सुरेश वाडकर

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Monday, November 17, 2014

 
मुसलमान अपनी लड़ाई भारतीय नागरिक बनकर लड़ें: मदनी
जमीअत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव एवं सांसद महमूद मदनी एक सुलझे हुए नेता हैं. वह स़िर्फ मुस्लिमों की बात नहीं करते, बल्कि पूरे देश के विकास और ख़ुशहाली की बात करते हैं. पिछले दिनों चौथी दुनिया उर्दू की संपादक वसीम राशिद ने विभिन्न मुद्दों पर उनसे एक लंबी बातचीत की. पेश हैं प्रमुख अंश:
आपकी नज़र में इस समय भारतीय मुसलमानों की क्या स्थिति है?
मुसलमान इस समय दोहरे हालात में हैं. भारतीय मुसलमानों की अगर देश के अन्य समुदायों से तुलना करें तो देखेंगे कि वे उनसे पीछे हैं. आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक सभी तरह से. तीनों हालात में वे भारत की उन जातियों से भी पीछे हैं, जो अल्पसंख्यक कहलाती हैं. जब भारत आज़ाद हुआ तो उस समय मुसलमानों की क्रीमी लेयर पाकिस्तान चली गई और लेबर क्लास के लोग रह गए या फिर छोटे किसान-मज़दूर. जब मुसलमानों को यह विकल्प मिला कि जो पाकिस्तान जाना चाहे, जा सकता है और जो भारत में रहना चाहे, वह रह सकता है तो उस समय भी सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की संख्या 6 प्रतिशत थी. सवाल यह है कि आज़ादी हासिल होने और क्रीमी लेयर के पाकिस्तान जाने के बाद भी जब हम 6 प्रतिशत थे तो अब 1.6 प्रतिशत कैसे हो गए? इन 63 सालों के दौरान एक विशेष लक्ष्य के तहत लोगों को उनके जायज़ अधिकारों से वंचित रखा गया. नतीजा यह हुआ कि वह क़ौम जो पहले से पिछड़ी हुई थी, वह इस स्थायी व्यवहार के नतीजे में इस दर्जे तक पहुंच गई, जहां बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि वह अनुसूचित जनजाति से भी नीचे चली गई है और हालत यह हो गई है कि भारत का मुसलमान यह मांग करने पर मजबूर हो गया है कि उसे आरक्षण मिलना चाहिए. हालांकि मैं भी मानता हूं कि आरक्षण समस्या का हल नहीं है और जो लोग यह कहते हैं, वे सही कहते हैं. वजह, नौकरियों के अवसर प्राइवेट सेक्टर में हैं और अगर योग्यता नहीं होगी तो प्राइवेट सेक्टर में जॉब नहीं मिलेगी. मेरा कहना है कि भले ही आरक्षण के बाद नौकरियों में बहुत ज़्यादा फ़ायदा न हो, लेकिन एक मानसिकता को ज़रूर फ़ायदा होगा, क्योंकि लोग शिक्षा हासिल नहीं कर रहे हैं. मुसलमान का बच्चा होटल में बर्तन साफ़ करने लग जाता है, रिक्शा चलाता है, ठेले पर मूंगफली बेचता है या फिर मज़दूरी करता है. यह इस वजह से हुआ कि एक मानसिकता सी बन गई है कि नौकरी तो मिलेगी नहीं. यहां तो जान के लाले पड़े हुए हैं. एक लंबे समय तक लोग दंगों का शिकार होते रहे.
क्या मुसलमान अपनी तकलीफें अन्य वर्गों के साथ नहीं बांट सकते?
जब हम मुस्लिम की हैसियत से बात करते हैं तो हमें यह देखना होगा कि क्या समस्याएं स़िर्फ हमारे साथ हैं, दूसरों के साथ नहीं हैं. मैं हमेशा कहता हूं कि यह तस्वीर का स़िर्फ एक रुख़ है, जो मैंने बयान किया और जो बिल्कुल उचित है. तस्वीर का दूसरा रुख़ यह है कि भारत के मुसलमान ही स़िर्फ वंचित नहीं हैं, ऐसे दूसरे वर्ग भी हैं, जो मौलिक अधिकारों से वंचित हैं. ऐसे में अपनी लड़ाई मुसलमान की हैसियत से नहीं, बल्कि भारतीय नागरिक बनकर लड़ी जानी चाहिए और इसमें दूसरे भारतीयों को भी शामिल करना चाहिए. हम अपनी लड़ाई में उन्हें दावत दें और उनकी लड़ाई में हिस्सा लें.
भारत-पाकिस्तान के राजनीतिक संबंध कैसे बेहतर हो सकते हैं, क्या दोनों की आपसी नाराज़गी का असर मुसलमानों पर पड़ता है?
भारतीय मुसलमानों पर भारत-पाकिस्तान के संबंधों का न कोई असर पड़ता है और न पड़ना चाहिए. अगर रिश्तेदारों की बात की जाए, तब भी मुश्किल से एक करोड़ लोगों के रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं, बाक़ी मुसलमानों पर इसका असर नहीं पड़ता. मैं इसे मुसलमानों के मुद्दे के नहीं, बल्कि दो पड़ोसियों के नज़रिए से देखता हूं. पड़ोसी को बदला नहीं जा सकता. इसलिए दोनों देशों की ज़िम्मेदारी है कि वे शरीफ़, समझदार और ज़िम्मेदार पड़ोसियों की तरह रहें. यह दोनों को मिलकर फैसला करना है और अगर यह ़फैसला दोनों ठीक तरह से कर लेंगे तो दोनों के फौजी बजट के ख़र्चे कम होकर शिक्षा और स्वास्थ्य में लगाए जा सकेंगे. इसलिए दोनों को जल्द से जल्द अपने गंभीर और विवादित मुद्दे हल करने चाहिए.
भारत जब भी पाकिस्तान से आतंकवाद या किसी दूसरे मुद्दे पर बात करता है तो वह कश्मीर का मसला सीधे-सीधे उठा देता है और हमारे संबंध अधिक ख़राब हो जाते हैं…
ऐसा भी कहना ठीक नहीं है कि सीधे-सीधे उठा देता है, लेकिन यह ठीक है कि यह मसला ऐसा है, जो बीच में फंसा हुआ है. इस मसले को भी हल होना चाहिए, आपसी बातचीत से ही यह मसला हल किया जाना चाहिए.
मुसलमानों में हमेशा से एक अच्छे लीडर की कमी रही है और लीडरशिप की भी, आख़िर क्यों?
भारतीय मुसलमानों का स्वभाव दुर्भाग्य से भावनात्मक है. हमारा शोषण राजनीतिक पार्टियों ने एक लंबे समय तक किया है. हमें असुरक्षित होने के एहसास का शिकार भी सियासी पार्टियों ने ही बनाया. इसीलिए हमें भावनात्मक बनाया गया. सियासी लीडरशिप, हमारे संगठन, हमारा मीडिया किसी न किसी तरह इस षड्‌यंत्र के शिकार रहे. हम विकास के बजाय भावनात्मक मुद्दों को वरीयता देते हैं. मुसलमान अगर भावना से ऊपर उठकर 20 सालों के लिए अपना एक एजेंडा शिक्षा को बना लें और इसके अलावा कोई बात न करें और वह भी किसी लिंगीय भेदभाव के बग़ैर, क्योंकि जब मां अनपढ़ होगी तो फिर एक नस्ल कैसे शिक्षित हो पाएगी. इसलिए पूरी क़ौम को एक लक्ष्य बनाना होगा. आधी खाएंगे, रुखी-सूखी खाएंगे, बच्चों-बच्चियों को पढ़ाएंगे. इस पर कोई समझौता नहीं करेंगे, इसके लिए हर क़ुर्बानी देंगे. तब मुसलमानों का शोषण बंद हो जाएगा.
क्या मुसलमानों का कोई ऐसा लीडर है, जिस पर ग़ैर मुस्लिम भी भरोसा कर सकें?
दुर्भाग्य से पूरी मुस्लिम क़ौम ग़ैर मुस्लिमों की नज़र में ऐसी बना दी गई है कि उसे शक की निगाह से देखा जाने लगा है. इसलिए मैं कहूंगा कि यह तो एक ख्वाब है. ख्वाब देखना खराब नहीं है और अगर देख रहे हैं तो ख़ुदा करे, पूरा भी हो जाए.
जमीअत उलेमा मुसलमानों की सबसे बड़ी जमाअत है, लेकिन वह दो हिस्सों में बंट गई. क्या इससे नकारात्मक संदेश नहीं जाएगा?
देखिए दो बातें हैं. पहली यह कि एकता होनी चाहिए, लेकिन किस क़ीमत पर, यह एक मुद्दा है. अगर क़ीमत है सिद्धांतों की तो आप अपने सिद्धांतों को क़ुर्बान करके संगठित हो जाइए तो यक़ीनन यह एकता हर हाल में होनी चाहिए, लेकिन स़िर्फ दो जमाअतों के बीच नहीं, बल्कि सारे मुसलमानों के बीच. अब सवाल पैदा होता है कि जब हम सिद्धांतों के ऊपर बात करते हैं तो क्या हम किसी के साथ एकता कर सकते हैं. अगर सिद्धांत बचाकर कोई संगठित हो सकता है तो वह संगठित हो जाए और उसके लिए जो भी व्यक्तिगत बलिदान दिया जाना चाहिए, वह दे दिया जाए, लेकिन जब कोई व्यक्तिगत मुद्दा न हो तो फिर दो ही रास्ते रहते हैं, सिद्धांतों को क़ुर्बान किया जाए या फिर आदमी को. मौलाना अरशद मदनी साहब मेरे चाचा हैं. मेरी बेटी का निकाह उन्होंने ही पढ़ाया. हमारी जमीअत उलेमा के अध्यक्ष की माता का देहांत हुआ तो जनाज़ा मौलाना अरशद मदनी साहब से ही पढ़वाया गया. यह हमारे बीच के आपसी रिश्ते हैं और मौजूदा अध्यक्ष कारी उस्मान साहब मौलाना अरशद साहब के सगे बहनोई हैं. हमारा मतभेद इस बात पर है कि मौलाना कहते हैं कि कमेटी मुझे हटा नहीं सकती और न मुझसे जवाब-तलब कर सकती है. जमीअत उलेमा कहती है कि कमेटी को अधिकार है कि वह उनसे जवाब-तलब कर सकती है और उनके ख़िला़फ अविश्वास प्रस्ताव भी ला सकती है. यह जमाअत एक लोकतांत्रिक जमाअत है, जिस तरह हमारा देश लोकतांत्रिक है. देश का प्रधानमंत्री सबसे ताक़तवर व्यक्ति होता है. क्या प्रधानमंत्री यह कह सकते हैं कि संसद मुझे नहीं हटा सकती. यही हालत अरशद मदनी साहब की है, वह कहते हैं कि मुझे कार्यकारिणी समिति हटा नहीं सकती. लोग कहते हैं कि चाचा-भतीजे का झगड़ा है. मैं उस वक़्त भी महासचिव था, जब वह कुछ भी नहीं थे. जब जमाअत ने क़ारी उस्मान साहब को अध्यक्ष बनाया तो अरशद मदनी साहब हट गए, मैंने भी इस्तीफ़ा दे दिया. अब से कुछ दिनों पहले तक मैं जमीअत उलेमा में स़िर्फ कार्यकारिणी समिति का सदस्य था. अभी फिर ज़िद करके मुझे महासचिव बना दिया गया. हमारी लड़ाई यह है कि कार्यप्रणाली ऊपर रहेगी या व्यक्ति. आज वह यह मान लें कि जमाअत की कार्यप्रणाली को मानेंगे और जो भी फैसला जमाअत करेगी, उसे स्वीकार करेंगे तो हम उन्हें आज भी सिर-आंखों पर बैठाने के लिए तैयार हैं. जहां तक जमाअत के कमज़ोर होने और बिखरने का सवाल है तो ऐसा नहीं है. जमाअत ने उनके ख़िलाफ़ फैसला करने के ठीक 42 दिनों बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में सभा की. इसके ठीक 32 दिनों के बाद पैलेस ग्राउंड में, जहां जमीअत ने इससे पहले कभी सभा नहीं की. फिर मुंबई के आज़ाद मैदान में, पालमपुर में, देवबंद में और अभी कश्मीर जैसे संवेदनशील विषय पर फिर दिल्ली के रामलीला मैदान में. अगर जमाअत विभाजित हुई होती तो हमने 42 आयोजन किए हैं, वह दो तो किए होते. यह बात ज़रूर है कि काग़ज़ यानी अख़बार में वह हमसे ज़्यादा आगे हैं. उनकी सारी मेहनत इस एक मैदान पर लगी हुई है.
क्या आप कांफ्रेंस आदि के अलावा भी कोई ऐसा काम करते हैं, जिससे क़ौम को फ़ायदा हो?
हम गुजरात में अनाथ बच्चों के लिए होम चिल्ड्रेन विलेज चलाते हैं. गुजरात में ही जमीअत ने 5 हज़ार मकान बनाए उन दंगा प्रभावितों के लिए, जो मुसलमान हैं. जमीअत गुजरात में लड़कियों के लिए टीचर्स ट्रेनिंग चला रही है. हमने लड़कियों की मेडिकल यूनिवर्सिटी के लिए मुरादाबाद हाइवे पर 30 एकड़ ज़मीन ख़रीदी है.
क्या कारण है कि जमीअत के काम सामने नहीं आ पा रहे हैं?
हम प्रचार पर मेहनत नहीं करते हैं, हमारा उद्देश्य काम होता है. यह हमारी कमज़ोरी है.
आप पर भारत के मुसलमान बहुत भरोसा करते हैं. अगर आप अपना मीडिया हाउस शुरू करें तो बेहतर नतीजे सामने आ सकते हैं…
अपना मीडिया हाउस होना चाहिए, यह एक ज़रूरत है. यह काम एक प्रो़फेशनल कर सकता है और वह क्षमता हमारे पास नहीं है, इसीलिए अभी तक नहीं कर पाए, लेकिन तमन्ना है.
अभी आपने सोनिया गांधी से मुलाक़ात की थी, वह किस सिलसिले में थी?
मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है. इस सिलसिले में हम उनसे पहले भी मिले थे कि मुसलमानों को आरक्षण मिले. एक बार फिर हमने उनसे सांप्रदायिक दंगा निरोधक क़ानून लाने और मुसलमानों के आरक्षण के लिए कुछ करने की मांग की है. उन्होंने वादा किया है कि वह अगले सत्र में सांप्रदायिक दंगा निरोधक क़ानून ले आएंगी और आरक्षण के मामले पर भी कार्यवाही करेंगी. हम लोगों ने उनसे साफ़ तौर पर कहा कि इस पर आपको कोई फैसला जल्द से जल्द करना चाहिए.
रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर कमेटी की अनुशंसाओं के हवाले से भी कोई बात हुई?
वह अपनी बात पर पूरी तरह अटल हैं. उन्होंने कहा कि यह अधिकार है और यह होना चाहिए. यह किस तरह होगा, इसके लिए उन्होंने एक कोर ग्रुप बनाया है और शायद उसकी रिपोर्ट भी जल्दी आ जाएगी. हो सकता है कि कोर ग्रुप के साथ हमारी मीटिंग भी हो.
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