सुरेश वाडकर

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Saturday, November 22, 2014

बेसहारा औरतों पर माओवादी जंजीर

बेसहारा औरतों पर माओवादी जंजीर



बिश्वजीत सेन
लेखक



बेसहारा औरतों पर माओवादी जंजीर
बेसहारा औरतों पर माओवादी जंजीर
लैम्बेथ (इग्लैंड) की एक घटना अपने आप में आश्चर्यजनक है. 21वीं सदी के लंदन में दास प्रथा? वह भी एक माओवादी की देखरेख में?
लेकिन यह सचाई है और इस अनोखी दासप्रथा की शिकार तीन बेसहारा औरतें हुईं, जिनमें एक की उम्र 69, दूसरी की 57 और तीसरी की 30 वर्ष बतायी जाती है. वे क्रमानुसार मलयेशिया, आयरलैंड और ब्रिटेन से हैं. ये तीनों कभी माओवादी अरविंदन बालचन्द्रन की विचारधारा की साझी थीं. आज उनका यकीन माओवाद में है या नहीं, इस पर इंग्लैंड के मीडिया ने कोई खुलासा नहीं किया है.
इंग्लैंड की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्‍सवादी लेनिनवादी) की सफाई यह है कि अरविंदन बालचंद्रन तथा उनकी पत्नी चन्दा को वे जुलाई 1974 में पार्टी से निकाल चुके हैं. इकपा (माले) उस दौर की पार्टी है जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन में विभाजन पैदा करने को ही प्राथमिक कर्त्तव्य मान रही थी. जब तक चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अवसर परस्त चेहरा लोगों के सामने उजागर नहीं हुआ, तब तक इकपा की गाड़ी ठाठ-बाट से चलती रही लेकिन धीरे-धीरे चीन के वैचारिक सितारे के साथ-साथ इकपा (माले) का सितारा भी मद्धिम पड़ता गया.
संभवत: उसी दौर में अरविन्दन बालचंद्रन इकपा (माले) से अलग हुए. इकपा (माले) के सदस्य होने के अलावा उन्होंने ‘मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा की अनुयायी मजदूरों की संस्था’ के नाम से एक संगठन भी बनाया था. यह संस्था लैम्बेथ के ब्रिक्सटन की एक दुकान में चलती थी जिसकी दीवार पर माओ की बड़ी सी तस्वीर टंगी होती थी. इस परिसर में एक कम्युन चलती थी, जहां से वे तीन औरतें बरामद हुई, जिन्हें दासों की तरह रखा जाता था. इस मामले की इंग्लैंड के मीडिया में खासी चर्चा है.
मार्क्‍सवादी स्थापना के अनुसार समाज आगे की ओर बढ़ता है, पीछे की ओर नहीं लौटता. माओ-त्से-तुंग ने इसके अतिरिक्त कुछ नहीं कहा है. लेकिन व्यवहार में हमें कुछ और ही देखने को मिल रहा है. लंदन शहर जहां की ‘इम्पीरियल लाइब्रेरी’ में पढ़ाई के पश्चात कार्ल मार्क्‍स ने अपने युगान्तकारी दर्शन की नींव डाली थी, जहां से कम्युनिस्ट आन्दोलन रूपी वृक्ष की सांगठनिक, सांस्कृतिक तथा दार्शनिक शाखाएं फूटीं, वहीं एक सिरफिरे ने तीन बेबस औरतों को लैम्बेथ इलाके के ब्रिक्स्टन मोहल्ले में उन्हें कैद रखा और उनके साथ दासप्रभुओं जैसा बर्ताव किया. इसकी क्या व्याख्या हो सकती है? जाहिर है इसकी व्याख्या उन यांत्रिक तौर तरीकों में निहित है, जिन्हें माओवादी पार्टयिों ने अपनाया और इन तरीकों को अपनाने के क्रम में कम्युनिस्ट आंदोलन का ही बंटाधार कर डाला.
जहां अनुशासन की जगह समर्पण ने ले ली और सवाल पूछने वाले को ‘वर्ग दुश्मन’ करार दिया जाता है. जबकि मार्क्‍सवाद अब तक का सबसे तर्कसंगत और न्यायपरस्त दशर्न है जो किसी कीमत पर मनुष्य को जंजीरों में नहीं देखना चाहता है. लेकिन यह शातिरपन भी मनुष्य में ही होना संभव है, जो ऐसे दशर्न से भी जंजीरें गढ़ने का प्रयास करता है. भारत का नक्सलपंथी माओवादी आंदोलन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है.
इसकी सबसे पहली झांकी दिवंगत कानू सान्याल के संस्मरणों में मिलती है. चूंकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के इशारे पर ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ था, इसलिए कानू सान्याल को अन्य कॉमरेडों के साथ चीन भेजा गया. चीन से लौटकर,  कानू ने चारु  मजुमदार को अपनी चीन यात्रा के अनुभवों से रूबरू कराया. कानू सान्याल ने चारु  बाबू को यह भी बताया कि माओ-त्से-तुंग से उनकी भेंट कराई गई थी. सुनते ही चारु  बोले- ‘माओ को देखकर तुम्हे रु लाई नहीं आई?’ कानू सान्याल को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर माओ को देखकर उन्हें रुलाई क्यों आती! फिर उन्होंने सांस्कृतिक क्रांति का जिक्र किया जो उन दिनों चीन में जोरों पर थी.
सांस्कृतिक क्रांति के कई पक्ष कानू को नहीं जंचे. मसलन चीनी कम्युनिस्टों को सलाह दी जाती कि थी कि भोजन शुरू करने से पहले, किसी नई जगह के लिए रवाना होने से पहले या हवाई जहाज पर चढ़ने से पहले वे माओ की रेड बुक ‘उद्धरण’ अवश्य पढ़ें. कानू सान्याल की राय में रेड बुक धर्मग्रंथ नहीं थी, जिसका उपयोग इस तरह होता. सुनते ही चारू ने कहा- ‘इस निर्देश का पालन धार्मिंक कर्मकांडों जैसा ही करना चाहिए.’
चारु मजुमदार की इस उक्ति को हल्के से लेना गलत होगा. सही मायनों में भारत का नक्सल आंदोलन शुरू से ही एक धार्मिंक पंथ बनने की ओर अग्रसर था. धार्मिंक पंथों में गुरु  प्रभु होते हैं और शिष्य उनके दास. गुरु/प्रभु की बात को तर्क की कसौटी पर रखने की स्वतंत्रता शिष्य/दास को नहीं होती. नक्सल या बाद के माओवादी आन्दोलन में भी इसी परंपरा का अनुसरण किया जाता रहा. नेता से मतभेद रखनेवाले की हत्या मुखिबर कहकर की जाने लगी.
लालगढ़ आन्दोलन में कुछ और ही नजारा देखने को मिला. सिर्फ  कैडरों के दिमाग नहीं, उनके शरीर पर भी नेता कब्जा जमाने लगे. बात यहां तक पहुंच गई कि आदिवासी युवतियों की अस्मत से खेलना नेताओं की आदत बन गई. यहीं से लालगढ़ आन्दोलन में फिसलन आई और आदिवासी समाज माओवादियों से अलग होने लगा. इसके एक नहीं, अनेक उदाहरण हैं. कभी के समर्पित माओवादी शोभा मांडी, जागरी बास्के, राजाराम सोरेन आदि इन्हीं अतिरेकों के कारण माओवादी पार्टी से अलग हुए और संयुक्त सुरक्षा बलों का साथ देने लगे. इसलिए गौर से देखा जाए तो भारत में एक नहीं, अनेकों लैम्बेथ थे और आज भी उनके अवशेष हैं. जहां माओवाद होगा, वहीं दासप्रथा भी होगी, इसे सिद्धांत रूप में मान लेना चाहिए.
अरविन्दन बालचंद्रन के पड़ोसियों का कहना है, बालचंद्रन परिवार का रहन-सहन उन्हें अजीबोगरीब लगता था.
इस बाबत उन्होंने पुलिस में शिकायत भी की थी. पुलिस ने उनकी बात पर टिप्पणी नहीं की है. पुलिस ने क्यों नहीं की टिप्पणी? इस प्रश्न की तह में जाना आवश्यक है, चूंकि अरविन्दन बालचंद्रन की ‘गाथा’ केवल उनकी गाथा नहीं, पश्चिमी सभ्यता की गाथा भी है, जो लोगों को सिखाती है कि वे एक दूसरे से अलग-थलग जीएं, एक दूसरे के मामले में दिलचस्पी न लें, आदि-आदि. अगर ऐसा नहीं होता, तो अरविन्दन का अपराध पहले ही लोगों की नजर में आ जाता तथा उन तीन औरतों को इतने दिनों तक दासता नहीं झेलनी पड़ती. भारत का समाज त्रुटिपूर्ण तथा अव्यवस्थित जरूर है, लेकिन यहां लैम्बेथ जैसी स्थिति सम्भव नहीं है. अगर ऐसी स्थिति पैदा हुई भी, तो उसके विरुद्ध जन आन्दोलनों का तांता लग जाता है.
लैम्बेथ की घटना माओवादियों के वैचारिक दिवालियेपन का ऐसा उदाहरण है जिसकी अधिक व्याख्या करने की जरूरत नहीं है. इस उदाहरण से मानव-मन की जटिलता का आभास होता है और यह समझ भी बनती है कि किसी विचारधारा का जामा पहन लेने से ही मनुष्य पाक-साफ नहीं हो जाता. वैचारिक शुद्धता लम्बे संघर्ष के बाद मिलती है. इस संघर्ष के दौरान ‘अहं’ को पूर्णरूपेण समाप्त कर देना होता है. स्वयं को समाज रूपी शरीर की इकाई के रूप में देखना होता है, तब जाकर वर्ग-विहीन समाज साकार हो सकता है, जिसका सपना कार्ल मार्क्‍स ने देखा था.
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