसल,
पाकिस्तान हो या फिर चीन, सब हमें आंखें दिखा रहे हैं। क्योंकि हमारे
पड़ोसी देशों को अच्छी तरह से मालूम है कि हमारी नीति बेहद सॉफ्ट हैं।
इसलिए शायद हमें सॉफ्ट स्टेट के तौर पर जाना जाता है। दोनों ही देश नहीं
चाहते कि नियंत्रण रेखा पर वास्तविक रेखा तय हो। क्योंकि दोनों ही देशों के
इरादे नेक नहीं है। ये सब जानते हैं कि पाकिस्तान की मंशा हमारी सिर क़लम
करने की हो। वो अरसे से इस कोशिश में लगा है कि कश्मीर को हमसे अलग कर दे।
वहीं चीन की भी नज़र अरूणाचल प्रदेश और सिक्कम पर है। वो खुलकर इन राज्यों
पर अपना हक़ जताते आ रहा है। ये बात देश का बच्चा- बच्चा जानता है। इसलिए
चुनाव में जनता ने एक ऐसे नेता को वोट दिया, जो शेर की तरह दहाड़ता था।
लेकिन
हमारे नए प्रधानमंत्री भी पहले के प्रधानमंत्रियों की तरह ही निकले।
तरह-तरह के समिट में जाना। अच्छी-अच्छी बातें करना। दुश्मन देशों के चेहरों
पर दोस्ती का मुलम्मा चढ़ाकर उनके नेताओं को अपने देश में बुलाकर जमाई
ख़ातिर करना ही शायद हमारी फितरत है और नियति भी। क्या कभी इस देश को ऐसा
नेता भी नसीब होगा, जिसकी कथनी और करनी में फर्क़ नहीं होगा। अगर पड़ोसी
देश तीन-तेरह करे तो घर में घुसकर उसे ललकारे और फिर अलग बांग्लादेश पैदा
कर दे। क्या ऐसा नेता हमें फिर मिलेगा, जिसे मालूम होगा कि वो अपने से
बलवान से भिड़ने जा रहा है और उसे मात मिलेगी। फिर भी वो जाकर चीन से टकरा
जाए। क्या हमें फिर ऐसा नेता मिलेगा, जब अमेरिका आंखें दिखाए तो वो वहां से
गेहूं लेने से मना अपने देश में हरित क्रांति ला दे। समस्या ये है कि देश
की जनता तो चाहती है कि उसे एक मज़बूर इरादों वाली सरकार मिले। अपनी इसी
हसरत को पूरा करने के लिए देश की जनता बार-बार छली जा रही है। शायद आगे भी
ऐसा होता रहे। फर्क़ सिर्फ इतना भर होगा कि चेहरे बदलते जाएंगे, झंडे बदलते
जाएंगे। लेकिन नियति नहीं बदलने वाली।
Sunday, June 22, 2014
मोदी के हिंदी प्रेम को विरोध क्यों
इनदिनों
भारतीय भाषाओं और हिंदी के बीच रार छिड़ी हुई है। इस बार भी रार की जड़
अंग्रेज़ी है। सरकारी सोशल मीडिया में हिंदी में काम करने के लिए
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने सर्कुलर जारी किया तो बवेलाल
खड़ा हो गया। दक्षिण भारत से जे. जयललिता से लेकर कश्मीर के उमर अब्दुल्ला
तक ने विरोध जता दिया। इस सर्कुलर को हिंदी के अख़बारों और टीवी चैनलों ने
भाव नहीं दिया लेकिन अंग्रेजी के अख़बारों और टीवी चैनलों ने तिल का ताड़
बना दिया। इस ख़बर को इस तरह से पेश किया गया मानों मोदी की टीम हिंदी को
बढ़ावा देने के लिए दूसरी भारकतीय भाषाओं को हाशिए पर डाल रही है।
अगर
राजभाषा विभाग को ये अहसास होता कि सोशल साइटों पर अंग्रेजी के साथ-साथ
हिंदी के भी इस्तेमाल की सलाह देने वाली उसकी एक चिट्ठी इस कदर गुल
खुलायेगी तो शायद ये चिट्ठी जारी ही नहीं होती। असलियत तो ये है कि
अंग्रेज़ि में पढ़े लिखे बाबू लोग जो देश चलाने का दम भरते हैं, वो हिंद
में काम काज कर ही नहीं सकते। ये तो महज़ औपचारिकता भर थी। जैसे कि एक
सुहागिन अगर सिंदूर न पहने तो वो सुहागिन नहीं कहलाती। ठीक उसी अंदाज़ में
ये सर्कुलर जारी किया गया था। ये राजभाषा और बोली के प्रति लगाव नहीं था।
लेकिन इसे सियासी रंग दिया गया। विरोध करने वालों के दिल में ये बात थी थी
कि जनसंघ ने हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा दिया था। उस संगठन से निकले
मोदी कहीं उसे एजेंडा को पूरा करने में तो नहीं लगे हैं।
असली सवाल
यह है कि एक छोटे से महकमे से चली इस चिट्ठी से या इसकी मार्फत दिखने वाली
हिंदी की वकालत से अंग्रेजी या दूसरी भारतीय भाषाओं के राजनीतिक नेतृत्व के
पांव क्यों कांपने लगे? आखिर जयललिता और करुणानिधि को तमिल अस्मिता और उमर अब्दुल्ला और अखिलेश यादव को उर्दू की इज्जत का ख्याल क्यों सताने लगा? क्या वाकई आज की तारीख में हिंदी भारत की ऐसी विशेषाधिकार संपन्न भाषा है जो बाकी भाषाओं के हित या उनका हिस्सा मार सके? इस
सवाल पर ठीक से विचार करें तो पाते हैं कि दरअसल भारतीय भाषाओं और हिंदी
के बीच झगड़ा खड़ा करने का काम अंग्रेजी ही कर रही है। अंग्रेजी के चैनलों
ने ये भी ठीक से नहीं बताया कि दरअसल केंद्र सरकार का ये सर्कुलर बस
केंद्रीय महकमों और उन राज्यों तक सीमित है, जहां हिंदी बोली जाती है। उनका
बाकी राज्यों के कामकाज से वास्ता नहीं है। इसी का नतीजा था कि दक्षिण
भारतीय राज्यों को अचानक हिंदी के वर्चस्व का डर सताने लगा और वे फिर
अंग्रेजी की छतरी लेकर खड़े हो गए।
ये विरोध
असल में मातृभाषा के लिए प्रेम नहीं था। ये विरोध हिंदी की विरोध था। याद
कीजिए अगर आप दक्षिण भारत या पश्चिम बंगाल के किसी भी शहर में ट्रेन से गए
हों तो स्टेशन और प्लेटफॉर्म पर लिखे हिंदी पट्टी पर चारकोल लगा दिया गया
है। जबकि उस स्टेशन पर हिंदी और अंग्रेजी के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं में
जगह का नाम लिखा हुआ है। अगर इन राज्यों और नेताओं को हिंदी से इतनी नफरत
है तो फिर वो अंग्रेजी से इतना प्रेम क्यों कतरते हैं। क्यों नहीं
अंग्रेज़ी के शिलापट्टियों पर कालिख पोतते हैं।
सवाल है कि अंग्रेजी यह खेल क्यों करती है? क्योंकि
असल में अंग्रेजी इस देश में शोषण और विशेषाधिकार की भाषा है। इस देश की
एक फीसदी आबादी भी अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा या मुख्य भाषा नहीं मानती। लेकिन देश के सारे साधनों-संसाधनों पर जैसे अंग्रेजी का कब्ज़ा है। अंग्रेजी की इस हैसियत के आगे हिंदी ही नहीं, तमाम भारतीय भाषाएं दोयम दर्जे की साबित होती हैं। इस लिहाज से देखें तो हिंदी नहीं, अंग्रेजी भारतीय भाषाओं की असली दुश्मन है। रोटी और रोजगार के सारे मौक़े अंग्रेजी को सुलभ हैं। सरकारी और आर्थिक तंत्र अंग्रेजी के बूते ही चलता है। पढ़ाई-लिखाई का माध्यम अंग्रेजी हुई जा रही है।
बहुत सारे
हिंदीवालों को यह गुमान है कि हिंदी अब इंटरनेट में पसर गई है। अब तो
हॉलीवुड की बड़ी-बड़ी़ फिल्में भी हिंदी में डब करके दिखाई जाती हैं। इससे
उन्हें लगता है कि हिंदी का संसार फैल रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि ये
हिंदी बस एक बोली की तरह बची हुई है। जिसका बाज़ार इस्तेमाल करता है। ये
तर्क दिया जाता है कि अंग्रेजी हमें दुनिया से जोड़ रही है।.
लेकिन, एक दूसरी हकीकत और भी है। अंग्रेजी ने भारत को दो हिस्सों में बांट डाला है। एक खाता-पीता- अघाता.. इक्कीसवीं सदी के साथ कदम बढ़ाता 30-35 करोड़ की आबादी वाला भारत है, जो अंग्रेजी जानता है या जानना चाहता है और भारत पर राज करता है या राज करना चाहता है। दूसरी तरफ, 80 करोड़ का वो गंदा-बजबजाता भारत है, जो हिंदी, तमिल, तेलुगू या कन्नड़ बोलता है। हिंदी के खाने वाले और अंग्रेजी के गानेवालों को कौन समझाए कि हिंदी भारत को जोड़नेवाली भाषा है।
Friday, March 28, 2014
कंबल ओढ़कर घी पीते है बीजेपी के नेता
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले
बीजेपी का असली चेहरा एक बार फिर सबके सामने आ गया। चाल, चरित्र और चेहरे
का दावा करनेवाली राष्ट्रीय पार्टी के नेताओं ने अपनी हरकतों से एक बार फिर
साबित कर दिया कि वो भी दूसरी पर्टियों के नेताओं की तरह ही सत्ता के भूखे
हैं। इस पार्टी के अंदर भी दूसरी पार्टियों की तरह गुटबाज़ी है। इस पार्टी
के अंदर भी देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की तरह ही वंशवाद का रोग लग
चुका है। इस पार्टी के अंदर भी उन तमाम बड़े नेताओं को हाशिए पर लगाया जा
सकता है, जो व्यक्ति विशेष की आरती या चरण वंदना करने से इनकार कर दे।
हालिया क़िस्सों ने बीजेपी में इन तर्कों को और मज़बूत किया है। चाहे बात
लालकृष्ण आडवाणी की हो, मुरली मनोहर जोशी की हो, लालजी टंडन की हो, जसवंत
सिंह की हो या फिर उमा भारती की।
बीजेपी में जो रोग दशकों
पहले लग गया था, आज तक उसका इलाज नहीं हो सका है। जनसंघ के ज़माने में अटल
बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को जोड़ी ने मिलकर बलराज मधोक और सुंदर
सिंह भंडारी जैसे दिग्गज नेताओं को हाशिए पर डाल दिया। मधोक के मुक़ाबले
युवा आडवाणी ने अनुशासनहीनता का पाठ पढ़ाकर मधोक को चलता कर दिया था। इसी
तरह से बड़े नेता सिकंदर बख़्त ठंडे बस्ते में डाल दिए गए थे। आज भी लगभग
40-45 साल बाद में यही कुछ हो रहा है। दिग्गज नेताओं के मुक़ाबले युवा
नरेंद्र मोदी को आग लाया गया तो पार्टी में भूचाल आ गया। सबसे पहले
लालकृष्ण आडवाणी ने ही विरोध जताया। ये वही आडवाणी हैं, जिन्होंने गुजरात
दंगों के समय मोदी का सबसे ज़्यादा मज़बूती से बचाव किया था। उस समय भी
बीजेपी की गुटबंदी नज़र आई थी लेकिन ये गुटबंदी राजधर्म के पाठ के शोर के
बीच दबकर रह गई थी।
लेकिन इस बार की गुटबंदी
प्रधानमंत्री बनने और सरकार बनाने के दावे के शोर के बीच थमती नज़र नहीं आ
रही। बीजेपी ने और ख़ास तौर पर राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने फैसला
किया कि पार्टी नरेंद्र मोदी का चेहरा आगे कर लोकसभा का चुनाव लड़ेगी। इसका
असर ये हुआ कि सबसे पहले परिवार के ही मुखिया और कभी प्रधानमंत्री के
मज़बूत दावेदार रहे आडवाणी मुंह फुलाकर कोपभवन में चले गए। उन्हें मनाया
गया। इसके बाद फिर फच्चर फंसा। आडवाणी इस बार गांधीनगर से निकलकर भोपाल से
चुनाव लड़ना चाहते थे। शायद उन्हें अहसास था कि अगर बुढ़ापे में चुनाव
जीतना है तो अपने किसी ज़माने के शिष्य नरेंद्र मोदी की छत्र छाया में आना
पड़ेगा, जो उन्हें गंवारा नहीं था। उन्होंने नई चाल चली। भोपाल के अलावा
मोदी के दुश्मन और अपने नए चेले हरेन पंडया के लिए सीट की मांग कर दी।
लेकिन पार्टी में उनकी दाल नहीं गली। न तो उन्हें भोपाल से टिकट मिला और न
ही उनके नए चेले हरेन पंडया को। शायद पार्टी चाहती थी कि भारी मन से ही सही
लेकिन आडवाणी को अहसास हो कि उनकी आज की राजनीति ख़त्म हो गई है। वो
बीजेपी के चूके हुए घोड़े हैं। उन पर दांव लगाया जा चुका है। अब उनकी
राजनीति नई पीढ़ी मोदी और राजनाथ के रहमो-करम पर ही टिकी हुई है। मन मसोस
कर आडवाणी को गांधीनगर से ही लोकसभा का चुनाव लड़ना पड़ा।
ऐसी ही तकरार बनारस में
देखने को मिली। हवा उड़ी कि मोदी वडोदरा के अलावा शिव की नगरी काशी यानी
बनारस से चुनाव लड़ेंगे। ये बात सुनते ही पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और कभी
प्रधानमंत्री के दावेदार रहे मुरली मनोहर जोशी हत्थे से उखड़ गए। क्योंकि
इस सीट से फिलहाल वो चुनाव लड़ते है। लिहाज़ा उन्होंने सीट छोड़ने से इनकार
कर दिया। पार्टी के बड़े नेताओं के बीच अपनी बात बड़े ज़ोरदार तरीक़े से
रखी। लेकिन बुढ़ापे में उनकी आवाज़ नक्कारख़ाने की तूती बन कर रह गई। वो
अपन भड़ास निकालते रहे। साफ-साफ कहते रहे कि वो सीट नहीं छोड़ेंगे। लेकिन
किसी ने उनकी एक नहीं सुनी। थक हार कर उन्हें भारी मन से बनारस को अलविदा
कहना पड़ा।
बीजेपी में केवल बनारस या
भोपाल को लेकर ही झगड़ा नहीं हुआ। लघभघ हर बड़े नेताओं ने गाह बगाहे अपने
दर्द का इज़हार किया। राजनाथ सिंह रहनेवाले पूरब के हैं। सारी ज़िंदगी वहीं
की राजनीति की। 2009 में पूरब में जब गर्म हवा चली तो थपेड़ों से बचने के
लिए भागकर पश्चिमी यूपी के ग़ाज़ियाबाद आ गए। बड़ी मुश्किल से जीते। इस बार
मोदी वहर के बावजूद जीत टेढ़ी खीर की तरह लग रह थी। लेकिन उन्हें ये भी
पता था कि मोदी लहर के बावजूद पार्टी अध्यक्ष चुनाव हार जाए तो करियर ख़त्म
हो जाएगा और आख़िरी समय पर मोदी को लंगड़ी मारने का मौक़ा भी हाथ से चला
जाएगा। उन्होंने सुरिक्षत सीट की तलाश की और नज़र अठल बिहारी वाजपेयी वाली
सीट लखनऊ पर गड़ा दी, जहां से वाजपेयी का खड़ाऊ लेकर लालजी टंडन चुनाव
जीतते हैं। लेकिन टंडन ने एक तरह से बग़ावत ही कर दी। उन्होंने भी सीट खाली
करने से इनकार कर दिया। ख़ूब रोए धोए। लेकिन बड़े बेआबरू होकर सीट से
रुख़सत हो गए।
एक समय में जसवंत सिंह
की पार्टी में बड़ी इज्ज़त हुआ करती थी। वाजपेयी सरकार में वो संकट मोचक
हुआ करते थे। हर आड़े-तिरछे मौक़े पर पार्टी उन्हें आग कर दिया करती थी।
यहां तक कि 2009 लोकसभा चुनाव में पार्टी को जब पश्चिम बंगाल का चुनाव बहुत
कठिन लग रहा था तो उन्हें दार्जिलिंग से चुनाव लड़ने के लिए भेज दिया गया।
वो जीतकर आए। बुढ़ापे में वो इस बार अफने घर बाड़मेर से टुनाव चाहते थे।
अपनी बात उन्होंने साफ साफ पार्टी के बड़े नेताओं को बता दी। लेकिन जवाब
सुनकर उन्हें सांप सूंघ गया। पार्टी ने साफ कह दिया कि उन्हें टिकट नहीं
मिलेगा। क्यों? क्या हार जाते? या पार्टी उन्हें भी आडवाणी के रास्ते पर ले जाना चाहती थी? ख़ैर
पार्टी ने टिकट नहीं दिया। निर्दलीय मैदान में उतरने को मजबूर हुए। सुषमा
ने सबसे पहले अफनी पीड़ा बताई औऱ कहा कि जसवंत सिंह के साथ ऐसा नहीं होना
नहीं चाहिए था। लेकिन वो भी जानती हैं कि नहीं होना चाहिए और होना चाहए में
बहुत फ़र्क़ है। लेकिन आजकल पार्टी में उनकी भी कौन सुनता है?
यही हालत साध्वी उमा भारती
की भी है। महिला हैं। पिछड़ी जाति की हैं। आक्रामक हैं। सत्ता के लिए कभी
अपने भाषणों से आग लगा देने के लिए बदनाम उमा भारती का पार्टी का पार्टी ने
ख़ूब दोहन किया। लेकिन आज उनकी भी बुरी हालत है। उन्होंने भोपाल से टिकट
मांगा तो पार्टी ने झांसी से थमा दिया। वो हल्ला-गुल्ला करती रहीं। लेकिन
किसी ने उनकी नहीं सुनी।
कुल मिलाकर बीजेपी के नेताओं
ने अपनी हरकतों से साफ कर दिया कि वो जिस तीसरे मोर्चे को सत्ता के भूखे
और सत्ता के लिए लड़नेवाले बताते हैं, उनमें और बीजेपी में कोई अंतर नहीं
है। इस पार्टी में भी कांग्रेस की तह वंशवाद है। सत्तालोलुप नेताओं की भीड़
है। पुराने ज़माने के नेताओं के दिन लद गए हैं। ये कांग्रेस नहीं है, जो
अपने पुराने नेताओँ को ढोए। ये पार्टी भले ही कांग्रेस को गाली दे लेकिन
कांग्रेस जैसा अनुशासन इस पार्टी में नहीं है। कांग्रेस में जिसको जहां
टिकट मिल जाता है, वो शीश नवांकर चला जाता है।
Saturday, January 11, 2014
जनता की नज़रों से उतर गए अखिलेश यादव
केवल दो सालों में ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और नौजवान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का जादू उतरने लगा है। सबसे पहले ये तो सरकार अपने धतकर्मों और करतूतों से ही जनता की नज़रों से गिर गई। रही सही कसर नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की आम जनता पार्टी की लहर ने पूरी कर दी। कहां तो प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने वाले अखिलेश यादव ये सपना देख रहे थे कि यूपी में उनका एकछत्र राज होगा तो दिल्ली की गद्दी पर उनके पिता मुलायम सिंह यादव बैठेंगे। लेकिन उनके अरमानों पर पानी फिरते दिखने लगा है और मुख्यमंत्री इसकी खीज मीडिया पर उतारने लगे हैं। हालिया प्रेस कांफ्रेस में अखिलेश यादव की तिलमिलाहट और गुस्से ने इसकी बानगी भी पेश कर दी। ये साबित कर दिया कि हर मोर्चे पर फेल साबित हो रही अखिलेश की सरकार अब अपनी आलोचना को बर्दाश्त करने का भी माद्दा खो चुकी है। दरअसल, अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी की इस बौखलाहट के पीछे कई कारण हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है जिस तरह से दिल्ली में दीगर क़िस्म की राजनीति की लौ दिखाकर आम आदमी पार्टी ने आम लोगों का भरोसा जीता। ठीक उसी तरह से दो साल पहले अखिलेश यादव ने भी यूपी की जनता को सपने दिखाए थे। जनता को भी लगा था कि ये नौजवान वाकई यूपी को बदलने की हसरत रखता है। जनता ने प्रचंड बहुमत के साथ अखिलेश यादव को सत्ता की चाबी सौंप दी। लेकिन सत्ता में आते ही समाजवाद का असली चेहरा एक बार फिर सबके सामने आ गया। यूपी में सरकार के नाम पर केवल यादव परिवार का ही बोलबाला है। सूबे में कहने को तो मुख्यमंत्री है। लेकिन जनता देख रही है कि यादव परिवार के आधा दर्जन लोग सुपर सीएम के तौर पर बर्ताव कर रहे हैं। सरकार भी पहले ही दिन से तुष्टीकरण की सियासत में उलझ कर रह गई। नौसिखिया मुख्यमंत्री को लालफीताशाही ने अपनी चंगुल में जकड़ लिया। रही सही कसर मुज़फ्फरनगर के दंगों ने पूरी कर दी। इस दंगे की आंच में हाथ सेंकने का इरादा रखनेवाली समाजवादी पार्टी के हाथ ही झुलस कर रह गए। इस एक दंगे की वजह से सरकार को कई मोर्चों पर शर्मिंदगी उठानी पड़ी। इस दंगे से पहले तक पार्टी पर मुस्लिमपरस्त होने का आरोप लगता था। सरकार ने इस छवि को भुनाने की कोशिश भी की। दंगे के दौरान उस पर एक तरफा कार्रवाई करने का कलंक भी लगा। लेकिन शरणार्थी शिविरों में ठंड से ठिठुरकर शिशुओं और बच्चों की जब मौत हुई तब सरकार ने ऐसे बयान दिए कि इंसानियत शर्मसार हो गई। सरकार को ये कहने में तनिक भी शर्म नहीं आई कि ठंड से किसी की मौत नहीं होती। ऊपर से पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के बयान के बाद अखिलेश यादव की सरकार के अफसरों ने जिस तरह से डंडे के दम पर शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोगों को उजाड़ फेंका, उससे ये तबका भी नाराज़ हो गया। दूसरा तबका यानी यादव वोट बैंक पहले से ही सरकार की तुष्टीकरण की नीति से नाराज़ चल रहा था। मोदी और केजरीवाल की लहर के बीच अभी मुज़फ्फरनगर कांड की तपिश ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि सरकार की करतूत ने लोगों के ग़ुस्से में घी डालने का काम किया। सरकार ने सैकड़ों करोड़ रुपए फूंककर मुलायम सिंह यादव के घर सैफई में तमाशा कर डाला। कहने को तो इस तमाशे से लोकगीत, लोक संगीत और स्थानीय खेलकूद को बढ़ावा मिलता है। लेकिन ये लोगों की समझ में नहीं रहा कि डेढ़ इश्किया माधुरी दीक्षित के कूल्हे पर थिरक रहे समाजवाद और दंबग सलमान ख़ान के कॉमों में दिखती ‘सरकार’ से किस तरह की लोकसंस्कृति फलेगा-फूलेगा। इस कथित लोकसंस्कृति को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने 300 करोड़ रुपए फूंक डाले। लेकिन राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण के आदर्शों पर चलने का दम भरनेवाली अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार के पास आलोचनाओं को सहने का धीरज भी नहीं बचा है। भरी महफिल में मुख्यमंत्री इस तरह की बातें करने लगे कि मानों जैसे कोई खिसयानी बिल्ली खंबा नोच रही हो। अपनी करनी पर पर्दा डालने के लिए मीडिया पर अपनी खीज उतार रहे हैं। मुख्यमंत्री होकर आरोप लगा रहे हैं कि एक बड़े अख़बार के बड़े संपादक को राज्यसभा से नहीं भेजा तो बदले में आकर उनके खिलाफ ख़बर छाप रहे हैं। शायद मुख्यमंत्री के सलाहकारों और सूचना विभाग ने उन्हें सही जानकारी दी कि अख़बार के मालिक या संपादक होने का अर्थ पत्रकार होना नहीं है। वो व्यापारी भी हो सकता है। एक पार्टी के मुखिया और मुख्यमंत्री ने एक अख़बार के मालिक के साथ समझौता किया था। तो फिर वो पूरी बिरादारी को कैसे आईना दिखा सकते हैं। झुंझलाए मुख्यमंत्री टीवी मीडिया को कोस रहे हैं कि हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज़ में बैठकर इंटरव्यू दिया लेकिन दिखाया नहीं। इन नौसिखिए और अनाड़ी मुख्यमंत्री को राज काज संभालने के साथ साथ मीडिया मैनेजमैंट के गुर सीखने बाकी हैं। जिस पार्टी के मुखिया ने उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर उन्हें बिठाया हो और वही ( मुलायम सिंह यादव) बार-बार सार्वजनिक मंच पर अपने बेटे की सरकार को लानत-मलानत भेजें तो क्या मीडिया इसे दिखाना बंद कर दे? जिस प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मंत्री, सांसद, विधायक और नेता सड़कों पर खुलेआम गुंडागर्दी कर रहे हों और मुलायम सिंह यादव ही ऐसे नेताओं को बाज़ आने की नसीहत दे रहे हों तो क्या मीडिया इसे दिखाना बंद कर दे? लाल- नीली बत्ती की बंदरबांट पर जब अदालत ही कान उमेठे तो क्या इसे मीडिया दिखाना बंद कर दे? सच तो ये है कि जुमा-जुमा चार दिन के मुख्यमंत्री को शासन और राजनीति का ककहरा सीखने के लिए अभी लंबा समय तय करना है। पहले वो अपने परिवार और पार्टी को संभाले। फिर बाद में आकर किसी को नसीहत दें तो शायद जनता उनकी बात पर भरोसा भी करे। वर्ना पहले से ही लालफीताशाही के जाल में उलझे मुख्यमंत्री विवादों के भंवर में उलझ कर रह जाने वाले नेता के तौर पर इतिहास में याद रखे जाएंगे।
No comments:
Post a Comment